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________________ सिरिभूचलय सर्वांच सिद्धि संघ बैंगलौर-दिल्ली मिल किह एळ नऊरु नक्षरभाषेयम् । दकिप द्रव्याग प्रम र तकक ज्ञानव मुन्दकरियुव प्राशेय । चोक्क कन्नाड भूवलय ॥१७॥ त रणनु दोर्बलियवरक्क बामहियु । किरियसौन्दरि अरि ति रख ॥ अरबत्नात्का पर नवमानकसोल्नेय । परियिह काव्य भूवलय ॥१७६।। सरमग्गिकोष्टक काव्य ॥१७७॥ गुरूपाळम् परितन्दगणित ॥१७८॥ गुरुगळयबरगणितानक ॥१७॥ परहनतरीरेविह गणित ॥१०॥ सिरिष भेश्वर गणित ॥१८१॥ गुरुवर अजित सिद्धगणित ॥१२॥ परमात्म शम भव गरिणत । १८३॥ सुपूनम शामिलानेश ६ म नर वन्दय शी सुमति ॥१५५।। तिरियनच गुरु पद्म किरण ॥१८६।। नरकर वन्द्य सुपार्शव ॥१८७॥ गुरुलिन्ग चन्दुर प्रभेश ॥१८॥ सिरि पुष्पदन्त शोतलरु ॥१८६॥ गुरु याम्स जिनेन्द्र ॥१६०॥ सरुवज्ञ वासुपूज्येश ॥१६॥ अरहन्त विमल अनन्त ॥१९२॥ हरुषन श्री घरम शान्ति ॥१९३॥ गुरु कुन्थु पर मलि देव ॥१६४।। सिरि मुनि सुव्रत देव ॥१६५॥ हरि विष्टर नमि नेमी ॥१६६॥ यर पार्शव वर्धमानेन्द्र ॥१६॥ गुरु माले इप्पदनाल कुम् ॥१६॥ तक हरण मन्मथनारु सोन्ने एरडु । सरियोम दु अन तर बोके घ॥ सरस कव्य यागमदरवत् नालक कषर । विरुव ई' काव्यवु ऐदु।१६६। शिरसिनन्तिह सिद्धराशि [भूवलय] ॥२०॥ म् नविडेपोमबत् प्रोम्दुसोग्नेयु एन्टु । जिनमार्गदतिशय घ* म ॥ वेनुत स्वीकरिसलु नवपद सिद्धय । घनमर्म काव्य भूवलय ५ वा ई ८०१६+अन्तर १२००६-२००२५ अथवा अ-ई ६४,८२७+ई २०,०२५-८४,८५,२ पहले श्रेणी के सुरु के अक्षर से लेकर नीचे पढ़ते प्राचाय तो प्राकृत निकलता है ईयमणाया वहारिय परम्परा गम मणसा। पुवाइरिया प्राराणु सरणं कदं तिरयरण निमित्तम् ॥५॥ बीच में लेकर ऊपर से नीचे के तरफ इसी श्लोक के समारण पढ़ने आजाय तो संस्कृत श्लोक निकलता है सकल कलुष विध्वंसकं |यसां परिवर्द्ध कं। धर्म संबन्धकं भव्य जीव मनः प्रति बोधः ॥ ६५ श्लोक से इनिर्टिड कामा तक पढ़ते जाय तो पुनः संस्कृत काव्य की दूसरी भाषा निकलती है। अर्थात्प्राकृक, संस्कृत, भागध, पिशाच, भाषाश्च, सूरशेनोच । षष्ठोत्तर भेदा देश विधेशादप शह ॥ करर्णाट मागध मालव लाट गौड गुर्जर प्रत्येकत्रय मित्याष्टादश महा भाषा । सर्व भाषा मई भाषा विश्वविद्यालयाव भाषिणे॥ ... त्रिषष्टिः चतुषष्ठिा वर्णहा शुभमते मतह । प्राकृतेसंस्कृते चापि स्वयं प्रोताह स्वयंभुवह ॥ प्रकारादि हकारांतां शुद्धाम् मुक्तावली-मिव । स्वरव्यंजन भेदेन द्विधाभेदमुपैययुषीम ॥ प्रयोग वाह पर्यंत सर्व विद्या सुसंगताम । अयोगाक्षर संभूतिम् नेक वीजाक्षरश्चिताम ॥ समवादि वदत्ब्राम्हो मेधाविन्यति सुंदरी । सुदरी गणित स्थान क्रमः सम्यग्हस्थत् ॥ ततो भगवतो वक्त्रानिहह बताक्षरावलीं। नवइति व्यक्ति समगला सिद्ध मात्रकाम् ॥
SR No.090109
Book TitleSiri Bhuvalay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvalay Prakashan Samiti Delhi
PublisherBhuvalay Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Principle
File Size10 MB
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