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सिरि भूवलय
सर्वार्थ सिद्ध संघ, बैंगलोर-दिल्ली लगता है । संक्षेप रूप कह दिया जाय तो 'ओम' शब्द में सम्पूर्ण , द्वितीयाद्धच्छेद में सोलह रह गया, तृतीया च्छेद में आठ रह गया, 'भूवलय' अंतर्गत होता है।
चतुथार्द्धच्छेद में चार रह गया, पंचभाईच्छेद में दो रह गया । यही अब पहले श्लोक से लेकर सत्ताइस अक्षर से तेइस श्लोक तक भूवलय रेखागम की मूल जड़ है। आ जाएं तो "प्रोकारं बिन्दु संयुक्त नित्यम्" हो जाता है। ये ही रूप इन चौसठ अक्षरों को दस (६+४) मानकर अन्त में एक मानने भगवत् गीता में नेमिनाथ भगवान ने कृष्ण को सुनाया है । वह गीता की विशिष्ट कला है। यदि इस प्रकार न करें तो रेखांकायम नहीं इस भूनलय ने प्रथम सत्यय से नी म होती है। इसका विवेचन बनता इसलिए कुंद-कुंद प्राचार्य को द्वादशांग से लेना पड़ा। . आगे चलकर करेंगे । २४ !!
सम्पूर्ण संसारी जीवों का सिद्ध पद प्राप्त करना ही एक __इस भारत में कर्नाटक दक्षिण की तरफ पड़ता है। ब्राह्मी देवी ध्येय है। इस लोक में रहने वाले सम्पूर्ण अजीव द्रव्यों में से एक का दायें हाथ से लिखने का भी यही कारण है कि कर्नाटक देश दक्षिण पारा ही उत्तम अजीब द्रव्य है । जैसे जीव अनादि काल से ज्ञानावरमें था । उसी दक्षिण देश में स्थित नन्दी नामक पर्वत पर इस भूवलय रणादि पाठों कर्मों से लिप्त है, उसी प्रकार पारा भी कालिमा, कटिक, की रचना हुई। नन्दी नामक पर्वत के समीप पांच मील दूरी पर सीमक प्रादि दोषों से लिप्त है । जब यह प्रात्मा इन ज्ञानावरणादि "यलव" नाम का गांव अब भी वर्तमान में है। उसी 'यलव' के 'भू' पाठ कर्मों से रहित हो जाती है, तब सिद्ध परमात्मा बन जाती है। उपसर्ग लगा दिया जाए तो 'भूवलय' होता है ।। २५ ॥
इसी तरह यह पारा भी जब इन कालिमादि दोषों से रहित हो जाता है ब्राह्मी देवी की हथेली में तीन रेखायें हैं। ऊपर की बिन्दी को
तो रसमणि बन जाता है। इन दोनों का कथन भूवलय में आगे चलकाट दिया जाए तो ऊपर का एक, बीच का एक और नीचे का एक
कर विस्तार पूर्वक कहा हैं ॥ २६ ॥ इस प्रकार मिल कर तीन हो जाते । सम्यक ज्ञान और सम्यक प्रहन्त देव ने कर्माष्टक भाषा कहा है। "प्रादौसकार प्रयोगः चारित्र के चिन्ह ही ये तीन रेखागम हैं । भूबलय में रेखागम का
सुखदः' अर्थात् सब के आदि में जो सकार का प्रयोग है वह सुख देने विषय बहुत अद्भुत है। सारे विषय को और सम्पूर्ण काल को इस
वाला है। इसलिए सिद्धान्त शास्त्र के आदि में सकार रख दिया है। रेखागम से ही जान सकते हैं। सिद्धान्त शास्त्र के गणित में इस
"सिरि" यह शब्द प्राकृत और कनाडी दोनों भाषा में समान रूप से रेखा को अद्ध छेदशलाका अथबा शलाकान्छेद नाम से भी कहते
देखने में आता है । इस तरह यह प्राचीन भाषा है । जब इस प्राचीन हैं ।। २६ ॥
भाषा को अपने हाथ में लेकर संस्कृत किया तब से 'श्री' रूप में प्रचलित दिगम्बर जैन मुनियों ने ऋद्धियों के द्वारा अपने रेखागम को जान हुमा । 'इस श्री' शब्द का अर्थ अंतरंग और बहिरंग दोनों रूपों में लिया है वह बहुत सुलभ है। मान लो कि दो और दो को जोड़ने से 'लक्ष्मी' है। अंतरंग लक्ष्मी यह है कि सब जीवों पर दया करना। चार, चार और चार को जोड़ने से आठ, पाठ और पाठ को जोड़ने से परन्तु दया करने से पहले किन जीवों पर किस रीति से दया करना, सोलह, सोलह और सोलह को जोड़ने से बत्तीस, बत्तीस और बत्तीस इस बात को सबसे पहले जान लेना चाहिए। जिस समय ज्ञानावरजोड़ने से चौंसठ होता है। इस तरह करने से चौसठ होता है। यदि रणादि कर्म नष्ट होते हैं तब अनन्त ज्ञान प्रकट होता है, इस ज्ञान को गुणा किया जाय तो पांच बार करने से चौंसठ प्राता है इस रेसागम केवल ज्ञान कहते हैं । इस केवल ज्ञान से भगवान ने सब जीवों का से चौंसठ को एक रेखा मान लो। प्रथमादच्छेद में बत्तीस रह गया, हाल यथावत् यथार्थ रूप से जान लिया था। सिद्ध जीव तो अपने