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________________ चौथाअध्याय यह भूवलय प्रात्मा के लिये इष्ट उपदेश है, यह प्रष्ट कर्म को नष्ट करने तत्पश्चात् शीतल चन्द्रमा के समान प्रात्म-ज्योति बढ़ती जाती है।॥१०॥ वाला है। अर्हन्त भगवान की लक्ष्मी को प्रदान करने वाला और प्रष्ट गुणों से तब आत्मज्योति पूर्ण रूप से प्रकाशित हो जाती है ||१|| युक्त सिद्ध परमेष्टियों में सदा स्थिर रहने वाला अष्टम जिन (चन्द्रप्रभ) सिद्ध ऐसा हो जाने पर यह अपने को आप ही ब्रह्मस्वरूप अनुभव करने लगता काव्य है।॥१॥ है |१२|| श्री वृषभ देव ने जब यशस्वती देवी के साथ विवाह किया उस समय इम प्रकार अनुभव करते हुए जव विशुद्ध जैन धर्म का अनुभव आता का यह काव्य है और शरीर अवस्था अर्थात् मुक्ति अवस्था प्राप्त कराने वाला है॥१॥ यह काव्य है। तब अनादि काल से प्राप्त ऋण रूपो शरीर को भूल जाता है |१४|| यह ऋषि वंश का आदि स्थान भूवलय हे ॥२॥ गणना में न आने वाले अध्यात्म को ॥१५॥ यह तीन काल में होने वाले सामायिक को बताने वाला, उन बीर जिनों आप स्वयं महान् प्रतिक्रमण रूप होकर ॥१६॥ के मार्ग का अतिशय अनुभव करा देने वाला सार भव्यात्मक काव्य है ।।३।। चिन्मय अर्थात् चित्स्वरूप मुद्रा प्राप्त होती है ।।१७।। स्वशुद्धात्मा के कथन रूपी अक्षर को जानकर उसी शिक्षा के द्वारा मन ! तत्पश्चात् उपयुक्त सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र रूपो रल की ज्योति प्रगट और पांचों इन्द्रियों को लक्षण से स्थिर करके स्वशरीर को भूलकर "भगवान हो जाती है ॥१८॥ जिनेन्द्र येव के नमान में स्वयं हूं" ऐसी महान् विद्या का अनुभव होकर निजमन तब वह ज्योति अपने पास पहुंचकर स्वयमेव अपनी पारती करती ही भगवान के लिये सिंहासन स्वरूप प्रतीत होता है और मेरी आत्मा भगवान् । है ।।१६।। जिनेश्वर के समान हृदय रूपी पद्मासन पर विराजमान होकर सुशोभित हो रही। ऐसा होते हो मन्मथ रूपी पटल पिघल जाता है ॥२०॥ है ।।४, ५॥ मन्मथ रूपी पटल पिघलने के बाद जिस प्रकार भगवान् जिनेन्द्र देव को जिम प्रकार भगवान जिनेन्द्र देव समवशरण में अष्ट महा प्रातिहार्य तथा संपूर्ण भूवलय दिखाई देना है उसी प्रकार उम आत्मरत योगी को सकल भुव३४ अतिशयों से समन्वित होकर प्रशान्त मुद्रा से विराजमान हैं उसी प्रकार | लय दिखाई पड़ता है ।।२१।। मेरी प्रात्मा भी हृदय रूपी पद्मासन पर विविध प्रकार के वैभव से सुशोभित हो तब अपने शरीरस्थ प्रात्मरूपी भुवलय में समस्त मुबलय दिखाई पड़ता रहो है ।।६।। । है ॥२२॥ इसी प्रकार मेरी प्रात्मा जिनेन्द्र देव के समान कायोत्सर्ग में वही इस प्रकार विचार करके अपनी प्रात्मा के निकट विराजमान हये योगी है (१७॥ को |॥२३॥ कायोत्सर्ग में किसके बल से बड़ा है? वहाँ शरीर स्व-समय सार है ॥२४॥ कायोत्सर्ग में होने वाले ३२ दोषों से रहित निरन्तर सिजात्मा के जिस प्रकार : अंक के ऊपर कोई दूसरी संख्या न होने से ६ को परिअभ्यास के बल से योगी खड़ा है ।।।। पूर्ण अंक माना जाता है उसी प्रकार शुद्ध गुण अवयवों से सहित शुद्ध पात्मा जैसे जैसे अभ्यास बढ़ता जाता है वैसे वैसे योग भी बढ़ता जाता है भी परिपूर्ण है । वही परिपूर्ण शुद्धावस्था सिद्ध पद में है। वह सिद्ध पद चोदह
SR No.090109
Book TitleSiri Bhuvalay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvalay Prakashan Samiti Delhi
PublisherBhuvalay Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Principle
File Size10 MB
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