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सिरि स्वलय
सर्वार्थ मिति संघ बैंगलोर-दिल्ली बंधापसरण, स्थिति काण्डकघात, अनुभाग काण्डकघात, गुणसंक्रमण और गुग । अब हम अन्तरात्मा पद से परमात्मा बन गये ॥३७।। श्रेणी निर्जरा इत्यादि क्रिया करने का कारण होते हैं।
अब हमें सच्चा पंचपरमेष्टी का पद प्राप्त हो गया ॥३८॥ वहां से ऊपर अनिवृत्तिकरण में प्रति समय एक ही परिणाम होता है।। सम्पत्ति के दो भेद है। (१) अन्तरंग सम्पत्ति (लक्ष्मी) और (२) स्थिति बंधापसरणादि क्रियायें पहले की भांति होती हैं । उस करण के अन्तिम
। वाह्य सम्पत्ति (लक्ष्मी)। धन गृह, वाहन इत्यादि से लेकर समवसरण पर्यन्त समय में होने वाली क्रिया को देखियः --
समस्त वस्तुयं बहिरंग सम्पत्ति (लक्ष्मी) तथा ज्ञान, दर्शनादि अनन्त गुणों वाली चारों गतियों में से किसी भी गति में जन्मा हुमा गर्भज, पंचेन्द्रिय, नंज्ञो ।
। अंतरंग सम्पत्ति (लक्ष्मी) है। इन दोनों सम्पत्तियों को प्राकृत पौर कानड़ी पर्याप्तक सर्वविद्धि वाला जागृत अवस्था में रहते हये जीब प्रज्वलित होने
भाषा में 'सिरि' और संस्कृत, हिन्दी इत्यादि में श्री कहते हैं। लौकिक काव्य वाली शुभ लेश्या को प्राप्त होकर, ज्ञानोपयोग में रहने वाला होकर अनिवृत्ति
की रचना के प्रारम्भ और आत्म-द्धि के प्रारम्भ में या दीक्षा के प्रारम्भ में करण रूप शक्ति को प्राप्त होता है वह शक्ति बखदंडकघात के समान घात। सिरि' और 'श्री' शब्दों का प्रयोग मंगलकारी मान कर किया जाता है। कहा किये हुये संसार दुर्ग रूपी मिथ्यात्वोदय को अन्तम एनं काल में विच्छेद कर। सम्यग्ज्ञान लक्ष्मी के संगमोचित सम्यक्त्व रत्न को प्राप्त होता है। सम्यक्त्व
आदी सकार प्रयोगः सुखदः" । अर्थात् आदि में सकार का प्रयोग प्राप्ति का शुभ मुहुर्त यही है।
मुखदायक होता है । 'सिरि' और 'श्री' ये दोनों शब्द हमें आत्म ज्ञान रूप में उस अन्तर्मुहुर्त के प्रथम समय में पापान्धकार को नाश करने के लिए उपलब्ध हुये हैं, ऐसा के योगी चिन्तन करते हैं ॥३६॥ सूर्य, सकल पदार्थों को इच्छा मात्र से प्रदान करने वाला चिन्तामणि, कभी भी । मंगल चार प्रकार के होते हैं। [१] परहंत मंगल, [२] सिद्ध मंगल, युन न होने वाला, संवेगादि गुण की खानि ऐसा सम्यक्त्व होता है। पीर तब [2] साधु मंगल, (४) तथा केवलि भगवान परणीत धर्म मंगल ।।४।। सम्यग्दर्शन हो जाने से संसार से मुक्त होने को स्वयं परहन्त देव स्वरूप बह ऊपर कहा हा जो भगवान का चरण है वही परमात्म-चरण रूप अंतरात्मा अपने को मानता है ।।३।।
भूवलय है ।।४१॥ अनादि काल गे आज तक अनन्त जन्म-मरण धारण किये और प्रत्येक । अपने आप के द्वारा प्राप्त किए जाने वाले तथा उस कार्य में रहने वाले जन्म में अनित्य जयन्तियां (वर्ष बदनोत्सब) मनाई । परन्तु आज से (करए। आनन्द से शासित जो प्रात्म रूप सुख है वह अपने आत्म ज्ञान-गम्य है, अन्य लब्धि हो जा पर) नित्य जीवन की प्रथम जयन्ती ( वर्ष वर्द्धन महोत्सव ) कोई जानने में अशक्य है ॥४॥ प्रारम्भ हुई, जो अनन्त काल पर्यन्त उत्तरोसर विजय देती हुई स्थिर रहेगी। वही शिब है वही शाश्वत है, निर्मल है, नित्य है और अनन्त भव को इतना ही नहीं मब, संसारी जीव भी इसका जयगान करते हुये वर्षवर्द्धन महो- नष्ट करने वाले. अविरल सुख सिद्धि को प्राप्त किया हुआ महादेव है। वही त्सव मनाते रहेंगे ।।३।।
। अनादि मंगल स्वरूप है।॥४३॥ इस प्रकार नित्य सुन्वानुभव के प्रथम वर्ष प्रारम्भ होने के पश्चात् अपने । वह ऋद्धि इत्यादि की आशा न करने वाला चिन्मय रूप है । अत्यन्त आत्मा में ॥३३॥
निर्मल शुद्धात्मा को प्राप्त हुमा बुद्धि, ऋद्धिधारी, उपाध्याय और साधु परमेष्ठी कों का मैं स्वयं गुरु बन गया, ऐसा चिन्तन करता है ॥३४॥ 1 है। यही शुद्ध सम्यक्त्व का मार है ॥४४॥ मैंने अपने अन्दर अरहंत भगवान को देख कर पहिचान लिया ॥३५॥ है वह यही मेरी शुद्धात्मा बीतराग, निरामय, निर्मोही है। समस्त प्रकार में समस्त परभाव रूप अशुद्धियों से रहित परम् विशुद्ध हूं ॥३६॥ । के भय और चिन्ता से रहित है । संसारी भव्यजन के लिए इहलोक और परलोक