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________________ आठवां अध्याय अब इस अध्याय में सिंहासन 'नाम के प्रातिहार्य का 'विशेष' व्याख्यान , थे वह सिंह है ? अथवा सर्व साधारण जिस पर बैठते हैं वह सिंह है ? अथवा के उपयोग में मानेवाले अतों का वर्णन किया जा रहा है। नवम अङ्क जिस | सजातीय विजातीय एक वरात्मक अनेक वर्णात्मक विभिन्न वनों में नाना प्रकार प्रकार परिपूर्णाङ्क है उसी प्रकार भगवान का सिंहासन भी परिपूर्ण महिमा से निवास करते हैं वह सिंह हैं क्या? या इन सभी से एक निराले प्रकार वाला होता है। उस पर जबकि भगवान विराजमान है। अतएव भब्ध जल का सिंह है? कौन सा सिंह ! इन सब शमानों का उत्तर नीचे दिया जाता तेनमः कहते हैं जो कि तीसरा प्रातिहार्य है। है।४-६-७ । श्री जिनभगवानसिंहासन पर विराजमान रहते हैं प्रतएव यह सिंहासन। ऊपर छह तरह की शंका है। भी भव्य जीवों का कल्याण करने वाला होता है । जिनेन्द्र भगवान का होना तो उसके उत्तर में भाचार्य महाराज कहते हैं कि यह निर्जीव सिंह है। फिर बहत मोटी बात है बल्कि जिन भगवान की प्रतिमा भी जिस सिंहासन पर भी दर्शक लोगों के अन्तरङ्ग में जिस जिस प्रकार का कषायावेश होता है उसी विराजमान हो जाती है तो उस सिंहासन की महिमा अपूर्व बन जाती है। यदि रूप में उसका दर्शन होता है। -१०-११ । स्वयं श्री जिन भगवान या उनकी प्रतिमा ये दोनों भी न हों तो अपने अन्तरङ्ग । वह सिंह शुद्ध स्फटिक 'मणिका' बना हुआ है। में ही भाव रुपी सिंहासन पर भगवान को विराजमान करके गणित से गुणा करते उस पर भगवान विराजमान होते हैं। १३ से १४ तक हुये उस काल की महिमा को प्राप्त कर लेना । १।। जिस सिंहासन पर भगवान विराजमान होते हैं वह सिंह भी कर्माटक है नवम, अष्टम, सप्तम, षष्ठ, पञ्चम, चतुर्थ, तृतीय, द्वितीत, प्रथम और कौ का नष्ट करने वाला है और जब भगवान उस सिंहासन पर से उतर शून्य इस रीति से नवकार सिंहासन है।२। कर चौदहवें गुण स्थान में पहुंच जाते हैं तब भगवान की कर्माटक (सर्वजीवों के इस प्रकार नवकार सिंहासन को सिद्धि के विषय में अनेक तरह की । कर्माष्टक को नष्ट कर देने वालो) भाषा रूपी दिव्यध्वनि भी बन्द हो जाती है। शंकायें उत्पन्न होती हैं। उन सब में पहली जो शङ्का है उसको हम यहां पर। यह भगवान के आसन रूप में आया हुआ सिंह मुनि के समान शान्त दीख पड़ता पूर्व पक्ष रूप में लिखते हैं। और उसका सिद्धान्त मार्ग से उत्तर देते हैं जो कि है। १५ से १७। भव्य जीवों के लिये सन्तोष जनक है। ३।। यहां पर सिंह को प्रासन रूप में क्यों लिया? इसका उत्तर यह कि सिंहासन यह समासान्त 'शब्द है जो कि सिंह और आसन इन दो वाब्दों : दिगम्बर जैन मुनि लोगसिंह के समान शूर वीरता पूर्वक क्षुषातृषादि वाईस परीसे बना हुआ है। उनमें से अगर आसन शब्द को हटा दिया जाय तो सिर्फ ! षहों का सामना करते हैं और उन पर विजय पाते हैं। १८ । सिंह रह जाता है यही वाद विवाद का विषय है । ४ । योगी लोग अपने मात्मानुभव के समय में इस सिंह के द्वारा क्रीड़ा किया करते हैं । १६ । सिंह जो कि बन में विचरण करता है जिसके कन्धे पर सटा की छटा ।' संसार का अन्त करनेवाले चरम जन्म में इस सिंह को प्राप्ति होतो रहती है जिसे देखते ही मानव भयभीत हो जाता है क्या यहां पर वही सिंह है? अथवा वर्द्धमान जिनेन्द्र का जो लाम्छन ( चिन्ह ) रूप है वह सिंह है ! या अनादिकाल से आज तक के भव्यों को यह सिंह अन्तिम भव में ही मिलता लेप्य कर्मात्मक (चित्र) सिंह है ! अथवा अरहन्त भगवान् जिस पर विराजमान आया है और आगे अनन्त काल तक होने वाले भव्य जीवों को भी अन्तिम शून्य सिंहासन, दन्त सिंहासन, रत्न सिंहसन, शारदासिंहासन इत्यादि नामों से गुरू पीठ या राज पीठ भाज भी दक्षिण में महिशूर (मैसूर) में क्रमशः चित्र वर्ग, दिल्मो, मारभूषनरसिंह राव मूत, पचणवेश गोल पोर मनेरौं मावि स्थानों में मौजूद है।
SR No.090109
Book TitleSiri Bhuvalay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvalay Prakashan Samiti Delhi
PublisherBhuvalay Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Principle
File Size10 MB
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