Book Title: Samyaktva Suryodaya Jain arthat Mithyatva Timir Nashak
Author(s): Parvati Sati
Publisher: Kruparam Kotumal
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ . ॐ नमः सम्यक्त्व सूर्योदय जैन. ' अर्थात् मिथ्यात्व तिमिर नाशक. जिसको . TARAPEOPLEARNP ००००००००० IRRORSEELPAPARVARDANPRAK पEPAonePAARE जैनाचार्य पजावी श्री १००८ श्री परमपूज्य अमरसिंहजीकी संप्रदायमें : सनातन सत्य जैन धर्मोपदेशिका बाल ब्रह्मचारिणी जैनाचार्याजी श्रीमती श्री १००८ सतीजी श्री पार्वतीजीने बनाया... और लाला कृपाराम कोटूमल श्रावक .. हुशीआरपुर निवासीने छपवाया.. श्रीमदर्द्धमान स्वामी सम्बत् २४३१. वि० सम्वत् १९६२. , इ. स. १९०५, - श्री पूज्य अमरसिंही सम्बत् २४ All Rights Reserved. मूल्य रु. १) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Printed at the " Jain Printing Press." - AHMEDBAD. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूची पत्र.... नं. . विययः पृष्ठ अंक-पंक्ति अंक. , प्रम-तुम ईश्वर को मानते हो किम्वा नहीं ? सत्तर-हां, मानते हैं: सूत्र 'साख सहित ईश्वर सिद्धि . की गई है , ... ... ... . २ मभ-तुम ईश्वर, को कर्त्ता मानते हो किम्वा नहीं ' उत्तर-नहीं; क्यूं कि ईश्वर को कर्त्ता मानने से भर में चार दोष सिद्ध होते हैं उन चारों ... दोषों का दृष्टांत सहित विस्तार ... ७ . भौर गुरु चेले के प्रश्नोत्तर कर के प्रगट किया । - है कि कर्मों का करना भोगना कर्मों के भ. 'खत्यार है कि जीव के वा ईश्वर के ... २८ । । ३ प्रभ-चोर चोरी तो आप ही कर लेता है परन्तु . . कैद में तो आप ही नहीं जा धसता है. कैद में पहुंचाने वाला भी तो कोई मानना चाहिये. मुत्तर में इस पक्ष का खण्डन और जीव स्वतंत्रता से कर्म करता है फिर वह कर्म संधित हो कर फलदाता हो जाय और जीव 'परसंत्रता से निमित्त कारणों से भोगे इस्का विस्तार स्वमत परमत के शास्त्रों की शाख' ।' सहित किया गया है, ... ... ५. पार ___ म-कर्म तो जड है यह पलदायक कैसे हो . सकते हैं? उत्तर-शराब के दृष्टांत सहित दिया है ७२ ११. ५ मम-भलाजी ! परलोक में कर्म कैसे जाते हैं और ... ' ईभर के विना कमों को याद कौन करावे? . ' .. सर में इस पक्ष, का सपदन और परकोक Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . में अंसाकरणरुप हो के फी का जाना और ' उन्का निमित्तों से फल का होना सिद्ध किया है ७५ १७ प्रभ-क्यों जी, पहिले जीव है कि कर्म? उत्तर-जवि और कर्म दोनों ही अनादि है । पहल किसकी कहै ? प्रश्न:- तो फिर अनादि को से मुक्ति कैसे होय उत्तर में चार प्रकार के सम्बंधों का विस्तार सहित स्वरुप लिखा है. ८० .. • प्रभ-भजी, पदार्थ झान किसे कहते हैं ? उत्तर--संसार में २ पदार्थ है. १ चेतन २ जब; जिसमें परमाणु का स्वरूप और पुदगल के स्वभाव का प्रणामी होना जिस्की ४ अवस्था भौर पट् भेदका स्वरूप दृष्टांत सहित लिखा गया है ... ... ... ... ८९ । ८ प्रश्न-दृष्टि का कती ईश्वर ही को मानते है ? उत्तर में ईश्वर का कती न होना और सृष्टि का सिल सिला परवाह रूप अनादि होना सिद्ध किया गया है ... ... .१० २ ९ प्रभ-पदि ईश्वर को सृष्टि का कर्ता न माना जाय तो ईश्वर को जाना कैसे जाय ? उत्तरमें ईश्वर का स्वरूप शास्त्रद्वारा और .. दलील से भी जानना सिद्ध किया है १२१ ७८ • प्रभ-धर को सुख दुःख का दाता न माने तो ईश्वर का नाम लेने से क्या लाभ है ? उत्तर-वृत्ति की शुद्धि का होना ऐसा दृष्टांत सहित सिद्ध किया गया है. ... ... १२२ 2011 ३१ प्रभजन पहिले है कि आर्य ? इसका उत्तर-आर्य नाम तो जैनीयों का ही है, इस्में सूनका प्रमाण दिया है और जैनी आर्य भावक और साधुवों के नियम भी लिखे है , भौर जैनी साधों के उपदेश से राजा महाराजा.' "'. . Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नों को भी लाभ होता है ऐसा सिद्ध किया है. १२७ १२ पृच्छकः-अजी, हमने सुना है कि जैन शास्त्रों में मांस खाना लिखा है. इस्का सूत्र साख से । खण्डन किया है और शास्त्रार्थ मानने की . विधि लिखी गई है... ... ... १३५ । ८ १२ प्रश्न-अजी, हमारी बुद्धि तो चकित (हैरान है) कि मत तो बहोत हैं परन्तु एक दूसरे में भेद - पाया जाता है तो फेर सच्चा मत कौनसा है ? इस्का निर्पक्षता से उत्तर. और कई कहते हैं कि जैन में छोटे२ जीव जतुओंकी दया है । इस्का समाधान. और समाजियों के शास्त्र और धर्म का ढग लिखा गया है और वेदों को कौनर मानते हैं और उन्के न्यारेर ढगं भी लिखे हैं. वैदिक मतकी नदीये नास्तिक समुद्र में मिलती है ... ... , १४३ .. १३ -१३ प्रश्न-जैन में आयु अवगाहनादि बहुत कही है इस्का उत्तरः-सूत्रोंका कहना तो सत्य है परन्तु जैसे . वेदों से विरुद्ध पुराणों में कई गपौडे पेट भराऊनि घढ धरे हैं ऐसे ही जैन में भी सूत्रों से विरुद्ध ग्रन्थकारों ने ग्रन्थों में कई गपोडे लिख धरे हैं जिस से पराभव हो कर कई अझ जन सत्य धर्म से हाथ धो बैठे है इत्यादि. ... ... १६५ , २ " प्रभ-~-सर्व मतों का सिद्धांत मोक्ष है सो तुम्हारे । मत में मोक्ष ही ठीक नहीं मानी है, इस्के उत्तर में मोक्ष का स्वरूप भलि भांति सवि. स्तार प्रश्नोत्तर कर, के अपना जीवन कथन सहित लिखा गया है. ... .... १७० १५ प्रभ-तुम मोक्ष से वापस आना नहीं मानते है तो पुष्टि का सिलसिला बन्दना हो जायेगा ? . Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रीमें. सम्यक्त्व सूर्योदय जैन. रु. १) " सम्यक्त्व " अथवा " धर्मका दरवाना" किमत रु. ०. ( सम्यक्त्व और मित्यात्वका स्वरुप, जैन और अन्य मौके दृष्टांत और न्यायसे अच्छी तराहसे समझाये गये है. धर्मका और आत्मज्ञानका उपदेश भच्छा किया गया है.) आलोयणा ( अति शुन्द प्रत ) ०.३-० नित्य स्मरण ( सामायिक, स्तवनों, अणुपूर्वि, साधुवंदना, इ. त्यादि सहित ) विना मूल्य. ( पोष्ट खर्च ०)॥ भेजना) ५ धर्मतस्व सग्रह. ( दश विधि धर्म का विस्तार पूर्वक उपदेश हिंदीमें किया गया है. बहुत उत्तम पुस्तक है.) मूल्य रु. १) गुजरातीमें. १ 'आलोयणा ) २ धर्मतत्वसंग्रह १) । बार व्रत ); १०० प्रतके . ८) हित शिक्षा ( सर्व धर्मके लिये अत्यंत उपयोगी पुस्तक. गायकवाढ सरकारने मंजुर किया है. १२००० प्रत खप गइ है.) मूल्य रु. ०। १० प्रतका १॥ सती दमयंती. (सरकारने मंजुर की है ) ०-६-० पकाठा०॥ ६ सदुपदेशमाळा (१२ नीतिकी रसमयी वातीओ ) रु ८॥ .. ७ मधुमक्षिका ol ८ । आवश्यक भावार्थ प्रकाश ( प्रतिक्रमण अर्थ और टीका .सहित.) रु ८॥ m 20 पत्र व्यवहार"-"जैन हितेच्छु" ऑफिमका मेनेजर सारगपुर-अहमदाबाद ( गुजगत ) । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...... भूमिका. . कासं त्य धर्मामिलासी विद्वज्जनों को वि दित हो कि इस घोर कलिकाल में विशेष करके मतियों की सम्मति न होनेसे और पूर्व की अपेक्षा प्रीति के कम दोजाने से अर्थात् परस्पर विरोध होने के कारण, अनेक प्रकार के मत मतान्तरों का प्रचार हो रहा है, जिसको देख कर विधान पुरुष आत्मार्थी निष्पष्टिवाले कुछ शोक सा मानकर बैठ रहते हैं, परन्तु इतना तो विचारना ही पता है कि इस मनुष्यं लोक में दो प्रकार के मनुष्य हैं; (२) आर्य और (१) अनार्य, अनार्यों का तो कहना ही क्या है? जो आर्य हैं उनमें नी दो प्रकार के मत हैं: (१) आस्तिक, और (२) नास्तिक. “आस्तिक” उसको कहते हैं “जो होते पदार्थ को होता कहे"; अर्थात्-- . . . . 7 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. सर्वझ-सर्वदर्शी-निष्कलंक-निष्प्रयोजन-शुक्ष चेतन “परमेश्वर-परमात्मा” है; -: चेतना-वक्षण,सोपयोगी,सुख सुखके वेदक (अर्थात् जाननेवाले) अनन्त 'जीव' नी हैं। . .. ३. रूपी (रूपवाले) सर्व पदार्थोका - पादान कारण परमाणु आदिक "जम"नी हैं; ४. पुण्य-पाप रूप “कर्म"नी है, तिसका “फल" नी है; ,, ५. “ लोक ”-परलोक-"नर्क" "देवलोकरनी है; . ६. "बंध” और “मोद" नी है; 5. “धर्मावतार" तीर्थकर जिनेश्वर देव जी हैं; "धर्म" जी है; और “धर्मोपदेशक" जी हैं; 5. “कर्मावतार" बलदेव-वासुदेवजी हैं. इत्यादिक ऊपर लिखे पदार्थों को 'अस्ति' कहे सो "आस्तिक", और जो 'नास्ति' - - - - - - - - - - - - - - - - - Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'कहे सो "नास्तिक"; यथा [२] परमेश्वर नहीं, [२] जीव नहीं, [३] उपादान कारण परमाणु नहीं, [४] पुण्य-पाप नहीं, [लोक-परलोक-नर्क-स्वर्ग-नहीं, [६] बंध-मोद नहीं, [3] धर्मावतार तीर्थकर जिनेश्वर देव नहीं, धर्म नहीं, धर्मोपदेशक नहीं, और [] कर्मावतार बलदेव-वासुदेव नहीं. यह चिह्न नास्तिकों के हैं. । यथा पाणिनीय अपने सूत्रमें यद कहता है:-“परलोकोऽस्ति मतिर्यस्यास्तीति आस्तिकः” और “परलोको नास्तिमतिर्यस्यास्तीति नास्तिकः' परन्तु यह आस्तिक-नास्तिकपन नहीं है, जैसे कई एक अल्पज्ञ जन कह देते हैं कि, जो हमारे माने हुए मत को तथा शास्त्र को माने सो आस्तिक, और जो न माने सो ना. स्तिक”. यह आस्तिक और नास्तिक के नेद नहीं हैं; नला! यों तो सब ही कद देंगे कि, जो हमारे मत को स्विकार न करे सो नास्ति Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ कं. यह प्रास्तिक-नास्तिकपन क्या हुआ ? यह तो जगमा ही हुआ ! 2 बस ! नास्तिकों की वात तो अलग रदेने दो. अब प्रास्तिकों में भी बहुत मत हैं. परन्तु विचारदृष्टि से देखा जावे तो प्रास्ति-कों में दो मत की प्रवृत्ति बहुत प्रसिध हैं, (1) जैन और (२) वैदिक. क्योंकि यार्थ्य लोगों में कई शाखे जैनशास्त्रों को मानती हैं, प्रौर और बहुत शाखें वेदों को मानती हैं, अर्थातू जैनशास्त्रों के माननेवालों में कई मत हैं, और वैदिक मतानुयायीयों में तो बहुत ही मतभेद हैं. अब विद्वान पुरुषों को विचारणीय यह है कि, इन पूर्वोक्त दोनो में क्या २ नेद हैं ? वास्तव में तो जो अच्छी बातें हैं उनको २ तो सब ही विद्वानं प्रमाणिक समऊते हैं.. और भेद जी हैं; परन्तु सब से तो जैन और वेद में ईश्वर कर्त्ता बडा द कर्त्ता के वि Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षय में है. यथा कईएक मत जैन, बौध, जैमिनी, मीमांसा, कपिल, सांख्य आदिः ईश्वर को कर्त्ता नहीं मानते हैं; और वैदिक, वेदव्यास, गौतमन्याय, ब्राह्मण, वैष्णव, शैव, आदिक ईश्वर को कर्ता मानते हैं.... - अब ईश्वर के गुण, और ईश्वर का कर्ता होना अथवा न होना, इसका निश्चय करने को, और कुछ मुक्ति के विषय में स्व. मतपरमत के मतान्तर का संदेप मात्रं कथन करने के लिये “ मिथ्यात्व तिमिर नाशक, नाम ग्रंथ बनाने की श्चा हुई. इसमें जो कुछ बुद्धि की संन्दता से न्यूनाधिक वा विपरित लिखा जावे तो सुझ जन कृपापूर्वक उसे सुधार लेवें. ऐसे सजन पुरुषों का बडा दी 'उपकार समझा जावेगा. . . . यह ग्रंथ आद्योपान्त विचारपूर्वक निपदपात दृष्टि से (With UnprejudicedMind ) अंवलोकन करनेवाले श्रेष्ठ पुरुषों को मिथ्या भ्रम रूप रोगके विनाश करनेके लिये औप Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध रूप उपकारी दोगा.. , इस ग्रंथ में ईश्वरको कर्ता अकर्ता मा. नने के विषय में १५ प्रश्नोत्तर हैं, जिनमें ईश्वर को कर्त्ता मानने में चार दोष दिखाये गये हैं, और कर्म को कर्त्ता मानने के विषय में पदार्थज्ञान अर्थात् जीवका और पुद्गल का स्वरुप संदेप मात्र युक्तियों से स्पष्ट रीति से सिद्ध किया गया है. और जो वेदानुयायी पकित ब्राह्मण, वैष्णव आदिक हैं वह तो आवागमन से रहित होने को मोक्ष मानते हैं; परन्तु जो नवीन वेदानुयायी 'दयानन्दी वर्ग हैं वद मोद को नी आवागमन में दी दाखिख करते हैं. इस विषय का नी यथामति युक्तियों द्वारा खाएमन किया गया है. इसके अतिरिक्त, यतकिञ्चित् वेदान्ती अबैतवादी नास्तिकों के विषय में २० प्रश्नोत्तर हैं, जिनमें उनही के ग्रंथानुसार द्वैतलाव और आस्तिकता सिद्ध की गई है. .. y . . Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (श्री परमेष्ठिने नमः) श्री । सम्यक्त्व सूर्योदय जैन.. अर्थात् मिथ्यात्व तिमिरनाशक. - आरिया (दयानन्दी):-तुम इश्वर ___ को मानते हो वा नहीं ? .... जैनी:-हां! मानते हैं. . आरियाः--तुम सुनी सुनाई युक्ति से मानते हो वा तुमारे खास मत में अर्थात् किसी मूल सूत्र में भी लिखा है ? .. ., . .जैनी:-मूल सूत्र में जी लिखा है. : . आरियाः-सूत्रों के नाम ? .. .. ' - जैनी:- (१) आचाराङ्गजी, (२) समवायाङ्गजी, (३) जगवतीजी...... आरियाः-इन पूर्वोक्त सूत्रो में ईश्वर Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को किस प्रकार से माना है ? जैनी:-श्रीमत् आचाराङ्गजी के अध्ययन पांचवें, उद्देशे के के अन्त में एसा पाठ है:-. गाथा. ____ "न काऊ, न रूहे, न संगे, न इत्थी, न पुरुसे, न अन्नदा परिणे, सन्ने, उवमाण धिजाइ, अरुवी सत्ता, अपय सपय नत्थी, न सद्दे, न रूवे, न गंधे, न रसे, न फासे, इच्चे तावती तिबेमि" ... . . जिसका अर्थ यह है कि, मुक्त रूप ए.. रमात्मा अर्थात् सिइ जिसको (न काळ) काय नहीं अर्थात् निराकार, (न रूहे) जन्म मरण से रहित अर्थात् अजर अमर, (न संगे) राग द्वेषादि कर्म का संग रहित अर्थात् वीतराग सदैव एक स्वरूपी आनंद रूप, (न इत्थी न पुरूसे) न स्त्री, और न.पुरुष उपलक्षण से, न क्वीव,(न अन्नहा परिणे) न Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही है जिसकी अन्यथा प्रज्ञा अर्थात् विस्मृति नहीं, अल्पज्ञ नहीं, (सन्ने) झानसंझा. अर्थात् केवलज्ञानी सर्वज्ञ, (उवमाण विऊर) - पमा न विद्यते अर्थात् इस संसार में कोई ऐसी वस्तु नहीं कि जिसकी जपमा ईश्वर को दी जावे, (अरुवीसत्ता) अरूपीपन, (अपय सपयनत्थी) स्थावर जंगम अवस्था विशेष नत्थी, (न सद्दे) शब्द नहीं, (न रूवे) कोइ रूप विशेष नहीं अर्थात् श्याम, श्वेत आदि वर्ण नहीं, (न गन्धे) गन्धि नहीं, (न रसे) म धु, कटु आदि रस नहीं, (न फासे) शीतोषणादिक स्पर्श नहीं, (इच्छे) इति, (ताक्ती) ३त्यावत्, (तिब्बेमि) ब्रवीमि-कहता हुं.. आरियाः-यह महिमा तो मुक्त पद की कही है, ईश्वरकी नहीं. . जैनी-अरे नोले! मुक्त है सो ईश्वर है, और ईश्वर है सो मुक्त है. . इस स्थानमें मुक्त नाम ईश्वर का ही है, Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्यों कि इश्वर नाम तो और ऐश्वर्या वालोंका भी होता है, परन्तु खास नाम ईश्वर का मुक्त दी ठीक है; जैसे कि स्वामी दयानन्द ने जी "सत्यार्थ प्रकाश" (संवत १९५४ के उपे हुए) समुल्लास प्रथम पृष्ठ १६ मी पंक्ति नीचे ३ में ईश्वरका नाम मुक्त लिखा हैं; इसीको जैन मत में सिह पद कहते हैं. और नी बहत से ग्रंथों में ईश्वर की ऐसे ही स्तुति की गई है; जैसे कि मानतुङ्गाचार्य कृत "नक्तामर स्तोत्र" काव्य : श्लोक. . त्वामव्ययं विन्नु मचिन्त्य मसंख्य माद्यं । ब्रह्माण मीश्वर मनन्त मनंगकेतुम् । यो गीश्वरं विदितयोग मनेकमेकं। ज्ञानस्वरुप ममलं प्रवदन्ति सन्तः ॥१॥ इस उल्लिखित श्लोक का अर्थ:-हे प्रनो! सन्तजन आप को एसा कहते हैं: अव्ययम्-अविनाशी; विजुर्म-सव शक्तिमान्; अ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिन्त्य; असंख्य; आयं अर्थात् सब से प्रथम जदांतक बुद्धि पहुंचावें तुम्हें पहिले दी । पावें अर्थात् अनादि; ब्रह्मा ईश्वर अर्थात् ज्ञान आदि ऐश्वर्य का धारक, सब से श्रेष्ठ अर्थात् सब से उच्च पदवाला; अनन्तम् जिसका अन्त नहीं, अनंगकेतु-कामदेव-विकाबुद्धिके प्रकाश रुपी सूर्य को ढकने घाला केतु रुप जीस्का ज्ञान है; योगीश्वरम् विदित हुआ है योग स्वरुप जीनकु; अनेकमेकम् अर्थात् परमेश्वर एक नी है, और अनेक जी है; नावत्वं एक, व्यत्वं अनेक; अर्थात् इश्वर पदमें द्वैत नाव नहीं, ईश्वर पद एक ही रूप है. इत्यादि नामों से तथा ज्ञान स्वरूप और निर्मल रूप कीर्तन करते है. आरियाः-यह तो मानतुङ्गजी ने ऋषन देव अवतार की स्तुति की है, सि अर्थात् ईश्वर की तो नहीं? जैनीः ऋषनदेवजी क्या अनादि अ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ नन्त थे ? अरे जाई ! ऋषनदेवजी तो राजपुत्र, धर्मावतार, तीर्थकर देव हुए हैं, अर्थात् अन्होंने राज को त्याग और संयम को साध, निर्विकार चित्त-निज गुण रमण-आत्मानन्द पाया; तब अन्तःकरण की शुध्धिारा ईश्वरीय ज्ञान प्रकट हुआ, जिसके प्रयोग से जन्होने जाना और देखा कि, शुद्ध चेतनपरमात्मा परमेश्वर नी ऐसे ही सर्व दोष रहित-सर्वदा आनन्द रूप है. तब अज्ञान का अन्त होकर, कैवल ज्ञान प्रगट हुआ, लोकालोक, 'जम-चेतन, सुम-स्थूल, सर्व पदार्थों को प्रत्यक्ष जाना; अर्थात् सर्वज्ञ हुए. फिर परोपकार के निमित्त, देश देशान्तरों में सत्य उपदेश करते रहे; अर्थात् ईश्वर सिह स्वरुप ऐसा है-और जीवात्मा का स्वरुप एसा है-और जम पदार्थ परमाणु आदि का स्वरुप ऐसा है और इनका स्वभाव जम में जमता, चेतन में चेतनता, अनादि है-और Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ ऐसे कर्मबंध और मोक्ष होती है, इत्यादिक. पोर तुम भी इसी बात को मानते दो; परन्तु यथार्थ न समकने से और प्रकार से कहते हो. जैसे कि, इश्वर ने ऋषियों के हृदय में ज्ञान की प्रेरणा की, तब उन्होंने वेद कहे. सो हे जोले ! क्या इश्वर को राग द्वेष थी, जो कि उन चार ऋषियों के हृदय में ज्ञान दिया, और सब को न दिया ? रिया- जी ! जिनके हृदय शुद्ध 2 : होते हैं, उन्हीं को ज्ञान देते हैं. जैनी: -- तो बस ! वही बात जो हमने उपर लिखी है कि ईश्वर ज्ञान नहीं देता, जिन ऋषियों के हृदय तप-संयम से शुद्ध हो जाता दें, उनको स्वयं दी ईश्वर का ज्ञान प्राप्त हो जाता है. बस ! फिर वह ऋषजदेवजी देहान्त होनेपर रागद्वेष वा संज्ञा के प्रभाव से मोक्ष प्रर्थात् ईश्वर परमात्मा के प्रकाश में प्रकाश रूप से प्रविष्ठ हुए शामिल ތ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुए. उस मोदपद सिद स्वरुप की स्तुति की है. और इसी प्रकार से तुम लोग नी मानते हो. जैसे कि सम्बत् १५४ के बपे हुए “सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास की ३ री पृष्ठ ११ वी पंक्तिमें लिखा है, कि "B" आदि परमेश्वर के नाम यजुर्वेद में आते हैं, और ४ र्थ पृष्ट नीचेकी रम पंक्ति में और पृष्ट ५ मी की ऊपरखी रम पंक्ति में लिखा है, कि सर्व वेद सर्व धर्म अनुष्ठान रूप तपश्चरण जिसका कथन मान्य करते, और जिसकी प्राप्ति की श्ला करके ब्रह्मचर्याश्रम करते हैं, उसका नाम "ॐ"कार है. अब समऊने की यद बात है, कि जिसकी प्राप्ति अर्थात् परमेश्वर के मिलने की श्वा करके तप आदि करते हैं अर्थात् प्राप्ति होना, मिलना, शामिल होना इनका वास्तव में एक ही अर्थ है. आरिया:-जैन मत में तो, जीव त Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प-संयम से शुक्ष हो कर मुक्त होता है उसे दी सिछ अर्थात् ईश्वर मानते हैं; अ. नादि सिद्ध अर्थात् ईश्वर कोई नहीं मा नते हैं. जैनः-उत्तराध्ययन सूत्र-अध्ययन ___३६ गाथा ६५ में सि को दी अनादि कहा है: (गाथा.) एगत्तेण साझ्या अपऊवसीया 'विय पुहुत्तेण अणाश्या अपजावसिया विय ॥६६॥ (एगत्तेण) को एक तप-जप से निकर्म हो कर सिधपद को प्राप्त हुआ उसकी अपेक्षा से सिम (साश्या) आदि सहित, (अपजवसीया) अन्त रहित माना गया है; और (पहुत्तेण) इस से पृथक् वहुत की अपेदा से सिम (अनाश्या) आदि रहित अर्थात् जिसका आदि नहीं है, (अपऊवसिया) Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्त रहित (अन्त नहीं जिसका) अर्थात्, अनादि-अनन्त ऐसें कहा है जो महात्मा कर्म क्ष्य करके मोक्षपद को प्राप्त हुए हैं ननकी अपेक्षा से तो सिद्ध, आदि सदित और अन्त रहित माना गया है; और जो सिघ पद परम्परा से है वह अनादि-अनन्त है. (आरिया:-) वह नी तो कनी सिघब ना होगा. ' (जैनी:-) बना दुआ कदे तो आदि हुए अनादि की तो आदि नहीं हो सकती और अनन्तका अन्त नहीं हो सकता क्योंकि जब सूत्रम सिछको-अनन्त कह दिया तो फिर बना हुआ अर्थात् आदि कैसे कही जावे ? - (आरियाः-) “सत्यार्थ प्रकाश" UGG प्रष्ट १३ वीं पंक्तिमें लिखा है कि जिस पदार्थको स्वन्नाघ 'एक देशी' होवे उसका गुणकर्म स्वनावनी 'एक देशी' हुआ करता है. ३ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. जैनी:-यह बात ठीक नहीं है, क्यों कि जो मोटा और बड़ा हो क्या उसमें गुण, जी बमे होवें ? और जो ब्रोहा-पतला हो । समें गुण जी गेट्टे अर्थात् स्वल्प होवें ? पर। न्तु सूर्य तो एक देशी' और गेहा होता है, और उसका प्रकाश वमा सर्वव्यापक होता है, कहो जी, यह कैसे ? . . ... आरियाः-तुम इश्वर को कर्त्ता मानते हो वा नहीं ? . . . . . . जैनीः-ईश्वर कर्ता होता तो हम मानते क्यों नहीं ? . आरियाः-तो क्या ईश्वर कर्त्ता नहीं है? जैनीः-नहीं; क्यों कि हमारे सूत्रों में और हमारी बुद्धि के अनुसार, किसी प्रमाण से जी ईश्वर का सिद्ध नहीं हो सकता है: तुम ईश्वर को कर्त्ता मानते हो? .. Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त प्रारियाः -- दां; हमारे मत का तो सिधान्त ही यह है कि ईश्वर कर्त्ता है. 'जैनी: -- ईश्वर किस २ पदार्थ का क 1 र्त्ता है ? प्रारिया :- सर्व पदार्थों का. जैनीः - पदार्थ तो कुल दो हैं:- (१) चेतन और (२) जम. चेतन के रजेद:- (1) परमेश्वर चेतन और (२) संसारी अनन्त जीव चेतन. जम के श्नेदः - (१) अरूपी (आकाश कालादि) और (2) रूपी (परमाणु आदि) सो तो अनादी हैं. अब यह बतायो कि ईश्वर कोइ नया जीव अथवा नया परमाणु बना सकता है वा नहीं. प्रारियाः नहीं. जैनी :- तो फिर तुम्हारे ईश्वर ने बनाया ही क्या ? बस ! तुम्हारा पूर्वोक्त ईश्वर को सर्व पदार्थ कर्त्ता कहना यह मिथ्या सिद्ध हुआ.. Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( आरिया मौन हो रहा. ) जैनी :- मला ! यद तो बताओ कि ईश्वर (स्वतंत्र) खुद अख्तियार दे वा परतंत्र ( पराधीन) अर्थात् वे अख्तियार है. आरिया :- वाहजी वाह ! आपने यह कैसा प्रश्न किया ? ईश्वर के स्वतंत्र होने में कोई किसी प्रकार का सन्देद कर सकता है ? ईश्वर तो स्वतंत्र दी है. जैनी : - ईश्वर किस श्कर्म में स्वतंत्र है ? रियाः - ईश्वर के जी क्या कर्म हु { C या करते हैं ? 1. रिल २ 1 जैनी:- तुम तो ईश्वर के कर्म मान ते हों. · प्रारिया:-- दम ईश्वर के कैसे कर्म मा नते हैं ? जैनी:- तुम ईश्वर को न्यायकारी ( न्याय करने वाला दण्म देने वाला), अपनी Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इचा के अनुसार सृष्टि के रचने वाला मानते हो. . . ". - आरियाः-हां ! इसको तो हम स्विकार करते हैं. . ..जैनी-न्याय करना जी तो एक कर्म ही है; और दक देना नी एक कर्म ही है. श्वा जी तो अन्तःकरण की स्थूल प्रकृति (कर्म) है. सृष्टि का रचना ली तो कर्म है . आरियाः-(किञ्चित् मौन हो कर) दां! मुझे स्मरण है कि हमारे “ सत्यार्थ प्रकाश ” के ६३४ पृष्ठ की १२ पंक्तिमें ईश्वर और उ सका गुण कर्म स्वन्नाव ऐसे लिखा है... ... ....... .