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सिरि भूषलय
सचि सिद्धि संघ देनलालदल्ली ल व मात्रवादरू भेदवम् तोरदे । शिव विष्णु जिन ब्रह्म भू पाई भवभय हरिसेम्ब रत्न मूरन्कदे। नवकैलाश बैकुण्ठ ॥५४॥ यक शसत्य लोक वोमूरन कदप्रद । सु सौभाग्य दध्यात्म वनु ॥ पर सरिष समवसरण दिद होरबन्दु । दिशेगळ्हत्तनु व्यापिसिरुब ॥५॥ म हावीरवारिण येम्बुदे तत्वमसियागि । महिमेय मंगलवदु प. रा॥ महत्वबअणुविनोळ तोरुव । महिमेयवहिसिहविष्यप्राभूतद॥५६॥ मह सिद्धि काव्य वेन्देनिप ॥५७॥ सहनेयम् दयेयोडवेरसि ॥५६॥ महिमेय समतावादल ॥५६ सिहि समन्वयदोडवेरसि ॥६॥ कहियन कवम् कळेदिरिसि ॥६१॥ महिय भूवलयदोळ् वहिसि ॥६२॥ सहनेय विद्येयोळ् कूडि ॥६३॥ षहदन्कवदनेल्ल गुरिणसि ॥६४॥ महिमेय भाग सम्प्रहिसि ॥६५॥ इह परवेरडरो कट्टि ॥६६॥ रहमदन्कव नेलेगोळिसि ॥६७॥ वहिसिद धर्मदोळ् इरिसि ॥६॥ छह खण्डदागम विरिसि ॥६६॥ एहदंक अपुनरक्त लिपि ।।७। उहबद तिरुगिसि बिडिसि ॥७१॥ गहनद विषयच बहिसि ॥७२॥ इहबोळु मोक्षय वाहाँस ॥७३॥ अहमोन्दर पदविय सहिसि ॥७४॥ महावीर सिद्ध भूवलय ॥७॥ महिमेय त्रयत्न वलय ॥७६॥ दो षषु हदिनेन्टु राशियागिदाग । ईशरोळ् भेद तोरुवुदु ॥ राशि र* त्नत्रयदाशेय जनरिगे । दोषळिद वुद्धि बहुदु ॥७॥ स हवास सम्सार वागिर्व काल । महिय कळ्तले तोरुबुदु ॥ मह गा* रणावरणीय दोषवदळियलु । बहु सुखविह मोक्ष बहुदु ७८॥ विष हरवागलु चैतम्यवप्पन्ते । रससिद्धि अमरुतद श* क्ति ।। यशयागे एकान्त हटवदुकेटोडे । वशवप्पनन्तु शुद्धात्म ॥७९॥ र* तुनत्रयदे आदियद त । द्वितीययु द्वंत वेम्बन कर तरुतोयदोळने कांतवेने द्वैताद्व तथा हितदि साधिसिद जैनांक ॥८॥ हि* रियविनु मूरु सर मरिगमालेय। अरहंत हारदरत्न म* सरपरिणयन्ते सरर मर प्रोम्बत्त । परिपूर्ण मूरारु मूरु ॥१॥ य* शदन्कवदरोळगोमदम् कूडलु । वशदा सोन्नेगे ब्राम्ह, इ* वेसरिन लिपियंक देवनागरियेम्ब । यशवदे ऋग्वेददक ॥२॥ म् नुजराडुव ऋक्कु दिविजराडुव ऋक्कु । दनुजराड्डव ऋक्कु व* नद। विनयबु गोब्राह्मणेभ्यह शुभमस्तु। जिनधर्मसमसिद्धिरस्तु ।८३॥ घनव प्राक्त वृद्धिरस्तु ॥४॥ जिनवर्धमानांक नवम ॥८॥ एनुवंक लिपिय अक्षाम श ॥८६॥ एनुव समस्त शून्यांक ॥७॥ दनुज मनुजरयक्यदक ॥८॥ सनुमत धर्मदय्क्यांक ६॥ अनुदिन बाळविके यन्त्र ॥६॥ मतुजरेल्लर धर्मदंक ९१॥ कोनेयादि परिपूर्णबंक ६२॥ मनु मुनिगळ घ्यानदंक ॥६३॥ कनसिनोळ् शुभदादियंक ॥१४॥ मनुमयरायदतर्दक |n
जिनरूप साधनेयन्क ॥६६॥ इननंते ज्योतियायनक IItu घन कर्माटक रिद्धियंक ॥६॥
तनुविन परिशुद्धदनकम् HEEL कोनेयादि ब्राह्मि भूवलय ।' १०० सुॐ विशाल गरगनेय पूर्वानुपूर्विय । सविषयवागलवंत म सवियादियदु पश्चादानुपूर्वियदागे । नवदन्ते कोनेगे अद्वयत ॥१०॥ द* रशनज्ञान चारित्र मूर रोळ् । परमात्मरूपगिरता शा* सिरि मूर तदुभयवेने यत्रतत्रानु । वर पूर्वेय पपुअवयत ॥१०२॥ ध* ममबदिनतु समन्वयबागलु । निर्मलनद्वयत्न शा सके तर ॥ शरिगा मूरु आनुपूर्विगेबंदु । धर्मद ऐक्यबनु साधिपुदु ||१.०३।। म नयिद अनेकांत जयनर । जिन निरूपितवह शास् त् र ॥ दनुभय द्वयत कथच्चिदद्वयतद । घनसिद्धियात्म भूवलय ॥१०॥ सनुमत दिव्य सिद्धांत ॥१०५॥ जिन सिद्धरात्म भूवलय ॥१०६॥ कोनेयादियन्क भूवलय ॥१०७॥ घनघर्भदन्क भूवलय ॥१०॥ जनरिमनन्त भूवलय ॥१०॥ नेनेदाग सिद्ध भूवलय ॥११॥ अणुमहान् काव्य भूवलय ॥१११॥ जिनरवाक्यार्थ भूवलय ॥११२॥