SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 250
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२६ सिरि भूषनध समर्षि सिधि संघ, बैंगलोर-विलो झे जावे यह प्रास्यविष नामक ऋद्धि है ।११३। है। इसका नाम प्राणावाय रस भी है। इसको विद्वान जानते हैं । यह त्यागियों जिन मुनियों की दृष्टि (देखने) द्वारा दूसरों का विष दूर हो जावे वह। के पाश्रम से प्रगट हुमा है ।१३०.१३८ . दृष्टि विव ऋद्धि है ।१४ इस प्रकार १८ हजार श्लोकों द्वारा इस भूवलय में १८ हजार पुष्पों ऐसे ऋद्धिधारक मुनि जिस जनमें रहते हैं उनके प्रभाव से उस बनकी वन-1 के प्रभाव को प्रगट करवाले पुष्पायुर्वेद की रचना हुई है ।१३॥ स्पतियों ( वृक्ष, बेल, पौधे प्रादि ) के फल फुल, पत्ते, जड़, छाल आदि भी अठारह हजार जाति के उत्तम फूलों से निचोड़ कर निकले हुए पुष्प महान गुणकारी एवं रोगनाशक हो जाते हैं।११५॥ रसको पारद के पुष्पों से मर्दन करके पुट में रखकर नवीन रस की पुटिका उन बतस्पतियों के स्पर्श हो जाने से विष भी अमृत हो जाता है ।११६।। को बांधकर उस पुट को पकाने के बाद रस सिद्धि तैयार होती है। तब यही श्रीजिनेन्द्र भगवान के कहे अनुसार उन वृक्षों के पत्र मद ( नशा रसायन नवीन कल्पसूत्र बंद्यांग अर्थात् माधुर्वेद कहलाता है ।१४०-१४१॥ मूर्खा) दूर करने वाले होते हैं 1११७। ___ यह आयुर्वेद श्री समन्त भद्राचार्य ऋषि द्वारा वशीभूत किया गया ऋद्धियों के उपयोग में आने वाले सरल वृक्ष ।११८१ प्राणावाय पूर्व के द्वारा निकालकर विरचित किया हुया असदृश्य काव्य है। तिरुह वृक्ष मादल (बिजौरा), वृक्ष की कली के प्रकं से दांतों का । और यह काव्य चरकादिक की समझ में न आनेवाला है । अर्थात् यह असहश्य मल दूर हो जाता है ।११६-१२२। काब्य है । इसको श्रवण वैद्यागम कहते हैं । यह श्रमण वैद्यागम अत्यन्त लक्षित इनके फूलों को कुण्डल की तरह कान में लगाने से कान बज समान । आयुर्वेद है और यह श्रवणों के द्वारा निर्माण होने से अत्यन्त रुचिकर है तथा हब बन जाते हैं।१२३। संसार के प्राणिमात्र का उपाकारी और हित कारक है । इसलिए भव्य जीवों उन पुष्प को सूचने से नाक के रोग नष्ट हो जाते हैं।१२४ की रूचि पूर्वक पढ़कर के इस वैद्यांग प्रर्यात् कथित आयुर्वेद कृति के अनुसार उन पुष्पों में अनेक गुण हैं ।१२५॥ इस औषधि को अगर जीव ग्रहण करेंगे तो इह पर उभब लोक सुखदायक इन समस्त पुष्पों को जानना योग्य है ।१२६॥ प्रारम हित साधन करने योग्य निरोग शरीर बन जाता है ।१४२-१४३। । सूर्य के उदय होने पर खिलने वाला कमल उदय पद्म है ।१२७१ इसका स्पष्टी करण श्री कुमुदेंदु आचार्य ने स्वयं करते हुए लिखा है इत्यादिक पुष्प पद्मावती देवी को परिणमा है 1१२॥ कि इस प्रायुर्वेद का नाम अहिंसा आयुर्वेद है और इस अहिंसा पुष्पायुर्वेद की राजा जिनदत्त इन पुष्पों को पद्मावती देवी के सामने बड़ाता था।१२६ परिपाटी ऋषियों तथा श्री तीर्थकर भगवानों के द्वारा निर्मित होकर परम्परा राजा जिनदत्त उन पुष्पों को पद्मावती देवी के शिर पर विराजमान से चलती आयी है। इस चौदहवें अध्याय में पुष्पायुर्वेद विधि को घरकादि भगवान पाश्र्वनाथ के चरणों पर चढ़ाता था। भगवान पार्श्वनाथ के चरणों ऋषि ने समझने वाले विधि को जिन दल राजा को श्री देवेन्द्रयति और अमोध के तथा पद्मावती देवी के शिर के स्पर्श से वे पुष्प प्रभावशाली हो जाते थे। वर्ष राजा को यो समस्त प्राचार्य ने साधन रूप में बताये गये पुष्पायुर्वेद विधि उन पुष्पों के रस से श्री देवेन्द्र यति ने महान चमत्कार दिखाया तथा वह रस ! का इस अध्याय में निरूपण किया गया है । देवेन्द्र यति ने राजा जिनदत्त को दिया। राजा जिनदत्त ने उस रस से अनुपम । अहिंसा मय आयुर्वेद के निर्माण कर्ता पुरुषों के उत्पत्ति स्थान तथा फल प्राप्त किया । उस रस को पैरों के तलुयों में लगाने से योजनों तक शोध ! उनके नगरों के नामचले जाने की शक्ति पा जाती थी। इसी कारण इसका नाम पाद रस ऋदि। ऋषभनाथ, अजितनाथ, अनन्तनाथ १४|
SR No.090109
Book TitleSiri Bhuvalay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvalay Prakashan Samiti Delhi
PublisherBhuvalay Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Principle
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy