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सिरि भूवलय
श्रो
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शु गुपाद गुडुचाद धर्म कर्मदलोह । दतुभववदे स्वर्ण त नुवनकाश के हारिसिळितिसुव । धनवैमानिक दिव्य काव्य ॥ # नेकोनेवोगिसि भव्यजीवरनेल्ल । जिनरूपिदिपकाव्य || तेरनुयळे युवदारियो बरुवंक दारंकेय मादलद सार दारिय पुष्पायुर्वेद ॥ १५८ ॥ साराग्निपुट दिव्य योग ।। १६१ ॥ सारात्मशुद्धि पारदव ॥ १६४॥ एरिसितिळिव पारदद ।। १६७।। दारियगुरु वृद्धियंक ॥ १७० ॥ शूररकाव्य भूवलय ॥१७३ से रवमनवनु पारददोळु कट्टि । नूरुसाबिर हुबुगल || सारव तु सरुवार्थसिद्धियग्रदश्येत ( शिलेयद ) क्षत्रव बरेदंकमार्ग *
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सर्वार्थ सिद्धि संघ बंगलोर-दिल्ली
॥। १५४ ।। ।। १५५
।। १५६ ।। ॥१५७॥
॥ अनुभवगम्यद समवसरण काव्य । धनसिद्धरसदिव्यकाव्य नसपुष्पद काव्य विश्वम्भर काव्य । जिनरुपिनभद्र काव्य कळेय कूगनिल्लवागिप काथ्य दनुभयखेचर काव्य परक्षिमापदि रोग
नाशकद
माऋ
॥१५६॥
॥१६२ ॥
मारनंगेय केदगेय पारदपादरिपुष्प नूरारुसंपुटयोग ।। १६५।। श्रीरमेगिरियकरिणय ।। १६८ ।। मररवर्ग शलाके ॥ १७१ ॥
सारविन दिव्य योग ॥ १६०॥ पारद जयदग्नि योग ॥ १६३ ॥ सारस्वतर वाहनद सेरिसेबरुव हूवगळ
॥१६६॥
॥१६६॥
यारके मिरुव भूवलय
॥ १७२ ॥
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॥ १७७॥
न्दुमाड़ त रसमणियन 1 सेरिसे भूवलय सिद्धि ॥ १७४॥ बरलु || प्रहादि बत्तम् बेरेसिह तारणदो (लरिथिरिसिद्धान्तवदम् ) ळरिवसिद्धान्त भूवलय ।। १७५ ।। श्रा* गममार्गदह दिमूरु कोटिय। तागिदायुर्वेद ( प्राणावाय ) || सागरवन् ने रिपुनरुक्तंकद ( अपुनरुक्ताक्षर ) । सागर रत्नमंजूष ॥१७६॥ इ* रुव भूवलय दोळेऴ्तूरहदिनेदु । सरस भाषेगळवतार ॥ ररिगे प्रथम संयोगदे बहुदेव । शिरिधिह सिद्ध भूवलय सिरियिह मूरु संयोग ॥१७६॥ सिरियिह नाल्कु संयोग ।। १८० ।। परमात्म कलेयंक भंग ॥ १८२ ॥ परमामृतद भूवलय ॥ १८३॥ रिॐ द्वियादासूरु श्रादिभंगदतेर । होददिकोंडिकगळ ॥ म द्विनोळे सारिदिन्नूरतों बत्तु । सिद्धांक बागलु "इ"ल्लि या यअंतर आरेरडोम्बत्तात्तु । ईवक्षरगळेल्लवा * ॥ पाचन दंकगळंतर काव्यव । नोवदे [भावदेवरुवंकवेल्ल ] काय भूवलय ।। १८६ ।। "इ" ७२६० + अंतर = १०६२६ = १८२१६ अथवा श्र । इ -४६६११ + १८२१६ = ६४८२७ । अब पहले अक्षर से लेकर ऊपर से नोचे तक आ जाय तो प्राकृत भाषा भगवद्गीता अर्थात् पुरुगोता आती है सो देखिये, थिय मूल तंतकता सिरिवोरो इंदभूदिविप्पवरो ।
सरियिह एरडने योग ॥ १७८ ॥ परिवाह श्ररवत्तनात्कु ॥१८२॥
॥१८५॥
उवतंते कत्तारो प्रष्णुतं ते से साइरिया ||४|
इसी प्रकार संस्कृत भाषा भी निकलती है- श्री परम गुरवे नमह । श्री परमगुरवे परंपराचार्य गुरवे नमह । श्री परमात्मने नमह । इति चतुर्योध्यायः ।