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सिरि भूवजय
सर्वार्थ सिद्ध संघ, बैंगलोर-दिल्ली
सुदर्शन चक्र चला जाए तो कोई चिन्ता नहीं है, परन्तु इस जान-चक्र- गूच कर इन अंगों से प्रत्येक भाषामों को लेकर सुननेवाले भव्य रूपी भूवलय को कदापि नहीं छोड़ सकता है। इसलिए मुझे लौकिक । जीवों की योग्यता के अनुसार उन्ही २ भाषाओं में उपदेश देते थे। चक्र और अलौकिक ज्ञान चक्र रूपी भुवलय चक्र इन दोनों को दो, इसलिए कर्नाटक भाषा को दिगम्बराचार्य कुमुदेन्दु मुनि ने कर्नाटक इसपर बाहुबली ने २७४ २७ = ७२६ कोष्ट में सम्पूर्ण द्रव्य श्रन- अर्थात् ६३ कर्मों के खेल को बतलाने वाली अथवा कर्नाटक अर्थात् रूपी द्वादशांग वाणी को ६४ अक्षरों में बांध कर इन अक्षरों को पुनः पाठ कर्मों की कथा को कहनेवाली और दिव्य वाणी को अपने ६ अंक में बांध कर दान दिया हुआ होने के कारण यह भूबलय अन्तर्गत रखने की शक्ति इस कर्माटक भाषा में ही बताई है, अन्य विश्वरूप काव्य है ।। १६ ।।
किसी भाषा में नहीं । ऐसा कुमुदेन्दु प्राचार्य ने बतलाया है। इसी का उत्सभ क्षमादि दस प्रकार के बभी को अपना पात्मधर्म मानते नाम भूवलय ग्रन्थ है ।।२१।। हुए बाहुबली ने भक्त जनों को श्री विध्यगिरि पर अपने निजी सात यह कर्म चार भागों में विभक्त है--१ स्थिति २ अनुभाग ३ प्रदेश तत्व रूपी सप्त भंगों द्वारा जिसको प्रकट किया था वह विजय धवन बंध ४ प्रकृति बंध । ये चारों बंध प्रात्मा के साथ भिष-भिव रूप से ही यह भूवलय है 11 २०॥
फल को देते हुए पाठ कर्म रूप बन गए हैं। प्राठों कर्म आत्मा के तीनों शल्य रहित उन दश धर्मों को पालन करते हुए उनके द्वारा साथ पिंड रूप में प्रावरण करी के इस प्रात्मा को संसार रूपी जो अपने अंदर अनुभव प्राप्त किया है उस अनुभव को ग्रहण करने समुद्र में भ्रमण कराते हैं। इन सभी कमों के पाबागमन को द्वितीयोग्य सत्यपात्र रूपी भव्य जीवों को जो दान देने वाले महात्मा यादि चौदह गुणस्थान तक सम्यक्त्व रूपी निधि में परिवर्तित कर हैं इस संसार रूपी सागर में कभी नहीं डूब सकते । ऐसा बताने 1 आत्मा के साथ स्थिर करते हुए मोक्ष में पहुंचाने वाली यह कर्माटक वाला शुभ कर्माटक अर्थात् ६३ कर्म प्रकृति पर विजय पाने वाला नामक भाषा है ।। २२ ॥ तथा केवल ज्ञान प्राप्ति का उपाय बताने वाला यह भूवलय है ।
तिरेसठ ( ६३ ) कर्म प्रकृति को घातियाकर्म में और क्षेष बचे हुए काटक शब्द का विवेचनः--
५५ कर्मों को एक अधाति कर्म मानकर उस एक को ६३ में मिलाकर आदि तीर्थंकर अर्थात् वृषभदेव भगवान के गणधर वृषभसेनाचार्य ६४ (चौंसठ) मानकर भगवान ऋषभदेव ने चौसठ ध्वनि रूप, अर्थात् से लेकर गौतम गणधर तक सभी गणधर परमेष्ठी कर्नाटक देश के अाजकल कर्नाटक देश में प्रचार रूप में रहने वाली लिपि के रूप में ही थे। भौर सव तीर्थकरों ने अपना उपदेश (सर्व भाषामयी दिव्य रचना करके यशस्वती देवी की पुत्री ब्राह्मी की दाहिने हाथ की वारणी को) कर्नाटक भाषा में ही भव्य जीवों को सुनाया । यह हथेली को स्पर्श करते हुए क्रम से लिखा हुआ यह भूबलय नामक कर्नाटक कैसा था? जैसे कि सात सौ रेडियो को अपने घर में रखकर ग्रन्थ है ॥ २३ ॥ अलग अलग स्टेशनों पर नम्बर लगाकर उनको गायन सुनने के लिए उन चौंसठ यक्षरों को परस्पर मिलाने से "प्रोम" बन जाता है रख दिया जाय तो दूर से सुनने वालों को वीणा-नाद के समान अर्यात । अर्थात् ४ और ६ दस बन जाते हैं, दस में एक और बिन्दी लगाने से कोयल पक्षी के कंठ के समान मधुर अावाज सुनने में आती है । उसी । 'यो' से "प्रोम्" बन जाता है । कर्नाटक भाषा में एक को 'प्रोंदु' कहते तरह यह कर्नाटक भाषा है । इस भाषा से दिव्य ध्वनि के पर्थ को हैं, दु' प्रत्यय है। 'दु' को निकाल दिया जाय तो 'भोम्' रह जाता है समझ कर सब गणघर परमेष्ठियों ने बारह अंग ( द्वादशांग ) रूप में और 'दु' का अर्थ 'का' हो जाता है । 'का' का अर्थ छठी विभक्फि में