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________________ ग्यारहवां अध्याय यह मूवलय सिद्धान्त रूपी द्रव्यागम मो है और अरूपो द्रव्यागम भी। समस्त संसारी जोवों में बुधा-तृषा आदि अठारह दोष हैं। इन सबकी इसलिए इसकी रचना मंक पद्धति रूप से की गई है ऐसा होने से अक्षर में ग्रंक गणना करनेवाला यह गणिल शास्य है ।११। मिलाने की शक्ति उत्पन्न हुई। अंक और अक्षर दोनों भगवान के दो चरण श्री जिनेन्द्र देव ने धर्म के साथ सद्धर्म को जोड़कर उपदेश दिया है। स्वरूप हैं और वही यह भूवलय है ।।। उस सद्धर्म के स्वरूप की गणना करनेवाला यह गणित शास्त्र है ।१२। श्री ऋषभनाथ भगवान के समय में सर्व प्रथम अतिशय मंगल पर्याप्त अगणित पुण्यराशि की भी गणना करनेवाला यह गरिणत शास्त्र रूप से पक और अक्षर का सम्मेलन हा । तत्पश्चात् दोनों के संघर्षण से है।१३।। जो नादब्रह्म (शब्द ब्रह्म) प्रकट हुआ वही जीव द्रव्य का ज्ञान है और सभी भगवान का केवल ज्ञान अनन्तानन्त है अर्थात् भगवान में अनन्तानन्त जोवों को इसी ज्ञान की साधना करनी चाहिए, क्योंकि यह दामातम गोग है जोबादि पदार्थों को देखने तथा जानने की अद्भुत शक्ति होती है । उन सबको उस अंकाक्षरी विद्या को योगी जन प्रत्यक्ष रूप से देखते हैं; किन्तु अलौकिक गणित से गिनने वाला यह गरिणत शास्त्र है ।१४॥ सामान्य जन भूवलय रूप उस ज्ञान निधि का स्वाध्याय करते हैं । तदनन्तर जैन । अठारह प्रकार के दोषों की गणना को गुणा करके सिखानेवाला यह धर्म का समस्त तत्त्व अपने अपने स्वरूप से प्रत्यक्ष हो जाता है। इस प्रकार गरिगत शास्त्र है।११ धन विद्या साधन रूप महायोग है ।३। इसी प्रकार की जिनेन्द्र देव द्वारा कहे गये सद्धर्म को भी गुणा करके सुर, नर, किन्नर तथा ज्योतिष्क लोक के पन स्वरूप को, उस लोक में | सिखलानेवाला यह गरिएत है ।१६ रहनेवाले कृत्रिम-अकृत्रिम श्री जिनेन्द्र देव के देवालय तथा जिनबिम्ब इन सबको यह गरिणत शास्त्र स्वयमेव उपार्जन किये हुए पुण्य की गणना सिखाने अङ्क गणना से योगी जन यथावत देखकर ठीक ठीक जान सकते हैं ।४। ।वाला है ।१७। समस्त दोषों के नाशक विदेह क्षेत्र में रहनेवाले श्री सीमन्धर स्वामी का भगवान जिनेन्द्र देव द्वारा प्रतिपादित चारित्र की गणना करनेवाला दर्शन करके, अतिशय पुण्य कर्मराशि का संचय करके तथा निरन्तर श्री। यह गरिणत शास्त्र है ।१८। जिनेन्द्र देव का भजन करके योगी जन मंगल पर्याय रूप बन जाते हैं । । अठारह प्रकार के दोषों के विनाश होने से जो गुण उत्पन्न होता है यह भूवलय ग्रन्थ भगवान के अतिशय पुण्य का गान करने वाला है ।६। उन सबकी गणना करनेवाला यह गरिणत शास्त्र है ।१९। इस सिद्धान्त अन्य के स्वाध्याय से शनैः शनैः समस्त पापों का नाश हो। सद्धर्म पालने से जितने पात्मिक गुरमों की वृद्धि होती है उन सबका जाता है ।। शान करानेवाला यह गणित शास्त्र है ।२०। इस सद्ग्रन्थ का उपदेश श्री जिनेन्द्र भगवान ने स्वयं अपने मुख कमल यह गणित शास्त्र समस्त ज्ञान-विज्ञान-मय शब्द कोष से परिपूर्ण से किया है । है ॥२१ भगवद्भक्ति से उपाजित हुई पुण्य राशि की गणना विधि को सिखलाने । यह गणित शास्त्र अंतरंग चारित्र को बतलानेवाला है ।२२। वाला यह गम्गत शास्त्र है। यह चारित्र में आनेवाले दोषों को हटा देने वाला है ।२३॥ भगवान की भक्ति का जितना मंक है वह भी सिखानेवाला यह गणित यह भगवान के द्वारा प्रतिपादित सद्धर्म मार्ग में सभी को नागानेवाला
SR No.090109
Book TitleSiri Bhuvalay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvalay Prakashan Samiti Delhi
PublisherBhuvalay Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Principle
File Size10 MB
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