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सिरि भूवलय
सवार्थ सिद्धि संघ, बंगलोर-दिल्ली
गुणस्थान के अन्त में चिन्मय सिद्ध स्वरूप है. ऐया भूवलय सिद्धान्त का कथन, तब विलक्षणपरिणामन सहित सरम संपत्ति के द्वारा उसके हर को बढ़ाने है। इस प्रकार अनुभव होने के बाद अपने शरीर को पर मानते हुये उसे त्याग। वालो काय लब्धि प्राप्त होने से उस अन्तरात्मा को करण लब्धि होती है। देने के पश्चात् श्री जिनेन्द्र भगवान् तथा मिद्ध भगवान के स्वरूप को अनुभव करण लब्धि भेदाभेद रलवयात्मक रूप मोक्ष मार्ग को दिखाती है, अपने प्रात्म में बढ़ते जाने से ऐसा प्रतीत है कि "इस ग्रात्म का रूप हो मेरा तथा सकल कर्मक्षय के लक्षण स्वरूप मोक्ष को दिखलाती है और मागे शरीर है" ||२५, २६॥
। अतीन्द्रिय परम ज्ञानानन्दमय मोक्ष स्थल को अनेक नब निक्षेप प्रमारणों से खिदा इस प्रकार जब प्रात्मरत योगी की भावना सिद्वात्मा में सुदु हो पाता।
, देती है । उसे करण लब्धि कहते हैं ! वह करण तीन प्रकार का है:ह तब आने वाला कर्मास्त्र तथा वंच रुक जाता है। तत्पचात् वह निराकुल होकर
अधः प्रवृत्ति करण, अपूर्व करण तथा अनिवृत्ति करण । प्रत्येक करण भगवान के चरमा कमल के नीचे सात कमल को माला रूप में जब प्रपन हृदय में
२ का समय अन्तमुहूर्त होता है। उस अन्तमुहर्त में पहले की अपेक्षा दूसरा संख्यात धारण करके देखता है तब अरहन्त भगवान के गुणाकार द्विगुण वृद्धि को प्राप्त
गुण हीन काल होता है जो कि अल्प समय में ही अधिक विशुद्धि को प्राप्त कर लेता है ॥२७॥
होता है और प्रधःप्रवृत्ति करण से प्रति समय अनन्तगुरण विशुद्धि रूप धारण सब विविध भाँति के चित्र विचित्रित अद्भुत परिणामों के माथ सरस संपत्ति उस योगी के हृदय में हर्ष को बढ़ाने वाली काललब्धि जब प्राप्त हो
करते हुये अन्तर्मुहुर्त तक चला जाता है अर्थात् पहले समय में जितनी विशुद्धि जाती है तब उम अन्तरात्मा अर्थात् उस योगी की अन्तगत्मा को परिणाम
प्राप्त हुई थी उससे अनन्त गुणी विशुद्धि दूसरे समय में प्राप्त होती है । लब्धि होती है ॥३०॥
अधःप्रवृत्ति करण प्रत्येक समय में अनन्तगण विशुद्धि करता हुआ निरन्तर विवेचन :
अन्तमुहर्त काल पर्यन्त चला जाता है। वहां पर होने वाली विशुद्धि असंख्यात श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य जी ने इस भूवलय के "चतुर्य" अध्याय में २७ लोक प्रमाण गणना का महत्व रखती हुई चरम काल पर्यन्त समान वृद्धि से होती वें श्लोक से लेकर ३० वें श्लोक तक इस प्रकार विवेचन किया है कि जब जाता ह जिनेन्द्र देव तथा सिद्ध भगवान के स्वरूप का अनुभव बढ़ता जाता है तब याने
प्रश्न-लोक तो एक ही है, फिर असंख्यात लोक को कल्पना कैसे हुई? आत्म रूपी शरीर में रत हो जाता है । तब सना में रहने वाले कर्म स्वयं पिघल उत्तर-एक परमाणु के प्रदेश में अन तानन्त जीव रहते हैं। उन अनन्त जाते हैं और बाहर से याने वाले नये कर्म रक जाते हैं। तत्पश्चात् निगकुलता
जीवों में से एक जीव के अनन्तानन्त कर्म होते हैं। ये समस्त जीव और अजीव उत्पन्न करने वाल ७ कमलों की माला के समान जब अपने हृदय में योगी। एक परमाणु प्रदेश में भी रहते है । एक परमाणु प्रदेश में इतने ही जीव और देखने लगता है तब अरहन्त भगवान के चरण के नीचे सान कमलों के द्वारा ग्रजीव समाविष्ट होने से असंख्यात परमाणु प्रदेशात्मक इस लोक में अनन्तानन्त अपने शुभ परिणामों को द्विगुण २ वृद्धि प्राप्त कर लेता है वह द्विगुण इस पदार्थ रहने में क्या पाश्चर्य है ? अर्थात् असंन्यात लोक प्रमाण हो सकते हैं। प्रकार है:
स्थिति बंधापसरण का कारण होने से इस करण को अधःप्रवृत्ति २२५४२२५
। करण कहते हैं । यहां पर भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम समान भी होते ११२५
है। तदन्तर यहां से ऊपर अपूर्वकरण नामक करण होता है । उस करण में
प्रति समय में असंख्यात लोक मात्र परिणाम होते हैं। जोकि कम से समान ५०६२५
1 संख्या से बढ़ते हुए असंख्यात लोक मात्र हुया करते हैं । जोकि स्थिति
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