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________________ सिरि भूवलय सडॉर्थ सिद्धि संघ गोर-दिल्ली के मुख का साधन है, पवित्र है, पुण्यमय है तथा उत्तम सौरूप को देने के लिए, उसी तरह छिलके से भिन्न उडद को दाल के समान अत्यंत परिशुद्ध आश्रयदाता है ॥४॥ अपने प्रात्मा में रत होते हुए ॥६॥ राग, द्वेष, क्रोध, मोह आदि से रहित है, क्रोध, मान, माया लोभ जो भगवान जिनेश्वर के समान निश्चल योग में स्थिर होकर बेठ अनन्तान बन्धी की चौकडी है उससे रहित तथा अन्य प्रत्याख्यान अप्रत्याख्यान, जाता है ॥३॥ संज्वलन इत्यादि कषायों के भेदों से रहित पाप अपने अन्दर ही अनुभव किया। इस प्रकार योगी अपने योगानं में जिस समय रत रहता है उस समय हा शुद्धात्म काव्य नामक गिरीर अर्थात् सिद्ध भगवान का यह भूवलय ह॥४६॥ यामाहा हो मिटालय को प्राप्त हो जाता है अर्थात में इस समय यही भगवान की दिव्य वारणी है ।। ४७ ॥ 1 शुद्धस्वरूप हूँ और अन्य किसी स्थान में नहीं हूं। शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर प्रत्याख्यानावरण नामक ।। ४% 11 । मैं सो सिद्धालय में विराजमान हूँ ॥६॥ कषाय के ढेर को ।। ४६॥ उस सिद्धालय के अनन्त ॥६॥ भस्म करते आये हुए प्रत्याख्यान ।। ५०॥ संयम को न घातने वाला सूक्ष्म संज्वलन कषाय है ॥५१॥ राशि के तुल्य यह सिद्ध भुवलय है ॥६६॥ वह निर्मल जल रेखा के समान है ।। ५२ ॥ इस भूवलय में रहने वाले समस्त ६ द्रव्य पंचास्ति काय सप्ततत्त्व ऐसे निर्मल जल के समान उज्ज्वल कपाय के मन्दोदय-वाने पात्मा-1 नौ पदार्थ नामक वस्तुओं को मिलाकर गणित के अनुसार जानने वाला परमात्म नुभव में मग्न होते हैं ।। ५३ ।। स्वरूप जोव ही गणित है ॥६७-६८॥ अपने मात्मा के अन्दर हमेशा रमण करते हैं ।। ५४ 11 दर्शन, ज्ञान, चारित्र, इन तीनों को मिलाकर संकलित कर मुरणा करते प्रति समय में अपने प्रात्मा के अन्दर ॥५५॥ से अर्थात् ३ x ३ =tx३%= २७ इस तरह करने से २७ अंक प्राता है । ६६॥ कषाय राशियों के ढेर को ॥१६॥ इस भुवलय सिद्धान्त के ६ द्रव्य, ५ अस्तिकाय. ७ तत्व, ६ पदार्य इन नाश करते हुए पाता है कि ॥५७।। सभी को मिलाकर पाया हुआ जो २७ है यही श्री भगवान महावीर की वाणी जसे निर्मल जल रेखा के समान ।।५।। के द्वारा गाया हुआ यह मंगल काव्य है। तीनों लोकों के प्रय-भाग में अनन्त, तब अत्यन्त निर्मल शुद्धात्म-स्वरूप अपने अन्दर जैसे निर्मल गंगा का ! अनागत काल तक हमेशा प्रकाशमान होने वाला वह शिवलोक प्राप्त करने पानो अपने घर में आकर पाइप के द्वारा प्रविष्ट होता है और पीने योग्य होता वाला मानव धवल छत्राकार के अग्र-भागमें अगुरुलघु प्रादिप्रत्यंत अमृतमय शुद्धात्म है उसी प्रकार जैसे-जैसे कपाय ढेरों का उपभम होता जाता है वैसे ही अपने गुणों में चिरकाल पर्यन्त बास करता है । इसी प्रकार मेरी शुद्धात्मा मो घवल अन्दर आकर निर्मल शुद्ध भाबों का प्रवेश होता है ।।५।। छत्राकार के मध्य में अगुरुलघु सहित अत्यन्त अमृतमय मिद्धात्मा के गुणों में तब उसी समय उस योगी को भेद-विज्ञान प्राप्त होता है। यानी सम्पूर्ण । विराजमान है ।।७०-७१॥ पर-वस्तुपों से भिन्न तथा अपने शरीर से भी भिन्न विज्ञानमय प्रात्मानन्द सुग्न । विवेचन-मोक्ष मैं परमात्मा के अगुरुलघु नामक एक गुण है, यह गुण स्वरूप का अनुभव बह जीव प्राप्त कर लेता है ।।६।। पारमा का स्वभाविक गुण है, इस गुरग के बल से प्रारमा नीचे नहीं गिरता तब उस समय प्रात्म-ध्यान-रत योगी जैसे उड़द के ऊपर के छिलके है और सिद्ध लोक से बाहर अलोक आकाश में भी नहीं जाता है। इस प्रकार को अलग कर देता है ।।६।। 1 इस अगुरुलघु गुण का स्वभाव है। यह अगुरुलघु नामक जो गुण है पात्मा के
SR No.090109
Book TitleSiri Bhuvalay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvalay Prakashan Samiti Delhi
PublisherBhuvalay Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Principle
File Size10 MB
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