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सिरि भूवलय
सकर्ष सिदि संघ बेंगलोर-दिल्ली
रेखा, रेखा का क्षेत्र क्षेत्र का सर्शन, स्पर्शन का काल, काल का अन्तर, अन्तर हो जाता है ।२०४। का भाव और अन्तिम में अल्प बहुत्व इन अनुयोग द्वारों से उस महार्य को मैंने प्रकाशमान हुअा द्वंत, अद्वेत और अनेकान्त इन तीनों का सूत्र प्रन्थ बन्धन बद्ध किया है अत: जैन धर्म का समस्तार्थ इसमें है, जोकि मानव मात्र । इस अध्याय में अङ्किन है। इस अध्याय में आठ हजार सात सौ अड़तालोस का धर्म है ।१६३-१६४॥
इथेणी में ब्राह्मी देवी का प्रदार और सुन्दरो देवा के इतने ही अंक हैं ।२०५॥ इस राज्य का अध्ययन करने में सम्पूर्ण मानवों में परस्पर एकता
पाराम के जानकार लोग सई अध्याय में मे रागवटक और वैराग्य स्थापित होती है ।१६५॥
वक दोनों ही प्रकार का मतलब ले सकते हैं। इसी मध्याय के अन्तर में जिस एकता से उत्तरोनर प्रेम बढ़ता जाता है।१६६।
। ग्यारह हजार नौसी प्रवासी अंकाक्षर रखनेवाला यह भूवलय ग्रन्थ है।२०६॥ एकता और प्रेम के बढ़ने से सभी के दुष्कर्मों का नाश हो जाता
ई इ-८७४८+अन्तर ११९८८-२०७३६ है ।१६७
अथवा प्रा-ई इ तक ८४८५२+२०७३६ - १०५५८८ जैन शास्त्र किसी एक सम्प्रदाय विशेष के ही लिए नहीं किन्तु भबके
ऊपर से नीचे तक प्रथमाक्षर जो प्राकृत गाथा है उस गाथा का अर्थ लिये, है ऐसा श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य कहते हैं । १६८।
। यहां दिया जाता हैजैन धर्म में विशेषतः विनय धर्म प्रधान है जोकि सबके प्रति ।
भगवान के मुखारविन्द से निकले हए वचनात्मक यह भवलय अन्य समानता का पाठ सिखलाता है । १६६।
| होने से बिलकुल निर्दोष है और शुद्ध है। इसलिए इसका दूसरा नाम महर्षियों सब देशों में रहने वाले तथा किसी भी प्रकार की भाषा के बोलने वाले ने पागम ऐसा बतलाया है। यह भवलय अन्य समस्त तत्थार्थों का प्रतिपादन सभी मनुष्यों के साथ में यह सम्बन्ध रखता है ।२००।
करने वाला है ।२०६॥ यह धर्म पंचभ काल के अन्त तक रहेगा ।२०१॥
इसो के बीच में से जो संस्कृत भाषा निकलती है उसका अर्थ लिखा छठे काल में धर्म नहीं रहेगा।२०६१
जा रहा हैऐसा कहनेवाले अङ्ग धरों का ज्ञान ही यह भूवलय ग्रन्थ है ।२०३।। (भव्य जीव मनः प्रतिवोधः) कारक होता है, पुण्य का प्रकाशक होता
दूसरे इ अध्याय में प्रतिपादन किये हुए धर्म का पाराधन यदि है, पाप का नष्ट करने वाला है ऐसा यह ग्रन्थ है जिसका नाम भवलय है सुगम नहीं है तो दुर्गम भी नहीं है किन्तु कुछ थाहा प्रयास करने पर प्राप्त । इसका मूल ग्रन्थ -