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________________ १०२ सिरिमूवलय सर्वार्थ सिद्धि संघ बैंगलोर-दिल्ली इस भूवलय ग्रन्थ में अनेक महान् ऋद्धियों का वर्णन है। ऋद्धियां जैन का दर्शन तथा अनुभव कराकर अरहंतादि नव देवता सूचक जो नौ अंक है, मुनियों को प्राप्त होतो हैं। जिन ऋद्धियों के प्राप्त होने पर शुद्धात्मा की । उस अंक को शून्य के रूप में अनुभव कराकर दिया हुआ है वां अंक उपलब्धि होती है और सम्यक्त्व परिशुद्ध हो जाता है उन्हीं ऋद्धि वाले महर्षियों में । है॥१४३।। से एक श्री वालि महामुनि भी हैं जोकि राम-रावरण के समय में हो गये हैं । जब जैन धर्म में कहे हुए अर्हतादि नव पद के समीप आकर ||१४४।। अपने बलके अभिमान में आकर रावण ने कैलाशगिरि को उठाकर समुद्र में स्मार्त अर्थात् स्मृतियों के धर्म को और वैष्णव धर्म को इन्हीं अंकों में डालना चाहा था उस समय श्री बालि मुनि ने अपने घर के अंगुष्ठ से जरा सा समाबेश और समन्वय करते हुए ॥१४५|| दबाकर कैलास पर्वत के जिन मन्दिरों को रक्षा को थी और रावण के अभिमान ! इन धर्म वालों को अपने गरीर में हो अपनी प्रात्मा को दिखला कर को दूर किया था । ऐसे शुद्ध सम्यक्त्व के धारक श्री बालि मुनि की बुद्धि ऋद्धि नव ग्रंक में शून्य बतलाकर इन धर्म वालों के शरीर के दोष एक हीका यशोगान करने वाला यह भूवलय शुद्ध रामायणाङ्क है ।।१३६॥ समान है कम अधिक नहीं है ऐसे बतलाते हुए सम्यग्नय और दुर्नय इन दोनों द्वादशाङ्ग बाणी में जो शुद्ध रामायण अंकित है, उसी रामागासो नामों को बतलाया । अंत में दुर्नय का नाश करके सुनय में अतिशय को बताकर लेकर बाल्मीकि ऋषि ने कबि लोगों को काव्य रम का प्रास्वादन कराने के । अन्त में उस अतिशय को अनेकांत में सम्मिलित कर दिया फिर चैतन्यमय प्रात्म लिए कान्य शैली में लिखा और उसमें महाव्रतों की महिमा को बतलाया ! उन तत्व को अपने हृदय में स्थापित करके हिंसामय धर्म से छुड़ा हिमा में स्थापित महाव्रतों में परिस्थिति के वश होकर यया समय में पाने वाले दोपों को दूर कर देते हैं । इसी रीति से जिन मार्ग को सुन्दर बना कर और विनय धर्म के हटाने वाला यह भूवलय ग्रन्थ परिशुद्धाङ्क है ।। १४०।। साथ सद्धर्माक को जगत में फैलाने वाला यह भवलय ग्रन्थ है ।।१४६-१५६।। जो परिणदाङ्क-संसारी जोबों के गहादुखों को दूर हटाने के लिए प्रण चौथे गुणस्थान से लेकर तेरहवें गुण स्थान तक उत्तरोत्तर प्रात्मा के व्रतों की शिक्षा देता है, उन्हीं अग व्रतों के अभ्यास से महा व्रतों की सिद्धि सम्यकत्व गुण की निर्मलता होती जाती है जिससे कि आगे आगे असंख्यात गुणी निर्जरा होती रहती है ।।१५७॥ होती है । जो मनुष्य महाव्रतों को प्राप्त कर लेता है उसको मंगलप्रामृत की। प्राप्ति हो जाती है । उस मंगलमय महात्मा का दर्शन कराकर सम्पूर्ण जनता ऊपर जो अनन्न नाब्द आया है उसकी महिमा बतलाने के लिए सर्वको परिशुद्ध बनाने वाला यह भूवलयांक हे ॥१४१।। जघन्य संख्यात दो है। इस बात का खुलामा ऊपर बताया जा चुका है तथा एक का अंक अनन्त है यह बात भी ऊपर बता चुके हैं। अब एक और एक मिलाकर विविष मंगलरूप अक्षरों से समस्त संसार भर जावे फिर भी अक्षर बच । राम समस्त संसार भर जाव फिर भी अक्षर बच दो होता है इसलिए कुमुदेन्दु प्राचार्य कहते हैं कि सर्व जघन्य संख्यात भी जाता है। सबसे प्रथम उन सभी अक्षरों को भगवान आदिनाय ने अमृतमय रस: अनम्तात्मक है। इतना होकर भी आगे लाने वाली संख्यांगों की अपेक्षासे बिलके समान यशस्वती देवी के गर्भ से उत्पन्न वाह्मी देवी की हथेली पर लिखा था। कुल छोटा है । इस छोटे से छोटे अंक को इसो से वर्गिः सम्बगित करें तो ४ ये हो प्रक्षर माज तक चले आये हैं । इन ६४ अक्षरों का ज्ञान होने से अनादि। महाराशि पाती है ३४ इसको पागम की परिभाषा में एकबार वगित सम्बकालीन आत्माके विष के समान संलग्न प्रज्ञान दूर हो जाता है । इसलिये इन अक्षरों ! 4 इन अक्षरा गित राशि कहते हैं। का नाम "विषहर नौलकंठ' भी है । नीलकंठ का अर्थ ज्ञानाबरणादि कर्म हैं । वे इस राशि (४) को इसी राशि से वगित सम्बगित करें तो दो सो छप्पन कर्म विपरूप हैं उन कर्मों का कथन करने वाला भगवान का कंठ है, इस कारण 1xxxxxx४२५६ आता है। इसका नाम दुवारा वगित सम्बनित राशि है। यह भूवलय का अंक नीलकंठ अंक है ।।१४।। अब इस राशि को इसी राशि से वगित सम्बगित करें तो २५६ = ६१७ स्थाआदि मन्मय बाहुबली को बहिन सुन्दरी को इस नवमांक रूप भूवलयनांक भाते हैं इसको तीन बार वर्गित सम्बगित राशि कहते हैं।
SR No.090109
Book TitleSiri Bhuvalay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvalay Prakashan Samiti Delhi
PublisherBhuvalay Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Principle
File Size10 MB
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