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सिरि भूवलय
सर्वार्थ सिद्धि बैंगलोर बिल्ली
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जनर कन्टक हरणान्क ॥ १२६ ॥ घन भद्र मन्गल रूप ॥१२७॥ जिन शिव भद्र कटलास ॥ १२८ ॥ जिन विष्णु भवन वय्कुन्ठ ॥ १२६ ॥ विनय सत्यव ब्रम्हलोक ॥। १३०॥ जनतेय सर्वार्थ सिद्धि ॥१३१॥ जनरिगे सर्वान्क सिद्धि ॥१३२॥ इन चन्द्र कोटिय किरण || १३३॥ कनक रत्नगळ मेल्कट्टु ।। १३४ ।। घन रस सिद्धिय मरियु || १३५|| कुनय विनाशक मयुि ॥ १३६ ॥ केनेवालन्तिह शुद्ध स्वर्ण ॥। १३७ ।। कोनेगात्म सिद्धिय नेनु ॥ १३८ ॥ तनय तनुजेयर त्याग ||१३|| बनुज किन्नर शिल्प काव्य ॥। १४० ।। धनपुण्यभवन भूवलय ॥ १४१ ॥ भ* वनामर व्यन्तरद ज्योतिष्कर । नव नव कल्पद सिरि बी रथन भक्तरु जयध्वनियिन्द पाडुव सुविशाल कलरवरुतिय ॥ १४२ ॥ * रवमन्गलद प्रास्तव महा काव्य । सरणियो सिरि वो * सेन।। गुरुगळमतिज्ञानदरिविगे सिलुकिह । श्ररहंतकेवलज्ञान ॥१४३॥ ब* शवागे नवत्नात्षउगळतिशय । ऋषि मार्ग धर्मव धरि असद्दुरुशवाद त्रयुलोकाग्र सिद्धियु वशवागलेमगेम्ब ज्ञान ज# निसलु सिरि वीरसेनर शिष्यन । धनबादकाव्यद कथेय ॥ जि न* श्रसेन गुरुगळ तनुविन जन्मद । घनपुण्यवर्धन वस्तु सगा गा जनपदवेल्लदरोळु धर्म । तातु क्षोरियसि मर्पाग ॥ तान् श्र* ल्लि मान्यखेटद दोरे जिन भक्त । तानु अमोघवर्षांक रंग व पद भक्तियिम् जन पदवेल्लवु । तब निधियागिसिर्दाग मु* अवर भव्यत्वद प्रासन्नतेयिन्द । नवदन्क मूर्तियादन्ते सविवर मतिज्ञान धरतु ॥। १४६ ।। अवनिय ज्ञान सम्प्राप्ति ॥ १४६ ॥ भुवियतिशयद सन्भाग्य ॥ १५० ॥ नवविध ब्रह्मवनरिव ॥ १५१ ॥ अवर पालिसुव सद्गुरुन ।। १५२ ।। सुविशाल कीतिय देह ॥१५३॥ नवनवोदित शुद्ध जयद ।। १५४। श्रवतारदाशा वसविय ।। १५५।। भुवि कीतियह सेनगरादि ॥ १५६ ।। अवतरि सिदज्ञातयम्शि ।। १५७ ।। अवन गोत्रवदु सद्धर्म ॥ १५८॥ अवन सूत्रवु श्री व्रुषभ ॥१५६॥ अवनेल्ल त्यजसिद सेन ॥ १६२॥ अयन शाखेयु द्रव्यान्ग ॥ १६० ।। अवन वम्शबदु इक्ष्वाकु नव गरण गच्छ सारि ॥ १६३॥ नव भारतवोळु हरिसि सविय कर्नाटक दोरेगे ॥ १६५ ॥ विवरदोळ् कर्मव पेद ॥१६६॥ rator काव्य भूवलय * विगळ् ऐतु सन्जनिसिद राजने । सधबल आदिम् बरु दो नत्ववळित जनतेय पालिप । भूद्भुत वर्धमानान् ॥ श्रान व शवादतिशय धवल भूवलयद । यशवागे ऐदने अंक ॥ रस महिय मेल्बन्कव वशगेय्द राजनु । वहिसिद दक्षिरगद् भ
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कहिय हिम्सेनोडि सि ॥ १७३ ॥ इह सौख्य करवाद ख्याति ॥ १७६॥
भुवन विवख्यात भूवलय ॥ १६८ ॥ स्पदवागे एरडने जयधवलाकद । वदिंगे मरते महा धवल ॥ १६६ ॥ * जनतेय जयशोल धवलद । शाने पदवियदु नात्कु ॥ १७० ॥ स्मयवाद विजयश्वलविन्तु । यशद भूवलयद भरत ॥ १७१ ॥ * त ॥ सिहिय खण्डदकर्माटकचक्रिय । महिये मण्डलनेसरान्तु ॥ १७२ ॥ हिसिदणुव्रत ख्याति ॥ १७५ ॥ गहनद् श्रहिम्सेय मेरेसि महियतिशय स्वर्गदेसरिम् ॥ १७८ ॥ छह खण्ड वंशशास्त्र ख्याति नहि नहि रूपनेनुवन्ते ॥ १५१ ॥ विहरिसुतिरुव सद्धर्म ॥१६४॥ सहकार धर्म साम्राज्य गुहेय तपश्चर्य सिद्ध
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इहवे स्वर्गवो एम्ब तेरदिम् ।। १७६ ।। वहिति अमोघवर्षप मह विश्व कर्नाटकव दहिसुत कर्माष्टकव सिहिय अहम् सेय राज इह्वेल्ल सौभाग्य रूप
||१८२ ॥ ॥ १८५ ॥ इह पर सुखद सर्वस्व ||१८८ || महावीर धर्म मान्गल्य
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