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________________ दसवां अध्याय घवल, जयषवल, विजय पवल, महाधवल इन चारों घबलों में रहने भगवान् की उपयुक्त वाणी अग्रयणीयादि चौदह पूर्व भी है ।१०. वाले प्रतिक्षय को अपने अन्दर समावेश करने वाला यह भूवलय सर्वज्ञ नौ अंक को घुमाकर सकलांगम निकालने की विधि को श्री दिव्य देव के शुद्ध केवल ज्ञान रूपी अतिशय के द्वारा निकलकर आया हुआ है। केवल । कर्णांक सुत्र कहते हैं ।११।। ज्ञान में जगत के सम्पूर्ण ऋद्धि और सिद्धि इन दोनों को अपने अन्दर जैसे वह चौदह पूर्व में अनेक वस्तुयें हैं और वे सभी प्रादि व अनादि दोनों समावेषा कर लिया है उसी प्रकार यह भूवलय ग्रन्थ भी अपने अन्दर विश्व के प्रकार की हैं। अतः यह भूवलय वस्तु भो है ।१२। सम्पूर्ण पदार्थ को अन्दर कर लिया है। द्वादशांग वाणी का बन्धपाहुड भी एक भेद है । और बन्ध में सादिजैसे थी भगवान महावीर के श्री मुख कमल से अर्थात् सर्वांग से तरह बन्ध, अनादि बन्ध, ध्रव बन्ध, प्रधव बन्ध, क्षुल्लक बन्ध, महा बन्ध, इत्यादि तरह की माई हुई सर्व भाषानों को श्री वीरसेन प्राचार्य ने संझप में उपदेश ! विविध भांति के भेद हैं। उपर्युक्त सभी बन्ध इस भूवलय में विद्यमान हैं।१३। किया था उन सबको मैं श्री कुमुदेन्दु आचार्य ने सुनकर इन सब विषयों को भूवलय! जो महात्मा बोग में मग्न हो जाते हैं उसे आध्यात्मिक बन्ध कहते अन्य के नाम से रचना की । है।।१४१ श्री दिव्य ध्वनि के क्रम से आये हुए विषय को गा धर्म के सा श्री धन प्रांत समवशरण रूपी बहिरङ्ग लक्ष्मी और धन अर्थात् समन्वय करके समस्त कर्नाटक देशीय जनता को एक प्रकार की विचित्र गरिरात । केवलज्ञान ये दोनों ऋद्धियाँ सलिष्ट है।१५॥ कथा श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य ने जो बतलाया है उसे हे भव्य जीवात्मन् ! तुम ! ' औषधिऋद्धि के अंतर्गत मल्लौषधि जल्लोषधि इत्यादि पाठ प्रकार सावधान होकर श्रवण करो।३। की ऋद्धियाँ होती हैं। वे सभी ऋद्धियां इस भूवलय के अध्ययन से सिद्ध हो आदि तीर्थंकर श्री वृषभ देव से लेकर आज तक चलाये गये समस्त ! जाती हैं। इन सबको पढ़ने के लिये क अक्षर की वर्णमाला से प्रारम्भ करना कथाओं को हे भश्य जीव ! तुम सुनो।४। । चाहिये ।१६-१७-१८। इतना ही नहीं बल्कि इससे बहुत पहले यानी अनादि काल से प्रचलित कादिसे नवमा बन्ध, टादि से नवमाङ्कबंग, पादि से नवमाङ्क भंग, की गई कथा को हे भव्य जीव तुम ! सुनो। । याद्यष्टरलकुल भंग, साद्यन्त से ........: और २७ स्वर से भङ्गाङ्क, . हे भव्य जीव ! तुम प्राचारांगादि द्वादशांग वाणी को सावधानतया वर्णमालाडू, तथा बन्धाङ्क इत्यादि अनेक गणित कला से सभी वेद को ग्रहण सुनो।६। यह भूवलय काव्य अनादि कालीन है, किन्तु ऐसा होने पर भी गणित करना चाहिये । अथवा ६४ अक्षराङ्क के गुणाकार से भी वेद को ले सकते हैं। के द्वारा गुणाकार करके इसकी रचना वर्तमान काल में भी कर सकते है. अतः। एसे गणित से सिद्ध किया हुधा यह भूवलय ग्रन्य है। यह माधुनिक भी है 1७1 ।१६, २०, २१, २२, २३, २४, २५, २६ । अनन्त के प्रनाद्यनन्त, साधनन्त, सादिसान्त, साद्यनन्त इत्यादिक भेद देव, मानव, नागेन्द्र, पशु, पक्षी, इत्यादि तिर्यञ्च समस्त नारकी हैं। उन मेदों में से यह भूवलय सिद्धान्त अन्य साद्यनन्त है। जीवों की भाषा ७०० ओर महाभापा १८ हैं। इन दोनों को परस्पर में मिला भगवान जिनेन्द्र देव की वाणी, वेद, पागम, पूर्व तथा सूत्र इत्यादिक कर इस भूवलय ग्रन्थ की रचना हमने (कुमुदेन्दु मुनि ने) की है । इस रचना विनिध मेदों से युक्त है और वह सब इस भूबलय में गर्मित है ।। की शुभ सम्मति हमें पूज्य पाद श्री वीरसेनाचार्य गुरुदेव से उपलब्ध हुई है ।२७।
SR No.090109
Book TitleSiri Bhuvalay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvalay Prakashan Samiti Delhi
PublisherBhuvalay Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Principle
File Size10 MB
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