________________
सिरि भूवजय
सार्च खिदि संच, बेगनोर-विम्ली
वह इस प्रकार है
चरणों का एक श्लोक होता है। इसमें से प्राचार्य श्री ने केवल अन्त चरण 4x7 = अथवा १४१ १
को ही बारम्बार गणना की है ।। १२४ ॥ अब भूवलय सिद्धान्त में पाने वाली द्वादशांग वाणी में द्रव्य थत के
यह मंगल प्राभूत का प्रथम अध्याय समाप्त हया । इसमें कुल ६५६१ जितने भी प्रक्षर हैं और उनके जितने भी पद होते हैं तथा एक पद में जितने
ग्रंकाक्षर हैं। कोह से यदि ३ बार गुणा किया जाय तो भी इतने अंकाक्षर भी अक्षर इत्यादि क्रम बद्ध संख्या को जहाँ-तही मागे देते जायेंगे। अब पा जाते हैं। इस अध्याय में चक्र हैं तथा प्रत्येक चक्र में ७२६ अक्षराङ्क है। असंयोगी भंग अर्थात् ६४ प्रक्षरों के द्विसंयोगी भंग को करते समय आने । यहाँ तक कानड़ी का १२५ वा श्लोक सभाप्त हुमा । बाले गुणाकार को यहाँ बतलाते हैं । ६४४६३ - ४०३२
अब इन कनाड़ी श्लोकों का प्रथमाक्षर ऊपर से लेकर नीचे तक यदि विसंयोगी भंग-संपूर्ण संसार में अनादि काल से लेकर आज तक
चीनी भाषा की पद्धति के अनुसार पढ़ते चले जायं तो प्राकृत भगवद्गीता
लिका प्राप्ती है । कानड़ी श्लोकों का मूल पाठ प्रारम्भ के जो काल बीत चुका है और पाज से लेकर अनन्त काल तक जो पाने वाला काल
पृष्ठों में पा चुका
है। अब उसका अर्थ लिखते हैं। जिन्होंने शानावरणी प्रादि पाठों कों को है उसकी जितनी भी भाषायें होती हैं तथा उसके पाश्रय पर चलने वाले जितने भी मत है उनके द्विसंयोगी सभी शब्द इस हिसंयोगी मंग में गभित हैं। भाव ।
जीत लिया है और जो इस संसार के समस्त कार्यो को पूर्ण करके संसार से यह है कि कोई भी विद्वान या मुनि अपनी समझ से नूतन जानकर जो अक्षरों।
मुक्त हो गये हैं तथा तीनों लोकों एवं तीनों कालों के समस्त विषयों को जो वासा शब्द उच्चारण करता है तो वह सब इसी में पा जाता है। प्रय
देखते रहते हैं ऐसे सिद्ध भगवान् हमें सिद्धि प्रदान करें। पदि ३ अक्षरों के भंग को निकालना हो तो हिसंयोमी भंग को ६२ से गुणा करें,
अब कनाड़ी श्लोक के मध्य में ऊपर से लेकर नीचे तक निकलने वाले चतु. संयोगी भंग निकालना हो तो त्रिसंयोगी भंग को ६१ से गुणा करे इसी
संस्कृत श्लोक का अर्थ लिखते हैं:प्रकार मागे मी यदि चतुःषष्ठि भंग तक इसी क्रमानुसार ६४ बार गुणा करते
अर्थात् "यो" एक अक्षर है । बिन्दी एक अंक है। इन दोनों को यदि जायें तो-६८५१८६४३३८०३७७४४८६१६८५४०३०२४०६८७१९१६३-1
परस्पर में मिला दें तो "घों" बन जाता है। मों बनाने के लिए अ, उ तथा म ३५४७३७-८७३४२६४०३७८७३५३०२२६६२६१५६४०२८४४१६०००
इन तीनों प्रक्षरों की जरुरत नहीं पड़ती। क्योंकि कानड़ी भाषा में स्वतन्त्र
प्रो अक्षर है। उन अक्षरों का नम्बर भूवलय में २४ बतलाया गया है। प्रो ००००००००००००० इतनी संख्या मा जाती है, जो किह से भाग देने पर शेष सून्य बचता है । यही १२३ श्लोकों से निकला हुआ अर्थ है 11 १२३ ॥
अक्षर को बिन्दी मिलाकर प्रों बनाकर योगी जन नित्य ध्यान करते हैं। क्योंकि अव यहां पर प्रश्न उटता है कि हजार-दस हजार पृष्ठ वाले छोटे से !
अक्षर में यदि अंक मिला दिया जाय तो अदभुत शक्ति उत्पन्न हो जाती है। भूवलय अन्य में से इतनी बड़ी संख्या किस प्रकार प्रगट हुई?
उस शक्ति से योगी जन ऐहिक और पारलौकिक दोनों सम्पत्तियों को प्राप्त उत्तर-इस मूवलय ग्रन्थ को लेखन शैली ही ऐसी है। यहाँ पर चार । कर लेते हैं।