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सिरि भूषलय
सर्वार्थ सिद्धि संघ बैंगलोर-दिस्ती
और यह स्वस्तिक रूप भी है । यदि यह सिद्ध हो जाय तो सदैन अपनी रक्षा । भवलय से ही इसका अर्थ ठीक होता है । २४ भगवान के चिन्ह को लिया भाव कर लेता है ।८३।
! तो भगवान महावीर का चिन्ह 'सिंह' है इसलिए चौबीस लेना, इस श्लोक को व्यवहार और निश्चय यह दोनों नय मिश्रित होकर एक ही काव्य में बता दिया । शातिनाथ भगवान का चिन्ह हरिण होने से गंधक १६ है । शीतल प्रवाह रूप होकर वृद्धि को प्राप्त होनेवाले चतुर्थी के चन्द्रमा की किरणों के १ भगवान का चिन्ह 'वृक्ष' होने से नवसार दस तोला है। इस गणित का समान, साथ साथ प्रवाह रूप में आगे बढ़ता जाता है।४।
। नाम 'हरशंकर गरिणत' है। ऐसा कुमुदेन्दु प्राचार्य ने कहा है ।। मन और प्राण दोनों एक समान रहनेवाले को करिमकर स्वरूप कहते । [श्लोक नं० ८८ से श्लोक नं० ११४ तक ऊपर कहे अनुसार वर्णन हैं । अर्थात् हाथो और मगर के समान रहनेवाल को कहते है। मन और प्राण किया जा चुका है। ] दोनों एक रूप में होकर रहनेवाले द्विधारा शस्त्र के समान स्याद्वाद रूप में दीक्ष दिगम्बर जैनाचार्यों ने बहिरंग में गोचरी वृत्ति पुद्गलमय अन्न ग्रहण पड़ता है। इस प्रकार यह जिनेन्द्र भगवान की बाणी में दीख पड़ता है। । करते हैं। और अंतरंग में अपनी श्रीचर्या अर्थात् अपनी ज्ञानचर्या में ज्ञान रूपी
"करो कथंचित् मकरी कथंचित, प्रख्यापयजन कथचिदुतिम्" अर्थाद । अन्न को ग्रहण करने हैं। इसी तरह गडवेस्क' अर्थात् दो सिखाना पक्षी भी एक तरफ हाथी का मुंह और दूसरी तरफ देखा जाय तो मगर का मुह, इसी ग्रहण करता है। [इस पक्षी का चिन्ह मैसूर राज्य का प्रचलित राज्य चिन्ह का नाम 'कथंचित्' है। यह "कथंचित्" वाक्य जिनेन्द्र भगवान् का वाक्य है)।१५।। है ।२५
३ गोचरी मौर श्री चर्य ये जिनके वंश नहीं है उनका मन भैस के समान कल्प वृक्ष एक क्षण में जैसे दस प्रकार की वस्तु को एक साथ ही देते । सूस्त रहता है। उस सुस्त भाव को बतलाने के लिये भंस के चित्र को लांछन है उसी प्रकार पारा और गंधक से बनी हुई रस रूपी बनोषधि अनेक फल । म्प में बताया गया है ।११६॥ एक ही साथ देती है। वैसे ही द्रव्य मन को वद्ध रूप कर दिया जाय तो एक क्षण हमारे अंतरंग में प्रगट हुई दर्शन शक्ति को लेकर और शास्त्र रूप में में अनेक विद्याओं को साध्य कर देने योग्य बन जाता है । इसी प्रक्षर से सभी । बनाकर लिखने का जो कार्य है, यह कार्य जिनके अन्दर जिनेन्द्र भगवान होने विद्यानों को निकालकर ले सकते हैं । गोचर वृत्ति से आहार को लेकर अन्त में की शक्ति प्रगट हुई है केवल वे ही इस शास्त्र की रचना कर सकते हैं, अन्य भुनि देह च्युत होकर स्वर्ग में अपने कंठ से निकले हुए अमृतमय से प्राप्त होकर कोई नहीं। इस बात को बतलाने के लिये सूभर के चिन्ह को यहां दिखाया घायु के अवसान में वहां से च्युत होकर इस भरत खंड में प्रार्यकुल में जन्म है।११७ सिया, । उन लोगों (महात्मानों) न इन कल्प विद्याओं को २४ भगवान जिस जिनेन्द्र देव ने शूकर चिन्ह को प्राप्त किया है, यदि उस चिन्ह के वाहन (चिन्हों) का गुण करते हुए आये हुये लब्धांक से अक्षर बनाकर की महिमा को यत्नाचार पूर्वक समझ लें तो वह हमारी रक्षा करके अनेक इस विद्या को प्राप्त कर स्वपर हित का साधन कर लेता है।
प्रकार की विद्यानों को प्राप्त करा देता है। द्रव्य सूत्र के अक्षर किसी कल्पयहां ऊपर भूवलय के चतुर्थ खंड में प्राये प्राण वायु पूर्व के प्रसंग को। सूत्र से आये हुए नहीं हैं, ये तो अनन्त रागियों से निकले हैं। प्रत्येक आकाश उद्धत करते हैं।
प्रदेया में अमूर्त और रत्नराशि के समान रहने वाले काल द्रव्य असंख्यात हैं। "सूतं केसरगंधकं मृगनवा सारद म मदितम्" ।
उस पसंख्यात राशि के प्रत्येक कालाशु में अनादि कालोन कथन है धौर अनन्त अर्थात् पारा २४, सोला, गंधक १६ तोला, नवसार १० तोला इस काल तक ऐसा हो चलता रहेगा । अब एक कालाणु में इतनी शक्ति है तो उन प्रकार इसका मर्य होता है। इसका अर्थ कोई वैध ठीक नहीं कर सकता । सब शक्तियों को दर्शन करने की शक्ति श्री जिनेन्द्र देव हमें प्रदान करें।