जैनी जला! यह तो बताओ. कि ईश्वर कोन से और कितने कर्म करता ? ... ...आरियाः कर्मों की संख्या (गिनती) तो नहीं की है.... Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ - जैनी:- तो फिर ईश्वर जी हमारा ही जाई.उहरा; जैसे हम अनेक कर्म करते हैं एसे ही ईश्वर जी करता हैं तो फिर जिल प्रकार ले हम को कर्म का फल भोगना पडता है, इसी प्रकार से ईश्वर को भीनोगना पनला होगा; वा, जैसे हमें कर्म फल जुगताने वाला ईश्वर को मालते हो, ऐसे ही ईश्वर को नीको और ही कर्म फल जुगताने वाला मानना पमेगा. (आरिया मौन हो रहा.) . . जैनी-जीव स्वतंत्र दै वा परतंत्र ? ; आरियाः स्वतंत्रः जैनी:-जीव में स्वतंत्रता अनादि है वा आदि ? स्वतः सिच है वा. किसीने दी है? यदि अनादि मानोगे तो जीव स्वयं ही कर्त्ता सिद्ध हुआ; इसमें फिर ईश्वर की क्या आवश्यकता (जरूरत) रही ? यदि आदि से(किसी की Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईश्वर की.) दो दुइ मानोगे तो ईश्वर में दो दोष प्राप्त होंगे. पारियाः-कौन से? जैनी:-एक तो प्रथम अल्पता और मितीय अन्यायकारिता.' आरियाः-किस प्रकार से ? जैनी:-इस को हम विस्तारपूर्वक आगे कहेंगे. अब तो तुम यह बताओ कि तुम ईश्वर में कौन से गुण मानते हो ?' __ आरियाः-गुण तो बहुत से हैं; परन्तु संक्षेप से चार गुण विशेष प्रधान (बमे) हैं. जैनी:-कौन से ? . ... ... श्रारियाः-१. सर्वका; २.सर्व शक्तिमान; ३. न्यायकारी और ४. दयाबु., , जैनी:-ईश्वर को कर्ता मानने से ईश्वर में इन चारों ही गुणों का नाश पाया जावेगा, प्रारिया:-किस प्रकार से ? . . . Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२३ जैनी :- इस रीति से आप यह तो बताइये कि ईश्वर को न्यायकारी तुमारे मत में किस प्रकार से मानते हैं ? * आरियाः -- राजा की तरद; जैसे चोर चोरी कर लेता है, फिर वह चोर स्वयं ही कारागार में ( कैद में) नहीं जाता है; उस को राजा ही दम देता है ( कैद करता है). ऐसे दी ईश्वर जीवों को उन के कर्म का दएक (फल) देता हैं. जैनी :- वह तस्कर (चोर) राजा की सम्मति ( मर्जी) से चोरी करता है वा प्रपनी ही इच्छा से ? प्रारिया:- अपनी इच्छा से; क्यों कि राजा लोगों ने न्यायकारी पुस्तक बना रक्ख हैं, और प्रत्येक स्थान में घोषणा करवा दी हैं कि कोई भी तस्करता ( चोरी ) मत करे; और अपने पहरेदार नियत कर रक्खे हैं, इत्यादि. Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " जैनी:-क्या, राजा में चोरों के रोकने की शक्ति नहीं है ?.. ... . : ... आरियाः-शक्ति तो है; परन्तु राजा के परोक्ष चोरी हुआ करती है. .. “जैनीः-यदि राजा को किञ्चित् मात्र जी समाचार मिले, कि चोर चोरी करेंगे वा कर रहे हैं, तो राजा चोरी करने देवे वा नहीं ? ... आरियाः कदाचित् जी नहीं. जैनी:-तो क्या करे ? आरियाः-यदि राजा को प्रतीत (मासम) हो जावे कि मेरे नगर में चोर आए हैं वा चोरी कर रहे हैं अथवा करेगें, तो राजा उनका प्रथम ही यत्ल कर देवे अर्यात् जमानत ले लेवे किंवा कैद कर देवे, इत्यादिक. ... जैनी: यदि राजा ऐल्ला प्रबन्ध (इन्तियाम् ). न करे अर्थात् प्रथम तो चैनसे चोरी कर लेने देवे और फिर दक देने को Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुसन्न-६ अर्थात् होश्यार हो जावे तोराजा को कैसे समझना चाहिये ? आरियाः-अन्यायशाली अर्थात् बेइनसाफ. - जैनी:-बस! अव देखिये कि तुम्हारे ही मुख से ईश्वर को राजा की तरह का मानने में तीन गुणो का तो नाश सिह हो चुका. आरियाः-किस प्रकार से ? ... जैनी:-क्या तुम्हें प्रतीत (मालूम) नहीं हुआ ? आरियाः-नहीं. जैनीः-लो, सुनो ! जब कि तुम ईश्वर के कर्तत्व अर्थात् कर्ती होने के विषय में राजा का दृष्टान्त देते हो, तो इस में युक्ति सुनो. नला! यह तो बताइये कि चोर ईश्वर की प्रेरणा (श्वा) से चोरी करने में प्ररत्त होता हे वा अपनी श्बा से? Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरियाः-अपनी ही चा से... जैनी:-क्या, ईश्वर में चोरों को चोरी से रोकने की शक्ति नहीं है? क्यों कि, विना ही श्या के काम तो उर्बल अर्थात् कमजोर वा परतंत्र [ पराधीन ] के होते हैं; और इश्वर तो स्वतंत्र [खुद मुख्त्यार] और सर्वशक्तिमान् स्वीकार [माना गया है, तो फिर उस की इबा के बिना ही चोरी क्यों कर हुई ? इससे यह समझा जावेगा कि ईश्वर सर्व शक्तिमान नहीं है; क्यों कि ईश्वर की इंहा के विना ही कुत्सित ( खोट्टे ) कर्म होते हैं, जिस प्रकार से तुमारे सम्बत् १५४ के उपे. हुए "सत्यार्थ प्रकाश " के १९३ पृष्ट में लिखा हैः-( प्रश्न ) परमेश्वर क्या चाहता है ? (उत्तर).सब की नला और सव का सुख चाहता है. अब विचारने की बात है कि वह तो चाहता नहीं कि किसी की बुराई वा किसी को कष्ट हो (कुकर्म हों);परन्तु होते है. Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस लिये ज्ञात हुआ कि ईश्वर कारण वश अर्थात् लाचारी अमर से लाचार है इस वास्ते यद प्रथम ईश्वर में अशक्ति दोष सि-हुआ. __आरियाः-ईश्वर में चोरों को रोकने की शक्ति तो है परन्तु ईश्वर की बेखबरी में चोरी होती है. - जैनीः-तो फिर ईश्वर सर्वज्ञ न रहा. क्यों कि सर्वज्ञता के विषय में बेख़बरी का . शब्द तो कदापि नहीं घट सकता. जो सर्वज्ञ है वद तो सर्व काल (नूत, जविष्य, वर्तमान) में सर्व पदार्थों को जानता है. इस लिये यह द्वितीय [दूसरा ] अल्पज्ञता रूप दोष सिद्ध हुआ. आरियाः-ईश्वर ने तो राजा की तरह (न्याय पुस्तक) अर्थात् कानून के पुस्तक वेद बना दिये हैं, और पहरेदार वत् रक्षक साधु वा उपदेशक घोषण अर्थात् ढंमोरा फेर रहे हैं; परन्तु जीव नहीं मानते.. Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनी-अरे भाई! यही तो ईश्वर के कर्ता मानने में, वा राजा की जान्ति दृष्टान्त देने में, दो दोष सिम होने का लक्षण दी है. क्यों कि राजा को अल्प शक्तिमान् और अल्पज्ञ होनेसे ही न्याय पुस्तक-कानून की किताबें बनाने की और पहरेदारों के रखने की आवश्यकता अर्थात् जरूरत होती है. ऐसे ही ईश्वर में कर्तामानने से दो दोष सिह दुए हैं. क्यों कि जिसमें सर्वशक्ति हो और जो सर्वज्ञ हो, उसकी इहा के प्रतिकूल अर्थात् वर्खिलाफ काम कनी नहीं हो सकता. यदि दो नी तो पूर्वोक्त राजा कीसी तरह तृतीय [ तीसरा ] दोष अन्यायकारित्व का अर्थात् बेश्नसाफ होने का माना जावेगा. जसे कि किसी पुरुष के कई एक पुत्र हैं. और पिता की इन्चा सब पुत्रों के सदाचारी (नेक) और बुद्धिमान् [अक्लमन्द] और धनाढ्य (दौलतमन्द) दोने, की है. यदि पिता, Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 . के अधीन हो तो सब को पूर्वोक्त एक सार करे. परन्तु पिता के कुछ अधीन में नहीं, जनही के पूर्व कर्मों के अधीन है. कोई कर्मों के अनुसार बुद्धिमान और कोई मूर्ख, और कोई धनाढ्य ओर कोई दरिद्री, और कोई कुपात्र, और कोई सुपात्र होते हैं. अब देखिये कि किसी के पुत्रने किसी कारण से जहर खा खि - या; जब उस को कष्ट हुआ तब उस का पिता और पिता के सजन जन खाए और मालूम किया कि इसने जहर खाया है; तब जस के पिता को सब सजन पुरुष उपालम्भ ( जलांजा ) देने लगे कि तूने इस को जदर क्यों खाने दिया ? तब उसका पिता बोला, कि मला ! मेरे सन्मुख (सामने) खाता तो मैं कैसे खाने देता ? मेरे परोक्ष [परोखे ] खा लिया है. अथवा फिर उस के पिताने कदा कि खाया तो मेरे प्रत्यक्ष [सामने] ही है. तब सजान पुरुषों ने कहा कि तूने जहर खाते Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुए इसे क्यों कर नहीं रोका? तब पिता बोला कि मैं हटाने में बाकी नी रखता ? मैने तो इस के हाथ में पुमिया देखते ही हाथ पकड लिया और वहुत निरोध किया अर्थात् हटाया, परन्तु यह तो बलात्कार (जबरदस्ती) से दाथ छुमा कर खा दी गया. मैं फिर बहुत लाचार हुआ. क्यों कि मेरे में इतनी शक्ति कहां थी, जो कि मैं इस के साथ मुष्टियु अर्थात् मुकम्मुका दो कर इसे जहर खाने से रोकता: अब आप समझ लीजिये कि पिता की बे खबरी में और शक्ति से बाह्य (बाहर ) हो कर पुत्र के जहर खाने से तो पिता के जिम्मे अन्याय कदापि सिद्ध नहीं हो सकता; परन्तु, पिता को खबर ली हो और छुमाने की शक्ति भी हो, फिर पुत्र को विष खाने देवे और खाने के अनन्तर (पी) पुत्र को दसक अर्थात् घर्षण (झिडका) आदि देये, तो वह सजन पुरुष पिता को अन्यायकर्ता (वेश्नसाफ) Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " कहें या नहीं, कि अरे मूर्ख ! तेरे सामने ही तो इसने विष (जहर ) खाया, और यद्यपि तेरे में रोकने की पूर्ण शक्तिन्नी थी, तथापि तूने उस समय तो रोका नहीं, और अब इसे तूं दएक देता है! अरे अन्यायी! अब तूं नलाबनता है! इसी प्रकार से तुमनी ईश्वर को क्या तो अल्पज्ञ और शक्तिहीन मानोगे नहीं तो अन्यायी. यह तृतीय (तीसरा) दोष अवश्य ही सिद्ध हुआ. अब चतुर्थ (चौथा) सुनो. कहोजी! तुम्हारे वेदों में ईश्वरोक्त (ईश्वर की कही हुई) यद ऋचा है कि “ अहिंसा पंरमो धर्मः " ? आरियाः-हां! हां! जी सत्य है. जैनी-तो यह लाखों गौ आदिक प. शुओं का प्रतिदिन कसाई आदिक वध करते हैं यह क्या ? यदि ईश्वर कीश्चा से होते हैं, तो ईश्वर की दयालुता कहां रही ? इस नान्ति से यह चतुर्थ (चौथा) दोष निर्दयता का Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सि हुआ. और "अहिंसा परमो धर्मः" यह कहना कहां रदा? यदि विना मर्जी से कहो, तो ईश्वर नन हिंसकों (कसाईयों) से मर कर क्या लाचार दो रहता है? जो किचनको रोक नहीं सकता तो पूर्वोक्त शक्तिहीन ठहरा; अ. र्थात् सर्वशक्तिमान न रहा. आरियाः-ईश्वर ने जीवों को स्वतंत्रता अर्थात् अख्तियार दे दिया है, इस कारण सें अव रोक नहीं सकता; जो चाहें सो करे. जैनी:-बस! अब तुम्हारे इस कथन से हमारे पूर्वोक्त [पहले कहे हुए] दो दोष सि हुए. आरियाः-कौन से वह दोष हैं ? जैनीः-एक तो अल्पज्ञता, और दूसरी अन्यायता. आरियाः-किस प्रकार से ? जैनी:-इस जान्ति से; ईश्वर को प्रतीत (मालूम) न होगा कि यह जीव हिंसा Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ary आदि पूर्वक खोटे कर्म करेंगे.यदि मालूम होतो, तो ऐसे ५ उष्टकर्म करनेवाले जीवों को ईश्वर स्वतंत्रता कदापि न देता. इस से प्रथम अल्पज्ञता का दोष सिंह हुआ. यदि मालूम था, तो ऐसा उष्ट कर्म करनेवाले जीवों को ईश्वर ने स्वतंत्रता (अख्तियारी) दी, सो मदा अन्याय है.क्यों कि, अब जी राजा लोग उष्ट कर्म करने वाले [स्वामी की मर्जी से प्रतिकूल अथात् बिना आज्ञा से चलने वाले]उष्ट जनों को स्वतंत्रता नहीं देते हैं. इस से दूसरा अन्यायता का दोष सिद्ध हुआ. आरियाः-ईश्वर उन कसाईयों से उन जीवों का कर्म फल (बदला) जुगताता है. जैनी:-तो फिर ज्यों नी ईश्वर के ही जिम्मे दोष आवेगा. क्यों कि जब गौ के जीव ने कर्म कसाईयों से जुगताने वाले करे होंगे, तवजी तो ईश्वर मौजूद ही होगा.फिर वद कर्म ईश्वर ने कैसे करने दिये,जिन का फल(बदला) Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ जुगताने में ईश्वर को कसाई-पापी वनाने पर्छ? यदि ऐसे कहोगे कि वह गौ का जीव स्वतंत्र है, अपनी अख्तियारी से कर्म करता है, तो . फिर वह जिव स्वयं ही कर्ता अर्थात् अपने कर्मों का कर्ता (अपने फेलों का फायल) रहा, इस से ईश्वर तो कर्ता न ठहरा. यदि ऐसे कहोगे कि ईश्वर ने ही जीवों को स्वतंव्रता (अख्तियार) दिया है, तो फिर वही दो दोष विद्यमान (मौजूद) हैं: (१) अल्पज्ञता और (२) अन्यायता.यदि यह कहोगे कि वह कर्मनीश्वर ही ने करवाये हैं,तब तुम आप ही समऊ लो कि तुम्हारे ईश्वर की कैसी दयालुता और न्यायता है! तुम्हारी नान्ति मुसल्मान दोगनी खुदा को कर्त्ता मानते हैं. मुसल्मानः-खुदा के हुक्म विना पत्तानी नहीं दिल सकता. जैनीः-खुदा को क्या र मंजूर है ? - मुसल्मानः (१) रहम दिली, (२) स . . . . . . . त Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - च बोलना, (३) इमानदारी, (४) बन्दगी वगैरः२ जैनी:-क्या ना मंजूर है ? . मुसल्मानः-(२) हरामी, (२) चोरी, । (३) चुगलखोरी, (४) वे रदमी,(५) वे इमानी, (६) ब्याज खाना, (४) सूअर मांस, () मदिरा (शराब), वगैरः २ . जैनी:-तो फिर खुदा के हुक्म बिना न__ पर लिखे हुए दुष्ट ( खोहे) कर्म क्यों हो ते हैं? अब या तो तुम्हारा पहिला कथन [कहना] गलत है कि, खुदा के हुक्म बिना पत्ता नी नहीं हिलता; (२) या तो खुदादी के हुक्म से उपर लिखे दुष्कर्म होते हैं! तो यद तुम ही विचार कर लो कि तुम्हारा खुदा फैसे दुष्ट कम करवाता है ? (३) क्या खु.. दा के हुक्म से विनादुष्ट कर्म करने वाले खुदा से बलवान् (जबरदस्त) हैं, जो खुदा को रद्द [अदल] के निन्दित कर्म करते हैं? अव यह Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बताइये कि इन पूर्वोक्त तीनों बातों में से कौन सी बात सत्य है ? बस ! अब पूर्वोक्त दोनों प्र-- श्नोत्तरों के अर्थ को निरपक्षदृष्टि से देखो और सोच समऊ कर मिथ्या व्रम का त्याग करो और सत्य का ग्रहण करो.यह पर्वोक्त चार दोष सि होने से हम ईश्वर को कर्ता नहीं मानते हैं अब तुम ईश्वर के गुण और ईश्वर का कर्ता होना और यह चारों दोष नी न आवें ऐसा सि६ कर दिखाओ. यदि इस बम से कर्त्ता कहते हो कि जमाप ही कैसे मिल जाता है,तो दम आगे चल कर जड का स्वरूप काजी किञ्चित् वर्णन करेंगे; उससे तुमने निश्चय कर लेना. परन्तु कुडमां (सम्बंधी) वाले नाई की तरद वार २ निषेध (इन्कार) न करना; जैसे दृष्टान्त है किसुंदरपुर नगर में धनदत्त नाम से एक शेरहता था, और घर में एक पुत्र जी था.वसन्तपुर नगर से सोमदत्त शेठ की कन्या की सगाई Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दम्यादी नामक नाई धनदत्त शेठ के पुत्र के लिये ले कर आया. और धनदत्त शेठ ने उस नाई की नलि नान्ति (अबी तरह से) खातिर करी.और फिर शेठ ने नाई से पूग कि, आप प्रसन्न हुए ? तब नाई ने कहा कि,नहीं. फिर उसरे दिन शेठ ने बहुत अच्छीजान्ति से वरादिक पकवान खिलाए और पूग कि, राजाजी! अब तो प्रसन्न हुए हो? तब नाई ने उत्तर दिया कि, नहीं इसी प्रकार से फिर तीसरे दिन शेठ ने विविध प्रकार की अर्थात् नान्ति २ की वस्तुएं मोतीचूर और मिलाई, बादाम, पिस्तों के बने हुए मोदक अर्थात् व आदिक नोजन करवाये और फिर पूग कि, जी! अब तो प्रसन्न हो? नाई ने कहा कि,नहीं. तब शेठजी लाचार हुए, और उस नाई को विदा किया. Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 ३८ ॥ अथ गुरु शिष्य सम्बाद || शिष्य :- हे गुरो ! सुख-दुःख, जीवनमरण, सुकृत- दुष्कृत यादिक व्यवहारों का कर्त्ता जीव है वा कर्म, यद आप कृपापूर्वक मुके जली प्रकार से समऊा दीजिये. वेष, पु गुरू :- हे शिष्य ! कर्म दी है. शिष्यः--यद लो, अपना वस्त्र, वेष, स्तक इनको जलाञ्जलि देता हूं ! और प्रपने घर को जाता हूं ! गुरू :- किस कारण से उदासीन हुए हो ? शिष्यः - कारण क्या ? यदि व्याप कर्म ही को कर्त्ता कहते हो तो फिर हम लोगों को उपदेश किस लिये करते हो ? और ज्ञान शिक्षा क्यों देते हो कि, सुकृत (शुन कर्म करो और दुष्कृत [ खोट्टे कर्म ] मत करो ? क्यों कि जीव के तो कुछ व्यधीन ही नहीं दैः न जाने कर्म साधुपन करवावें, न जाने चोरी करवावें ! > 7 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · गुरुः-धीरज से सुनो ! कर्ता वा अकर्ता . जीव ही है... शिष्यः-हांजी! यह तो सत्य है; क्यों कि जीव दी शुन्न (अछे ) और अशुन (बुरे) कर्म करने में स्वतंत्र है. परन्तु गुरुजी ! इस में एक और सन्देद उपजा है. कि यदि जीव ही कर्ता हो, तो फिर जीव अपने आप को दुःखी होने का, बूढे होने का, मृत्यु होने का और दुर्गति में जाने का तो कनी यत्न नहीं करता है; फिर यह पूर्वोक्त व्यवस्था (हालतें) क्यों कर होती हैं ? • गुरू (योमा हंस कर):-तो नाई! कोइ इश्वरादिक कर्ता होगा, '... शिष्य (उदर कर )।-ऐसा ईश्वर को. नसा है जो जीवों को पूर्वोक्त व्यवस्था (हालते) देता है ? क्यों कि जीव तो अर्थात् हम तो दुःखी दोना, बूढे होना, मर जाना, दुर्गति '. में पडना चाहते नहीं है. और वह हमें व Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लात्कार(जबर्दस्ती से) दुःखी और मृत्यु आदि व्यवस्था को प्राप्त करता है. क्यों कि कइएक ऐसे २ जवानी में जीवन को लोचते ही मर जाते हैं, जिनके मरने के पश्चात् (पीछे से) सात ३ गृहों (घरों) को यंत्र (ताले ) लग जाते हैं, और स्त्रिये रुदन करती ही रह जाती हैं. क्या यह कष्ट इश्वर देता है ? यदि ऐसे ईश्वर का कोई स्थान बताओ तो उससे पू. कि, हे ईश्वर ! जीवों को इतना कष्ट क्यों देते हो ? क्या आप को दया नहीं आती ? गुरू:-कर्म तो स्वयं (खुद) जीव ही करता है; ईश्वर तो उनके कर्मानुसार फलही देता है. - शिष्यः क्या, जिस प्रकार से मजदूरों को मजदूरी का फल (तनखाद ) वावू देता है, ईश्वर जी इसी प्रकार से जीवों के ताईकमों का फल देता है वा और प्रकार से ? गुरू:-मजदूरों की मान्ति जीवों को Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फल नहीं देता है. . शिष्य:-तो, और किस प्रकार से ? गुरू:-जिस रति से सूर्यका तेज अपनी शक्ति द्वारा सब पदार्थों को प्रफुल्लित करता है, इस प्रकार से ईश्वर नी अपनी शक्ति घारा फल देता है. - शिष्यः-सूर्य क्या श् शक्ति देता है ? गुरू:-अमृत में अमृत शक्ति और जहर में जहर शक्ति, इत्यादिक. शिष्यः-अमृत में अमृत शक्ति और जहर में जहर शक्ति तो हुआ ही करती हैं; सूर्य ने अपनी शक्ति द्वारा क्या दिया? और यह भी पूर्वोक्त तुम्हारा कहना ईश्वर कर्त्ता वाद के मत को बाधक (धक्का देने वाला) है; क्यों कि सूर्य तो जम है, उसको तो भले बूरे पदार्थ की प्रतीति नहीं है, कि इस वस्तु से कौन ३ सा लान और क्या ए हानि होगी. तो ते स Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ व को पुष्टि देता है. परन्तु ईश्वर को तुम सर्वज्ञ मानते हो वह अपनी शक्ति (निरर्थक) अर्थात् निकम्मे पदार्थ कटीली, सत्यानाशी कोंचफली आदिक जन्तुओं में सांप, मन्चर आदिक जीव जो किसीजी कृत्य को सम्पादन अर्थात् सिह नहीं कर सकते, प्रत्युत (बलिक) सब को हानि ही पहुंचाते हैं, तो उन्हें ईश्वर पुष्टि क्यों देता है? चेतन को तो शुभ 'अशुन, और नफा-नुकशान समझ कर पुष्टि देनि चाहिये, जैसे कि, मेघ (बादल) तो चाहे रूमी-करूली बाग में बरले, परन्तु माली तो फलदायक को ही सिञ्चन करेगा. मला! और देखो, ईश्वर की शक्ति चेतन, और सूर्य की तेजी जड;यह तुमारा हेतु कैसे मिल सकें ? मलाजी! फल फूलों को तो सूर्य पुष्टि देता है परन्तु सर्य को, फल फूलों को पुष्टि देने की शक्ति कॉन देता है ? गुरू (हंस कर):--ईश्वर देता है. Tam Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ - शिष्यः-तो ईश्वर को शक्ति कौन देता है ? गुरू:-हैं? शिष्यः-स्वामी जी! "है" काहेकी ? यो तो मानना ही पमेगा कि ईश्वर को नी कोई और ही शक्ति देने वाला होगा; और फिर उसको नी कोई और ही शक्ति देनेवाला होगा; यथा फेर-फरका दष्टान्त है:___वसन्तपुर" नाम से एक नगर था.वहां का महीपाल नाम से सूधे स्वन्नाव वाला राजा था.उसकी सत्ता में जो मकालाआता था उसके इजदार मुद्द,मुद्दालह जो कुछ देते थे उनको सुन कर वह कुबनी इनसाफ नहीं करतायाः केवल यही कह देता था कि, फेर ?” मुद्दई कहता, कि महाराज ! हैने इसे एक हजार रुपैया दिया. राजा बोला कि, “फेर?" जुद्दई कहने लगा कि, मुद्दालहने न तो असल दिया और नाही सूद दिया. तब राजा बोला कि, “फेर ? " इसी प्रकार से कचहरी Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ का समय पूरा कर देता. एक समय एक जमीन्दार का मकदमा आया और जमीन्दार ने आकर कहा कि, मेरी खेती में से आधी खेती मेरे चचा के पुत्र अर्थात् नाई ने काट ली है. राजाः-फेर? जमीन्दारः-मैने उसे पका लिया. राजाः-फेर ? . जमीन्दार:-उसने मुझे मारा. राजाः-फेर? जमीन्दारः-मैने उस को और उस के बेटों को नी मारा. राजाः-फेर? जमीन्दारने देखा कि यह तो फेर ही फेर करता है, मेरे इजहारों का फल कुबनी नहीं निकालता; तव जमीन्दार बदल कर बोला कि, मेरे खेत को चिमियां बढ़त चुगने लग गई. . राजाः -फेर ? जमीन्दारः-मैने बहुत उमाश् परन्तु Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ हटी नहीं. राजाः-फेर? जमीन्दारः-मैने एक गढा खुदवाया. राजा:-फेर ? जमीन्दारः-फिर मैने उसमें दाने मास दिये, तब वहां चिमियां चुगने चली गई. राजा:- फेर? जमीन्दारः--मैने उस गढे (टोए) के जपर सिरकी माल कर सब चिमिया को वन्द कर दिया. राजाः-फेर? जमीन्दारः-"उस में केवल इतना गेटा बिद्र रक्खा, कि जिसमें से एक ही चिडिया निकल सके. राजाः-फेर? जमीन्दारः-एक चिमिया निकल कर उड गई, फर! राजाः फेरं? Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ __.. जमीन्दारः-एक और निकल गई; फर? राजाः --फेर? जमीन्दारः-फर! . राजाः-फेर ? जमीन्दारः-फर! इसी प्रकार से बहुत काल तक राजा और जमीन्दार "फेर” “फर" कहते रहे,अन्त में लाचार होकर, राजा बोला कि, हे जमीन्दार ! तेरी "फर्र" कन्नी समाप्त नी होगी? जमीन्दार ने जवान दीया की, जब तुम्हारी “फेर” समाप्त होगीतली मेरी “फर" खतम होगी! शिष्यः-यह कई मतानुयायी लोक पूक्ति ईश्वर को किस कारण से कर्त्ता मान गुरू:-जम वस्तु स्वयं दी (आप ही) नही मिलती और विछमती; इनके मिलाने वा Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ ला कोइ और दी अर्थात् ईश्वर होगा, यथा काष्ठ और लोहा पृथक्‍ अर्थात् अलग‍ पडा है वह आप ही मिलके तख्त नहीं बन सकता, उनके मिलाने वाला तरखान होगा, इस कारण से. शिष्यः - वस, इसी नम से ईश्वर को कर्ता मान वैठे हैं ? यदि इसी प्रकार से और जी भ्रम में पम जायें कि जन पदार्थ आप ही नहीं मिलते हैं, इन के मिलाने वाला कोई और ही होना चाहिये, तो फिर यह जी मानना पड़ेगा कि, यह जो चान्ति‍ के बादल दोते हैं इनके बनाने वाले भी राज मजदूर दोंगे, और सायंकाल के समय जो रङ्ग वरङ्ग के बाद दो जाते हैं उनके रहने वाला कोई रंजक अर्थात् बलारी जी होगा. और जो आकाश में कनीर इन्द्र धनुष्य पडता है नसके बनाने वाला भी कोई तरखान होगा, और कई काच आदि वस्तुओं का प्रतिवि Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म्ब (साया) पम जाता है तो उसका शीघ्र ही बनाने वाला कोई सिकलीगर नी होगा. अपितु नहीं, यह पदार्थों की पर्याय के स्वभाव (Nature) होते हैं, इस विषय का स्वरूप हम आगे नी लिखेंगे; परन्तु पूर्वोक्त पदार्थ पर्याय कीखबर के न होनेसे पूर्वोक्त ब्रम पमता दै.अब यह समझना चाहिये कि, क्याश्पदार्थ किस पर्याय में मिलने विडमने का स्वन्नाव रखते हैं; यथा चुम्वक पाषाण(मिकनातीस) और लोहे की सूचः दोनों जम हैं, परन्तु स्वयं (खुद) दी अपने खन्नाव की आकर्षण शक्ति से मिल जाते हैं. . गुरू वद यों कहते हैं कि स्वन्नाव नी. ईश्वर ने ही दिया है. शिष्यः-सो सिंदों को (शेरों को) शिकार का और कसाईयों को पशुवध का स्वन्नाव किसका दिया मानते होंगे. शुरू कर्मानुसार कहते हैं... Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ शिष्य :- बस ! इतना ही कहना था. परन्तु } प्रकृति काजी गुण, कर्म, स्वभाव पूर्वोक्त होता दी है, फिर शंका का क्या काम ? यदि ईश्वर का दिया स्वभाव दोवे तो अनि को ईश्वर जल का स्वभाव दे देवे और जहर को अमृत का स्वभाव दे देवे; क्यों कि ईश्वर सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान् है; जो चाहे सो करे. परन्तु ईश्वर कर्त्ता नहीं है; क्यों कि पञ्चम वार सं. . १९५४ के बपे हुए “सत्यार्थ प्रकाश" अष्टम समुल्लास २७ पृष्ठ २१, २२, २३, पंक्ति में लिखा है कि, जो स्वाभाविक नियम अर्थात् जैसे अग्नि, उष्ण, जल, शीत, और पृथिवी च्यादिक जमों को विपरीत गुण वाले इश्वर जी नहीं कर सकता. व तर्क दोता दे की, # वद नियम किस के बांधे हुए थे, जिनको ईश्वर जी विपरीत अर्थात् बदल नहीं सकता ? बस ! सिव हुआ कि, पदार्थ भी अनादि हैं और उनके स्वभाव अर्थात् नियम जी ना ܐ ܐ 4 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दि हैं, तो फिर ईश्वर किस वस्तु का कर्ता हुआ ? गुरु:-ईश्वर बनती दी बना सकता है. शिष्यः--बनती का बनाना तो काम अल्पज्ञों का और सामान्य पुरुषों का होता है. आरिया बोल उठाः-क्या, ईश्वर अपने आपके नाश करने की शक्ति नी र खता है ? जैनीहां, हां! जब सर्वज्ञ और सर्व, शक्तिमान् है तो जो चादे सो करे और जा न चादे सो न करे. गुरुः-अरे भाई! शायद पुद्गल की पर्याय (स्वन्नाव) शक्ति को ही ईश्वर कहते हों, जिस पुद्गल पर्याय का स्वरूप हम आगे लिखेंगे. परन्तु तुम यह बताओ कि, ईश्वर के कर्त्ता न होने में तुम क्या प्रमाण रखते हो? शिष्यः-यदि ईश्वर का होता तो ई. Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । श्वर की मर्जी के बाहर पूर्वोक्त गोवधादिक हिंसा और झुठ चोरी आदिक कन्नी न होते, गुरु:-यह तो सत्य है, परन्तु वह कदते हैं कि, ईश्वर को कर्ता न माने तो ईश्वर बेकार माना जावे. - शिष्यः-तो क्या हानि (हर्ज) है ? कार तो गर्जमन्द-पराधीन-जिन का निर्वाह न दो वह करते हैं. क्या करें ? कार करेंगे तो खा लेंगे,न करेंगे तो किस तरह से निर्वाह होगा? परन्तु ईश्वर तो अनन्त ज्ञान आदि ऐश्वर्य (दौलत) का धारक है और निष्प्रयोजन (वेपरवाद) दै. वह कार कादेको करे? वस! ईश्वर इन पूर्वोक्त जीवों के कर्मफल नुगताने में अर्थात् फुःखी करने में कारण रूप होता है; तो पहिले उखदायी कर्म करते हुए ह'टाने में कारण रूप क्यों नहीं होता? ऐसे पूवोक्त अशक्त, और अल्पज्ञ, अन्यायी, कुम्हार, माली, तरखान, मजदूर, बाजीगर Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५.१. आदि की जान्ति अनेक कर्म करनेवाले इश्वर को तुम ही मानो; मैं तो नहीं मानता. मैं तो. पूर्वोक्त निष्कलंक, निष्प्रयोजन, सचि सर्वानन्द, एकरस ऐसे ईश्वर को मा गुरूः - हम तो ईश्वर को कत्त नते हैं, परन्तु तेरी बुद्धि में यथार्थ खाने के लिये उलट पुलट करके हम तो ईश्वर को कर्त्ता मानने प्रथम ही सिद्ध कर चुके हैं. शिष्यः -- हां, हां, गुरूजी ! माला, ' ' अमर कोष' आदि देखे और पढे जी हैं. वहां व विष्णु च्यादि देवों के नाम चले हैं; परन्तु ऐसा ईश्वर की महिमा का शब्दार्थ नहीं जीवों को पूर्वोक्त कष्ट देनेवा गुरुः-- नहीं रहे शिष्य ! स्थाओं का कर्त्ता तो कर्म ही Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " शिष्यः-तो फिर वही पहीले वाली बात .." यदि कर्म कर्ता है तो जीवों को उपदेश क्यों ?" " गुरुः-तूं तो अब तक नीअर्थ को नहीं समका. शिष्यःमें नहीं समझा. गुरु:--ले समऊ, तेरा यह प्रश्न था कि, (१) “यदि कर्म कर्ता हैं तो जीवों को ले बुरे __ कर्म की रोक टोक क्यों ? और (२) यदि जीव - कर्ता है तो पूर्वोक्त सुखों के ऊपायं करते हुए ख और मृत्यु आदि का होना क्यों ? अब इसका तात्पर्य्य (नेद)सुन. जब यद जीव क्रियमाण अर्थात् नये कर्म करे उनमें तो जीव कर्ताहै, और फिर वही कर्म किये हुए वासनाओं से खिंचे हुए अन्तःकरण में सन्चित पूर्व कर्म हो जाते हैं अर्थात् पिग्ले किये हुए,तब उनके पूर्वोक्त फल जुगताने में वह कर्म ही कर्ता हो जाते हैं. इसका विशेष वर्णन हम आगे करेंगे, Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब तक तीर हाथ में था तब तक उसका अख्तियार था कि कहींको चला दे; परन्तु जब गेम चुका तो शख्तियार से बाहिर हुआ नहीं रख सकेगा; जा दी लगेगा.अथवा कोई पुरुष बिष खाने लगे,तो उसे अख्तियार दै कि खाये, वान खाये सोच समझ ले.परन्तु जब खा चुके . तो बेअख्तियार दै; फिर कितना ही वह पुरुष चाहे कि मुझे इसका फल (उःख वा मरण) , न हो, तथापि वद विष (जहर) जसे अवश्य ही फल देगा.इसी प्रकार से जिस वासना से कर्म करता है उस वासना कीआकर्षण शक्ति द्वारा ( बैंच सें) परमाणु इकठे हो कर , कर्म रूप एक प्रकार का सूक्ष्म मादा विष की तरह अन्तःकरण रूप मेद में संग्रद (इकठ्ठा) , हो जाता है. उसका सार रूप कर्मफल नि- है मित्तों से परलोक में नोगता है. इसका स्वरूप हम विस्तार सहित आगे लिखेगें.इसीलिये शास्त्रकारों का जीवों को उपदेश है की: Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे जीवो ! नये कर्म करने में तुम स्वतंत्र हो; समऊ के चलो; खोटे कर्म पूर्वोक्त हिंसा, मिथ्या, आदि से हटो; और नले कर्म दया, दान आदि में प्रवृत्त रहो. आरिया:-यद तो जो तुमने कहा सो सत्य है, परन्तु हमारा यह प्रश्न है कि, चोर चो. ती तो आप ही कर लेता है, परन्तु कैद में तो आप ही नहीं जा धसता; कैद में पहुंचाने वाला जी तो कोई मानना चाहिये ? जैनी:-हां, हां; चोरने जो चोरी का कर्म किया है वास्तव में तो उसके कर्म हीसे कैद होती है; परन्तु व्यवहार में राजा, कोतचाल (थानेदार) सिपाही आदि के निमित्तों से जाता है. यदि चोर को स्वयं (खुद) ही फांसी लग जाने वा स्वतःजवल कर कैद में जा पमे तो समका जाय कि ईश्वर ने दी चोर को चोरी का फल जुगताया. क्यों कि तुम्हारी इस में वास्तव से [असल] तर्क यही होगी Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G कि, जीव कर्म तो आप ही कर लेता है, परन्तु 'स्वयं (आप) ही कैसे नोगता है ? जैसे सम्बत् १५४ के उपे हुए “ सत्यार्थ प्रकाश" के ४४ाए पृष्ठ पंक्ति नीचे की रस में लिखा है कि, “कोई जीव खोटे कर्म का फल भोगना नहीं चाहता है, इस लिये अवश्य ही परमास्मां न्यायाधीश होना चाहिये.” अब देखिये कि, कर्म कास्वरुप न जानने से यह मनः कल्पना कर लीनी, अर्थात् मान लिया कि कर्म फल भुगताने वाला अवश्य होना चाहिये, इस लेख से यहनी सिद्ध हुआ कि, नन्हें नी निश्चय न हुआ होगा कि कर्म नुगता में के ऊगमे में पड़ने वाला जी कोई ईश्वर" है." क्यों कि ' होना चाहिये " यह शब्द सन्देहास्पद अर्थात् शकदार है. यों नहीं लिखा है कि, फल जुगताने वाला अवश्य है. बस ! वही ठीक है जो जैनी-लोग कहते हैं. जैसे कि चोर चोरी का फल-निमित्तों से जोगता Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 [ए: ऐसे ही जीव भी स्वतंत्रता से कर्म करने से खुद मुखत्यार है (अर्थात् क्रियमाण में ) और फिर वही कर्म जिस‍ अध्यवसाय से ( वासना से ) किये हैं उसी वासना में मिल कर कारण रुप सञ्चित होजाते हैं तब वह कर्म ही निमित्तों से कर्मफल भुगताने में स्वतंत्र हो जाते हैं. mite आरिया:-नवा जी ! कोसी पुरुष नें कर्म किया कि जमीन पर एक लकीर खैंच दी; ' अब वह लकीर नसे कर्मफल देगी ? जैनी :- अरे नोले! क्या तुम 'क्रिया' को 'कर्म' मानते हो ? लकीर खेंचना तो एक 'क्रिया' है; और 'कर्म' तो यहां ' क्रियाफल को कहा है अर्थात् जिस इच्छा से वह लकीर खेची है: यथा (जैसे) कीसी पुरुषने कहा कि मेरी तो वात पत्थर की लकीर है, यों कहते हुए नें लकीर खैच दी; और किसी पुरुषने कहा कि एक बार तो उसकी ग्रीवा (गर्दन) Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर छुरी फेर ही देनी है; ऐसे कहते हुए ने लकीर बैंच दी; अब यह लकीर खेंचने की क्रिया तो दोनों ही की एकसी है,परन्तु श्चा (शादे) दोनों के पृथक् २ ( न्यारे ३) हैं. इस श्हा की आकर्षण शक्ति से एक प्रकार का सूक्ष्म मादा अन्तःकरण रूपी मेद में इकट्ठा हो जाता है, जसको हम “कर्म" कहते हैं; जिसको अन्यमतानुयायो (और मतों वाले) लोग जी सञ्चित कर्म' कहते हैं, सञ्चित के अर्थ दी, किसी वस्तु के इकठे करने के हैं. आरियाः-कर्म का फल कर्मों के कारण रूप होनेसे ही नोगा जाता है ईश्वर नहीं झुगताता है, यह तुम युक्ति ( दलील ) से ही कहते हो वा किसी शास्त्रका भी लेख है ? । जैनी:-तुम लोग तो शास्त्रों को मानते ही नहीं हो. तुम तो केवल युक्ति (दलील) को हीमान ते हो. यदि शास्त्रों को मानो तो शास्त्रों Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में जैन मत के तथा अन्य और मतों के शास्त्रों में भी पूर्वोक्त कथन लिखा है... आरिया:--किस प्रकार से? जैनी:-जैन सूत्र श्री उत्तराध्ययन: वे अध्ययन ३७ वी गाथा में लिखा है: गाथा. अप्पा कत्ता विकत्ताय दुहाणय सुहाणय अप्पामित्त ममित्त च दुप्पटिउ सुप्पाहि ॥ ३७ । अपनी आत्मा अर्थात् जीव ही कत्त है, जीव ही विकर्ता विनाश काय अर्थात कर्मा को नोग के निप्फल करता है. किसक कत्ता नोगता है दुष्ट का का फल दुःखों ताई ओर श्रेष्ठ कला का फल सुखों के तां आत्मा ही भित्र रूप सुख देने वाली होती है आत्मा ही शत्रु रूप सुःख देने वाली होती है. परन्तु किसी पुष्ट संग अथवा धर्मति DAN 1-Mr. Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६‍ J और प्रयोग से दुष्ट कर्मों में स्थित हुए सत्संग शुभ मति के प्रयोग से श्रेष्ठ कर्मों में स्थित हुए अर्थात् यह जीव नये कर्म करने में स्वतंत्र है; और पश्चात् काल पूर्व जन्मांतर में कर्मों के वश परतंत्र होके जोगता है; अर्थात् जो कर्म योगों से ( इरादों से ) किया जावे वद नूतन कर्म होता है, उसका फल आगे को होता है. और जो कर्म विना इरादे से आप ही हो जाये वद पुराकृत - सञ्चित कर्म का फल जोगा माना जाता है; उसका फल आगे को नहीं होता. यथा किसी एक मनुष्य ने एक ईंट बेमौका पमी देख कर अपने घर से बादर को सहज जाव से, फेंक दी, परन्तु वह किसी पुरुष की आंख में जा लगी; उसकी प्रांख फूट गई तो वडा शोर मचा और उसके घर के कहने लगे कि, परे तैने ईंट मार केही प्रांख फोम दी, वह कहने लगा, कि, नहीं जी ! मैने तो ये खयाल फेंकी थी, इसके -- 7 1 L 4 , Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा लगी. मेरे क्या वश की बात है ! अब सोचो कि वह और उस के घर के उस ईट मारने वाले के शत्रु हो जावें.वा नालिश करें, अथवा मुकदमें में जेहलखाना होवे, अपितु नहीं ? बस! यही कहेंगे कि यह प्रारब्धी मामला है, इसकी आंख इसके हाथ से फूटनी थी. अब देखो! उस आंख फोमने का आगे को कुन्नी फल न हुआ, क्यों कि यह बिना इरादा, पूर्व कृत संचित कर्म का फल परतंव्रता से नोगा गया. हां! इतना तो अवश्य कहना होगा कि,अरे मूर्ख! तूने बुद्धि (अकुल) से ईट क्यों ना फैकी ? यदि वह आंखो के फोमने के इरादे से ईट मारता तो चाहे आंख फूटतीन फूटती परन्तु उसका फल आगे को अवश्य ही इस लोक में तो जुर्माना (जेहलखाना) आदिक होता, और परलोक में आंख पटनं आदिक का दुःखदायी फल होता. Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ आरियाः--यों तो लोगों में अनेक प्रकार के कार विहार में, चलने, फिरने आदिक में बिना इरादे जीव हिंसा आदि हो जाती है तो क्या उसका दोष नहीं होता ? जैली:-दोष क्यों नहीं? आचार विचार कानपदेश जो शास्त्रो में कहा है,नसका तात्पर्य यही है कि अज्ञान अवस्था में (गफलत में) रहना अवश्य ही सर्वदा दोष है. तथा किसी ने स्वतंत्र आप ही चोरीकरी,फिर वह पकमा गया, मुकद्दमा हो कर जेहलखाने का हुक्म हुआ, तव वद चोर अपना माया ओरता है कि मेरी प्रारब्ध, तो उसे बुद्धिमान् पुरुष यों कहेंगे कि अरे! प्रारब्ध बेचारी क्या करे ? तैने हाथों से तो चोरी के कर्म किये,अब इनका फल तो चाखना ही पड़े गा. यदि कोई शाहूकार जला पुरुष है और उसको अचानक ही चोरी का कलंक लग गया, और मुकद्दमा होने पर जेहलखाने में Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेजा गया, तो माथा उकोरे कि मेरी प्रारब्ध; तो लोग जी कहेंगे,कि वेशक ! यह पूर्व कर्म का फल है. इसने चोरी नहीं की अब उसको पूर्व जन्म के किये हुए सञ्चित कर्मों का, निमित्तों से दुःख नोगवना पमा. परन्तु उसे _ आगे को उर्गति नीनोगनी पमेगी, अपितु नहीं. तथा किसी अहे कुल की स्त्री विधवा आदिक ने अनाचार सेवन किया तब लोग निन्दा कर के रगञ्चने लगे (फिटलानत देने लगे) तव, वह कहने लगी कि, मेरी प्रारब्ध; तो लोग कहने लगे कि प्रारब्ध वेचारी क्या करे ? जब तुझे स्वतंत्रता से कुकर्म ( खोटे कर्म ) मंजूर हुए. यदि किसी सुशीला स्त्री को किसी पुष्ट ने लाचन लगादिया कि यह व्यभिचारिणी है, तो वद कटती दे कि मेरी प्रारब्ध,तो उसका यह कहना सत्य है.क्या कि उसने कुकर्म नहीं किया-नस Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के पूर्व कर्म के उदय से निन्दा हुई. परन्तु उस निन्दा के होने से क्या वह उर्गति (खोटी गती) में जायगी ? अपि तु नहीं. . हे भव्य जीवो ! इस प्रकार से प्राणी स्वतंत्रता सेनये कर्म करता है,और परतंत्रता से पुराने कर्म नोगता है; और इसी प्रकार सांसारिक राजाओं के जी दण्म देने के कानून है कि जो इरादे से खून आदि कसूर करता है उसे अख्तियारी नया कर्म किया जान के दम देते हैं और जो विना इरादे कसूर हो जाय तो उसे वे अख्तियारी अमर जान कर छोड़ देते हैं. इस रीति से पूर्वोक्त कर्म,कर्म का फल जुगता ते हैं. ___और ऐसे ही चाणक्य जी अपनी वनाई दुई लघुचाणक्य राज नीति के आठ वें अध्याय के एवें श्लोक में लिखते हैं: श्लोक. सुखस्य ःखस्य न कोऽपि दाता, . Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ परोददातीति कुबुद्धि रेपा । पुराकृतं कर्म तदेव जुज्यते, शरीर कार्य खलुयत्त्वया कृतम् ॥५॥ अथ: - "सुख का और दुःख का नहीं है कोई दाता (देनेवाला); और कोई ईश्वरादिक, वा पुत्र, पिता, शत्रु मित्र का दिया हुआ सुख दुःख जोगता हूं, इति (ऐसे ) जो माने उसकी एताअशी कुबुद्धि (कुत्सितबुद्धि) दै. तो फिर कि सका दिया सुख दुःख जोगता है ? पुरा कृतम् अर्थात् पहिले किये हुए जो सचित कर्म हैं, ' तदेव ज्यते' अर्थात् तिसीका दिया हुआ सुख दुःख भोगता है. " शरीर कार्यम्' अर्थात् सूक्ष्म शरीर अन्तःकरण रूप स्थूल शरीर के निमित्त से अर्थात् इन्द्रियों के द्वारा जोगता है. ' खलु इति निश्चयेन (व) तेरे करके ( कृतम् ) किये हुए हैं. और ऐसे दी यूनानी हिक्मत की कि ताब में भी लिखा हुआ है, (अरबी में ) : Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "ऐसा लि मुजरक बजातमुतसरी फवा श्वात" इसका अर्थ ये है:-चेतन दर्याफत करने वावा है अपने आपसे, कबजा रखने वाला है साथ औजारों के. यह जी पूर्वोक्त अर्थ के साथ ही मिलता है. ऐसे ही मनुस्मृति,अध्याय प्वें और श्लोक १४ मै लिखा है कि, आत्मा अपना सादी (गवाद) और आश्रय नी आप श्लोक. प्रात्मैवात्मनः सादी गतिरात्मा तथात्मनः । मावसंस्थाःस्वमात्मानं नृणां साक्षिण मुत्तमम् ॥ अर्थ टीकाः-यस्माच्छु ना शुन्न कर्म प्रतिष्ठा आत्मैवात्मनः शरणं, तस्मादेवं स्वमात्मानं नराणां मध्यमा उत्तम साक्षिाणं मृषा निशाने नावशासि ___. और ऐसे ही 'लोकतत्व निर्णय' ग्रंथ में Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिखा है कि यह कृत कर्म (किये हुए कर्म) अन्तःकरण रूपी विधान में जमा रहते हैं; और वदी फल भुगताने में मति को प्रेरणा करते हैं. यथा श्लोक. यथा यथा पूर्व कृतस्य कर्मणः फलं निधानस्थमिवोपतिष्ठते; तथा तथा तत्प्रति पादनोद्यता, प्रदीप दस्तेव मतिः प्रवर्तते ॥१६॥ यथा 'कृष्ण गीता' अध्याय एवें श्लोक . २४ चे में लिखा है-- श्लोक नकर्तृत्वं नकर्माणि लोकस्य सृजति प्रन्नुः । नकर्मफलसंयोग स्वन्नावस्तु प्रवर्त्त ते ॥१४॥ हे अर्जुन ! प्रनु देवादिकों के कर्तत्व को नहीं उत्पन्न करे है, तथा कमी को भी नहीं Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्पन्न करे है तथा कर्मों के फल के संबंध को. नी नहीं उत्पन्न करे है; किन्तु अज्ञान रूप मोह ही कार्य के करने विष प्रटत्त होवे है. ___यथा 'शान्ति शतके, श्री सिल्हन कवि संकलित आदि काव्ये: श्लोक. नमस्यामो देवान् ननु हन्त विधेस्तेऽपिवशगाः विधिर्वद्यः सोऽपि प्रतिनियत कमैकफलदः। फलं कर्मायत्तं किस मरगणैः किञ्चविधिना नमस्तत्कर्मेच्यो विधिरपि न येन्यः प्रनवति॥र इसका अर्थ यह है कि, ग्रंथकर्ता ग्रंथ के आदि में मंगलाचरण के लिये देव को नमस्कार करता है. फिर कहता है की, वह देवगण नी तो विधि ही के वश है तो विधि ही की वन्दना करें, फिर कहता है कि विधि जी कर्मानुसार वर्ते है. तो फिर देवों को नमस्कार करने से क्या सि६ दोगा? और Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११: विधि कि वन्दना करने से क्या होगा ? हम उन्हीं कर्मों को नमस्कार करते हैं कि जिन पर विधाता का भी प्रजवत्व अर्थात् जोर नहीं है. और कई लोग दुःख दर्द में ऐसे कह देते है कि, 'मर्जी ईश्वर की' ! सो यह जी एक पर्यायवाची कर्म ही का नाम है; यथा ' नाम माला' तथा ' लोक तत्व निर्णय : श्लोक. विधिर्विधानं नियति: स्वभाव: । कालो यहा ईश्वर कर्म देवम् ॥ जाग्यानि कर्माणि, यम. कृतांत | पर्याय, नामानि पुराकृतस्य ॥ अर्थ - १ विधि (विधना ) १ विधाता, विधान, ३ नियतिः ( होनहार ) ४ स्वभाव, ५ काल, ६ ग्रह, ईश्वर, कर्म ए देव, २० भाग, ११ पुण्य. १२ यम, १३ कृतान्त, यह Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव पुराकृत कर्म ही के पर्याय वाचक नाम हैं. इत्यादि बहुत स्थान शास्त्रों में कर्मफल कर्मों के निमित्त से ही जोगना लिखा है. ईश्वर नहीं झुगताता है, निष्प्रयोजन होने से; परन्तु पद के जोर से, पूर्व धारण के अनुकूल मति अर्थ को खेंचती है, यथा २५४ कै उपे हुए सत्यार्थ प्रकाश के पवें समुल्लास २३० पृष्ठ पंक्ति १श्वीर में लिखा है:-"ईश्वर स्वतंत्र पुरुष को कर्म का फल नहीं दे सकता, किन्तु जैसा कर्म जीव करता है वैसा ही फल ईश्वर देता है" इति. अव देखिये! पूर्वोक्त कारण, न तो ऐसा लिखना चाहिये था कि जैसा कर्म जीव करता है वैसा ही पल होता है. आरियाः-अजी! आपने प्रमाण (हवाले) दिये सो तो यथार्थ हैं; परन्तु हम लोगों को यह शंका है कि कर्म तो जम है; यह फलदायक कैसे हो सकते हैं? अर्थात् जम क्या कर सकता है ? . Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३. जैनी:-जम तो जमवाले सब ही काम कर सकता है क्योंकि जमनीतो कुच्छ पदार्थ दी होता है. जब पदार्थ है तो उसमें उसकी स्वन्नाव रूप शक्ति नी होगी; अर्थात् अग्नि में जलाने की और विष (जदर ) में मारने की, जल में गलाने की, मिकनातीस चमकपत्थर में सूई खेंचने की, मदिरा (शराव) में वेदोश करने की, इत्यादिक. यथादृष्टान्तः-शराब की बोतल ताक में धरी है, अब वह शराव अपने आप किसी पुरुष को जी नशा नहीं दे सकती: क्यों कि वह जम हे-परतंत्र है. फिर उसी बोतल को उठा कर किसी पुरुप ने अपनी स्वतंत्रता से पीलिया, क्यों कि वह पुरुष चेतन दे-शराव के पीने में स्वतंत्र है: चाहे योमी पीये, चाहे वहुती पीये, चाहे नाही पीये. परन्तु जब पी चुका तव वह शराब अपना फल देने को (बेहोश करने को) स्वतंत्र हो गई और वह पीन वाला शराब Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के वश-परतंत्र हो गया. क्यों कि वह नहीं चाहता है कि मेरे मुख से उर्गन्धि आवें, आंखों में खाली आवे, और ऐरगैर वात मुख से निकले, घुमेर आकर जमीन पर गिर पडूं; परन्तु वह शराव तो अपना फल (जौहर) दिखावेगी ही; अर्थात् दुर्गन्धि नी आवेगी, अांखे नी लाल होगी, और ऐरगैर बातें भी मुख से निकलेंगी, घुमेर आकर मोरी में भी पमेगा, और शिर नी फूटेगा, मुख में कुत्ते नी मूत्र करेंगे. अब कहो वेदानुयायी पुरुषो! यह कर्तव्य जम के हैं अथवा चेतन के ? वा ऐसे है कि जब पुरुष ने शराब पी तब तो पुरुष को स्वतंत्र जान के ईश्वर उसके लिहाज से चुप हो रदा, फिर पीनेके अनन्तर (बाद) फल देने को अर्थात् पूर्वोक्त बेहोशी करने को ईश्वर तैयार हो गया ? क्यों कि शराब तो जड थी. वस! यो नहीं. वही शराव पुरुष की स्वतंत्रता से ग्रहण की हुई मेद में मिल कर Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . वह जड ही अपने खेल खिलाती है. ऐसे ही जीवनी स्वतंत्रता से कर्म करता है. फिर कही कर्म पूर्वोक्त अन्तःकरण में सञ्चित्त हो कर (जमा दो कर) इस लोक अथवा परलोक में अन्तःकरण की प्रकृतियों को बदलने की शक्ति रखते हैं. और उन प्रकृतियों के बदलने से अन्तःकरण मे अनेक. शुन्न--अशुन्न, संकल्प उत्पन्न (पैदा) होते हैं. यथा नर्तृहरि 'नीतिशतक :श्लोक : कर्मायत्तं फलं पुंसां, बुद्धिः कर्मानुसारिणी । तथापि सुधिया भाव्यं, सुविचार्य च कुर्वता ॥ जन संकल्पों के वश हो कर जीव अनेक प्रकार की हिंसा, मिथ्या आदि क्रिया करता है, फिर राजदण्फ, लोकलण्ड, दर्प-शोक आदि के तिमित्तों से नोगता है. आरियाः नलाजी! परखोक में कर्म कैसे जाते हैं ? क्यों कि जिस शरीर से कर्म Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ किये हैं वह शरीर तो यहां ही रह जाता है तो फिर ईश्वर के विना उन कर्मों को कौन याद करवाता है ? जिस करके, वह कर्म नोगे जावें. जैनी:- क्या, तेरा ईश्वर जीवों के कर्म याद कराने के वास्ते कर्मों का दफ्तर लिख रखता है ? यदि ईश्वर एक श् जीव के कर्म याद कराने लगे तो ईश्वर को असंख्य-नन्त काल तक जी वारी न आवेगी. और उन जीवोंको अपने किये कर्म का भुगतान अनन्त काल तक जी न दोगा, क्यों कि संसार में जीवों की अनन्तता है. प्रारिया - तो फिर कैसे कर्म जोगा लाय ? जैनः - अरे नोले जाई ! हम अनी, ऊपर लिखं आये हैं, कि सञ्चितकर्म अन्तःकरण में जमा सो इस जीव की स्थूल, 4 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तु देह तो आयु कर्म के अन्त में यहां ही रह जाती है; परन्तु सूदन देद (अन्तःकरण) तो परलोक में भी जीव के संग ही जाती है. जस अन्तःकरण के शुन्न-अशुजहोने से जीव की शुन्न अशुज योनि में बैंच हो जाती है. जैसे दृष्टान्त है कि, चमक पत्थर तो यहां और मुनासिब अन्दाजा के अनुकूल फासले से सूई वहां परन्तु खंच हो कर मिल जाते हैं, क्यों कि वह पत्थर भी जम है और सूई नी जम है, परन्तु उस जम की जस अव.. स्था में बैंच का और मिलने का स्वन्नाव है। ओर कोई तीसरा ईश्वर वा भूत उन्हे नहीं मिलाता है. ऐसे ही जीव का अन्तःकरण जी जमदे,और जिस योनि मजा कर पैदा होने वाले कर्म हैं, नस योनि की धातु जी जम है; परन्तु उनकी शुज अशुन अवस्था मुकाबले की होनेसे पूर्वोक्त खंच हो कर पैदा होने का स्वभाव होता है चाहे लाखों कोस Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्यों न हो यथा वर्तमान काल में जैपुर आदिक बमेश नगरों में एक किस्म के मसालोकी बत्ती वाली लाल टेने लग रही है और नगर के बाहर उसी प्रकार के (मुकाबले के) मसाले के बम्बो में से कला के जोर धूआं निकख हरेक स्थान नगर में विस्तर होता है परंतु उस मसाले की लाग के प्रयोग लाल टेंन की बतीको ही प्रकाश देता है और को नही जैसे ही पूर्वोक्त अंतःकरण में कर्म रूप मसाखा और योनी की धातुकी यथा प्रकार होने से उत्पत्ति होती है. और उसी अन्तकरण को जैन में तेजस कारमाण सूक्ष्म शरीर कहते हैं. तो उस तेजस कारमाण के प्रयोग से मातापिता के रज, वीर्य अथवा पृथिवी और जल के संयोग से शीत-नष्ण के मुनासिब होने के निमित्तों से स्थूल देद जाति रूप वाला वन जाता है, जैसे मनुष्य से मनुष्य, पशु से पशु, घोमे से घोम्स, बैल से मेव, अथवा गेहूं से मे. Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुँ, चणे से चणे, इत्यादि. और कई एक मूर्ख खोग एसे कहते हैं कि, कर्म (प्रकृति) से देह बनता है तो आंख के स्थान कान, और कान की जगह हाथ आदिक प्रकृतियें क्यों नहीं लगा देती हैं? उत्तरः-अरे लोले! प्रकृति तो जम है. यह तो वेचारी आंख की जगद कान क्या लगा देगी ? परन्तु तुम्हारा ईश्वर तो परम चेतन कर्त्तमकर्ता है, वह क्यों नहीं कान की जगह वाह लटका देता, और किसी के दो आंखें और पीने को लगा देता? जिस से मनुप्य को विशेष (बहुत ) लान पहुंचता; कि आगे को तो देख कर चलता और पीठ को जी देखता रहता कि कोई सर्प आदिक अथचा शत्रु आदिक पीगन करता हो, और सोग जी महिमा करते कि धन्य है ईश्वर की सीला किसी के दो आंखे और किसी के तीन वा चार लगा दी है. परन्तु तुम्हारा ईश्वर तो चेतन दो कर ली ऐसे नहीं करता है, Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ថ្មីៗ पर " तर्कः-अरे मूढ ! ऐसे करे कैसे ? ईश्वर तो कर्ता ही नहीं है. यह तो अनादी नाव है, जाति से जाति, अर्थात् जैसी योनि में जाने के कर्म जीव से बने होवें, वैसी ही योनि में उत्पन्न हो कर उसी योनि वाले रूप में होता है. हां! जीव की कोई योनि, जाति नहीं है. इस से पूर्वोक्त कर्मानुसार कनी नर्क योनि में, कल्ली पशु वा मनुष्य वा देवयोनियों में परित्रमण करता चला आता है. - आरिया:-क्यों जी ! पहिले जीव है कि कर्म हैं ? ... जैनी: यह प्रश्न तो जनसे करो जो जीव और कर्म की आदि मानते हों. वही बतावेंगे कि प्रथम जीव है वा कर्म. जैन में तो जीव और कर्म अनादि समवाय सम्बंधी माने हैं; तो आदि ( पहिले .) किसको कहें ? क्यों कि पहिल हुश्त्तो आदि दुआ. Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरिया:---तो फिर तुम्हारे कथनानु__सार जीव की कमी से मोक्ष न होनी चाहिये। क्यों कि जिसकी आदि ही नहीं है उसका अन्त नो नहीं है, तो फिर तुम्हारे तप-संयम का क्या फल होगा, जेनी-अरे! यद तो तर्क हमारी ही तर्फ से संभव है क्यों कि तुम तो मोद में नी कर्म मालते दो. जन का से फिर वापिस आकर जन्म होना मानते हो. परन्तु तुमको पदार्थ के संपूर्ण भेदों की खबर नहीं है. सुने सुनाये कहीं से कोई अंग जान लिया; 'मेरे बैंगन तेरी ग !' बस एक सुन लिया अनादि, अनन्त, जिस की आदि नहीं उसका अन्त जी नहीं परन्तु सूत्र में पदार्थ के चार भेद कहे ई-प्रथम अनादि-अनन्त; (२) अनादि सान्त; (३) सादि-सान्त, और (1) सादि-अनन्त, आरिया:-इनका अर्व भी कृपापूर्वक बता Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .. .. .. .. दीजिये, जो हमारी बुद्धि (समऊ) में आ जाय. ... जैनी:-तुम समझो तो बहुत अबा है; समझाने ही के लिये तो परिश्रम किया गया है--न तुटकों के वास्ते; क्यों कि हम निग्रंथि साधु धर्म में हैं हमारे मूलसंयम यह हैं कि कोमी पैसा आदिक धातु को न रखना, बल्कि स्पर्श मात्र जी न करना;और पूर्ण ब्रह्मचर्य अर्थात् सर्वदा (हमेशा) यतिपन में रदना; सो परोपकार के लिये ही लिखा जाता है; केवल (सिर्फ) मान बमाई के ही लिये नहीं है. अब सुनीये! (१)अनादि-अनन्त, तादात्मिक सम्बंध को कहते हैं; (२) अनादि-सान्त, समवाय सम्बंध के कहते हैं; (३) सादि-सान्त, संयोग सम्बंध को कहते हैं;(४)सादि-अनन्त, अबन्ध को कहते हैं. इसका अर्थ यह है: (१) तादात्मिक सम्बध' वह होता है कि चेतनमें चेतनता,जड मेंजमता अर्थात् चेतन पहिले जी चेतन था, अब जी चेतन हैं; आगे को Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३ श्री चेतन ही रहेगा, चेतन तो कभी जह नहीं होगा और जम कभी चेतन नहीं होगा; यथा दृष्टान्त: साल में लाली. और दीरे में सफेदी, इत्यादि पढ़ार्थ की असलीयत को 'तादात्मिक सम्बन्ध' कढ़ते हैं. (२) 'समवाय सम्बंध' उसे कहते हैं की जो वस्तु तो दो दोवें और स्वतः स्वभाव से ही अनादि मिली मिलाई दोवे; यथा जीव खोर कर्म.जीव तो चेतन और कर्मों का कारण रूप अन्तःकरण अर्थात् सूक्ष्म शरीर जग, यह पदार्थ तो दो हैं, परन्तु अनादि शामिल हैं. जीव का अन्तःकरण (सूक्ष्म शरीर ) अनादि समवाय सम्बंध ही हैं, और जो जो कर्म करता है सो निमित्तों से करता है, अर्थात् सुरत इन्द्रिय यदि कों से फिर वह निमित्तिक कर्मों का फल निमित्त से जोगता है. ऐसा ही यह सिलसिला चला आता है. सो जो यह जीव अनादि- सान्त कर्म चाले हैं, उनमें से देशकाल शुद्ध मिलने पर Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मपरायण होने से कर्म रहित हो जाते हैं, अर्थात् सर्व आरंन के त्यागी हो कर नये कर्म नहीं करते हैं, तब पूर्वोक्त अन्तःकरण (सुक्ष्म शरीर ) फट जाता है, और निर्मल चेतन कर्म से मुञ्चित (मुक्त) होकर अर्थात् बंधसें अबंध दो कर पूर्वोक्त मोद पद को प्राप्त हो जाता है यथा: . .. श्लोक. . चेतनोऽध्यवसायेन कर्मणा च संबध्यते । .' ततो नवस्तय नवेत्तदन्नावात्परं पदम् ॥ चेतन (आत्मा) अध्यवसाय (वासना) से कर्म से बंधायवान् होता है; तिससे तिसको संसार अर्थात् जन्म-मरण प्राप्त होता है; और जिसके संसार अर्थात् जन्म-मरण का अनाव हो जाता है वह जीवात्मा परमपद (मुक्ति) को प्राप्त हो जाता है. यथा दृष्टान्त है कि फुल में सुगंधि और Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र तिलों में तेल, दूध में घी; धातु में कुधातु, इत्यादि स्वतः ही मिले मिलाये होते हैं; किसी तीसरे के मिलाये हुए नहीं हैं. परन्तु किसी समय यंत्र (कोल्हू ) के, और विलौनी के, और ऐदन के प्रयोग से अलग हो जाते हैं. ... (३) 'संयोग संबंध' उसे कहते हैं जो दो वस्तु अलग होवें और एक तीसरे मिलाने वाले के प्रयोग से मिलें, फिर समय पाकर विम जावें, क्यों कि जिस के मिलने की आदि होगी यह अवश्य ही विमेगा; यथा दृष्टान्त है कि, तख्ते और लोहे (कीत) से तख्न, वस्त्र, और रंग से रंगीत, इत्यादि तीसरे के संयोग मिलाने से मिलते हैं; अ. त तरखान के और लतारी के और दूसरा संयोग सम्बंध तीसरे के बिना मिलाये नी होता. जैसे परमाणु कवे चिकने की पर्याय यथा प्रमाण मिलने का बन्नाव होता है.दृष्टान Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संध्या, राग, वादल, इन्क्ष धनुष, आदिक मिलने-विमने का. (५) 'अबंध' जसे कहते हैं, जो अनादि जम रूप अन्तःकरण, जिसके लक्षण अज्ञान मोहादि कर्म उनके बंधन से चेतन का छुटकारा हो जाना, अर्थात् मोद हो कर परमेश्वर रूप हो जाना, अर्थात् अजर, अमर, कृतकृत्य (सकलकार्यसि६), सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, सर्वानन्द पद में प्राप्त होना, पुनरपि (फिर) कर्मों के बंधन में न पमना, अर्थात् जन्म-मरण रूप आवागमन से रहित हो जाना, जिसको जैन में 'अप्पुणरावती पद कहते हैं, और 'वैष्णव गीता अध्याय ५ वें श्लोक १७ वें में लिखते हैं. श्लोक. . , गवन्य पुनरावृत्तिं ज्ञाननिषूतकल्मषाः॥ इसका अर्थ यह हैः-गच्छन्ति' जाते हैं जीव वहां यहां से, 'अपुनरावति' फिर नहीं आयें Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GO संसार में, 'ज्ञान' झान रूप हो जाता है. 'निर्धूतकल्मपाः' झाडके अनादि कल्प (कर्मदोष)-इत्यादि ___अब समझने की बात है कि वह कर्मदोप, राग द्वेष, मोनादि काडे, तो वह कर्म कुब जम पदार्थ होगा तब ही झाडा गया, न तु क्या कामता ? सो इस प्रकार से अबंधपद को सादि-अनन्त कहते हैं; अर्थात् जिस दिन चेतन कर्मबंध से मुक्त हुआ वह उसकी आदि है और फिर कनी कर्मबंधन में न आना, इस लिये अनन्त है. और जैन सूत्र जगवतीजी...प्रज्ञापनजी में पदार्थों के चार लेद इस प्रकार से भी कहे हैं. गाथा. (२) अणाइआ अपडवसीया, (३) अणण सपावसीया(३)साश्ा अपडवसीयाः (8) साश्या सपझवसीया. इसका अर्थ पूर्वाक ही समझना. Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव जो दूसरा अनादि-शान्त समवाय सम्बंध कहा था सो जीव और कर्म के विषय में जान लेना, क्यों कि तुम्हारा प्रश्न यह था कि कर्मों की आदि नहीं है तो अन्त कैसे होवे ? इसका उत्तर इस दूसरे सम्बंधके अर्थ से खूब समझ लेना और इन पूर्वोक्त अधिकारों के विषय में सूत्र, प्रमाण, युक्तिप्रमाण बहुत कुछ लिख सकते हैं और लिखने की आवश्यकता (जरूरत) जी दै; परन्तु यहां विशेष परिश्रम करने को सार्थक (फायदेमन्द) नहीं समझ गया, क्यों कि एकित जन बुद्धिमान् निरपद दृष्टि से बाचेंगे तो इतने में ही बहुत समऊ लेंगे, और जो न समझेगें वा पद रूपी वृक्ष को ही सींचेंगे तो चाहे कितने ही लिखए कागज काले कर पाथे जरो, क्या फल होगा ? यथा 'राजनीति' में कहा है: Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकः . बुझियोध्यानि शास्त्राणि न बुद्धिः शास्त्रबोधिका । प्रत्यक्षेऽपि कृते दीपे चक्षुहीनो न पश्यति ॥ इसका अर्थ सुगम ही है. असली तात्पर्य तो यह है कि पदार्थ ज्ञान हुए विना क र्ता-विकर्ता के विषय का व्रम दूर होना बहुत कठिन (मुशकिल) है. ___आरियाः-अजी! पदार्थ ज्ञान किसे करते हैं? जैनी:-जैन शास्त्रों में दो दी पदार्थ माने गये हैं; चेतन और दूसरा जरु. सो चेतन के मूल दो भेद है। (१) प्रकट चेतना कर्म रहित सिइ स्वरूप परमेश्वरः (२) अनंत जीव सामारिक कर्म बंध सहित. दुसरे जम के नी मृत दो भेद हैं: (१) प्ररूपी जम (आकाश,काल आदिक);()रुकी जम.जो पदार्थ दृष्टिगोचर (देखने में आने Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं. इन सब पदार्थो का उपादान कारण ‘परमाणु' हैं. अनंत सूक्ष्म परमाणुओं का एक वादर स्थूल परमाणु होता है,जिसको 'पुद्गल' कहते हैं. सो इन पुद्गलों का स्वन्नाव सूक्ष्म, स्थूल, शुन्न,अशुनपन को व्य--क्षेत्रकाल-नाव के निमित्तों से परिणम जाने का अर्थात् बदल जाने का होता है; अर्थात् . व्य तो पृथिवी, जल आदिक; देत्र (जगह); और काल, ऋतु (मोसम); नाव, गेहूं से गेहूं और चणे से चणे और तृण आदि का उत्पन्न होना, और उनमें एकेन्श्यिपन वनस्पति योनि वाले जीव और जीव के कर्म इत्यादि से यथा पृथिवी और जल के संयोग से घास उत्पन्न होता है; घास को गौने खाया, उस गौ की मेद की कलों से घास का दूध बनता है; दुध को मनुष्य ने मिशरी माल कर पीया; तव मनुष्य के मेद की कलों से उस दूध से सात धातु बनते हैं; और विष्टा (मलमूत्र.) जी ब Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नता है; फिर उस मल की मिट्टी हो जाती है; फिर उस मीट्टी के प्रयोग से खरबूजे आदिक फल हो जाते हैं; फलों को खा कर फिर विष्टा, फिर मिट्टी, फिर फल इत्यादि शुन्न अशुल पर्याय पलटने का स्वनाव होता है.और पुद्गल के मूल धातु चार हैं:र वर्णमय, शगंधमय, ३ रसमय, ४ स्पर्शमय. इन चारों धातुओं के मिलने से पुद्गल की चार प्रकार की पर्याय में से पर्याय पलटती :-. गुरु, लघु,३ गुरुलघु, ४ अगुरुसघु. जब गुरुपर्याय को पुद्गल प्राप्त होता है तव किस रूप में होता है ? यथा पत्थर धातु आदिक; अर्थात धातु की और पत्थर की गोली बजन में रत्ती की भी होगी, उस को दरिया के जल पर धर देव तो वह अपनी गुरु अर्थात् नारी पर्याय के कारण से जल में डब कर तले में जा बैठेगी. और दूसरा लघु पर्याच बाला पुदगल, काष्ठ आदिक; Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए अर्थात् तोल में पचीस मन का काठ का पोरा होगा, वह भी लघु अर्थात् हलू की पर्याय के कारण से जल पर तैरता ही रहेगा. अब सोच कर देखो कि कहां तो ५ रत्ती जर बोझ; और कहां ३५ मन ? परन्तु पर्याय का स्वन्नाव ही है. आरियाः-अजी ! स्वन्नाव नी तो ईश्वर ने ही बनाये हैं! जैनी:-अरे नोले ! तूं इतने पर जी न समझा. यदि ईश्वर का बनाया स्वनाव होता तो कनी न पलटता. परन्तु हम देखते हैं कि उस ५ रत्ती नर धातु की मनुष्य चौमी कटोरी बना कर जल पर रख देवे तो तैरने लगे, और काष्ठ को फूंक कर नस्म (राख) को जल में घोल देखें तो नीचे ही जा लगेगी. अब क्या ईश्वर का किया हुआ स्वन्नाव मनुप्य ने तोन दिया ? अपि तु नहीं, यद. तो क्रिया विशेष करने से नी मिशरी के कूजों के Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रबी की नान्ति पर्याय पलट जाती है. यथा दृध से दही इत्यादि. (३) गुरु-लघु सो वायु (पवन)आदिक (४)अगुरु-लघु सो परमाणु आदिक संख्यात आकाश परदेशोवगाम सदन खंध इत्यादि. और यह नी समझना आवश्यक (जरूरी) है कि जिसका नाम परमाणु अर्थात् परे से परे गेहा, जिसके दो नाग न हो सके ऐसे अनन्त परमाणु मिल कर एक स्थूल पदार्थ दृष्टिगोचर (नजर में आनेवाला) बनता है. यघा दृष्टान्तः-६ मासे जर सुरमे की मती जिसको मनुष्य ने खरल में माल कर मूसल का प्रहार किया, [चोट लगाई तो उसके कई एक खाम (टुकमे) हो गये. ऐसे ही मुसल लगते जद बहुत गट्टे टुक हो गए और मसल की चोट में न आये तो रमाना शुरू किया: तीन दिन तक रगमा. अब कहोजी! कितने ग्वाम (टुको)दुपा परन्तु जिनने वह -- Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए४ कमे हो गये हैं उनमें से जी एक‍ टुकडे के कइ‍ टुकने हो सकते हैं. क्यों कि उसी सुरमे को यदि तीन दिन तक और पीसें तो बारीक होवे वा नहीं होवे ? तो बारीक जब ही होगा जब एक के कई टुकमे हों; ऐसे ही २१ दिन तक रगमा, तो कैसा बारीक हुआ ? उसमें जरा अङ्गुली लगा कर देखें तो कितना सुरमा अर्थात् कितने खएम (टुकडे) अङ्गली को लगें ? किरोम. हां, अब एक टुकमे को अलग करना चाहें तो किया जावे, कर तो लिया जावे; परन्तु ऐसा वारीक औजार नहीं है, और वह खंग वा टुकमा जी अनन्त परमाणुओं का समूद (पिंग ) होता है. क्यों कि वह दृष्टि में प्रा सकता है, और उन परमाणुओं में वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, जो है, मिलने - विवमने का स्वभाव भी है. क्यों कि नये - पुराणे होने की पर्याय जी पलटती रहती है, और इन पर - माणु यदि पदार्थों का अधिक स्वरूप देख Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ना होवे तो श्रीमद्भगवतीजी-प्रझापनजी आदिक सूत्रों में गुरु आम्नाय से सुन कर ओंर सीख कर प्रतीत (मालूम) कर लो. परन्तु पदार्थ का पूर्ण (पूरा) ३ ज्ञान होना बहुत कग्नि है. क्यों कि प्रत्येक (हरएक) जेनी नी बहुत काल तक पढते रहे तो ना नहीं जान सकते हैं; कोई विद्वान पुरुष दी जान सकते हैं.यथा दृष्टान्तःपाटनपुर नाम नगर निवासी एक "ईश्वर-कर्ता-ब्रमवादी' पूर्वोक्त पदार्थज्ञान परमाणु आदि पुद्गल के स्वनाव के जानने के लिये जनशास्त्र सीखने की इच्छा कर के जैन आचाया के पास शिप्य हो कर विनयपूर्वक कई वरसों तक शास्त्र सीखता रहा: जब अपने मनमें निश्चय किया कि में पदार्थ ज्ञात हो गया (जान गया) ई, तब निकल कर चमवादीयों में मिल जैनिओ से चर्चा करने का प्रारम्न किया. तब वह भ्रमवादी पदार्थ ज्ञान के विषय में Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NG हार गया. क्यों कि पदार्थों के नेद बहुत हैं, तथापि वह भ्रमवादी फिर जैन आचार्यों का शिष्य (चेला) बना, और विनयपूर्वक नम्र हो कर विशेष पठन किया (पढा) और उन महात्माओं ने धर्मोपकार जान कर हितशिदा से पाग्न कराया (पढाया). परन्तु वह काञ्जीका पात्र फिर नाग कर चमवादियों में मिल चर्चा का विस्तरा विछा वैग, और फिर जीव, अजीव के विचार में जैनीयों से दारा.इसी प्रकार से कहते हैं कि ग्यारह वीं वार पाएकलवाग में परम परिमत धर्मघोष अनगारजी के साथ दोनों ही पक्षों की और से चर्चा का आरम्न हुआ. ज्रमवादीः-तुमारे मत में पुद्गल का स्वन्नाव मिलने बिठमने का कहा है; तो कितने समय में (अरसे में) मिल विउड सकते हैं ? और अवस्था विशेष कितने काल तक रह सकते हैं? Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + जैनाचार्य:- जघन्य (कम से कम) एक सूक्ष्म समय में मिल-बिठा सकते हैं; नत्कृष्ट (जियादा से जियादा ) असंख्यात काल तक, नमवादी:-कोई दृष्टान्त (प्रमाण) जी है ? जैनाचार्यः-शीशे के सन्मुख (सामने) कोई पदार्य किया जाय तो उल पदार्थ का प्रतिबिम्ब जस शीश (दर्पण) में शीघ्र (जल्दी) पर जाता है,और हटाने से प्रांत शीशे को परे करते ही हट जाता है. और सान पर लोहा धरने से शीघ्र अक्षि चल कर चिनगारे निकलते हैं. और जलने मूर्य की कान्ति पड़ने से शीघ्र ही साया जा पड़ता है, (इत्यादि) अन बुद्धिधारा मोच कर देखो कि वह पूर्वोक्त प्रतिविन (सावा) और अग्नि किसी पदार्थ के नो बने ही होगे, और कुछ M Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ & तो होवेगा दी, जो दृष्टिगोचर (नजर में ) दं ता है. अब देखो, उस प्रतिबिम्ब के वर्ण (र और व्याकार जिन परमाणुओं से बने, उ परमाणुच्छों के मिलने और बिबरने में कितन समय लगा ? मवादी :- सुनोजी; मैं एक दिन बाद की भूमिका से चिन्ता मेटके पुनरपि आता अर्थात् लौट कर आता था; रास्ते में धूप प्रयोग से चित्त व्याकुल हुआ, तो एक या के वृक्ष के नीचे खमा होता जया. तब व स्मात् ( अचानक ) उस वृक्ष में से तख गिर‍ परे और वह आपस में मिलर के एक उमदा तख्त बन गया और सुळे ब आश्चर्य हुआ; परन्तु उस तख्त परं मुहू मात्र अर्थात् दो घमी तर विश्राम ले क चलने लगा तब तत्काल ही वह तख्त फ कर तख्ते उसी आम के वृक्ष में जा मिले अब कहो, नहाचार्यजी ! यह कथन या Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ יחי की चुद्धि (समझ ) में सत्य प्रतीत हुन्या वा असत्य ? जैनाचार्य्यः- ग्रसत्य. भ्रमवादी: क्योंजी ? तुम्हारे सूत्रों में तो पदार्थज्ञान का सारांश यही है कि पुद्गल का मिलने - विमने का स्वभाव ही है. तो फिर वृक्त में से तख्ते मिलने और विद्यते का सम्बंध सत्य कैसे माना गया ? उस समय सभासद तो क्या बल्कि जैनाचार्य्यजी को जी सन्देह हुआ. तव जेनाचा जीने ग्राहारिक लब्धी फोमी. अर्थात अपने अन्तःकरण की शक्ति से मतिमानों की मनिसे अपनी मति मिला कर उसी वक्त पुद्गल केव नेत्र याद में लाये, और फर्माने लगे कि. अरे जोले ! तूने पुदगल का खाव एक मिलने का ही सीख लिया, परन्तु यह नहीं जानता है कि पुद्गल का परिणामी स्व Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० नाव होता है, देश-काल के प्रयोग से अनेक प्रकार के स्वचाव के नाव को परिणम जाता है. अब तुके पुद्गल का सारांश संक्षेप से कहता हूं; सुन. (१) प्रथम तो दृष्टिगोचर जो पदार्थ हैं उन सब का उपादान कारण रूप एक भेद है: - परमाणुं. फिर दो नेद माने हैं: -- (१) सूक्ष्म, (२) स्थूल. फिर तीन भेदः - (२) विससा (२) मिससा, (३) पोगसा. फिर चार नेदः - इव्य (२) क्षेत्र, (३) काल, (४) नाव की अपेक्षा से. फिर पांच भेद हैं:(१) वर्ण, (२) गंध, (३) रस, (४) स्पर्श, (4) संस्थान. और फिर वः भेद हैं: - [१] बादर बादर, [2] वादर, [३] बादरसूक्ष्म, (४) सूक्ष्मवादर, [] सूक्ष्म, [६] सूक्ष्म सूक्ष्म. अब बादर बादर पुद्गल पर्याय रूप क्यार पदार्थ होते हैं ? यथा जल, दूध, घृत, तेल, पारा आदि. इनका स्वभाव ऐसा होता है कि इनको न्यारेश् कर देवें फिर मिलायें तो Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202 एक रूप हो जावे, पृथग् जाव न रहे; अर्थात् जल वा उग्धादिक को पांच सात पात्रों में काल देवें तो न्यारा हो जाय. फिर एक में कर दें तो एक रूप ही हो जाय, (२) चादर पर्याय पदार्थ वह होता है कि न्यारा हो कर न मिले. यथा काष्ट, पत्थर, वस्त्र, व्यादिक. अर्थात् काष्ट के गेले को चीर कर तख्ते किये जांय फिर उनको मिलावे तो न मिलें; चाहे कोल लगा कर जोरु दो, परन्तु वद वास्तव में तो न्यारे ही रहेंगे. ऐसे ही पत्थर, वस्त्रादिक जी जान लेने. अब समऊने की बात है कि पुद्गल तो वह जी है, और वह जी है, परन्तु वह दुग्ध जलादिक तो विचम कर मिल जांय और काष्ट पत्थर आदि न मिले, कारण यह है कि वह दुग्ध, जल, प्रादिक पुगल बादर हैं. और का, पापा को प्राप्त हुए हैं. पर्याय को प्राप्त हुए आदिक बादर पर्याय नको रे जमवादी ! तेग Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ श्वर ने जम काहे के बनाए ? क्यों कि जो वस्तु बनेगी उसका नपादानकारण अवश्य (जरूर) हीदोगा, कि जिससे वह बने. ज्रमवादीः-हांजी, मैं नूल गया; जम पदार्थ तो अनादी हैं; परन्तु उनमें स्वनाव ईश्वर ने डाला है. - आचार्यः--अरे नोले! जब पदार्थ होगा तो पदार्थ का स्वन्नाव नी पदार्थ के साथ ही होगा. यथा पूर्वोक्त अग्नि होगी तो उसमें जलाने का स्वन्नाव जी साथ ही दोगा, जहर होगा तो मारने का स्वनावन्नी साथ ही होगा. बस, इन बचनों को सुलते ही श्रमवादी नम को गेम आचार्यजी के चरणों में लगा और कहा, कि पदार्थज्ञान जैसा जैन शास्त्रों में है वैसा और किसी शान नहीं है, फिर उसने जैन आम्नाय को निश्चय से धारण किया, और फिर चमवादियों में न गया, स. Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाध्यक्षों को भी बहुत ज्ञानलान हुआ, और सन्ना विसर्जन हुइ. जेनी:-कहो, वेदानुयायी ! तुम कितने पदार्थ अनादि मानते हो? आरिया:-(२) ईश्वर, (५) जीव, (३) प्रकृति अर्थात् जम पदार्थ, प्रत्येक रूपी पदार्थ का ऊपादान कारण. जैनी:--अब कहो ईश्वर ने क्या बनाया? आरियाः-जैसे कुम्हार पात्र बनाता है, और तरखान, बुदार घमी बनाता है, इत्यादि, जनी-जला,यह क्या उत्तर हुआ? मेंने क्या पूग और तूने क्या उत्तर दिया? जला, यही सही, कहो तो कुम्हार काहेका घमा बनाता है ? क्या अपने हाथ पांवों का, वा किसी और वस्तु का? आरिया:--मट्टी का. Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनी:-मट्टी तो पहिले दी विद्यमान् (मोजूद) थी, फिर मट्टी ही से घमा बनाया. अपि तु घमेकाकर्ता कुम्हार नहीं है क्यों कि घने का उपादान कारण तोमही ही ही है. हां निमित्त कारण कुम्हार है, सो निमित्तिक तो मिहनती होता है, परन्तु मिहनत नी सप्रयोजन होती है। यदि निष्प्रयोजन मिहनत करे तो मूर्ख कहावे, यथा “ निष्प्रयोजनं किं कार्यम्" इति वचनात्. तो अब कहो कि तुम्हारा ईश्वर सप्रयोजन मिहनत करता है वा निष्प्रयोजन ? अर्थात् ईश्वर पूर्वोक्त मिदनत से क्या लाल उगता है, और न करने से क्या हानि रहती है? आउः--ईश्वर का स्वन्नाव है, अथवा अपनी प्रजुता दिखाने को. । जैनी:-निष्प्रयोजन कार्य करने का स्वन्नाव तो पूर्वोक्त मूर्ख का होता है. और प्रजुता दिखानी, सो क्या को ईश्वर का शरीक Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 . है, जिसे दिखाता है, कि देख तेरे में प्रभुता धनी है कि मेरे में, अथवा ईश्वर को तुम नट, वा बाजीगर समझते हो, जो सब लोगों को अपनी कला दिखाता है! परन्तु नट नी तो कला सप्रयोजन अर्थात् दामा के वास्ते दिखाता है. अरे हठवादिओ! क्या तुम कुम्हार का ह. टान्त ईश्वर में घटाते हो? कृत्रिम वस्तु का कती नो हम भी मानते हैं, यथा संयोग सम्वन्ध के विषय में लिव आये हैं कि संयोग सम्बन्ध के मिलाने वाला कोईतीसरा ही होता घट. पट, म्नन. आदिक, घट का कर्ता कु लाल (कुम्हार), पट का कता तन्तु बाय (जलाना), स्तंल का कती रवानी (तरखान). त्यादि. परन्त अकृत्रिय बन्त का कती किसी प्रमाण ले भी लिए नहीं होता है या आकाश, काल, जौच (आत्मा), कर्म (प्रकृति) परमाणु प्रादिक का. और एसे ही नयायिक जी मानन दे न्यायदर्शन ' घुम्नक मम्बत् Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० २४ए की पी हुई ५ पृष्ठ १५ पंक्ति में लिखा है, १ आत्मा, २ काल, ३ आकाश, आदि अनित्यत्व नहीं होते, अथोत् शब्द में उत्पत्ति नित्य है, धर्मकत्व विरुद्ध धर्म होने से, यह अनुमान है, कि शब्द अनित्य है. जैनी:--देखो ! ईश्वर का वादी वेदों को शब्द वत् नित्य कहते हैं; परन्तु यहां शब्द को अनित्य कहा है. दयानन्दजी ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका १२७ पृष्ठ में लिखते हैं, कि जब यह कार्य रूप सृष्टि उत्पन्न नहीं हुईथी, तव एक ईश्वर और दूसरे जगत् कारण, अर्थात् जगत् बनाने की सामग्री मौजूद थी. और, और आकाशादिक कुच्छ न था; यहां तक कि परमाणुनी न थे.देखो! यह क्या बाल बुद्धि की बात है! क्यों कि न्याय तो लिरखता है कि आकाश आदि अनादि हैं. और फिर यह जी बताओ कि जगत् बनाने की सा Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मग्री क्या थी ? और परमाणु का क्या स्वरूप है? और सामग्री काहे की बनती है? और परमाणुं किस काम आते हैं? और जगत् बनाने की सामग्री आकाश विना काहे में धरी रही होगी? और फिर जेनी आदिकों की कहने पर शायद शंकित हो कर, उठी वारके उपे हुए 'सत्यार्थ प्रकाश' के आठवें समुल्लास २४ पष्ट ,G. ए पंक्ति में लिखतें हैं:-जगत् की नत्पत्ति के पूर्व (१) परमेश्वर (२) प्रकृति, (३) काल, (४) आकाश तथा जीवों के अनादि दोने से इस जगत् की उत्पत्ति होती है. यदि इनमें से एक नी न होवे तो जगत् नी न हो. तो अब कहो जैनियों का अनादि सृष्टि का कदना स्विकार होने में क्या नंद रहा? और वह जी प्रना चाहिये की जब सृष्टि रचने से पहले ही काल था तो सृष्टि किस काल में रची, अर्थात् रात्रि काल में रची वा दिन में,और किम बनी चदि वक्त है तो Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० सूर्य और चन्छ बिना वक्त कैसे हुआ ? : ___आरियाः-हम तो सृष्टि कर्ता ईश्वर ही को मानते हैं. जैनीः-सृष्टि को ईश्वर कैसे करता है? आरिया:-शब्द से जगदुत्पत्ति हुई है. जैनी:-शब्द से जगत् की उत्पत्ति कैसे हुई ? आरिया:-माण्मूक्योपनिषदादि में श्रुतिका मंत्र है: “ एकोऽहं वहुस्यास्” अर्थात् सृष्टि से पूर्व (पहिले) व्योम शब्द अर्थात् ईश्वर ने आकाश वाणी बोली, कि मैं एक हूं और बहुत प्रकार से होता हूं, ऐसे कहते ही सृष्टि बन गई, जैनी:-भलाजी! सष्टि तो पीठे बली और शब्द पहिले बना (हुआ) तो ईश्वर ने किस को सुलाने के लिये कहा, और किसने सुना, और कौन सादी (गवाह्) हुआ, कि यद व्योम शब्द हुआ है? क्यों कि पहिले तो Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ - - कुच्छ था ही नहीं. और मुसलमान लोग भी ऐसे ही कहते हैं, कि खुदा के हुक्म से जहान बना, अर्थात् खुदा का हुक्म हुआ कि 'कुन' ऐसा कहते ही जहान बन गया! अब देखिये, कि जहाल से पहिले तो सिवाय खुदा के और कोई था ही नहीं. जब कि कोई न था तो “कुन' किस को कहा, अर्यात् दूसरा कोई न था तो दुक्म किस को दिया कि 'कर'. बस, इससे सिद्ध हुआ कि पहिले नी कोई था, जिस को शब्द सुनाया, अथवा हुक्म दिया; तो फिर उनके रहने की पृथिवी आदिक सब कुछ होगा और दयानन्दजी जी सं० वी० १.५४ के छपे हुए 'सत्यार्थ प्रकाश के आठवें समुल्लास २३६ पृष्ठ १६ पंक्ति में लिखते हैं, कि जब सृष्टि का समय आता है तब परमात्मा इन सूक्ष्म पदार्थो को इकट्ठा करता है, प्रकृतियों से तत्वेयि आदिक मनुष्य का शरीर बना कर उस में जीव गेरता है. बिना माता पिता युवा मनु- . Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ प्य सहस्रशः (हजारदा) बनाता है, फिर पीठे . मैथुनी पुरुष होते हैं. - तर्कः-अब देखिये,प्रथम तो माता पिता बिना पुरुष का होना ही एकान्त असंभव है; यथा रद बिना फल का होना. मला! ईश्वर ने अपनी माया से बनाये कह ही दिये परन्तु यह तो समझना ही पमेगा, कि वह हजारो पुरुष पृथिवी विना क्या आकाश में ही लटकते रहे होंगे? अपितु नहीं, सृष्टि पहिले ही होगी, और उसमें मनुष्य जी होंगे; यद प्रवाद रूप सिलसिलायों दी चला आता है. क्यों भ्रम में पम कर ईश्वर को सृष्टि के बनाने का परिश्रम गने वाला मान बैठे हो? और फिर २३७ पृष्ठ १७ पंक्ति में लिखते हैं: प्रश्नः-मनुष्य सृष्टि पहिले, वा पृथिवी आदिक? उत्तरः-पृथिवी आदिक. क्यों कि पृथिवी विना मनुष्य काहे पर रहें ? Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 १९३ देखो परस्पर विरोध ! द्वाय अफसोस! अप १ ते कथन का भी बंधन नहीं, कि दम पहिले तो क्या लिख चुके हैं, और अब क्या लिखते हैं? परन्तु क्या करें? मिथ्या के चरित्र ऐसे ही होते हैं ! जैनी:- मला, ईश्वर तो चेतन है और r सृष्टि जड है, तो चेतन ने जम कैसे बना दिये ? परमाणुओं को इकठ्ठा कर‍ प्रारियाः के सृष्टि बनाता है. जैनी: क्या, ईश्वर के तुम दाथ पांव मानते हो, जिनसे वद परमाणु इकट्ठे करता है? मारिया : ईश्वर के हाथ पांव कहांसे प्राये ? ईश्वर तो निराकार है. जैनी :- तो फिर परमाणु कादेसे इकट्ठे करता है? आरिया: अपनी इच्छा से. जैनी:- ओहो ! तो फिर तुमने सम्वत् १९८४ के बपे हुए "सत्यार्थ प्रकाश" के चौद - Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हवें समुल्लास पाण्य पृष्ठ २४.वीं पंक्ति में मुसलमानों के कहने पर तर्क कैसे करी है, कि खुदा के हुक्म से जहान कैसे बन गया? नला, हम तुमसे पूरते हैं कि सृष्टि इच्छा से कैसे बन गई? अरे नोले! औरों पर तो तर्क करनी और अपने घर की खबर दी नहीं क्यों कि हुँकम तो वचन की क्रिया है और श्वा मन की क्रिया है. क्या, मरजी कोई बुहारी (माइ) है कि जिससे परमाणु इकठे करके सृष्टि बनाई ? हाय अफसोस! पूर्वोक्त शास्त्रों के अझ दी बहकाये जाते क्यों कि जब तुम इश्वरको निराकार मान चुके हो तो इचा कहांसे आई? दे नाई! तुमको इतनानी ज्ञान नहीं है, कि मरजी एक अन्तःकरण की प्रकृति होती है,अर्थात् मन, मरजी, इच्ग, संकल्प, दलील, नाव, प्रणाम यह सब अन्तःकरण के कर्म अर्थात् फेदल हैं. तांत,समझना चाहिये कि जिसके अन्तःकरण अर्थात् सूक्ष्म देह होगी, उसके स्थूल Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " f A I ११५ देह जी दोगी; और जिसके स्थूल देह दोगी उसके सूक्ष्मदेद अर्थात् अन्तःकरण जी L होगा. तां ते तुमारा पूर्वोक्त कथन मिथ्या है, जो कहते हो कि ईश्वर की इच्छा से सृष्टि बनती है. ईश्वर के तो इच्छा दी नदीं है, तो बनता बनाता क्या ? ईश्वर' तो सर्वानन्द सदा ही एक रस कढ़ता है. बस ! वदी सत्य है जो उपर लिख प्राये हैं, कि प्रकृत्रिम वस्तु का कती नहीं दो सकता है; क्यों कि जब ईश्वर अनादि है तो ईश्वर के जाननेवाले जी और नाम लेने वाले श्री अनादि होने चाहिये, क्यों कि जब ईश्वर है, तो, ईश्वर के गुण कर्म, स्वभाव जी साथ दी हैं. तो ऐसा हो ही नहीं सक्ता कि. इर्श्वर को कोइ जाने ही नहीं, और नाम लेवे ही नहीं, और ईश्वर कुछ करे ही नहीं. अगर ऐसा दो तो ईश्वर के गुण कर्म स्वभाव नष्ट हो जावें; और ईश्वर की ईश्वरता जी न रहे. न तो ऐसा मानना पड़ेगा कि ईश्वर कभी है, और कभी नहीं; C Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ हवें समुल्लास प ष्ठ २४.वीं पंक्ति में मुसलमानों के कहने पर तर्क कैसे करी है, कि खुदा के हुक्म से जहान कैसे बन गया? नला, हम तुमसे पूबते हैं कि सृष्टि इच्छा से कैसे बन गई? अरे नोले! औरों पर तो तर्क करनी और अपने घर की खबर दी नहीं क्यों कि हुँक्म तो बचन की क्रिया है और इन्चा मन की क्रिया है. क्या, मरजी कोई बुहारी (झाडू) है कि जिससे परमाणु इकठे करके सृष्टि बनाई? दाय अफसोस! पूर्वोक्त शास्त्रों के अज्ञदी बहकाये जाते क्यों कि जब तुम इश्वर को निराकार मान चुके हो तो इछा कहांसे आई? दे नाई! तुमको इतनानी ज्ञान नहीं है,कि मरजी एक अन्तःकरण की प्रकृति होती है,अर्थात् मन, मरजी, इच्छा, संकल्प, दलील, नाव, प्रणाम यह सव अन्तःकरण के कर्म अर्थात् फेदन हैं: तांते,समऊना चाहिये कि जिसके अन्तः. करण अर्थात् सूक्ष्म देह दोगी, उसके स्थूल Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देहली होगी; और जिसके स्थूल देह होंगी. उसके.. सूक्ष्मदेद अर्थात् अन्तःकरण जी, होगा. तां ते तुमारा पूर्वोक्त कथन मिथ्या है, जो कहते हो कि ईश्वर की इच्छा से सृष्टि बनती है. ईश्वर के तो इच्छा ही नहीं है,तो बनता बनाता क्या? ईश्वर तो सर्वानन्द सदा ही एकरस कदता है.बसवदी सत्य है जो जपर लिख आये हैं,कि अकृत्रिम वस्तु का की नहीं हो सकता है; क्यों कि जब ईश्वर अनादि है.तो ईश्वर के जाननेवाले जी और नाम लेने वाले नी अनादि होने चाहिये, क्यों कि जब ईश्वर है, तो ईश्वर के गुण कर्म, स्वनाव जीसाथ ही हैं.तो ऐसा हो ही नहीं सक्ता कि इर्श्वर को कोई जाने ही नहीं, और नाम लेवे ही नहीं, और ईश्वर कुठ करे ही नहीं अगर ऐसा हो तो ई.श्वर के गुण कर्म स्वन्नाव नष्ट हो जावें और ईश्वर की ईश्वरतानी न रहे.न.तो ऐसा मानना पमेगा कि ईश्वर कली है, और कनी.नहीं; Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ हवें समुल्लास भएपष्टष्ठ २४ वीं पंक्ति में मुसलमानों के कहने पर तर्क कैसे करी है, कि खुदा के हुक्म से जहान कैसे बन गया? नला. हम तुमसे पूजते हैं कि सृष्टि इच्छा से कैसे बन गई? अरे नोले! औरों पर तो तर्क करनी और अपने घर की खबर ही नहीं क्यों कि हुँक्म तो बचन की क्रिया है और इछा मन की क्रिया है. क्या, मरजी कोई बुहारी (झाडू) है कि जिससे परमाणु इकठे करके सृष्टि बनाई? हाय अफसोस! पूर्वोक्त शास्त्रों के अज्ञदी बहकाये जाते क्यों कि जब तुम इश्वर को निराकार मान चुके हो तो इवा कहांसे आई? दे लाई! तुमको इतनानी ज्ञान नहीं है,कि मरजी एक अन्तःकरण की प्रकृति होती है,अर्थात् मन, मरजी, च्ग, संकल्प, दलील, नाव, प्रणाम यह सब अन्तःकरण के कर्म अर्थात् फेदल हैं. ताते,समझना चाहिये कि जिसके अन्तःकरण अर्थात् सूक्ष्म देह होगी, उसके स्थूल Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · ११५ देद जी दोगी; और जिसके स्थूल देह दोगी उसके सूक्ष्मदेद अर्थात् अन्तःकरण जी होगा., तां ते तुमारा पूर्वोक्त कथनं मिथ्या है, जो कहते दो कि ईश्वर की इच्छा से सृष्टि बनती. है. ईश्वर के तो इच्छा दी नदीं है, तो बनता बनाता क्या ? ईश्वर तो सर्वानन्द सदा ही एकरस कहता है. बस ! वदी सत्य है जो उपर लिख प्राये हैं, कि कृत्रिम वस्तु का कती नहीं दो सकता है; क्यों कि जब ईश्वर अनादि है. तो ईश्वर के जाननेवाले जी और नाम लेने वाले श्री अनादि होने चाहिये, क्यों कि जब ईश्वर है, तो, ईश्वर के गुण कर्म, स्वभाव जी साब दी हैं. तो ऐसा हो ही नहीं सक्ता कि. इर्श्वर को कोई जाने ही नहीं, और नाम लेवे ही नहीं, और (ईश्वर कुछ करे ही नहीं. अगर ऐसा दो तो. ईश्वर के गुण कर्म स्वभाव नष्ट हो जावें; और ईश्वर की ईश्वरता जी न रहे. न तो ऐसा मानना पड़ेगा कि ईश्वर कमी है, और कभी नहीं; 2 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्यों कि यदि ईश्वर सदा अर्थात् हमेश ही कर्म करता कहता हो तो दुर्भिक अर्थात् अकाल पाने के समय और महामारी (माकी) पमते में लाखों मनुष्य वा पशु आदिक जीव मरते हैं, तो उनकी रक्षा क्यों नहीं करता? .. आरिया: उनके कर्म! जैनी:-यह कहना तो कर्मकाएमवादियों का है, कि कर्म ही निमित्तों से फल जुगताते हैं. उसमें ईश्वर का दखल ही नहीं है. बस, वही ठीक है जो कि जैनी खोग कहते हैं कि ईश्वर अनादि है, और ईश्वर को जानने वाले वा स्मरण(याद) करनेवाले जी अनादि ही से चले आते हैं,और जनके रहने का.जगत् अर्थात् सृष्टि जी अनादि है, अर्थात् चतुर्गति रूप संसार, नर्क,तिर्यञ्च, मनुष्य, देवलोक, ज्योतिषी देव, अर्थात् सूर्य. और चन्द्र जी अनादि से हैं और देखिये “सस्वार्थ प्रकाश समुल्लास वारहवे में दयानन्द Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जी जैनियों पर तर्क करते हैं,कि जैनी जम्बूहीप.में दो चांद और दो सूर्य मानते हैं, और और लोग कई स्थूल दृष्टिवाले नी सुनश् कर विस्मित (हैरान) होते हैं. परन्तु यह खबर नहीं कि दयानन्द उक्त “सत्यार्थ प्रकाश” समुलास आठवें श्४२ पृष्ठ के नीचे प्रश्न लिखते है, कि इतने, बमे २ भूगोलों को परमेश्वर कैसे धारण करता है? ... उत्तरः-अनन्त परमेश्वर के सामने असंख्यात लोक, एक परमाणु के तुल्य नहीं कह सकते, अब देखिये, कि असंख्य. खोक लिखता है, जब कि असंख्य लोक दोंगे तो क्या वह अंधकार से ही पूरित होंगे? अपितु नहीं, असंख्य लोक होंगे तो एक श्लोक में यदी एक चांद, सूर्य भी होगा तो जी असंख्य चांद सूर्य अवश्य ही होंगे. और गुरू नानक सादिवजी अपने बनाये हुए जपजी सादिव की वाईसवीं पौमी में लिखते हैं Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि, पाताला पाताल लख, आकाशां आकाश प्रोमक, ओमकलाल थके वेद कहत इकबात. . परन्तु जैनियों के कहने पर उपहास -(ईसी) करे बिन नहीं रहते हैं. किसीने स त्य कदा है, कि जल्लू को दिन से ही बैर होता है. यथा जैनी लोग शास्त्रानुकूल कहते हैं, कि जल, आदिकों में जीव होते हैं, तो नपढ़ास करना, और अब माक्टरों ने खुर्दवीन आदि के प्रयोग द्वारा आंखों से देख लिये हैं, कि जल के एक बिन्दु में असंख्य जीव हैं परन्तु सनातन जैनियों में यह बात नहीं है, कि असत्य (झ) बोलने और गालियां देने पर कमर वांध लेवे. , आरियाः-अजी! तुम सृष्टि को कैसे मानते हो? जैनी:-इस प्रकार से, कि जब जैन म'तानुयायी और वैदिक मतानुयायी लोग भी इस बात को प्रमाण (मंजूर) कर चुके हैं, Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि परमाणु आदिक जम प्रकृति पदार्थ अ. नादि है, तो पदार्थ में मिलने वा विमने आदि का स्वन्नाव जी अनादि ही होगा, अर्थात् परमाणुओं का तर और खुश्क आदि स्पर्श होने से परस्पर सम्बंध होने का स्वन्नाव,यथा चिकने घमेपर गर्द (धूलि) का जम जाना, इत्यादि. जब कि स्वताव अनादि है तो उनके मिलाप से पिराम रूप पृथिवीनी अनादि हुई. जब पृथिवी अनादि हुई तो पृथिवी के आधार स्थावर, जंगम, जीवयोनि नी होगी। अर्थात् पृथिवी,जल,तेज,वायु और उनके साथ दीचं सूर्य आदिक ज्योतिषियों काजी भ्रमण होगा; और ज्योतिषियों के व्रमण : स्वनाव से सर्दी गर्मी की परिणमता, अर्थात् ऋतुयों (मौसमों) का बदलना,और साथ ही वायु का बदलना,और ज्योतिषियों की भ्रमण (आकर्षण शक्ति) अर्थात बैंच से वायु और रज मिल कर अांधी और बादल का होना और Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व अर्थात् परवा वायु की गर्मी में, पश्चिम अर्थात् पब्वा वायु की सर्दी का जामन खगने से समुर्बम जल का जमाव होना, और जमे हुए जल में वायु की टक्कर लगने से अग्नि का उत्पन्न (पैदा) होना अर्थात् बिजली का चमकना फिर ढलाव दो कर दवा से मिल कर गर्जाट का होना, और बारिश का होना,जल रूप घटा में सर्य की किरण मुकाबले पर, अर्थात् पूर्व को घंटा पश्चिम को सूर्य, वा पश्चिम को घटा और पूर्व को सूर्य, इस प्रकार पमने से आकाश में पञ्च रङ्ग धनुष का पमना, इत्यादि यह सिल सिला प्रवाह रूप अनादि नाव से दि चला आता है.हां, पूर्वोक्त देशकाल के प्रयोग से कन्नी कम और कनी जियादा आवादी हो जाती है, जैसे देमन्त ऋतु (सर्दी के मौसम) में सर्दी (खुश्की) के प्रयोग से वनराई के पत्र जम कर प्रलय अर्थात् उजाम हो जाती है, और वसन्त (मधु) ऋतु में गर्मी तरीके प्र Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२१ योग से वनराई प्रफुल्लित अर्थात् आवाद हो जाती है. अब इसमें जो संदेह (शक) होवे सो प्रकट करना चाहिये; न तु सत्य मार्ग को स्विकार (ग्रहण) करना चाहिये. आगे अपनी बुद्धि के आधीन (अख्तियार) है. ए वां प्रश्न. आरियाः-जो आपने कहा सो तो सत्य है; परन्तु यदि ईश्वर को सृष्टि का कर्त्ता न मानें तो ईश्वर कैसे जाना जावे ? '. जैनी:-जिस प्रकार से महात्मा ऋषियों ने जाना है, और सूत्रों में लिखा है, जिसका स्वरूप हम प्रथम प्रश्न के उत्तर में लिख आये हैं. और यह युक्ति (दलील) से नी प्रमाण है. हम देखते हैं कि जगत् में एक से एक आदादर्जे के अक्कमंद आदमी हैं, अर्थात् योगीश्वर,साधु, और सतीजन, राजेश्वर, मंत्रीचर, वकील, जौहरी TTO Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३ आदिक, वमी २ दूर तक बुद्धि दौमाते हैं, और वमी ३ विद्या का पास करते हैं, प्रत्युत (बल्कि ) कई धर्मात्मा पुरुष ईश्वर तक बुद्धि को पहुंचाते हैं, तो प्रतीत हुआ कि जीवात्मा चेतन, अर्थात् मनुष्य मात्र में कितना ज्ञान है तो कोई वह नी चेतन चिप होगा, कि जिसको परे से परे संपूर्ण ज्ञान होगा, अर्थात् वही सर्वज्ञ ईश्वर है, ऐसे जाना जावे. १० वा प्रश्न. आरियाः-नला! यह भी यथार्थ है. परन्तु यदि ईश्वर को सुख दुःख का दाता न माना जावे तो फिर ईश्वर का जाप अर्थात् नाम लेने से क्या लान है ? उत्तर जैनीः-नला! यह कुछ बुद्धि की बात है कि जो सुख दुःख देवे उसी का नाम लेना, ओर किसी न पुरुष (जले मानसका) नाम न लेना? अरे नोले! जो सुख दुःख देके Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२३ नाम लेवावे वह नाम ही क्या, और जो सुख सुःख के लोन (लालच) से और नय (खौफ) से नाम लेवे वह जाप ही क्या? यथा किसी पुरुषने आम लोगों से कहा कि तुम मेरा नाम ले एकर मेरी तारीफ करो, मैं तुम्हें लडू दूंगा, अथवा टका दे कर अपने नाम का ढंडोरा फिरवा दिया तो क्या वद उसकी तारीफ हुई वा जाप हुआ? अपि तु नहीं; यद तो खुशामदी मामला हुआ, लालच दे के चाहे कुब ही कहवालो, और किसीने कहा कि तुम मेरी प्रशंसा (बमाई) करो, यदि न करोगे तो मार दूंगा, तब मृत्यु के नय (मर) से नाम लेने लगे, तो क्या वह जाप हुआ? वलवान् (जोरावर) आदमी किसी उर्बल अर्थात् उर्वल पुरुष को धमका कर उससे चाहे कुछ कहा ले. अरे नाई! जो सुख दुःख नहीं देता है, और जो निष्प्रयोजन वीतराग परमेश्वर है उसीको नाम लानकारक (फायदे Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ मन्द) है, और जाप नाम नी उसीका है, जो कि विना ही लोन वा नय के केवल अपने चित्त की रत्ति को टिकाने के लिये और अन्तःकरण शुद्ध करने के लिये गुणी के गुणों को याद करे; यथा, किसी एक वणिक पुत्र अथात् बनिये के पुत्र ने देशान्तर कलिकत्ता आदिक में जा कर कान की और वहुत ही नेक नीयत से व्यवहारिक पुरुषों से मिल कर बमी मेहनत से सौदा लेना वा देना, वा ग्राहकों से मोग वोलना, इस नान्ति से उसने वहुतसा इव्य उपार्जन किया अर्थात् कमाया, और अपने पिता का ऋण अर्थात् कर्जा चुकाया, और सत्य बोलना, वों के सामने नीची दृष्टि (नजर) रखनी, और नाईयों का सत्कार (खातिरदारी) करनी, इस प्रकार से विचरता था. अब उसकी श्लाघा (तारीफ) उस देश के वा अन्य देशों के ( मुल्कों के) बनिये लोग अपनीर उका Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ नों पर बैठ कर अपने ३ पुत्र और मित्रादिकों से कहने लगे, कि देखो! देवदत्त बनिये का पुत्र सोमदत्त कैसा सुपूत है, कैसा कमान और नेक नीयत है, सो तुम नी ऐसे ही वनो. तब जस कहने वाले और सुनने वालों का चित्त दिल नी उस गुणी के गुणों को तर्फ आसक्त हो आकर्षित (बैंच) हुआ, और नेक हुआ, कि हमको भी ऐसे ही कमान हो कर सुखी होना चाहिये, और उष्ट संगति (खोटों की सोहबत) और खोट्टे कर्त्तव्य को गेम देना चाहिये. इस प्रकार से उनको गणिजनों के गुण गाने, और सुनने से नेक नीयत और नेक चलन वनने से सुख कालान नी दोगा. परन्तु यह सोचो कि उस बनिये के पुत्रने उन्हें क्या सहारा दिया, अर्थात् क्या उस ने तार लेजा था, वा मोदक नेजे थे, वा दाम नेजे थे,वा जय प्रदान किया था,कि तुम मेरी तारीफ करो. अपि तु नहीं,नसे कुठ पर Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ बाद नहीं, परन्तु गुणीजनों के गुण खुद ही गाये जाते हैं, और गा कर पूर्वोक्त लान नगते हैं. इसी तरह से परमात्मा में,सर्वज्ञ, सर्वानन्द, अखंकित, अविनाशी इत्यादि अनन्त गुण हैं, परन्तु ईश्वर सुख दु:ख दे कर मनुष्यों से वमाई अर्थात् अपना नाम नहीं स्मरण करवाता है. सत्संगी पुरुष खुद व खुद ही परमेश्वर के परमगुण रूप ज्योति में अपनी सुरती रूप बत्ती लगा कर अपने हृदय में गुणों का झान प्रकाश करते हैं, और उसीका नाम ध्यान है. इसी प्रकार से ईश्वर का ध्यान और जाप अर्थात् गुणों के याद करने से चित्त में भले गुणों का निवास हो जाता है, और अपगुणों अर्थात् विकारों का नाश हो जाता है; यही पूर्ण धर्म है. और इत्यादिक धर्मसे दुर्गति दूर हो जाती है, और शुन्न गति प्राप्त होती है, अर्थात् श्वा रहित कर्म रहित होकर मोद का लाल हो जाता है, Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ और तुमारा दयानन्द भी उक्त सत्यार्थ प्रकाश' के एएए पृष्ठ पर हमारी जान्ति इस विषय में प्रश्नोत्तर करके लिखता है. प्रश्नः-स्तुति करने से ईश्वर उनके पाप छुमा देगा? उत्तरः-नहीं. प्रश्नः-तो फिर स्तुति क्यों करनी? उत्तरः-स्तुति से ईश्वर में प्रीति उसके गुण, कर्म, स्वभाव से अपने गुण, कर्म, स्वजाव का सुधारना है. ११ वां प्रश्न. आरिया-क्यों जी, पहिले जैन है वा आर्य ? जैनी:-आर्य नाम तो जैन ही का है, और जैन धर्म ही के करने वाले जिन ३ देशों में थे, जन २ देशों का नाम, प्रज्ञापनजी सूत्र में आर्य देश लिखते हैं. और इसी का . .. ... . . Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रण से आर्य जरतखएक ऋषन देवजी नगवान् के बक्त से कहलाया; अनन्तर (बाद में) राजा नरत चक्रवर्त की अमलदारी बः खएक में होने से नारतखहम नाम से प्रसि ( मशहूर ) हुआ. और जैन शास्त्र जो सनातन हैं जिनकी लिखित जी अनुमान हजार वर्ष तक की मिलने का ठिकाना दीखे हैं,उनमें नी जदां जैनियों के परस्पर वार्तालाप का कथन आता है वहां आर्य नाम से बुलाया गया है; यथा श्रीमत् उत्तराध्ययनजी, सूत्र अध्ययन तेरहवां गाथा ३२ वीं में लिखा है:- . जइ तंसिनोगे च असत्तो, अजाई कम्माइं करे दीएय; धम्मे ग्नि सब पयाणु कंपी, तो हो हिसि देवोइ ओबि ओव॥३॥ जैनाचार्यजी उपदेश करते हुए ब्रह्मदत्त राजा प्रत्येः - - Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए (जर) यदि (तसि) तेरी, (जोगे) जोगों के विषय में, (चश्ओं) त्याग बुद्धि की; (असत्तो) असमर्थता है अर्थात् संयम लेने की ताकत नहीं है, तो (अजाइं) आर्य (कम्माई) कर्म (करे हीण्यं ) कर हे राजन् ! वह आर्य कर्म क्या (धम्मे विओ) वीतराग नाषित धर्म के विषे स्थित हो कर, (सव पयाणुकंपी) सर्व पद अर्थात् सर्व जीवों के जेद त्रस्स और थावर इनका (अणुकंपी) दयावान् हो, (तो दोदिसि ) तू जी होगा, (देवो) देवगति का वासी, अर्थात् देवता, (वी ओवी) विक्रिय शरीरवाला; इति... और जगवतीजी सूत्र शतक २ य, उद्देशा वठवां, तुङ्गापुर के श्रावक जैनाचार्य जी को पूरते हैं:- .. .. . गाथा. . . संजमेणं नंते किं.फले, तवेणं नंते किं कसे, ततेणं तेथेरा जगवंता ते समणो चासय, Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ रण से आय जरतखएम ऋषभ देवजी नगवान् के वक्त से कहलाया; अनन्तर (बाद में) राजा भरत चक्रवर्ती की अमलदारी वः खएम में होने से भारतखम नाम से प्रसिध (मशहूर ) हुआ और जैन शास्त्र जो सनातन हैं जिनकी लिखित भी अनुमान हजार वर्ष तक की मिलने का ठिकाना दीखे हैं, उनमें जी जहां जैनियों के परस्पर वार्त्तालाप का कथन आता है वहां प्रार्य नाम से बुलाया गया है; यथा श्रीमत् उत्तराध्ययनजी, सूत्र अध्ययन तेरहवां गाथा ३२ वीं में लिखा है: जइ तंसि जोगे च असत्तो, प्रजाई कम्माई करे दीएयं; धम्मे विन सब प्रयाणु कंपी, तो दो दिसि देवोइ प्रोवि प्रोवी ॥ ३२ ॥ जैनाचार्य्यजी उपदेश करते हुए ब्रह्म दत्त राजा प्रत्ये: 4. L Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - (जइ) यदि (तसि) तेरी; (जोगे.) जोगों के विषय में, (चश्नो) त्याग बुद्धि की; (असत्तो) असमर्थता है अर्थात् संयम लेने की ताकत नहीं है, तो (अजाई) आर्य (कम्माई) कर्म (करे हीण्यं ) कर हे राजन् ! वह आर्य्य कर्म क्या (धम्मे रिओ) वीतराग नाषित धर्म के विषे स्थित हो कर, (सब पयाणुकंपी) सर्व पद अर्थात् सर्व जीवों के नेद त्रस्स और थावर इनका (अणुकंपी) दयावान् हो, (तो होदिसि) तू जी होगा, (देवो) देवगति का वासी, अर्थात् देवता, (वी ओबी) विक्रिय शरीरवाला; इति. और जगवतीजी सूत्र शतक श्य, उद्देशा गवां, तुङ्गापुर के श्रावक जैनाचार्य जी को पूछते हैं: । गाथा. ... ..., . संजमेणं ते किं फले, तवेणं नंते किं कसे, ततेणं तेयेरा नगवंता ते समणो वासय, Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं वयासी संजमेणं अजोअण एहय फलेतवेणं वोदाण फले. अर्थः(संघ) संयम का हे पूज्यजी! क्या फल? तप का हे पूज्यजी ! क्या फल? (ततेणं०) तव ते थेवर जगवंत (समणो वासया) श्रावक प्रत्ये ( एवं० ) यों बोले, (संजमेणं0) संयम का (अजो) दे आर्य!(अणएहर) अनाश्रव अर्थात् आगामि समय को पुण्य पाप रूप कर्म का अन्तःकरण में से चयकान दोना यह फल है, (तवणं) तप का, (बोदाण' . फ) पूर्व किये हुए कर्म जो अन्तःकरण में सञ्चय थे, उनका क्षय होना, यह फल है. एसे ही प्रत्येक स्थान (हर जगह) सू. त्रों में जैनी लोग जैनियों को आर्य नाम से पु कारते आये हैं. इनके सिवाय आर्य मत .. कौनसा है ? हां,आर्यावर्त के रहने वाले दिन खोगों को जी देशीय नापा में आर्य कइते हैं. हां, अव एक और ही नवीन मत३५ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३१ वाधवर्ष के लगनग समय से 'आरिया नाम से प्रचलित हुआ है, जिस के कर्ता दयानन्द जी हुए हैं, जिनका प्रसंग कुछ आगे वि. खा जायगा. ___और जैनी आर्यों के ही यह नियम हैं:(१) जीव हिंसा का न करना, (२) असत्यन बोलना और मिथ्या सादी (झूठी गवादी) न देना, (३) चोरी न करना और निक्षेप अर्थात् धरोम का न मारना और राजा कीजगात न मारना, (४) परनारी वा परधन से दिख को मोमना, (५) विशेष तृष्णा का न बढाना और खोटा व्यापार-शस्त्र तथा विष आदि का न वेचना, (६) लोन में आ कर नीच कसाई आदिओं को व्याज पर रुपैया न देना,(3) द्यूत (जूआ) न खेलना,(७) मांस का नखाना, (५) मदिरा पान का न करना, (१०) रात्रि समय भोजन का न करना, (११) कन्दमुख का न खाना, (१२) अन वाना जल न पीना, Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ (१३) प्रातःकाल में परमात्मा आदि गुणियों के गुण स्मरण रूप जप का करना, (२४) शास्त्रीय विद्या अर्थात् धर्म शास्त्रका पढना, (१५) सुपात्र को दान देना, (२६) सबके “साथ शिष्ठाचार (मित्र नाव) रखना..' .जैन आम्नायके साधुओंके नियमः-रहिं साशमिथ्या,३चोरी,धमैथुन,एपरिग्रहश्नपांचो आश्रवों का त्याग करना, और दया,श्सत्य, ३दत्त, ब्रह्मचर्य, निर्ममता, यह पांच 'यम' अर्थात् इन पांच महावतों के धारक, जिन की पहिचान (शनाखत) श्वेतवस्त्र, और मुखवस्त्रिकाका मुख पर बांधना, रजोदरण अर्थात् एक उनका गुन्डा जीव रक्षा के निमित्त संग रखना, १ कौमी पैसे का न रखना, २ सवंदा यति पनमें रहना, ३ फल फूल आदि सुचित्तं वस्तु का आदार अर्थात् नोजन न करना भनिदा मात्र जीविका, अर्थात् आर्य लोगों के घर बार जा कर मांग कर निदोपी जिदा Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - -MALE ₹३३ से कर अपनी उदरपूर्ति करनी, ५ मनको वश करने के लिये ज्ञानं चक्ष अर्थात् धर्म शास्त्र का अन्यास करते रहना, ६ परोपकार के लिये धर्मोपदेश को जी यथा बुद्धि करते रदेना, इन्स्यिों को वश करने के अर्थात् विषयों की नियत्ति के लिये यथा शक्ति तप और व्रतं आदिकों का करना, ६ अन्तकास में अनुमान से, मृत्यु आसन्न (नजदीक) जान कर 'संग लेखन' अर्थात् इचा निरोध के लिये देद की प्रीति को त्यागता हुआ संगतुहि दो कर खान पान आदिकं सर्व आरंन का त्याग करना. और इन जैनी साधुओं के शुन्न आचार (चलनों) से, और सत्य उपदेश से पादशादों और राजों को नी बहत वानं पहुंचता है, यथा राजा लोग अपने पास से व्य दे कर चौंकी पहरा लगा कर चोरी, चुगली, खून आदिक ऽष्ट कर्मों से बचा ३ कर प्रजा की रक्षा कर के अपने राज्य को Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ निर्नय पालते हैं; और यह जो पूर्वोक्त साधु बिना दाम, बिना दवाव पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर, जहां उन्हों के तप संयम साधन - त्तिका निर्वाह हो सकता है तहांश देशान्तरों, में नग्नपाद,(विना सवारी)पुरुषार्थ कर के विचर ते हुए धर्मोपदेश करते रहते हैं. जो इजूरी हुक्म पूर्वोक्त धर्मावतार जैनाचार्यों ने फर्माया है, सो क्या, कि हे बुद्धिमान् पुरुषो! ? त्रस, आदि जीवों की हिंसा मत करो, २.गरीवों को मत सताओ, ३ पशुओं पर अधिक जार मत लादो,४ मिथ्या सादी [गवाही] मत दीजो ५ झुग दावा मत करो०६ तस्करता मत करो, ७ राजाकी जगात [महसूल] मत मारो, ७ परनारी वा परधन को मत दो, इत्यादि.और इन साधुओं के उपदेश द्वारा ही जैनी लोग जूं, लीख तक की जी दिसा नहीं करते हैं, और पूर्वोक्त नियमों का पालन भी सत्संगी बहुलता से करते हैं, और इसमें यह । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जी प्रत्यक्ष प्रमाण है, कि जिस प्रकार से अन्य मतावलम्बी जनों के अर्थात् कुसंगीपु. रुषों के मुकदमें सर्कार में खून, चोरी, परनारी हरण आदि के आते हैं, ऐसे जैनी लोगों में से अर्थात् जो साधुओं के उपासक हैं, कदापि न आते होंगे, कोई तकदीरी अमर की बात कही नहीं जाती. पृच्छक-अजी! हमने सुना है कि जैन शास्त्रो में मांसलक्षण भी कहा है .. उत्तरः-कदापि नहीं. यदि कहा होता तो अन्य मतानुयायी लोगों की नान्ति जैनी पुरुष नी खूब खाते, यह अपना पूर्वोक्त मन तन क्यों मोसते ? प्रश्नः-रजगवती जी सूत्र शतक पन्द्रहवें में सीहां अनगार ने रेवती श्राविका के घरसें महावीरजी को मांस ला कर दिया है, और श आचाराङ्गजी के दशवें अध्ययन में मत्स्य-मांस साधु को दिया लिखा है और Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ज्ञाताजी अध्ययन पांच में शेलक साधु को पन्थिक साधु ने मधु मांस ला कर दिया है;और ४ उत्तराध्ययनजी अध्ययन बाईसवें में नेमजी की वरात के लिये जग्रसेन राजाने पशुओं को रोका है. उत्तर:-नगवतीजी में सींदां अनगार ने महावीरजी को पाक नामक औषध ला कर दिया है, जो पेचिश की बीमारी के काम आता है, और जो लोग मांस कहते हैं, वह जैन सूत्रों के अनभिज्ञ [अजान] जैन मत से भृष्ठ हैं. क्यों कि जैनसूत्र नगवतीजी में स्थानांगजी चतुर्थ स्थान में, उवाईज़ी में मांसाहारी की नर्क गति कही है. .. . . गाथा. .. एवं खलु च ओहिं गणे हि जीवा, णे रइयत्ता ए, कम्म, पक्वरेताणे रइए सुअोव वचंति तंज़हा. महारंजयाए, महा परिग्गहाए पंचिंदिय वदेणं कुण माहारेण . . . Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. महारंजयाए:-महा खोटा वणिज, दाम चांम आदि पन्द्रद कर्मादान (मदा परिग्गंहाए) महावृषणा अर्थात् कसाई आदिकों को विआजू द्रव्य देना, (पचिंदिय वदेणं) पञ्चेन्क्ष्यि जीव का वध करना, (कुणमादारेणं) मांसाहारी मधु मांस के खानेवाला, इन पूर्वोक्त चार कर्मों के करनेवाला नर्क में जाता है, और दशमांग प्रश्न व्याकरण षष्ठ अध्ययन प्रथम संन्नर छारे जैन साधु के अ-. धिकार में सूत्र लिखा है, "अमजे मंसासणे हिं" अर्थात् साधु मद्य, मांस, रहित आहार करे, ऐसे कहा है. तां ते जो आचारांगजी के दशवें अध्ययन में कहा है, “बहु अहिएणं मंस मच्छेण उ, उवणि मंत्तेजा" सो सब यह फलों के नाम हैं. वहां मांस नाम से फलका दल, और अस्थि नाम से फल की गुठली; क्यों कि सूत्र जीवानेगमजी में वा सूत्र प्रज्ञापनजी में प्रथम पद वनस्पति के अधिकार में Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुत प्रकार के फलों के नाम हैं, यथा “ ए. गठिया बढु बीयाए” अर्थात् एक अस्थि (एक हड्डी ) वाले फल, अर्थात् एक गुठली वाले फल, ऐसे ही बहु बीयाये, बहोत बीज वाले फल, जिस में बहुत गुग्ली होवें, वहां आंवला नी कहाँ है, (२) पुत्र, जीव, बांधव, जीवग, ऐरावन, बिल्ली, बराली, मांसवल्ली, मजार, असव कर्णी, सिंहकर्णी आदिक, और वेदांगी के पुस्तक अनिनव निघण्टु आदिक में बहुत प्रकार के जानवरों के नाम से वनस्पति फल ओषधियों के नाम दर्ज हैं, क्यों कि प्राकृत विद्या अर्धमागधी नापा में है, (१) संस्कृता (२) प्राकृता (३) अपभ्रंशा, (४) पैशाचिका (५) शूरसेनी (६) मागधी, यद उनाषाओं के नाम हैं, सो इस में अनेक देशों की गति नाषा है, और देशीय भाषा कई देखने में भी आती हैं, कि कई फलों के वा शाक आदि के नाम पंखी आदिकों के Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ ए नाम से बुलाये जाते हैं, जैसे चकोतरा फल, और चकोतरा नाम का एक पंखी जी होता है. और एक गलर नाम का फल और गन‍ नामसे पंखी जी होता है, जिसको गुर सल मी कढ़ते हैं, और पंजाब देश में शारक जी बोलते हैं. और मैना का साग भी होता है और मेना नाम का एक पंखी भी होता है. और सोया का साग भी होता है, और सोया नाम का पंखी जी होता है, जिस को तोत्ता भी कहते हैं. और मारवाम देश में चील का साग होता है, और चील नाम का पंखी जी होता है, जिसको पंजाब मे ईलजी कहते हैं. और म्यानदाव में मक्की के सिहे को कुकमी जी कहते हैं, और पंजाब देश में कुकमी भुरंगी को कहते हैं. और गाय जवान वनस्पति औषधी, और गाओजवान, अर्थात् गौ की जिव्हा. ऐसे ? भाषाओं के बहुत नाम से भेद हैं. जैसे कई गांवों के लोग गाजर में जो 1 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० . काष्ट सा होता है उसे गाजर की हड्डी कहते हैं; इति. और ज्ञाताजी में जो शेलकजी ने मद्य मांस सदित आहार लिया कहा हो सो वद शेलकजी रोग कर के संयुक्त थे, तां ते मधु नाम यहां मदिरा का नहीं समऊना, मधु नाम फलों का मधु अर्थात् अर्क और मांस नाम से पूर्वोक्त फलोंका दल अर्थात् कोलापाक बजौरद पाक, मसलन मुरब्बा. और नेमजी की वरात के लिये पशु घेरे कहते हो, सो वह यादव वंशीय राजा दात्रिय वर्णमें थे ननमें कई एक जैन मतावलम्बीनी थे, और कई निन्न २ मतानुयायी थे, कई प्रत्ति मार्ग में चलने वाले और कई निवृत्ति मार्ग में थे, जनका कहना ही क्या ?परन्तु श्री जैन सूत्रों में श्री जैनेन्द्र देव की आज्ञा मांस नक्षण में कदापि नहीं हो सकती है, क्यों कि जिन वाणी अर्थात् जिन आज्ञा का नाम प्रश्रव्याकरण सूत्र के प्रथम संनर कार में Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१ अहिंसा नगवती श्री जीवदया ऐसा लिखा है. हां! कहीं किसी टोकाकारने गपोमा लगा दिया हो तो हमें खबर नहीं. हम लोग तो सूत्र से और सम्बन्ध से मिलता हुआ टीका टब्बा मानते हैं. जो मूल सुत्र के अभिप्राय को धक्का देनेवाला उमोउम अर्थ हो, उसे नहीं मानते हैं. यथा पद्मपुराण में शलाका ग्रंथानुसार प्रसंग आता है कि वसुराजा के समय में वेद पाठियों की शास्त्रार्थ में चर्चा हुई है. एक तो कहता था कि वेद में यज्ञाधिकार के विषय में अज होम करना लिखा है, सो अज नाम बकरे का है, सो बकरे का हवन होना चाहिये. दूसरा वोला, कि अज नाम पुराणे जौ का है, सो जौं का हवन होना चाहिये, अव कदो श्रोता जनों ! कौनसा कथन प्रमाण किया जावें? वेद पर निश्चय करें तव तो उस शब्द के दोनों दी अर्थ सत्य है. बस. अब क्या तो सम्बंध अर्थ पर और क्या Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NA २४३ अपनी माति पर निश्चय होगा; क्यों कि वहां दया, दमा, आदि क्रिया अर्थात् आर्य धर्म का सम्बंध चल रहा होगा तो बकरे का क्या काम?क्यों कि"अहिंसापरमोधर्मः" इस प्रकार के मंत्रों को धक्का लगेगा. वहां तो अज मेध शब्द का अर्थ पुराणे जौं का ही होना चाहिये, यदि वहां हिंसा आदि क्रिया अर्थात् अनार्य (बूचमखाने) का सम्बन्ध चल रहा दोगा तो अज शब्द का अर्थ बकरे का ही सम्नव होगा, अथवा पाठक की मति हिंसा में तया विषयानन्द में प्रवल होगी तो अज शब्द का अर्थ बकरा है, ऐसे ही प्रमाण करेगा, और यदि पाठक की मति दया में तथा आत्मानंद में प्रवल होगी तो अज नाम जों का ही प्रमाण करेगा, क्यों कि 'मतेतिमत' हे बुद्धिमानों! सुसंग के और सत्य शास्त्र के आधार से मतिको निर्मल करना चाहिये. ऐसे ही गोमेध सो गो नाम MAR Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३ गौ का जी है और गौ नाम इन्द्रियों का नी है. अब किसका होम होना चाहिये ? परन्तु पूर्वोक्त दयावान् को तो गो शब्द का अर्थ शन्श्यिों का ही प्रमाण होगा; यथा 'इन्द्रियाणि पशुं कृत्वा वेदीकृत्वा तपोमयीम् । इति वचनात्. इस प्रकार से शास्रों में बहुत से शब्द ऐसे होते हैं कि जिन के अनेक अर्थ प्रतीत होते हैं. परन्तु सम्बंध से और धर्म से मिलता अर्थ प्रमाणिक होता है. हां! जिस शब्द का एक ही अर्थ दो, दूसरा हो हो नहीं, तो वहां वैसा ही विचार लेना चाहिये. ॥वारवां प्रश्न॥ पृच्छकः-अजी! हमारी बुद्धि तो चकित (हैरान) है, कि मत तो बहुत हैं, परन्तु एक दूसरे में नेद पाया जाता है, तो फिर किसको सत्य समका जावे ? उत्तर:-जिसमें मुख्य धर्म पांच नियम हो:-- (२) दया, (घ) सत्य, (३) दत्य, (४) Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४३ अपनी माति पर निश्चय होगा; क्यों कि वहां दया, दमा, आदि क्रिया अर्थात् आर्य धर्म का सम्बंध चल रहा होगा तो बकरे का क्या काम?क्यों कि अहिंसापरमोधर्मः" इस प्रकार के मंत्रों को धक्का लगेगा. वहां तो अज मेध शब्द का अर्थ पुराणे जौं का ही होना चाहिये. यदि वहां हिंसा आदि क्रिया अर्थात् अनार्य (बूचमखाने) का सम्बन्ध चल रहा होगा तो अज शब्द का अर्थ बकरे का ही सम्भव होगा, अथवा पाठक की मति हिंसा में तथा विषयानन्द में प्रबल होगी तो अज शब्द का अर्थ बकरा है, ऐसे ही प्रमाण करेगा, और यदि पाठक की मति दया में तथा आत्मानंद में प्रबल होगी तो अज नाम जों का ही प्रमाण करेगा, क्यों कि 'मतेतिमत' हे बुद्धिमानों! सुसंग के और सत्य शास्त्र के आधार से मतिको निर्मल करना चाहिये. ऐसे ही गोमेध सो गो नाम Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४३ गौ काली है और गौ नाम इन्द्रियों का जी है. अब किसका होम होना चाहिये ? परन्तु पूर्वोक्त दयावान् को तो गो शब्द का अर्थ इन्जियों का ही प्रमाण होगा; यथा 'इन्द्रियाणि पशुं कृत्वा वेदींकृत्वा तपोमयीम् । इति बचनात्. इस प्रकार से शास्रों में बहुत से शब्द ऐसे होते हैं कि जिन के अनेक श् अर्थ प्रतीत होते हैं. परन्तु सम्बंध से और धर्म से मिलता अर्थ प्रमाणिक होता है. हां ! जिस शब्द का एक ही अर्थ हो, दूसरा दो दी नहीं, तो यहां वैसा ही विचार लेना चाहिये. ॥बारवां प्रश्न॥ पृच्छकः- अजी! दमारी बुद्धि तो चकित (हैरान) है, कि मत तो बहुत हैं, परन्तु एक दूसरे में नेद पाया जाता है, तो फिर किसको सत्य समझा जावे ? उत्तर:----जिसमें मुख्य धर्म पांच नियम दा:- (१) दया. (२) सत्य, (३) दत्य, (४) Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Aranyan - ... १४४ ब्रह्मचर्य, (५) निर्ममता. - प्रश्नः-यह तो सब ही मतों में मानते हैं, फिर भेद क्यों? उत्तरः-अरे लाई! लेदों का सार यह है कि अच्छी बात के तो सब अच्छी ही कहेंगे, बुरी कोई भी नहीं कह शकता. दोदा. नीकी को नीकी कहे, फीकी कदे न को; नीकी को फीकी कदे, सोइ मूर्ख हो. । परन्तु अच्छी करनी कठिन है. जैसे कि म्लेच्छ लोग नी कहते हैं कि हमारे कुरान शरीफ में अव्वल ही ऐसा लिखा है:“विसम अल्ला नल रढमान जल रहीम." अर्थः-शूरू अल्ला के नाम से जो निहायत रहमदील मेहरबान है, हमाश्व शरीफ मतरजम देहली में उपी सन् १३२६ हिजरी में. परन्तु जब पशुओं की तरफतों की गर्दन असग कर देते हैं तब रहमान और रहीम Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४५ कहां जाता है ? खैर, यह तो वेचारे अनास्ये हैं; परन्तु जो आर्य लोग हैं उनमें से जी सब के सब अपने नियमों पर नहीं चलते. वस, जो कहते हैं और करते नहीं उनका मत असत्य है, यथा 'राजनीति' कहा है की:परोपदेशे कुशला दृश्यन्ते बदवो नराः। स्वनावमनुवर्तन्ते सहस्रेष्वपि उर्तनः ॥ अर्थः-वहत से पुरुष दूसरों को न. पदेश करने में तो चतुर होते हैं और स्वयं कुछ नहीं कर सकते, और जो अपने कथन के अनुसार व्यवहार करने वाला हो वह तो हजारो में जी इर्लन है. ओर जो कहते भी हैं और करते जी हैं उनका मत सत्य है. यथा राजनीति ' में कहा है कि:पठकः पावकश्चैवये चान्ये शास्त्रचिंतकाः। , सर्वे व्यसनिनो मृर्खाः यःक्रियावान्सपमितः॥ अर्थः---पढनेवाला और पढाने वाला और Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ dan जो कोई और जी शास्त्र का अभ्यास करने वाले हैं वे सब केवल व्यसनी और मूर्ख हैं; परन्तु जो सक्रिया वाला पुरुष हो वही परिमत कदलाता है. ... प्रश्न जो कहते भी हैं और करते नी हैं वह मत कौनसा है ? .... उत्तरः-इस विषय में मुझको कुच्छ मु.' .: है, जो रे ही. .... ....... .. सी ॥ ५ख पाये। और उद्यम कर के अन्वेषण पार (ढुंढ) ले, कि किस मतों के साधुओं के और उनके सेवकों के क्या नियम हैं, और वह उन नियमो पर चलते हैं वा नहीं और उनकी प्र... तीत और चलन कैसे हैं. “दाथकङ्गन को आरसीक्या?” अब देखिये, कि सिवाय जैलियों और कुच्छ एक दक्षिणी वाहनों के, और संव प्रायः मधु सांस की चाट करते हैं. सात Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ > १४७ जैनी कढ़ाते हुए लाखों में से शायद एक दो मांसनदी हो परन्तु जैन से बाहिर और मत.. अनुयायी लाखों में से शायद दस नदीं खाते होंगे. क्यों कि हम देखते हैं कि आज कल के समय में कागज और स्यादी के यंत्रालय ( टापेखाने ) के प्रभाव से बहुत खर्च हो रहा है. अर्थात् हरएक मत के धर्मशास्त्र उपर कर प्रकट हो रहे हैं. तिस पर भी कसाईयों और कलालों की दुकानो की तरक्की दी देखी जाती हे. हाय ! प्रमोस ! बस, इसका यही कारण हैं कि कहते हैं परन्तु करते नहीं त् 'प्रहिंसा परमो धर्मः ' यादवल मुख से पुकारते हो रहत दें, परन्तु हिंसा अर्थात् दद्या पालने की युक्तियें नहीं जानते. जाने कसे ? बिना जीव प्रजीव के नंद जानने वाले क्या धर्मा कनककामिनी के त्यागी साधु-सती के कौन बतावें ? यह तो वह क हावत है:--- Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - r रजव बैंमा सारका, ऊपर जरयो सार; राहस्थी के गृहस्थी गुरु कैसे उतरें पार?".. प्रश्नः-ललाजी, तुमारी बुद्धि के अनु. सार यह आर्यसमाज नाम से जो नया मत निकला है सो कैसा है ? क्यों कि इनके नी तुम्हारी मान्ति दया धर्म मानते हैं, और मधुमांस का सेवन करना जी निषेध करते हैं. और थोमे ही काल में कई लाखों पुरुष 'श्रारिया' कहाने लंग पके हैं. .:. उत्तरः-कैसा क्या? यह दयानन्दजी ने ब्राह्मणों से विमुख दो कर 'सत्यार्थ प्रकाश नाम से पुस्तक, जिसमें पुराणादि ग्रंथो के "दोष प्रकट किये, और अन्य मतों की निन्दा आदि इकट्ठी कर के बनाया, जिसको प्रत्येक स्थान स्कूलों में पढाने की अक्क्षमन्दी की, क्यों कि कच्चे वरतन में जैसी वस्तु जरो • उसकी गन्धि (बू) हो जाती है अर्थात् ब___..चपन से जैसे पढाया जाता है, वैसे ही संस्कार Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए (ख्याल) चित्त में दृढ हो जाता है. यही विशेष कर मत फैखने का कारण है. परन्तु यह दोष तुमारे लोगों का ही है. क्यों कि अपने बच्चों को न तो प्रथम अपनी मातृनाषा अर्यात् संस्कृत विद्या वा दिन्दी पढाते हो, और नाही कुछ धर्म शास्त्र का अभ्यास करवाने हो. प्रथम ही स्कूलो में अंग्रेजी फारसी आदि पढने बैग देते हो. देखो स्कूलों के पढे हुए ही प्रायः कर, आर्य समाजी देखे जाते हैं. सो इन वेचारों के न तो देव, और न गुरु, न धर्म, और ना ही कोई शास्त्र का कुछ नियम है. क्यों कि इनके ईश्वर को जी विपरीत (वेढंग) ही मानते हैं, अर्थात् ईश्वर को कर्ता मानने से पूर्वोक्त लिखे प्रमाण से चार दोप प्राप्त कराते हैं. और न इनके कोई गुरु अर्थात साधुटत्ति का कोई नियम है. जो चाहे सो उपदेशक वन वेचता है. और गली में पुस्तक हाथ लिये मनमाने गपोमे हांकना है mynatakam 1- Laadein.krAyart- Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि स्त्रियों का पुनर्विवाह हो जाना चाहिये, -- अर्थात विधवा स्त्री को फिर विवाह दो; क्यों कि: पुराणों में तो, हमने जी लिख देखा है कि पि- . बले समय में ब्राह्मणों के कथन से विधवा स्त्री का देवरादिकों के साथ करेवा हो जाता था, परन्तु पुनर्विवाह नहीं होता था, और अब वर्तमान काल में भी कईएक जातियों में ऐसे ही देखने में आता है; इत्यादि. और न कुछ हिंसा मिथ्यादि त्याग रूप और जप तप वैराग्य आदि धर्म है. क्यों कि यह जो कहते : हैं कि हमारे वेदों में लिखा है, “अहिंसापर- : मोधर्मः माहिस्याः सर्व नूतानि" अर्थात् कीटिका से कुञ्जर (हस्ती) पर्यन्त किसी जीव को मत सताओ. परन्तु पूर्वोक्त लेख साधु संगति के अनाव से दया की युक्तिधे नहीं जानते हैं. क्यों कि इन बहुलताले नाम और नगरों में देखते हैं. क्या ब्राह्मण, क्या क्षत्रिय,, वैश्य, शूद्र, क्या समाजी, क्या अन्य मता: Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . वलम्बी खाट को काम कर खटमलों (माङ्गनुओं) को परों ले मल देते हैं. उधर तीर्थस्नान कर, उपर बैठ कर ज दीख मारें, उधर गीन आपकी छिचमी तोमर कर गोवा में गाया गारा में जाय, उधर जिम अात् धोनी वा तैननं (डेसुओंके) उते में भाग लगाय, उबर पुरानी बाम में वां। आग लो, उतर स.., बिच्छू को को बविया करावें, गौवाल बिड, अनाज उमा को कसाई के पास वेचे, इतना ही नहीं बतिक यज्ञादिका में पशुओ का वध-(करना)-जी मानते हैं. इनाके यजुर्वेद-मनुस्मृति चादिक ग्रंथाम लिखा हुआ नी है. और समाजियों में से सांस नी खाते है. इनक, अब सत्नी दो ही सारी हैं, एक मांस पार्टी चालक और 3- HLA - MAHn . . . . NAME A . Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ . तथा 'अहिंसापरमोधर्मः' अहिंसालक्षणम् धर्मः” इस अमृतवाक्य ने जैन मत की मदद से दी जयं की पताका ऊंची उगई है. - प्रश्नः-अजी ! तुम जैनी लोग पशु आदि बोद्देश् जीव जन्तुओं की दया तो बहुत कहते हो, वा करते हो, परन्तु मनुष्य की दया कम कहते वा करते हो.. '... - जैनी:-वाह जी वाह ! खूब कही; अरे लोले ! मनुष्य मात्र तो हमारे जाई हैं. उनकी दया क्या, उनसे तो नाईयों बाली लाजी है, जो कहेंगे जी, कहायेंगे जी, और जो कहेंगे मर कदांयेंगेमर. यदि किसीको नवल (गरीब) जान कर सतावेंगे वह जुल्म अर्थात् अन्याय में शामिल है, सों वर्जित है. इनसे तो मित्रता रखनी, मीग बोलना, यथाःगुणवन्त नर को वन्दना, अवगुण देख मददस्त; देख करुणा करे मंत्री नाव समस्त. अवशक में लिखा है, Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . u T -- - - - खामेभी सवे जीवा सचे जीवा खमंतु मे वित्ति मे सवे नएलु वैर मन न केणयो॥. परन्तु दया तो पूर्वोक्त अनाथ जीवों की ही होती है, जो सर्व प्रकार से लाचार हैं, जिनका कोई सहायक नहीं, और घर को. नहीं, इन्द्रियहील, बलहीन, तुच अवस्था वि कलेन्द्रिय, इत्यादि. क्यों कि पशु आदि बमें जीवों की हिंसा सें, तो जैनी आर्य आदिक कुलों में पूर्व पुण्योदय से प्रथम हो रुकावट है, ननको तो पूर्वोक्त मेहे जन्तुओं की रक्षा का ही उपदेश कर्तव्य है, जिसले बोमे पाप के अधिकारी जो न बनें तो अच्छा है, परन्तु चह समाजो लोग (दयानन्दी) किमी शान परजी शिकायत करते हैं। प्रत्येक मत की, या प्रत्येक शास्त्र की निन्दा, दुजात छादि करने सदा तरलर रहने, यत्रा सम्वत १४ के हुनसत्यान्न प्रकाश के पार HI Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ समुल्लास और ४० पृष्ठ पर जैनी साधुओं के लक्षण लिखे हैं:स रजोहरण नैक्ष्य, जुजोबुञ्चितमूर्धजाः श्वेताम्बराः क्षमाशीलाः, निस्संगा जैन साधवः ॥ - और ४७१ पृष्ट की ग्यारहवीं पंक्ति में लिखा है, कि यति आदिक नी जब पुस्तक बांचते है तब मुख पर पट्टी बांध लेते हैं, और फिर उसीकी पन्हवीं पंक्ति में लिखा है कि यह उलिखत बात विद्या और प्रमाण से अयुक्त है, क्यों कि जीव तो अजर अमर है, फिर वह मुख की बाफ से कली नहीं मर सकते, इति. जैनी:-बाद जी वाह ! वस इसी कर्त्तव्य पर आर्य अर्थात् दयाधर्मी बन बैठे हो? जला यदि बाफ से नहीं मर सकते, तो क्या तलवार से मर सकते हैं ? अपितु नहीं. तो फिर खङ्गादि धारा मारने में ली दोष नहीं होना चाहिथे. परन्तु “अहिंसा परमो धर्मः” और Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५ DOR - ---- कसाईयों को पापी कहना यह क्या ? क्यों कि जीव तो अजर अमर है, तो कसाईयों को पाप क्यों ? और दयावानों को धर्म क्यों ? और दयानन्दजी को रसोईये ने विष दे कर मार दिया नो नसे नी पाप नहीं लगा होगा ? क्योंकि दयानन्दजी का जीवनी तो अजर अमर दी होगा. ऐसे ही लेख रान को मुसलमान ने बुरी से मार दिया तो उसको नी दोष न हुआ होगा? अपितु हुआ,क्यों नहीं ? यह केवल. तुमारी बुद्धि की ही बिकलता है. शिष्यः-मुक्के भी सन्देह दुआ कि अगर जीव अमर है तो फिर जीव घात (दिसा) को पाप क्यों कहते हो? गुरू:-इस परमार्थ को कोई झानी दयाशील ही समझते हैं, नतु ऐसे पूर्वोक्त वुहिवाले, दयाश् कहके फिर हिंसा ही में तत्पर रहते हैं. जैसे गीता में लिखा है, कि अर्जुनजीने कौरव दल में सऊनों की दया दिल Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ में ला कर अपने शस्त्र छोड़ दिये, तवं नी कृष्णाजी ने कहा, कि बीर पुरुषों का रोझुमिमें छा कर शास्त्र का त्याग करना धर्म नहीं हैं. अर्जुनजी बोले कि, लगवन् ! मैं कायर नहीं हूं. मुझे तो अपने इन स्वजनों की तर्फ देख कर दया आती है, और इनका बध करना मेरे लिये महान् दोषकार है. तब श्री कृष्णजो कहते नये कि हे अर्जुन! इनके भारने में तुझे कोई दोष नहीं हैं.क्यों कि यह आत्मा तो अमर है यथा: श्लोक. नैनं विन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः । न चैनं वोदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥२३॥ . इसी वर्णन में गीता समाप्त कर दी. जिसका सारांश यह निकला कि अर्जुन का चित्त जीवहिंसा की घृणा से रहित दुश्रा, और खूब तीक्षण तेग चलाई और कौरव कुल को दय कर दिया. तुम अच्छी तरह से गी Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ ताजी को आद्योपान्त बांच कर देख लो, परमार्थ नास्तिकों वाला ही निकलेगा, कि आत्मा आकाशवत् है. परन्तु पूर्वोक्त यथार्थ ज्ञान तो यह है कि यदि जीव अमर है तो जी प्राणों ही के आधार से रहता है, यथा जैन शास्त्रों में जीवहिंसा का नाम 'प्राणातिपात' कहा है: प्राणानां अतिपातः अर्थात् प्राणों का लूट लेना, श्सीका नाम जीवहिंसा कहा हैं. अर्थात् प्राणों से न्यारा होने का नाम ही मरना है, - यथा दृष्टान्तः... पुरुष घर के आधार रहता है. जब घर , की जीत टूट जाय तो घर बाले की बाहू तो नहीं टूट गई, परन्तु घरवाले को कष्ट तो मानना ही पझेगा, कि मेरे घर की जीत गिर गई, मेरे काम में हर्ज है, इसको चिनो, तथा घर गिर एमा, वा किसीने ढा दिया, वा फूंक दिया, तो घरके डैने से वा फूंक हो जाने से क्या घर वाला मर जाता है ? अपितु नहीं, Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५७ घर से निकल नागता है; परन्तु घरके ? नेका वा दग्ध होने का दुःख तो बहुत ही मानता है. इसी प्रकार से जीव के अमर होने पर, जी इसकी देह से अलग करने में बमा पाप होता है. चाहे बाफ से ो चाहे तलवार से हो. तांते जीवरदा करना सदैव सब को योग्य है. और पञ्चम बार सं. २५४ के उपे हुए 'सत्यार्थ प्रकाश' के नए पृष्ठ कीर४ वीं पाक में लिखा है कि पट्टी बांधने से दुर्गन्धि नीअधिक बढती है, क्यों कि शरीर के नीतर - गन्धि नरी है, शरीर से वायु जुर्गन्धियुक्त प्रत्यद है, रोका जावे तो पुनन्धि नी अधिक बढ जावे, जैसा कि वन्ध जाजरूर अधिक दुर्गन्धयुक्त और खुला हुआ न्युन उर्गन्धियुक्त होता है. अब देखिये, जैनियों की निन्दा के लिये अपने मुख जी मूढों ने जाजरूर (विष्ठा के स्थान ) बनाये ! यथा पट्टी बांधनेवालों के मुख बंध जाजरूर, और खुले मुखवालों के Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 makwhatsaadiwakendhi रथाए खुले जाजरूर ! अपितु सत्य ही है, कि निन्दक जनों के हृदय और मुख जाजरूरसदृश ही होते हैं, नतु यों लिखना चाहिये था कि सार पदार्थयुक्त नाजन का मुख बांधा जाता है, खाली का खुला रहता है. अर्थात् केसर कस्तूरी के मिब्बे वा घृत खांग आदि के ना. जन के मुख बन्द किये जाते हैं. और असार आदिक के नाजन खले ही पडे रहते हैं. इन समाजियों में एक और नीविशेषता है कि प्रत्येक गुणी (विज्ञान) से विवाद करना, विनय नहीं, नक्ति नहीं, अर्थात् जो बात आपको तो न आती हो और नसी पर फट प्रश्न कर देला, वद यदि पूरे कि तुम जी जानते हो, तो कहना कि हम तो पूउने को आये हैं, फिर वदं ज्ञान की और गुण की बात कहें तो उस गुण रूपी दूध को अपने कांजी के वर्तन में माल कर खट्टा कर के फाम देना, अर्थात् और दो तरह समझलेना, . .. ... " Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् अपनी कुतर्के मिला कर विषमपने ग्रहण कर लेना, और जो कोई अवगुण रूप प्रतीत पड़े तो उस बिद्र को पकम कर कुब अपने घर से युक्तिये दुजत पन की मिला कर नन्हीं के शत्रु रूप हो कर निन्दा पवा देनी. क्यों कि इन लोगों की बनाई हुई पुस्तकें नी हर एक मत की निन्दा आदि से नरी हुई हैं!न कुच्छ त्याग, वैराग्यादि आत्मा के नधार करने की विधि से, जैसे 'सत्यार्थप्र'काश महागारत लेखराम कृत् आदिक. और न यह वेदों को दी मानते हैं, क्यों कि (१) वेदों के मानने वाले ही वैष्णव हैं, (घ) वेदों ही के 'मानने वाले ब्राह्मण हैं, (३) शैव, (४) परमहंसादिक वेदान्ती, (५) मनुजी, (६) शंकराचार्य, (6) वाम मार्गी, () दयानन्द सरस्वती आदिक. अब वात समझने की है, (१) वैष्णव तो वेदानुकूल श्राई आदि गंगा पहोये आदिक का स्नान श्री राधा कृष्णाजी की मूर्ति Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ عدم - عبلسمسمسمنمعطيلهم का ध्यान करते हैं. (३) ब्राह्मण वेदानुकुख . क्रियापूर्वक श्री सीतारामजी की मूर्तिका पूजन करते हैं: (३) शैव वेदानुकूल श्रीशंकरजी का लिङ्ग अर्थात् पिएकी का पूजन करते हैं. और यह पूर्वोक्त मतानुयायी देव और देवलोक स्वर्ग वा नर्क आदि स्थान का होना वेद प्रमाण से सि६ करते हैं और मुक्ति से फिर लौट कर नहीं आना कहते हैं. (१) परमहंस वेदानुकूल मूर्तिपूजन आदि का खाकन करते हैं और एक ब्रह्म सर्वव्यापी आकाशवत जमरूप मानते हैं और परमेश्वर, जीव, खोक, परलोक, बंध, मोद आदिक की नास्ति कहते हैं. (५) मनुजी वेदानुकूल श्राशादि में मांस, मदिरा आदि का पितृदान करना 'मनुस्मृति' में लिखते हैं, जिस स्मृति के दयानन्दजी ने जी 'सत्यार्थ प्रकाश' नामके अपने रचे हुए पुस्तक में बहुत से प्रमाण दिये हैं. फिर लोगों की ओर से पराभव और घृपादृष्टि | Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1-3 के होने के कारण दयानन्दियों ने प्रयुक्त जान कर कितने एक बस पुस्तक में से निकाल जी दिये हैं. (६) श्री शंकराचार्य, वे - दानुकूल वैदिक हिंसा को निर्दोष कहते हैं - यत् प्रश्वमेधादिक यज्ञ में पशुओं का बध करना योग्य कहते हैं. जैसे, पूर्वकाल में जैनी और बौधों ने हिंसा की निन्दा करी, तो उ-: नके साथ बहुत क्लेश किया, उनके शास्त्र जी म्बो दिये और जला दिये. (घ) वामी, वेदानुकूल वाममार्ग का पालन करते हैं. (G) - जानक वेदों को धूर्तों के बनाये हुए कहते हैं. ¿ + (ए) मैक्समूलर पति माक्टर वेदों को प्रज्ञानी पुरुषों के बचन कहते हैं: (१०) जैनसूत्र श्री 'उत्तराध्ययन जी' २५ वें अध्ययन में जयघोष ब्राह्मण अपने भाई विजयघोष से कहते थे: "सब्जे वेया पशुवाः" अर्थात् वेदों में तो पशुवध करना लिखा है. और 'नन्दीजी' Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा 'अनुयोगमार' में वेद अज्ञानियों का । नाये हुए लिखें हैं. (१२) आत्मा नन्दविजय) समवेगी अपने बनाने 'अज्ञानतिमिर जास्कर' ग्रंथ केसर खण्फ के १५५ पृष्ठ में वेदों को निर्दयी साहारी कामियों के बनाये हुए लिखता (१२) दयानन्द सरस्वती वेदानुकूल द्धादि क्रिया का और श्री गंगादि तीर्थ THE का और मूर्तिपूजन का सन् २०७५ बपे हुए 'सत्यार्थप्रकाश' में उपदेश का हैं. और पीने के बपे हुए में पूर्वोक्त मारत दि नक्षण का निषेध करते हैं; और एक स्त्री को एक विवाहित और दस नियोग। अर्थात् करेवे करने कहते हैं. और मुक्ति से पुनरारत्ति (वापिस लौट आना) कहते हैं; अब क्या विधान् पुरूषों के.चित्त में यह विचार नहीं उत्पन्न हुआ होगा कि न जाने वेदों में कौनसी बात है और बेदा Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " M रुख कौन कहते हैं? वास्तव में तो यह बात कि वेदों का पाठी तो इन लोगों में कोई 'यद ही हो परन्तु प्रत्येक वेदों के अज्ञ नावाकिफ) वेदों के नाम का सहारा ले कर . कोई उपनिषद् स्मृति आदिकों में से देशा2श कहीं का ग्रहण कर के मनमानी कल्पना : करश के वैदिक बन रहे हैं, और आज कल नी देखा जाता कि यह दयानंदी लोग दयानंद के कथन पर नी विश्वस्त नहीं हैं, क्यों कि दयानन्द वाले 'सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम बारद समुल्लास थे इन्दों ने उसमें से आगे पीछे कर करा कर कुब और अम. गम समगम मिला कर चौदद समुल्लास कर दिये हैं, और अन्त में वेदान्त अर्थात इन सब. वेदानुकूल मतों की नदियें नास्तिकमतः समुप में जा मिलती हैं. इनदी बेदानुयायीयों की बनायी दुई. गीताजी. वतिष्ठ विचारसागर आनन्दामृतवार्षणी आ- . Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ दिक ग्रंथों से उक्त कथन प्रतीत हो जाता है. ॥ १३ वां प्रश्न ॥ प्रारिया:- तुम्हारे जैन शास्त्रो में मनु व्यं यादिकों की प्रायु (अवगहना) यदि. बहुत‍ लम्बी कही है सो यह सत्य है, वा गप्प है ? जैनी:- जो सूत्रों में लिखा है सो सब सत्य है, क्यों कि यह गणधर कृत सूत्र त्रिकालदर्शी महापुरुषों के कहे हैं. और प्रतीत, प्रनागत, वर्त्तमानकाल अनादि प्रवाह रूप अनन्त है, किसी काल में सर्पिणी उत्सर्पिणी काल के प्रयोग से बल, धन, वायु, Г गहना प्रादिकका चढाव होता है, और कमी अंतराव होता है, अर्थात् हमारे वृद्धों के समय में सौर वर्ष की प्रत्युत सौ से जी अधिक प्रायुवाले पुरुष प्रायः दृष्टिगोचर हुआ करते थे, और अब पचास बर्ष की प्रायु होते ही कुटुम्बी जन मृत्यु के चिन्तक 1 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो जाते हैं. और अब अंग्रेज बहादुर की अमनदारी में रेल आदि कई प्रकार की कलें चल रही हैं, जो इनका वृत्तान्त सो. बर्ष से पहिले हमारे बमों के समय में कोई दूरदर्शी झानी कथन करता कि इस प्रकार की रेल आदिक चलेंगी, तो तुम सरीखे बघुष्ठिवाले कब मानते? और आगे को जब किसी समय में रेल आदि का प्रचार नहीं रहेगा तो कोई इस समय के इतिहास में रेल का कथन करेगा तो प्रत्यक्ष प्रमाण-वर्तमान काल की बात को मानने वाले मूढ जन किस प्रकार से मानेंगे? दीर्घकाल की बातों पर तो दीर्घष्टि वाले दी निगाद दौडाते हैं. अर्थात् कूए का मेंमक समुद्र की सार क्या जाने ? और कुछ एक बारह वर्ष के अकाल आदिक में कई सूत्रों के विछेद हो जाने से गणन विद्या के - हिसाब में नी भाषा का अन्तर हुआ प्रतीत Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ होता है. और ग्रंथकारो ने ग्रंथों में सूत्रों से विरुद्ध न्यूनाधिक बातें लिख धरी हैं. यथा वेदानुयायी सूत च्यादिकों नें वेद विरुद्ध पुराणों में कई गौ कथा प्रादिक लिख धरे हैं. उनही पुराणों के गपौमों के प्रयोग से दुत वादियों से पराजय हो कर बहुत से ब्राह्मण और वैष्णवों ने अपने ब्राह्मण धर्म को बो कर अपने आपको अर्थात् ब्राह्मणों को पोप कदानें लग गये हैं. ऐसे ही कई एक जैनी लोग जैन सूत्रों के अइ ग्रन्थों के गपौडों के प्रयोग से पराजय हो कर अपने सत्य धर्म से ऋष्ट हो गये हैं. " आरियाः प्रजी, दमारे दयानन्द कृत सम्बत् १९५४ के बपे हुए 'सत्यार्थ प्रकाश' के बारहवें समुल्लास के ४५.३ पृष्ठ में लिखा हैं कि जैनियों के 'रत्नसार ग्रंथ' के १४८ पृष्ठ में ऐसा लिखा है कि, जैनियों का योजन १०००० दस हजार कोस का होता है. ऐसे 1 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२६० चार हजार कोस का शरीर होता है. और बेइन्श्यि शंख, कौमी, जूं आदिक का शरीर अ. "तालीस कोस का स्थूल होता है. यह गप्प, है वा सत्य? ... जैनीः यह गप्प है, क्योंकि जैन शास्त्रों में दसदजार कोस का योजन और अठतालीस कोस की मोट्टी जूं कहीं भी नहीं लिखी है. जैन सूत्र 'समवायांग', 'अनुयोग झार' में एक जौं की मोटाई में आठ यूका आवें इतना प्रमाण लिखा है. परन्तु यह लेख तो केवल दयानन्दजी की मूर्खता का सूचक है. क्यों कि हम लोग तो जानते थे कि दयानन्दजी ने जो जो मतमतान्तरों की हैं उनके शास्त्रों के प्रमाण दे दे कर सो ठीक ही होवेंगी, परन्तु तुम्हारे कहने से और 'सत्यार्थ प्रकाश' के देखने से प्रतीत हुआ कि शास्त्र सूत्र कोई नहीं देखे होंगे, केवल सुने-सुनाये ही क्षेष के प्रयोग से गोले गराये हैं. यदि Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ए । कोई मतान्तरों के ग्रंथ आदि देखेनी होंगे तो गुरुगम्यता के विना, और मतपद के नशे से बुद्धि में नहीं आये. और इस ही पृष्ठ की सोलहवीं पंक्ति में दयानन्द उपहास रूप लेख लिखता है कि अग्तालीस कोस की जूं जैनियों के शरीर में ही पमती होगी हमारें जाग्य में कहां? सो हे नाई! जैनियों के तो अठतालीस कोस की जूं स्वप्नान्तर में नी प्राप्त नहीं हुई और नाही जैनियों के तीर्थकरों ने कन्नी देखी, और ना जैन शास्त्रों में कहीं लिखी है. हां, अलबत्ता दयानन्दजी का ईश्वर तो कर्त्तमकर्ता था; यदि वह अवतालीस कोस की जू बना कर दयानन्द को और उसके अनुयायियों को वखश देता तो इसमें सन्देह नहीं था. वाहवा! दयानन्दजी ! तुम सरीखा निधि झुठे कलंकित वाक्य बोलने वाला और कौन होगा ? परन्तु बमे शोक की बात है कि ऐसे Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० मिथ्या लेख रूप पुस्तकों पर श्रद्धा कर धर्म के अजान पुरुष कैसे आंख मीच कर ____अविद्यासागर में पतित हो रहे हैं! . ॥१४ वां प्रश्न॥ - आरियाः--सर्व मतों का सिद्धान्त मोद है. सो तुम्हारे मत में मोद को ही ठीक नहीं माना है. जैनी:-किस प्रकार से ? आश्यिाः --तुम्हारे मुक्त चेतन अर्थात् सिक परमात्मा एक शिला पर बैठे रहते हैं, जमरकैदी की तरह. जैनी:--अरे नोले! तुम मोद को क्या जानो ? क्यों कि तुम्हारे नास्तिक मत में तो मोक्ष को मानते ही नहीं हैं; क्यों कि मोद से फिर जन्म होना अर्थात् वार मोद में जाना और वापिस आना मानते हो, तब तो तुम्हारे कथनानुसार जीवों को अनन्त ___ वार मोद हुई होगी, और अनन्त वार Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१ होगी, क्यों कि यह क्रम तो अनादि अनंन्त सृष्टि आदि का चला आता है, अब विचार कर देखो, कि यह तुम्हारे मत में मोद ( नय्यात) काहे की हुई ? यह तो और योनियों की चान्ति यवागमन ही रही. परन्तु तुम सीधे यों ही क्यों नहीं कह देते कि मोक्ष कुछ वस्तु ही नहीं है ? क्यों किं तुम्हारा दयानन्द जी 'सत्यार्थ प्रकाश' १९५४ के पृष्ट पंक्ति १२ में मुक्ति को कारागार अर्थात् कैदखाना लिखता है कि उमर कैद से तो योने काल की कैद, हमारे वाली दी मुक्ति अच्छी है. अब देखिये कि जिन्होंने मोद को कारागार समजा है वह क्या धर्म करेंगे ? इन नास्तिकों का केवल कथन रूप ही धर्म है. यथा वेदों का सार तो यज्ञ है. और यज्ञ का सार वायु ( दवा) की शुद्धि. यथा दशोपनिषद् जापान्तर पुस्तक स्वामी अच्युतानंद कृत गपा मुंबई सम्बत् १९५२ T Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का उसमें रहदारण्यकोपनिषद् भाषान्तर प्रथम अध्याय के २३३ पृष्ठ की 6 वी ११ पंक्ति में लिखा है, कि अश्वमेध यज्ञ सब यशों में से बमा यज्ञ है, तिसका फल नी संसार ही है; तो अग्निहोत्रादि का तो कहना दी क्या ? बस ना कुब त्याग, न वैराग्य, न धर्म, न मोद. आरियाः-मुक्ति नी तो किसी कर्म ही का फल है. सो कर्म अब्धि (दद) वाले होते हैं. तो फिर कर्म का फल मुक्ति नी अ. ब्धि वाली होनी चाहिये. जैनी:-दाय ! अफसोस ! देखो, मुक्ति को कर्म का फल मानते हैं ! नला, यह तो बताओ कि मुक्ति कौन से कर्म का फल है ? __ . आरियाः--शान का, संयम का, तप का, और ब्रह्मचर्य का. जैनी:-देखो, पदार्थ ज्ञान के अज्ञ (अज्ञान) ज्ञान आदि को कर्म बताते हैं !. Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ आरियाः-हम तो सब को कर्म और कर्म का फल ही समझ रहे हैं. जैनी:-तब तो तुम्हें यह भी मानना पमेगा कि ईश्वर जी किसी कर्म का फल लोग रहा है, और फिर कर्म हवाले होने से कर्म फल नोग के ईश्वर से अनीश्वर हो जावेगा. और जो अव ईश्वर दम देना, जीवों को सुखी दुःखी करना सृष्ठि बनानी, और संदार करना, आदिक नये कर्म करता है, उनका फल आगेको किसी और अव___ स्था में लोगेगा; क्यों कि नर्तृहरिजी अपने रचे हुए 'नीतिशतक' में भी लिखते हैं: (श्लोकः) ब्रह्मायेन कुलालवन्नियमितोब्रह्माएकनाएमोदरे। विष्णुर्येन दशावतार ग्रहणे दिप्तो महासंकट।। रुद्रो येन कपालपाणिपुटके निदाटनं कारितः। __सूर्यों भ्राम्यति नित्यमेव गगने तस्मैनमः क मणे ॥१६॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ का उसमें ठहदारण्यकोपनिषद् नाषान्तर प्रथम अध्याय के १३३ पृष्ठ की ७ वी १२ पंक्ति में लिखा है, कि अश्वमेध यज्ञ सब यज्ञों में से बमा यज्ञ है, तिसका फल जी संसार ही हैतो अग्निहोत्रादि का तो कहना दी क्या ? बस ना कुब त्याग, न वैराग्य, न धर्म, न मोद. ___आरियाः-मुक्ति नी तो किसी कर्म दी का फल है. सो कर्म अब्धि (दद) वाले होते हैं. तो फिर कर्म का फल मुक्ति नी अब्धि वाली होनी चाहिये. ___. जैनी:-दाय ! अफसोस! देखो, मुक्ति को कर्म का फल मानते हैं ! नला, यह तो बताओ कि मुक्ति कौन से कर्म का फल है ? , आरियाः--शान का, संयम का, तप का, और ब्रह्मचर्य का. जैनीः-देखो, पदार्थ झान के अज्ञ (अझान) ज्ञान आदि को कर्म बताते हैं ! Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ . आरियाः-हम तो सब को कर्म और कर्म का फल ही समऊ रहे हैं.. जैनी:-तब तो तुम्हें यह भी मानना पमेगा कि ईश्वर जी किसी कर्म का फल जोग रहा है, और फिर कर्म हवाले दोने से कर्म फल लोग के ईश्वर से अनीश्वर , दो जावेगा. और जो अब ईश्वर दम देना, जीवों को सुखी दुःखी करना सृष्ठि बनानी, और संदार करना, आदिक नये कर्म करता है, उनका फल आगेको किसी और अवस्था में जोगेगा; क्यों कि नर्वदरिजी अपने रचे हुए 'नीतिशतक' में जी लिखते हैं: (श्लोकः) ब्रह्मा येन कुलालवनियमितोब्रह्माएमनाएकोदरे। विष्णुर्येन दशावतार ग्रहणे दिप्तो महासंकट। रुद्रो येन कपालपाणिपुटके निदाटनं कारितः। सूर्यो भ्राम्यति नित्यमेव गगने तस्मैनमः क मणे ॥