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सिरि भूषलय
संवर्षि सिद्धि संघ,बंगलोर-दिल्ली । समान अनादि काल से पाप अपने अंदर हमेशा ही सुख में स्थित हैं । मानिए। " रहा जिल्लादि बारदानक अंकों से बने हुये दुनिया में जितनी अंक सिद्ध जीवों के ऊपर दया करने की कोई आवश्यकता ही नहीं बल्कि संसारी, राशि हैं उन सबको नव पदों से गुणा कर देने से अर्थात् १ को दो से और दो जीवों के ऊपर दया करने की आवश्यकता है। इसीलिए भगवान ने अनन्त ज्ञान । को ३ से, ३ को चार से, ओर ४ को ५ से, और ५ को ६ से गुना करने से प्राप्त किया । इसी को कुमुदेन्दु प्राचार्य ने अंतरंग लक्ष्मी कहा है। उपदेश के 1८२० मा मया। वह इस प्रकार है १४२४३४४४५४६४७७२० इस क्रम को बिना जीवों का उद्धार तथा सुधार नहीं हो सकता। एक-एक जीब को । अनुलोम भंग भी कहते हैं। इस प्रकार चौसठ बार यत्नपूर्वक करते जाए तो ६२ अलग-अलग उपदेश करने का समय भी नहीं मिल सकता, क्योंकि समय की । डिजिटस [स्थानांड] आ जाता है। इसी रीति से उल्टा अर्थात् ६४४६३४कमी होने के कारण सभी जीवों को एक ही समय में सब भापानी में सभी । ६२४६१ इस रीति से एक तक गुना करते चले जाये तो वही ६२ अंक प्रा विषयों का एकीकरण करके उपदेश देना अनिवार्य है। सभी जीवों का एक जायेगा । इसी गणित पद्धति से भूवलय की रचना हुई है। इतना बड़ी अंक स्थान पर बैठकर यथा योग्य उपदेश सुनने का जो नाम है उसी का नाम ममव
राशि को यदि कोई जान सकता है तो परमावधि धारक महामेधावी बीरसेनासरण है। यह समवसरण बहिरंग लक्ष्मी है। इन दोनों सम्पत्तियों को बताने
चार्य सरीरवा ही जान सकता है । परन्तु अपनी शक्ति के अनुसार मतिथतज्ञान वाली कर्माटक भाषा है। इन भाषाओं को प्रोम् से निकाल कर चौंसठ अक्षरों।
सभा के धारक हम सरीने लोग भी जान सकते हैं। अब इस भूवलय में यह एक अपूर्व को दया, धर्म प्रादि रूपों में विभक्त कर उपदेश दिया है । यही सर्व जीवों का 1 बात है कि नव का अक जो है वह दा, चार, पाच, आदि हरएक अक कद्वारा एक साम्राज्य है। इस बात को कहने वाला यह भूवलय ग्रन्थ है ।। ३०॥ पूर्णरूप से विभक्त कर लिया जाता है । अर्थात् उन अंकों के द्वारा नौ का अंक
नय मार्ग से देखा जाय तो ६४ अक्षर हैं । जयसिद्धि अर्थात् प्रमाण रूप से देखा जाय तो एक है। उसी का नाम 'प्रोम्' है। "प्रोमित्येकाक्षरब्रह्म "
J टू ३८, क्२८, कुल मिलकर ६६ हुआ । उनमें से पादि और अन्त का अर्थात् 'ओम्' यह एक अक्षर ही ब्रह्म है। इस प्रकार भगवद्गीता में कहा दोनों पुनरुक्त हैं। उन पुनरुक्तों को निकाल देने से ६४ बन जाता है। अर्थात् गया है। वह भगवद्गीता जैनियों की एक अतिशय कला है। इन कलाओं ६६-२-६४ । ६+४=१० अंक में जो बिन्दी है वह बिन्दी सर्वोपरि होने से से ६४ अक्षरों को समान रूप से भंग करते जाये तो सम्पूर्ण भूवलय शास्त्र उसका नाम सकलांक चक्रेश्वर है और प्रकलंक हे अर्थात् निरावरण है, जब स्वयं सिद्ध बन जाता है।॥ ३१॥
अंक बन गया तो फिर उससे अक्षर भी बन जाता है यही भूवलय का एक बड़ा इन भंगों से पूत अर्थात् जन्म लिया हुआ जो ज्ञान है, वह शान गुणा- महत्व है ॥३५॥ कार रूप से जाति, बुढ़ापा, मरण इन तीनों को जानकर अलग अलग विभा- इस टक भंग को महावीर स्वामी ने अपनी दिव्य वाणी में अन्तर मुहृतं जित करने से पुण्य का स्वरूप मालूम हो जाता है। इसी लिए यह पुण्यरूप 1 में प्रकट किया, ऐसा कुमुदेन्दु प्राचार्य कहते हैं। इस बात पर शंका होती है भूवलय है ।। ३२॥
भगवान के चरणों के नीचे रहने वाले कमल पत्रों के अन्दर होने वाले ऊपर पांचवें श्लोक में हक भंग रूप में भगवान महावीर ने कहा था, जो धवल रूप नंक अक्षर हैं, वह सब विज्ञानमय हैं। अर्थात् प्राकाश प्रदेश में ऐसा लिखा है, वहां बताया है कि हक भंग से सप्तभंगी रूप वारणी की उत्पत्ति रहने वाले अंक हैं। उन अंकों को पहाड़े का गुणाकार करने से लिया गया अर्थात् होती है और टक भंग से द्वादशान १२ की उत्पत्ति होती है और १२ को जोड़ ध्यान में स्थित मुनिराजों के योग में झलके हुए अंकाक्षर सविधिज्ञान रूप है, । देखें तो ३ पा जाता है ऐसी विषमता क्यों ? इसका समाधान करते हुए कुमुदेन्दु उन्हीं अंकों से इस भूवलव अन्य की रचना हुई है ॥३३॥
। प्राचार्य कहते हैं कि: