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________________ सिरिमूवलय २५६×२५६४२५६४२५६ २५६ ४ २५६ इस प्रकार दो सो छप्पन बार गुणा करनेसे जो महाराशि उत्सन्न होती है उसका नाम ६१७ स्थानांक है । (१) २५६×२५६ इसी रीति से बार-बार दो सो छप्पन वार करना । (२) ६५५३६x२५६ (३) १६७७७२१६x२५६ ३ इस तरह से सर्व जघन्य दो को सिर्फ तीन बार वर्गित सम्वगित करने से ही कितनी महान राशि हो गई। इससे भी अनन्त गुणा बढ़कर कर्म परमाणु राशि प्रत्येक संसारी जीव के प्रति संलग्न है। उन कर्म परमाणुओं को नष्ट कर दिया जाये तो उतने ही गुण आत्मा में प्रगट हो जाते हैं। अब सर्वोत्कृष्ट अनन्तानन्त संख्याङ्क को लाने की विधि श्री कुमुदेन्दु श्राचार्य बतलाते हैं— उपर्युक्त तीन बाद सम्बनिया से सम्बंधित करें तो चार बार वर्गित सम्वर्गित राशि आती है। इस चार वार वर्गित सम्बर्गित राशि को इसी राशि से वर्गित सम्बर्गिन करने पर पांच बार वर्गित सम्बर्गित राशि बनती है इसी प्रकार छटवें वार, सातवें वार, आठवें वार और नौवें वार उत्तरो तर वर्गित सम्वर्गित करते चले जावे तो जो अन्त में महा राशि उत्पन्न होती है उसका नाम नौ बार वगित सम्बर्गित राशि होता है। इस राशि का नाम उत्कृष्ट संख्यानानन्त है । इसके मध्य में दो से ऊपर जो भेद हुये सो सब मध्यम संख्यातानन्न के मेद हैं। इसमें एक और मिला देने से जघन्य श्रसंख्यात होता है यह असंख्यात का एक हुआ। इस श्रसंख्यात में इतना ही श्रीर मिलायें तो श्रसंख्यात का दो हो जाता है। इस प्रकार करने पर उत्पन्न हुई महा राशि को श्री कुमुदेन्दु आचार्य ने असंख्यात के दो माने हैं । इस दो को इसी दो से वर्गित सम्बंगित करें तो असंख्यात की वर्गित सम्बंगित रात्रि ४ हुईं। यह असंख्यात की प्रथम बार वर्गित सम्बर्गित राशि हुई। असंख्यान ३४ इस चार को इसी चार से चार बार गुणा करने पर जो महा राशि उत्पन्न हो वह असंख्यात की दुबारा वर्गित सम्बंधित राशि असंख्यात ४ असंख्यात ४५ प्रसंख्यात ४४ असंख्यात ४x = संख्या २५६ होता है। इसी प्रसंख्यान महा राशि को इस महा राशि से इतनी ही वार वर्गिन सम्बर्गित करने पर असंख्यात की तीन वार वर्गित सम्वर्गित राशि असंख्यात २५६ स्थानांक उत्पन्न होती है। सर्वार्थ सिद्धि संघ बेंगलोर-दिल्ली इसी प्रकार चार बार असंख्यात सम्बर्गित, इत्यादि नौ बार वर्गित सम्वगित कर लेने पर जो महाराशि होती है वह उत्कृष्ट असंख्यातानन्व है । धीर इसके बीच के सब मेद मध्यम असंख्यातानन्त होते हैं। इसी में एक धीर मिला देने पर अनन्तानन्त का प्रथम भेद हो जाता है अर्थात् श्रनन्तानन्त का एक होता है और इसमें इतना हो और मिला देवे तब अनन्तानन्त का दो हो जाता है। इस दो को इसी दो से वर्गित सम्बंगित करने पर अनन्तानन्त का ४ आता है जोकि अनन्तानन्त का एक बार वर्गित सम्वर्गित राशि होती है । अब इसको भी पूर्वोक्तरीत्य नुसार के पश्चात् नौ बार वर्गित सम्दगित करने से जो महाराशि होती है वह उत्कृष्टानन्तानन्त होता है । यह अनन्तानन्त परिभाषा तो गणना को अपेक्षा से बताई गई है इससे भी अपरिमित अनन्तानन्त ओर हैं जिन के नाम एकानन्त, विस्तारानन्त, शाश्वतानन्त इत्यादि ग्यारह स्थानों तक चलता है। जोकि छद्मस्य के बुद्धि-गम्य न होकर केवलि गम्य है । यह गणित पद्धति विद्वानों के लिए श्रानन्द-दायक होनी चाहिए क्योंकि यह युक्तिसिद्ध है। नवमांक में पहले अरहंत, दूसरे सिद्ध तीसरे प्राचार्य चोथे उपाध्याय, पांचवें में ।। १५६ ।। पाप को दहन करने के लिए साबु समाधि में रत साधु छठा सच्चा धर्म, सातवां परिशुद्ध परमागम, आठवीं जिनेन्द्र भगवान की मूर्ति । १५६ नौवां गोपुर द्वार, शिखर, मानस्तंभ इत्यादि से सुशोभित जिन मन्दिर है, आगम परिभाषा में ऊपर कहे हुए नौ को नव पद कहते हैं ।। १६० ॥ इस नत्र पद का पहला मूल स्वरूप श्रद्वैत दूसरा है त है इन दोनों से समान रूप से मोक्ष पद प्राप्त करने की जो प्रबल इच्छा रखते हैं । उनको एक हो समान द्रव्य और भाव मुक्ति के लाभ दोनों को ।।१६१।। अनेकांत का मूल स्वरूप नय मार्ग मिलता है । प्राप्त करेंगे तो चौदहवें गुरणस्थान की प्राप्ति जब मिलता है तब हम लोग इसी तरह जंनत्व को हो सकती है ।। १६२ || तब उसमें मन वचन काय योग की निवृत्ति होती है । उसो समय विश्व के अग्रभाग पर यह आत्मा जाकर स्थित रहता है ।।१६३ ।। १६४ ।।
SR No.090109
Book TitleSiri Bhuvalay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvalay Prakashan Samiti Delhi
PublisherBhuvalay Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Principle
File Size10 MB
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