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पांचवां अध्याय
अब हम पांचवें अध्याय का विवेचन करेंगे।
1 से खण्ड रूप और प्रकाश की अपेक्षा अखण्ड रूप कह सकते हैं । उस छोटी मटइस समय वर्तमान काल, बीता हुया अनादि काल और इस वर्तमान की के अंदर जो आकाश का प्रदेश है उसमें रक्खे हुए एक परमाणु को आकाश के आगे आने वाला भविष्य काल, इन तीनों कालों के पूर्व, पश्चिम, उत्तर, १ का सर्व-जघन्य प्रदेश कह सकते हैं । उस परमाणु को आदि लेकर १२-३-४-५ दक्षिण चारों दिशाओं ईशान, वायव्य, आग्नेय और नैऋत्य, ऊर्ध्व प्राकारा और । ग्रादि परमाणु बढ़ाते हुये समस्त आकाश के प्रदेशों की पंक्ति जानना केवलीनीचे के भाग में यानी आकाश की सभी दिशाओं में, विद्यमान समस्त पदार्थ । गम्य है क्योंकि केवल जान के द्वारा समस्त विश्व के पदार्थ पाने जाते हैं ॥१॥ महन्त सिद्ध परमेष्ठी के ज्ञान में स्पष्ट झलकते हैं । संसार का कोई भी पदार्थ उपर कड़ी हुई समस्त वस्तयों को सरसों के दाने के बराबर क्षेत्र में उनके ज्ञान से बाहर नहीं है।
छिपा कर उसमें अनन्त को स्थिर करके उस सकलांक को नौ अंक में मिश्रित विवेचन:-प्रतीत (भूत) काल बहुत विशाल है, जितना-जितना पोछे करें, मूदु रूप में करने वाले नव श्री अर्थात् ग्रहन्त सिद्धादि नव पद रूप में रहने जाते हैं, आकाश की तरह उसका अंत नहीं मिलता। इस लिये इस काल को। वाला यह भूवलय ग्रन्थ है ॥२॥ अतीत काल या अनादि काल कहते हैं। इतना विस्तृत होने पर भी अनागत विवेचन:-असंख्यात प्रदेश वाले इस लोक में अनंतानन्त पुद्गल काल से भूतकाल बहुत छोटा है । अनीत काल को अनन्ताङ्ग से गुणा करने पर परमाणु परस्पर विरोध रहित अपने-अपने स्वरूप में स्थित हैं। (परमाणु जितना लब्धाङ्क आता है उतना अनामत काल है । इन दोनों कालों के बीच में । प्रदेशेष्वनत्तानन्तकोटयः जीव राशयः) इस उक्ति के अनुसार वैद्यवर्तमान काल समय मात्र है, यह वर्तमान काल बहुत छोटा होने के कारण शास्त्र के कर्ता वाग्भट्ट ने कहा है। जीव राशि में से प्रत्येक जीव में अनन्त कर्म भूतकाल और भविष्य काल को छोटी कड़ी के समान जोड़ता है। इसी तरह । वर्गणाओं का कसे समावेश होता है? इस बात का खुलासा पिछले अध्याय में क्षेत्र भी है, क्षेत्र का अर्थ अाकाश है। यह आकाश अनन्त-प्रदेशो हति हुएकह सके है। माकाश प्रदेश में अनन्त जीव और उनके कर्मागुनों को जानने के भी तीन लोक की अपेक्षा से असंख्यात-प्रदेशी भी है। परमाणु की अपेक्षा से ज्ञान को नवमांक में बद्ध कर मनेक भाषात्मक रूप में व्यक्त करके उन सब को संख्यातप्रदेशी (एक प्रदेशी) भी है।
। एकत्र करके इस भूवलय ने कथन किया है। एक घड़ा रक्खा हुया है उसके बाहर किसी भी ओर देखा जावे आकाश ! लोक में अनादि काल से २६३ मत है, एक धर्म कहता है कि सम्पूर्ण ही माकाश मिलता है उस का अन्त नहीं मिलता, इसलिये आकाश को 'अनन्त-जीवों की रक्षा करनी चाहिए । दुसरा धर्म कहता है जीवों का नाश करना प्रदेशी' कहा है । घड़े के भीतर जो आकाश है वह सीमित है, क्यों कि वह घड़े चाहिए। तीसरा धर्म कहता है ज्ञान ही श्रेयस्कर है, तथा चौथा धर्म कहता है के भीतरी भाग के बराबर है, अत: उसका अन्त मिल जाता है। फिर भी उस कि अज्ञान ही श्रेष्ठ है। इस तरह परस्पर हठ करके कलह करते रहते हैं। इस छोटे आकाश के प्रदेशों को अंकों से गणना नहीं कर सकते, इसलिये वह असंख्य प्रकार भिन्न-भिन्न मतों में परस्पर संघर्ष होने के कारण जैनाचार्यों ने इन धर्मो प्रदेशी है । यदि उस घड़े के भीतर बहुत छोटा ( संख्यात प्रदेशी) मिट्टी का को पर-समय में रखा है। इन सब पर-समयों को कहने के जो वचन हैं उसको बर्तन रख दिया जाय तो उस में जो माकाश के प्रदेश हैं वे संख्यात है, उनकीपर-समय-वक्तव्य कहते हैं । जब इन सभी धर्मों को एकत्र करके कहने के लिए गिनती की जा सकती है। १,२,३,४,५ आदि रूप से उनकी गणना कर वाक्य की रचना होती है तब सभी धर्मो' को समन्वित करके छोड़ देता है। सकते हैं। इस प्रकार अखण्ड माकाश को घट आदि पदार्थों की अपेक्षा के भेद यह समन्वय दृष्टि भूवलय का एक विशिष्ट रूप हुया है। ३६३ इस अंक को