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सिरि भुषलय
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जिनेन्द्रदेव ही सर्व संसार के काव्य हैं। वैदिक धर्म के अंतर्गत भी मुद्रित वेद में ऐसा प्रतिपादन किया गया है कि पाताल में छिपे हुए भूवलय रूपों वेद को विष्णु रूपी शूकर ने निकाला था । इस दृष्टि से वैदिक धर्म में शुकर का महत्वपूर्ण स्थान है | |१३|
भूवलय में ६४ अक्षर रूपी प्रसंख्यात अक्षर हैं और उतने ही श्रंक हैं। उसको बढ़ाने से संख्यात, असंख्यात तथा अनन्त ऐसे तीन रूप बन जाते हैं । किन्तु यदि उसे घटाया जाय तो सूक्ष्म से भी सूक्ष्म होजाता है अर्थात बिन्दीरूप हो जाता है। लोक में यदि एकीकरण न हो तो यह सुविधा नहीं मिल सकती अर्थात् न तो अनन्त ही हो सकता और न बिन्दी ही । रीछ ( भालू) के शरीर मैं अनेक रोम रहते हैं । किन्तु उन सभी रोमों का सम्बन्ध प्रत्येक रोम से रहता है अर्थात् एक रोमका दूसरे रोम से प्रभेद सम्बन्ध है । इसीलिए कुमुदेन्दु प्राचार्य ने उपयुक्त विषय का स्पष्टीकरण करने के लिए भालू का लांछन दिया है ११४ | यक्ष देवों का श्रायुध वज्र है और वह जैन धर्म की रक्षा करनेवाला सुदृढ़ शस्त्र है। ऐसा होने से शिक्षण के साथ-साथ रक्षण करता है । इस विषय को दिखाने के लिए श्राचार्य श्री ने वज्र का लांछन दिया है ।१५। तुष-माष कहने में यसि या उसा मंत्र का वेग से उच्चारण हो जाता है। इस चिन्ह को दिखाने के लिए आचार्य श्री ने हरिण का लांखन दिया है |१६|
सभी पुण्य को अपनाकर केवल १ पाप को त्याग करने को शिक्षा को बतलाने के लिए प्राचार्य श्री ने यहां बकरी का दृष्टान्त दिया है। क्योंकि बकरी समस्त हरे पत्तों को खाकर १ पत्ते को त्याग देती है ।१७। शब्दराशि समस्त लोकाकाश में फैली रहती है। इतना महत्व होने पर भी १ जीव के हृदयान्तराल में ज्ञान रूप से स्थित रहता है। इस महत्व को बतलाने के लिए नन्द्यावर्त का लांछन दिया गया है |१६|
सातवें बलवासुदेव वनारसी में ग्रात्म तत्व का चिन्तवन करते समय नवमांक चक्रवर्ती के साथ अपनी दिग्विजय के समय में मंगल निमित्त पूर्ण कुम्भ की स्थापना की थी । पवित्र गंगाजल से भरा हुआ उस पवित्र कुम्भ से मंगल होने में आश्चर्य क्या ? अर्थात् आश्चर्य नहीं है। इस विषय को सूचित करने के लिए कुमुदेन्दु भाचार्य ने कुम्भ वाहन को लिया है। १६
सर्वार्थ सिद्धि संघ बैंगलोर-दिल्ली
महंत सिद्धादि नौ पद को हमेशा अपने वालों को वह भद्र कवचरूप होकर रक्षा करता है। उस विषय को बतलाने के लिए कछुआ का चिन्ह दिया है इस कछुवे का वर्णन कवि के लिए महत्व का विषय है | २० |
समवशरण में सिंहासन के ऊपर जल कमल रहता है। तीर्थंकर चक्रवर्ती राज्य करते समय नील कमल वाहन के ऊपर स्थित थे। इसलिए यहां नोलोपल चिन्ह को दिया गया है | २१|
भूवलय में प्रानेवाले अन्तादि ( अन्ताक्षरी अर्थात् जिसका अन्तिम अक्षर ही अगले पच का प्रारंभिक अक्षर होता है) काव्य है। ऐसे श्लोक भूवलय में एक करोड़ से अधिक आते हैं। गायन कला में परम प्रवोरा गायक वीणा की केवल चार तंत्रियों से जिस प्रकार सुमधुर विविध भांति को करोड़ों रागरागनियों को उत्पन्न करके सर्वजन को मुग्ध करता है उसी प्रकार भूवलय केबल ६ अंकों में से ही विविध भाषाओं के करोड़ों श्लोकों की रचना करता है । इसलिए यह ६४ ध्वनिशास्त्र है। इसको बतलाने के लिए प्राचार्य ने श का चिन्ह दिया है | २२
भूवलय काव्य में अनेक बन्ध हैं। इसके अनेक बन्धों में एक नागबन्ध भी है। एक लाइन में खण्ड किये हुये तोन २ खण्ड श्लोकों को प्रन्तर कहते है। उन खण्ड श्लोकों का आद्यअक्षर लेकर यदि लिखते चले जायें तो उससे जो काव्य प्रस्तुत होता है उसे नागबन्ध कहते हैं। इस बन्ध द्वारा गत कालीन नष्ट हुये जैन वैदिक तथा इतर अनेकों ग्रन्थ निकल पाते हैं। इसे दिखलाने के लिये सर्पलांखन दिया है | २३ |
बोर रस प्रदर्शन के लिये सिंह का चिन्ह सर्वोत्कृष्ट माना गया है । शूर वीर दो प्रकार के होते हैं । १ राजा और दूसरा दिगम्बर मुनि इन दोनों के बहुत बड़े पराक्रमी शत्रु हुआ करते हैं। राजा को किसी अन्य राजा के चढ़ाई करने वाले बाह्य शत्रु तथा दिगम्बर मुनि के ज्ञानावरण आदि आठ अन्तरंग कर्म शत्रु लगे रहते हैं । श्रन्तरंग और बहिरंग दोनों शत्रुओं को सदा पराजित करने की जरूरत है। इन्हीं आवश्यकताओं को दिखाने के लिए धाचार्य ने सिंह लांछन दिया है | २४|
प्रथम अध्याय में भगवान् के चरण कमल की गणना में जो २२५ ( दो सौ पच्चीस ) संख्या का एक कमल चक्र बताया गया था उसे यदि चार से
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