________________
सिरि भूवलय
सर्वार्थ सिद्धि संघ वदलोर-दिल्ली उसी फल को तोड़ कर भगवान के चरणों में चढ़ाया जाता था। उन मूर्तियों इन फलों के घर्षरण से यह अन्तरात्मा परमात्मा बन जाता है। का अभिषेक करने से फिर उस धारा को मस्तक पर सिंचन करने मात्र इन परमात्मा के चरण कमलों के स्पर्श बाले कमलों की सुगन्ध से से कुष्ठादि महान् रोग तुरन्त नष्ट हो जाते थे। इस पद्धति का विज्ञान-सिद्धि । पारा रसायन रूप में परिणत होकर अग्नि स्तम्भन तथा जलतरण में सहायक से सम्बन्ध था। आजकल गन्धोदक में वह महिमा नहीं रही सारांश यह हे बन जाता है। कि वह पहले मूर्ति बनाने की विधि जो कि रसिमणी से बनाई जाती थी वह यह सेनगण गुरु परम्परा से ग्राया हुआ है, इस सेनगण में ही वृषभ नहीं रही। लेकिन इससे हमें आज के गन्धोदक पर अविश्वास नहीं करता। सेनादि सब गणधर परमेष्टि हए हैं, इन्हीं परम्परा में घरसेन प्राचार्य वीरसेन चाहिए क्योंकि अगर ऐसे छोड़ दिया जाय तो धर्म का घात भी होगा और जिनसेन प्राचार्य हुये हैं तथा इस भूवलय ग्रन्थ के कर्ता कुमुदेन्दु प्राचार्य भी इसी वह रसमणी भी नहीं मिलेगा । परन्तु आजकल बह पुष्प भी मौजूद है और
सेन संघ में हुये हैं तथा अनादि कालीन सुप्रसिद्ध जैन ऋग्वेद के अनुयायी जैन भगवान पर चढ़ाया भी जाता और उसमें रसमणि बनाने की शक्ति भो है लेकिन क्षत्रिय कलोत्पन्न जैन ब्राह्मण तथा चक्रवती राजा लोग भी इन्ही सेनगण के रसमणो बनाने को विधिन मालूम होने के कारण आजकल उसका फल हमें याचार्यों के शिष्य थे। सब राजाओं ने इन्हीं आचार्यों की आज्ञा को सर्वोपरि नहीं मिलता है अगर इसी भूवलय अन्धराज से विदित करने तो हम इस विधि प्रमाण मानकर धर्म पूर्वक राज्य किया था और उनकी चरण रज को अपने को जानकर रसिमणी प्राप्त कर सकते हैं। ऐसा ज्ञान कराने वाला केवल 1 मस्तक पर चढ़ाया था ।। ५६ से ६३ ।। भूवलय ग्रन्थ ही है ।। ५१ ।।
और इस मंगल प्राभूत का शृङ्खलाबद्ध काव्यांग है । वह वावशाल रूप ऊपर कही गई विधि के अनुसार भगवान के चरण कमल की गिनती
है।।६४॥ करके सम्यक् दर्शन भी प्राप्त कर सकते हैं और भगवान के शरीर में रहने वाले इस मंगल प्राभृत काव्य को चक्र में लिखे होने के कारण यह धर्म ध्वजा एक हजार पाठ लक्षणों से लक्षित चिन्ह भी हमें प्राप्त होंगे ॥ ५२ ।। के ऊपर रहने वाले धर्म चक्र के समान है। उस चक्र में जितने फूलों को खुद
अरहन्त भगवान के चरण कमलों की गणना करने का यह गुग्गाकार वाया गया है उतने ही अक्षरों से इस भूबलय की रचना हुई है। अब आगे उसके भंग है । लब्धांक को घात करने से जो अक पाता है उस भंगांग [ गुणनखंड] कितने अक्षर होते हैं सो कहेंगे। कहते हैं । यही द्वादशांग की विधि है। यह विधि गुरु परम्परा से आई हुई । स्व मन के दल में इन अंकों की स्थापना कर लेते समय इक्यावन, अनादि अनिधन भंग रूप है ५३-५४-५५ ।
बिन्दी पौर लाख का चतुर्थांश अर्थात् पच्चीस हजार कुल मिलकर ५१०२५००० इन सम्पूर्ण अतिशयों से युक्त होने पर भी भंग निकालने की विधि बहुत हजार होंगे ।।६५| सुलभ है । गुरु परम्परा से चले आये भंग रूप है।
उतने महान अंकों में ५००० हजार और मिला दिया जाय तो (५१०अठारह दोषों का नाश कर चुकने वाले परमात्मा के अंगों से प्राया हुमा ३००००) अंक होगा। इन अंकों को नवमांक पद्धति से जोड़ दिया जाय तो यह अंग ज्ञान है।
नौ हो जायेगा। भगवान का एक पाद उठाकर रखने में जितने कमल घूमे उतने सुलभता पूर्वक रहने वाले ये बारह अंग हैं मो दया धर्म रूप कमलपुष्पक कमलों में से सुगंधित हवा निकले, उतने परमाणुओं के अरूपी द्रव्य का वर्णन पत्तों के समान हैं अथवा यह सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र रूपात्मक हैं और आत्मा इस भूवलय में है। ऐसे मान लो कि एक कानडी सांगत्य छन्द के श्लोक में १०८ के अंतरंग फूल है।
असंयुक्ताक्षार मान लिया जाय तो उपयुक्त कहा हा अंक को १०८ से भाग