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________________ सिरि भूवलय सर्वार्थ सिद्धि संघ वैगलोर-दिल्ली परिपूर्ण ऐसे इस शास्त्र के अर्थ को जैन सिद्धान्त के वेत्ता महाविद्वान लोग ही । उस ज्ञान को पाठ बार क्रियात्मक रूप देकर रसमरिण बनाया था उसी विधि के अपने कठिन परिश्रम से जान सकते हैं । अन्यथा नहीं ।। ४३ ।। अनुसार कुमुदेन्दु प्राचार्य ने इस अलोकिक गणत ग्रन्थ में सोना आदि बनाने की अब आगे कुमुदेन्दु आचार्य ध्यानाग्नि और पुटाम्नि दोनों अग्नियों का ! भी विधि बताई है। विशेष रूप से साथ-साथ वर्णन करते हैं। आदि नाथ भगवान के निर्दोष सिद्धान्त मार्ग से प्राप्त एकाक्षरी विद्या उपर्युक्त प्रतीत अनागत और वर्तमान कमलों को अथवा यों कहो कि 1 से अहिंसात्मक विधि पूर्वक यह रसमरिण बनती है। सम्यग्दर्शन सम्यम्ज्ञान पीर सम्यक्चारित्र इन तीनों को समान रूप में लेकर कांक्षर विधि को पढ़ने से कर्मों को नष्ट करने वाले सिद्धान्त का उनके साथ में सम्मिश्रण करके अपने चञ्चल मन माप पाग को पीसने से मार्ग मिलता है जिसे अहिंसा परमो धर्मः कहते हैं। और यह यथार्थ रूप में उसकी चपलता मिट जाती है और वह स्थिर बन जाता है ।। ४४ ॥ प्रात्मा का लक्षण ही अहिंसा धर्म है । इस लक्षण धर्म से जो आयुर्वेद विद्या फिर उस शूद्ध पारा को ध्यान रूप अग्नि में पटपाक विधि से पकाया। बतलाई गई है यह धर्म श्री वृष भदेव आदि जिनेन्द्र के द्वारा प्राप्त हया हैrver जावे तो वह सम्यक् रूप से सिद्ध रमायन हो कर मच्चा रत्मवय रूपी रममणि और इसे सम्पूर्ण रागढ प नष्ट हो जाने के कारण जब सर्वज्ञता प्राप्त बन जाता है । तत्पश्चात् यही रसमरिण संसारी जीवों को उत्तम सुख देने में समर्थ हो गई तब भगवान ने बताया था। हो । इस तरह काम और मोक्ष इन दोनों पुरषार्थों को साधन कर देने वाला 1 दिगम्बर मुनि राग को जीतने वाले होने के कारण सूक्ष्म जीवों की यह भूवलय नामक अन्य है।४५।। हिंसा न हो जाए इस हेतु से वृक्ष के पत्ते उसकी छाल, उसकी जड़, शाखाएं, नवमअङ्क के आदि में श्री अरहन्त देव हैं जो कि बिलकुल निर्दोष हैं। फल आदि को न लेकर उन्होंने केवल पुष्पों से अपने पापुर्वेद शास्त्र की रचना उनमें दोष का लेश भी नहीं है। वह भगवान् मरहन्न देव विहार के समय में जब । को है । पुष्प में हिंसा कम है और इसमें ऊपर कहे हुए पंच.मंग का सार भी जब अपना पैर उठाकर रखते हैं तो उसके नीचे जो कमल बन जाता है उसको । होने से गुण अधिक है। अब आगे कुमुदेन्दु प्राचार्य का पारा या रस की महापद्याङ्क कमल कहते हैं। सिद्धि के लिए जो अठारह हजार पुष्प हैं उसमें से इधर एक को लेकर, बिहार के समय में भगवान के चरण के नीचे २२५ कमल रचे जाया, जिसका नाम "नागसम्पिगे" अर्थात् नागचम्पा है। उन चम्पा पुष्पों से बना ही करते हैं । उन कमलों में से सुरुडग के समय भगवान के चरण के नीचे जो रसमणी में सागरोपम गुरिणत रोग परमाण नष्ट करने की शक्ति हैं। उतना ही कमल होता है वह बदल कर घुमात्र खाकर दूसरे डग के समय भगवान के शरीर सौन्दर्य भी बढ़ता जाता है। जब सौन्दर्य, प्रायु शक्ति इत्यादि की वृद्धि चरण के नीचे दुसरा कमल पाया करता है। इसी प्रकार घुमाद खाकर नम्बर हो जाती है तब ममान रूप से भोग और योग की वृद्धि हो जाती है ॥५॥ बार हरेक कमल अाते रहते हैं ! अब भगवान के चरण के नीचे पहले आये जगत में एक ड़ि है कि सभी लोग पुष्प को तोड़ कर पूजा, अलंकार हुये कमल को तो अतीत कमल कहते हैं। चरण के नीचे पाकर रहने वाले यादि के निमिन से ले जाते हैं और वे सब व्यर्थ ही जाते हैं। यहाँ प्राचार्य कमल को वर्तमान कमल कहा जाता है। किन्तु घुमाव माकर प्रागे भगवान के । ने उन पुष्पों को सिद्ध रस बनाने के लिए ही तोड़ने की आज्ञा दी है । जो फूल चरण के नीचे आने वाले कमल को अनागत कमल कहते हैं। भगवान के चरण में चढ़ाया जाता है इसका अर्थ है कि वह सिद्ध रस बनाने उपयुक्त प्रकार की रसमणी के बनाने को गणित विधि को। के लिए ही चढ़ाया जाता है वह व्यर्थ नहीं जाता। प्राचीनकाल में भगवान की नागार्जुन ने अपने गुरुवर श्री दिगम्बर जैनाचार्य श्री पूज्यपाद स्वामी से जानकर । मृति को सिद्ध रसमणि से तैयार करते थे। जिस फूल से रसिमरिण बन गयी
SR No.090109
Book TitleSiri Bhuvalay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvalay Prakashan Samiti Delhi
PublisherBhuvalay Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Principle
File Size10 MB
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