१६॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ . अर्थ:-जिस कर्म ने ब्रह्मा को कुम्हार । की न्याई निरन्तर ब्रह्माएक रचने का हेतु बनाया, और विष्णु को वारश् दश अवतार ग्रहण करने के संकट में माला, और रुद्र को कपाल हाथ में ले कर निदा मांगने के कष्ट में रका, और सूर्य को आकाश में नित्य भ्रमण के चक्र में माला, ऐसे इस कर्म को प्रमाण है! अब इससे सिहआ कि ब्रह्मा आदिक सब कर्मों ही के आधीन हैं, और कर्मों के फल जुगताने में कोई नी समर्थ नहीं है. यथा दृष्टान्तः-किसी एक नगर में एक धनी के घर एक पुत्र उत्पन्न हुआ. जव वद पांच वर्ष का हुआ तो कर्म योग जस की आंखें विमारी हो कर बिगम गई, अर्थात् अंध हो गया. तब स साहुकार ने वैद्य वा माक्टरों से बहुत इलाज करवाये परन्तु अच्छा न हुआ. तब वह शाहूकार अपने नाई वा पञ्चों के पास गया, कि तुम पञ्च ब Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ रादरी के रक्षक हो, मेरे पुत्र की आंखें अबी करो. तो पञ्च बोले कि नाई! तूं नसका इलाज करवा. शाहूकार ने कहा कि मैने इलाज तो बहुत करवाये हैं, परन्तु वह अब्बा नहीं हुआ. अब आप लोगों की शरण आ__ या हूं. तब उन्होने कहा कि हम पञ्चों को तो बरादरी का झगमा तैह करने का अख्तियार है, परन्तु ऐसे कर्मरोग के हटाने में हमारी सामर्थ्य नही है. तव वह शाहूकार लाचार हो कर अदालत में गया. वहां जा कर दरखास्त की कि आप प्रत्येक का इनसाफ करके दुःख दूर करते हो, मेरे पुत्र के नेत्र भी अच्छे कर दीजिये. तब अदालत ने कहा कि तुम इसको शफाखाने ले कर किसी माक्टर से इलाज करवा. शाहूकार ने कहा कि मैंने बहुत इलाज करवाया है, आप ही कुच्छ इनसाफ करो, कि जिससे इसकी आँखें अच्छी हो जावे, तव अदा - Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ लत ने कहा कि यहां तो दीवानी और फौजदारी के फैसले करने का अख्तियार है, कर्मों के फैसले करने में हमारी शक्ति नहीं है. तब वह शाहूकार दरजेवदरजे राज दीर में पहुंचा, और पहुंच कर प्रार्थना की, तो राजा ने कहा कि बडे माक्टरों से इसका इलाज कराओ, तो शाहूकार बोला कि में बहत इलाज कर चुका हूं; आप प्रजा के रक्षक दो सो मेरे दीन पर नी कृपादृष्टि करो, अर्थात् मेरा दुःख दूर करो, क्यों कि आप राजा हो, सब का न्याय करते हो, तो मेरे पुत्र का कर्मों से क्या फैसला न करवाओगे? राजा ठहर कर बोला कि राजा तथा महाराजा सब सांसारिक धन्दों के फैसले कर सकते हैं, परन्तु कर्मों का फैसला करने का किसी को नी अख्तियार नहीं है, कर्मों का फैसला तो श्रात्मा और कर्म मिल कर होता है. वस, अब देखिये कि जो लोग ईश्वर को कर्मफल Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 1 १११. जुगताने में राजा की नजीरें देते हैं, उनका कहना कैसा कि मिथ्या, जिस प्रकार से राजा च्यादिक कर्मों के फलों में दखल नहीं दे सकते उसी प्रकार ईश्वर जी पूर्वोक्त राजा की तरह कर्मों के फल में दखल नहीं दे सकता. प्रारिया:- तुम ही बताओ कि पूर्वोक्त कर्म क्या होते हैं ? और झानादिक क्या होते हैं ? और मुक्ति क्या होती है ? जैनी :-- हां, हां, हम बतावेंगे. कर्म तो परगुप्त व्यर्थात् जन गुरु, काम क्रोधादिक के प्रभाव से विषयार्थी हो कर हिंसा, मिथ्यादि समारंच करने से व्यन्तःकरण में मल रूप पूर्वोक जमा हो जाते हैं, उनका नाम और ज्ञान आदि निज गुरु ग्रर्थात् चेतन गुणं स्वाध्याय ध्यान यदि अभ्यास कर के प्रनांदि अज्ञान का नाश हो कर निज गुण के प्रकाश होनेका नाम है. और सुक्ति पूर्वोक्त परगुण अर्थात् कर्म के बंध से मुक्ति पाने Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १७ (छूट जाने ) का और निजगुण प्रकाश हो । कर परम पद में मिल जाने का नाम है. __ आरियाः-मुक्ति की और ज्ञान की नत्पत्ति हुई है तो कली विनाशनी अवश्य ही होगा, अर्थात् फिर भी बंध में पमेगा. __ जैनी:-लो देखिये, अज्ञानियों की बात! मुक्ति की और ज्ञान की उत्पत्ति कहते हैं! अरे नोले ! यह मुक्ति की और ज्ञान की नत्पत्ति हुई वा अनादि निजगुण का प्रकाश हुआ ? नत्पत्ति तो दूसरी नई वस्तु पैदा होने का नाम है, जैसे कैदी को कैद की मोद होती . है तो क्या यह नी नियम है कि कैद कितने काल के लिये छूटी ? अपि तु नहीं. कैद की तो मियाद होती हैं परन्तु छूटने की मियाद नहीं है; हमेश के लिये छटता है.विना अपराध किये कैद में कली नहीं आता है. मुक्ति में तो कुच्छ कर्म करता ही नहीं,जो फिर बंधन में आवे. इस लिये मुक्ति सदा ही रहती है, यथा Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७॥ __योगी योगाभ्यास आदि तप कर के अज्ञान का नाश करें और ज्ञान का प्रकाश होवे, तो वह ज्ञान का प्रकाश क्या मियाद वांध कर होता है, कि इतने काल तक ज्ञान रहेगा! अपितु नहीं; सदा के वास्ते, इस कारण तुम्हारे बाली मुक्ति ठीक नहीं. यथा तुमारे ऋग्वेद जाप्य भूमिका आदिक पुस्तकों में लिखा है कि चार अर्व वीस किरोम वर्ष प्रमाण का एक कल्प होता है, सो ईश्वर का दिन होता है. अर्थात् इतने काल तक सृष्टि की स्थिति होती है, जिसमें सव जीव शुन्न वा अशुन कर्म करते रहते हैं. फिर चार अर्ब विस किरोम वर्प प्रमाण विकल्प अर्थात् ईश्वर की रात्रि होती है अर्थात् ईश्वर सृष्टि का संदार कर देता है. परमाणु आदि कुच्छ नही रहते हैं. और सब जीवों की मुक्ति हो जाती हैं. अर्थात् पूर्वोक्त विकल्प काल ईश्वर की रात्रि ... में सव जीव सुख में सोये रहते हैं. फिर वि Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JALA - Navara - -- १० ... कल्प काल पर्यन्त कल्प के आदि में ईश्वर सृष्टि रचता है तब सब जीव मुक्ति से सृष्टि पर भेज दिये जाते हैं. फिर वह शुन्न और अशुभ कर्म करने लग जाते हैं. यह सिललिलायों ही अनादि से चला आता है. समीक्षा:-जलाजी ! यह मुक्ति हुई वा मजदरों की रात हुई ? जैसे दिन जर तोमजदूर मजदूरी करते रहे, रात को फावमा टो-' कही सराहणणे रख कर सो गये, और प्रातः उठते ही फिर वही हाल! परन्तु एक और .. नी अन्धेर की बात है कि जब कल्पान्त समय , सब जीवों का मोद हो जाता है, तो जो कसाई आदिक पापिष्ट जीव हैं उनको तुम्हारे , पूर्वोक्त कथन प्रमाण बमा लान रहता है. क्यों, कि तुम्हारे परमहंस आदि धर्मात्मा पुरुष तो बडेश् कष्ट सन्धा, गायत्री, यज्ञ, दोन, समाज, वेदान्यास आदि परिश्रम द्वारा मुक्ति प्राप्त करते हैं; और वह कसाई आदि महापापी Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - . . २१ . पुरुष गोवधादि महाहिंसा और मांस नदणादि अथवा परस्त्रीगमनादि अत्याचार करते नी कल्पान्त में सहज ही अनायास मुक्ति प्राप्त करते हैं. अब नेत्र जघाम कर देखो कि तुम्हारे उपदेश के अनुकूल चलने वाले पूर्वोक्त परमहंत आदिकों की क्या अधिकता रही ? और उन पापिष्ठों की क्या न्यूनता रही? क्यों कि विकल्प के अन्त में क्या सन्यासी क्या कसाई सब को एक ही समय मुक्ति से धक्के मिल जायेंगे. और इसी कर्तव्य पर ईश्वर को न्यायकारी कहते हो? बस, जो मदा मुढ होंगे वह ही तुम्हारी कही मुक्ति को मानेंगे. . . आरियाः-हांजी, समाजियों में तो ऐसे ही मानते हैं परन्तु हां इतना नेद तो है कि जैसे बारद घण्टे का दिन और बारह घण्टे की रात्रिसो धर्मालाओं को तो कुछ घण्टा दो घण्टा पहिले मुक्ति मिल जाती है और पापी आदिक सब जीवों को बारह घण्टे की M -ARMATAamamalin Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ .. ___ मुक्ति होती है. जैनीः-हाय हाय! यह मुक्ति क्या हुई? . यह तो.महा अन्याय हुआ, क्यों कि धर्मा___त्माओं का धर्म निरर्थक दुआ और पापी पु रूषों का पाप निष्फल गया.क्यों कि पाप करते हुए को जी बारद घण्टों की मुक्ति मिल जाती है. तो उनके पाप निष्फल गये और धर्म करते नी बारह घण्टे की मुक्ति; तो उनके धर्म निष्फल गये. क्या हुआ यदि तेरद चौदह घण्टे को मुक्ति हो गई तो ? यथा खञ्जर तले किसीने टुक दम लिया तो फिर क्या? और तुमने जो प्रश्न किया था । कि तुम्हारे मत में मुक्ति में ही बैठे रहते है सो मुक्ति क्या कोई हमारे घर की है ? मुक्ति नाम ही सर्व दुःखों से, सर्व क्रिया से,सर्व कर्मों से, जन्म-मरण (अवागमन) से, मुक्त हो जाने अर्थात् रहित हो जाने का है. फिर तुमने कहा कि कैदी की तरह, सो इसका उत्तर Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७३ तो हम आगे देंगे, परन्तु तुमसे हम पूछते हैं कि पूर्वोक्त मुक्त चेतन एक जगह स्थित न रहे तो क्या इस लोक के ऊंच नीच स्थानों में घूमता फिरे ? अर्थात् ब्रमर बन कर वागों के फूलों में टक्कर मारता फिरे ? अथवा कृमि वन कर खाईयों (मोरियों) में सुल सलाता फिरे ? अथवा किसी और प्रकार सें? अरे नाई! तुम कुच्छ वुद्धिधारा नी विचार कर देखो, कि जैसे नकारे पामर (गरीव) लोग गली में नटकते फिरते नजर आते हैं, ऐसे श्रेष्ट सुखी पदवीधर अर्थात् बमेओहदेवाले ली गलोश में लटकते देखे हैं ? अपितु नहीं. कारण क्या ? जितनी निष्प्रयोजनता होगी उतनी ही स्थिति अधिक होगी. सो हे नाई ! तुम कैद के अर्थ नहीं जानते हो; केद नाम तो पराधीनता का होता है, स्थित रहने का नहीं है. यथा, मैं जो इस ग्रंथ की रचिता (कर्ता) हूं सो विक्रम सम्बत् २०१० के साल में नि Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ कट शहर आगरा जमींदार ज्ञातीच माता - - लवन्ती, और पिता बलदेवसिंह के घर मेरा जन्म हुआ, और फिर मैने पूर्व पुण्योदय से सम्बत् १ ए३४ के साल में जैनमत में सती का योग (संयम) ग्रहण किया, और फिर हमेश ही साधवीयों के साथ नियमपूर्वक विचरते हुए, दिल्ली, आगरा, पञ्जाब स्थल में रावलपिएमी, स्यालकोट, लाहौर, अमृतसर, जालंधर, दोश्यारपुर. बुदेहाना, पटियाला, अम्बाला, आदिक गांव नगरों में धर्मोपदेश सन्ना समीक्षा करते रहते हैं. और युधि के - अनुसार जयविजय जी होती ही रहती है. फिर विचरते जयपुर, जोधपुर, पाली, जनयपुर आते हुए २५६ के साल माघ महीने में अजमेर के पास एक रजवामा रियास्त शायापुर में चार पांच दिन तक मुकाम किया, और वहां तीन दिन तक सन्ना, समीक्षा, धर्मोपदेश किया, जिसमें पोसवात, राजपूत, Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T १ज्य ब्राह्मण, वैष्णव, समाजी, व्यादिक हजार वा मेढ हजार के लगभग स्त्रिये वा पुरुष सजा में उपस्थित थे. और दिन के आठ बजे से दस बजे तक व्याख्यान होने के अनन्तर रे दयानन्दी पुरुषों में से, दो आदमी कुच्छ प्रार्थना करने के लिये प्राज्ञा मांगी. तदनन्तर हमने जी एक घण्टा और सजा में बैठना मंजूर किया. तब उन्हों में से एक नाईने सजा में खडे हो कर लैक्चर दिया, कि जैनयजी श्रीमती पार्वतीजी ने दया सत्यादि का प्रत्युत्तम उपदेश किया, इसमें हम कुच्छ जी तर्क नहीं कर सकते हैं, परन्तु इनके 'रत्नसार नामक ग्रंथ में लिखा है कि जैन मत के सिवाय और मतवालों से प्रियाचरण करना, अर्थात् हतना चाहिये; जला देखो इनकी यह: कैसी दया है ? तब कई एक सासद परस्पर कोलाहल (कुरुवुमाट ) करने लगे. तब हमने कहा कि नाई ! इसको भी मन F Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ . • कट शहर आगरा जमींदार झातीय माता धनवन्ती, और पिता बलदेवसिंह के घर मेरा जन्म हुआ, और फिर मैने पूर्व पुण्योदय से सम्बत् १९३४ के साल में जैनमत में सती का योग (संयम) ग्रहण किया, और फिर हमेश ही साधवीयों के साथ नियमपूर्वक विचरते हुए, दिल्ली, आगरा, पञ्जाब स्थल में रावलपिएकी, स्यालकोट, लाहौर, अमृतसर, जालंधर, होश्यारपुर. बुदाना, पटियाला, '. अम्बाला, आदिक गांव नगरों में धर्मोपदेश सन्ना समीक्षा करते रहते हैं. और युधि के अनुसार जयविजयनी होती ही रहती है, फिर विचरतेश जयपुर, जोधपुर, पाली, उदयपुर आते हुए १५५६ के साल माय महीने में अजमेर के पास एक रजवामा रियास्त शा- यापुर में चार पांच दिन तक मुकाम किया, और वहां तीन दिन तक सन्ना, समीक्षा, धमोपदेश किया, जिसमें ओसवाल, राजपूत, Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ब्राह्मण, वैष्णव, समाजी, व्यादिक हजार वा मेढ हजार के लगभग स्त्रिये वा पुरुष सजा में उपस्थित थे. प्रौर दिन के आठ बजे से दस बजे तक व्याख्यान होने के अनन्तर दयानन्दी पुरुषों में से, दो आदमी कुच्छ प्रार्थना करने के लिये आज्ञा मांगी. तदनन्तर हमने जी एक घण्टा और सजा में बैठना मंजूर किया. तब उन्हों में से एक जाईने सना में खड़े हो कर लैक्चर दिया, कि जैनच्यायजी श्रीमती पार्वतीजी ने दया सत्यादि का प्रत्युत्तम उपदेश किया, इसमें हम कुच्छ जी तर्क नहीं कर सकते हैं, परन्तु इनके 'रत्नसार, नामक ग्रंथ में लिखा है कि जैन मत के सिवाय और मतवालों से प्रप्रियाचरण करना, अर्थात् हतना चाहिये; जला देखो इनकी यह कैसी दया है ? तव कई एक सभासद परस्पर कोलाहल (बुबुमाट ) करने लगे. तब हमने कहा कि जाई ! इसको भी मन Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LLiman : 4 A नपजी कह लेने दो. तब लोक चुप कर बैठे. उसने अपने प्रश्न को सविस्तर कहाः अनन्तर दमने उत्तर दिया कि, हमारे प्रमाणिक सूत्रों में ऐसा नाव कहीं भी नहीं है. और जो तुमने ग्रंथ का प्रमाण दिया है, जस ग्रंथ को हम प्रमाणिक भी नहीं समझते हैं. परन्तु तुम्हारे दयानन्द कृत 'सत्यार्थप्रकाश' नामक पुस्तक संवत २०५४ के उपे हुए पृष्ठ ६३० में ऐसा लिखा है, कि और धर्मी अर्थात् वेदादिमत सेवादिर चाहे कैसा दी गुणीजी हो उसका नी नाश अवन्नति और अप्रियाचरण सदा ही किया करें. अब तुम देख लो यह दयानन्द की कैसी, दया हुई? फिर कहा, कि अजी! हमारे दयानन्दजी ने सत्यार्थप्रकाश' के बारहवें समुल्लास के ४६७ पृष्ठ में प्रथम ही ऐसा लिखा है कि देखो इनका वीतराग जाषित दयाधर्म दूसरे मतवालों का जीवन जी नहीं चाहते हैं ! तब Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १०७ हमने उत्तर दिया, कि जैनियों की दया तो सर्वत्र प्रसिदै. देखो 'इम्पीरीयल गैजेटियर' हिन्द जिल्द ठी दफादोयम, सन् १७७६ के २५ए पृष्ठ में ऐसा लिखा है, कि जैनी खोग एक धनाढ्य फिरका है अमूमनथोक फरोशी और दुमी चिही के कारोबार करते हैं, बल्के आपस में बमामेज जोल रखते हैं. यह लोग बमे खैरायत करने वाले हैं. और अक्सर हैवानों की परवरिश के वास्ते शिफाखाने वनवाते हैं, इति. परन्तु तुम सरीखे बोले लोगों के मत गुमान रूपी रोग से विद्या रूपी नेत्र मीच हो रहे हैं. तांते औरों के तो अनहोते दुपण देखते और अपने होते दूषण जी नहीं देखते. इसी 'सत्यार्थ प्रकाश के ग्यारहवें समुल्लास के ३५६ पृष्ट की ५ वीं वा उही पंक्ति में दयानन्दजी क्या लिखते हैं ? कि इन जागवत आदि पुराणों के बनाने वाले क्यों नहीं गर्न ही में नष्ट हो गये ? वा जन्मते ही Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ? ចុច समय मर क्यों न गये ? और ४३२ पृष्ठ के नीचे लिखता है कि जो वेदों से विरोध करते । हैं उनको जितना दुःख होवे उतना थोमा है. अब देख तेरे दयानन्दने अन्य मतों पर कैसी दया करी ? होय ! अफसोस! अपनी मंजी. तले सोट्टा नहीं फेरा जाता. यथा. दोहा. , आप तो सोध्या नहीं, सोधे चारों कूट; . बिल्ली खेद पमौसियां, अपने घर रहो कंट. फिर कहने लगा कि,अजी! यह क्या बात है हमारे 'सत्यार्थप्रकाश' के ४६२ पृष्ठ में दयानन्दजी लिखते हैं कि जैनी लोग अपने मुखसे अपनी बमाई करनी और अपने ही धर्म को वमा कहना; यह बमी मूर्खता कीवात है. तव हमको जरा हंसी आ गई और कहा कि नला तुमारा दयानन्द तो अपने जाने हुए धर्म को गेटा कहता होगा! और औरों को वमा कहता होगा ! अरे नोले ! 'सत्यार्थप्र Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पता काश' को आंख खोल कर देख, और बांच, कि इसमें प्रत्येक मतानुयायी पुरुषों को अक्ल के अन्धे, चांमाल, पोप, आदिक अपशब्द कह कर अर्थात् गाली आदि दे कर लिखा है. खैर, चला तुम हमको एक यह तो बताओ कि तुम्हारे दयानन्द का ईश्वर साकार है वा निराकार ? और सर्वव्यापक है चा एकदेशी है ? तब उसने उत्तर दिया कि निराकार और सर्वव्यापक है. तो हमने पूग कि, तुम्हारे ईश्वर वात करता है वा नहीं ? तब उसने हंस कर कहा कि कनी निराकार जी बोल सकते हैं ? हमने कहा कि बस! अब तेरी नक्त दोनों वातों का दम खमन करते हैं. दख, 'सत्यार्थ प्रकाश' के सातमे समुल्लास सब के 2G पृष्ट के नीचे की दवी पंक्ती में लिखते हैं, कि ईश्वर सब को उपदेश करता है, कि दे मनुष्यों ! मैं सब का पति हूं, में ही सब को धन देता हूं और भोजन Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दे कर पालन पोषण करता हूँ, आर मैं सूर्य : की तरह सब जगत् का प्रकाशक हूं, ज्ञान श्रादिक धन तुम मुझ ही से मांगो, मैं ही जगत् को करने, धरने बाला हूं, तुम लोग मुळे गेम कर किसी दूसरे को मत पूजो.. (सत्य मानों). अब देख नोले! जैनी तो मनुष्य मात्र हैं, अपनी बमाई करते होंगे, वा न करते होंगे, परन्तु तुम्हारा तो ईश्वर ही स्वयं अपनी बमाई करता है और कहता हैं कि मुझे ही मानो, और सब का त्याग करो! फिर और देखो बझे आश्चर्य की बात है कि ईश्वर कहता है कि मैं धन देता हूं, और नोजनादि दे कर पालन करता हूं, परन्तु लाखों मनुष्य निर्धन पसे हैं, क्या उनको देने के लिये ईश्वर के खजाने में धन नहीं रदा? और दुनिक्ष (अकाल) पम्ने पर लाखों मनुष्य और पशु जूख ही से मर जाते हैं; क्या ईश्वर के गल्ले में अन्न नहीं रहता होगा? Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और दूसरे क्या दयानन्द को तेरी तरह ज्ञान _ नहीं था कि निराकार और सर्व व्यापी काहे से, और कहां से, और कैसे बात कर सकता है ? लिखते तो इस प्रकार से हैं कि मानो दयानन्द के कान में दी ईश्वर ने ओडे आदमीयों की तरह बातें करी हों. परन्तु यह ख्याल न किया कि क्या सब ही मेरे कदने को दांश करेंगे? अपित विद्वान पुरुष ऐसे भी तो विचारेंगे कि वाणी (वात) करनी तो कर्मेन्दिय का कर्म होता है; तो क्या ईश्वर के कर्मेद्रिय आदिक शरीर होता है ? बस कुच्छ समऊना नी चाहिये. अव कदोजी! तुम्हारे स्वामीजी के ऐसे वचनों पर क्या धन्यवाद करें ? तब वह तो निरुत्तर हुआ. परन्तु इन दयानन्दियों में यह विशेष कर दम्नजाख है कि एक निरुत्तर हुआ और दूसरे ने एक और हो अनघडित सवाल का फन्द लगाया. खैर! फिर दूसरे समाजिये ने खमे हो कर लेकचर Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दें कर पालन पोषण करता हूँ, और मैं सूर्य की तरह सब जगत् का प्रकाशक हूं, झान , आदिक धन तुम मुझ ही से मांगो, मैं ही जगत् को करने, धरने वाला हूं, तुम लोग मुझे बोझ कर किसी दूसरे को मत पूजो.. (सत्य मानों). अब देख नोले ! जैनी तो मनुष्य मात्र हैं, अपनी बमाई करते होंगे, वा न करते होंगे, परन्तु तुम्हारा. तो ईश्वर ही स्वयं अपनी बमाई करता है और कहता है कि मुझे ही मानो, और सब का त्याग करो! फिर और देखो बमे आश्चर्य की बात . है कि ईश्वर कहता है कि मैं धन देता हूं, और जोजनादि दे कर पालन करता हूं, परन्तु लाखों मनुष्य निर्धन पके हैं, क्या जनको देने के लिये ईश्वर के खजाने में धन नहीं रदा? और दुर्निक्ष (अकाल) पम्ने पर लाखों मनुष्य और पशु नूख ही से मर जाते हैं; क्या ईश्वर के गल्ले में अन्न नहीं रहता होगा? Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१ और दूसरे क्या दयानन्द को तेरी तरह ज्ञान नहीं था कि निराकार और सर्व व्यापी काहे से, और कहां से, और कैसे बात कर सकता है ? लिखते तो इस प्रकार से हैं कि मानो दयानन्द के कान में दी ईश्वर ने खोटे प्रादमीयों की तरह बातें करी हों. परन्तु यद ख्याल न किया कि क्या सब दी मेरे कदने. को दांर करेंगे ? अपितु विद्वान पुरुष ऐसे भी तो विचारेंगे कि वाणी ( बात) करनी तो कर्मेन्दिय का कर्म होता है; तो क्या ईश्वर के कर्मेंद्रिय घ्यादिक शरीर दोता है ? बस कुच्छ समऊना भी चाहिये. अब कहोजी ! तुम्हारे स्वामीजी के ऐसे वचनों पर क्या धन्यवाद करें ? तब वह तो निरुत्तर हुआ. परन्तु इन दयानन्दियों में यह विशेष कर दम्नजाख है कि एक निरुत्तर हुआ और दूसरे ने एक और दो अनघडित सवाल का फन्द लगाया. खैर ! फिर दूसरे समाजिये ने खड़े हो कर लेकचर ܙ ܐ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ए . दिया, कि अजी! इनका और ज्ञान तो ठीक है परन्तु जो सर्व धर्म का सार मुक्ति है वह ठीक नहीं है. क्यों कि यह मोद रूप चेतन को शिक्षा के ऊपर एक महदूद जगह में हमेश ही रहना मानते हैं, कहो जी! वद मुक्ति क्या हई? एक आयुनर की कैद हुई! तव दमने देखा कि यह वेगुरे प्रत्येक मत के दोषान्वेषी. अर्थात् अवगुणग्राही हैं, सूत्रअर्थ को तो जानते ही नही हैं. यहां तो युक्ति प्रमाण से ही समझाना चाहिये. तब सन्ना के बीच में एक ' राजपूत, सर्दार अस्सी वर्ष के लगनग की आयु वाला वैग. दुआ था और हमने उस ही की और निगाह कर के कहा, कि नाई! तुम्हारी कितने वर्ष की आयु है ? तो उसने कहा 10 वर्ष की है.. . :- हमः- तुम्हारा जन्म कहां हुआ है ? . राजपूतः-शायपुर.'' .. ; हमः-जब से अब तक कहां रहे ? Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . १३ राजपूतः-शायपुरमें.. हमः-ओहो! अस्सी वर्षसे कैदमें हो ? अर्थात इस अनुमान से आध मील महदूद गांव में ही कैदी हो, और जब तक जीओगे इसी गांव में रहोगे वा कहीं लादौर, कलिकत्ता, जयपुर, जाकर रहोगे वा घूमते फिरोगे? राजपूतः-यहां ही रहूँगा; मुझे क्या आवश्यक्ता है जो कि जगहश् रहूं वा कहीं घूमता फिरूं? हमः--तो क्या तुम उमरकैदी दो ! - राजपूतः-कैदी किसका हूं; मैं तो स्वइच्छा और स्वाधीन यहां ही का वासिंदा हूं. मेरा कोई काम अमे तो परदेश में नी जाऊं नहीं तो क्यों जाऊं? दमःलला! यदि तुमको राजा सादिव की आज्ञा हो कि तुम एक मास तक शायपुर से कहीं वादिर नहीं जाने पावोगे तब तुम क्या करो? Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 14 २४ राजपूतः-तो हम घना ही धन व्यय कर दें और सर्कार से विज्ञप्ति ( अर्ज ) करें कि हमसे क्या अपराध हुआ, जो आप हमें गांव से बाहिर नहीं जाने दो हो, और वकील जी खमा करें, इत्यादि. ... । हमः, जवाजी ! तुम अस्सी वर्ष से यहां ही रहते हो, तबसे तो घवराये नहीं, जो एक महीने की रुकावट दो गई तो क्या हुआ, जो इतनी सिफारशें और घबराहट करना पमा राजपूतः अज़ी, महात्माजी.! वद तो अपनी इच्छा से रहना है, यह परवश का रहना है सो कैद है: दमः बस, जो पराधीन अर्थात् किसी जोरावर की रुकावट से एक स्थान में रहे तो वह कैद, है, परन्तु सच्चिदानन्द मोद रूप आत्मा स्वाधीन सदा आनन्द रूप है इसको कैद कहना मूखी का काम है. तब वह समा. Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिये निरुत्तर हो कर चले गये, और सना विसर्जन हुँई, यहां मुक्ति के विषय में पूर्वोक्त प्रश्न समतुल्य होने के कारण यह कथन याद आने से लिखा गया है. ॥१५ वा प्रश्न आरियाः-जलाजी ! तुम मोद से हट कर अर्थात् वापिस आना तो नहीं मानते हों और सृष्टि अर्थात् लोक को प्रवाह से अनादि मानते हो, तो जब सब जीवों की मुक्ति हो जावेगी तो यह सृष्टि क्रम अर्थात् उनिया वी सिलसिला बन्द न हो जायगा? जैनीः--ओहों ! तो क्या इसी फिकर से. शायद पुनरारत्तिमानी है अर्थात् मुक्ति से वापस आना माना है? कि संसार का सिलसिला वन्द ना हो जाय; परन्तु मुक्ति की खबर नदी कि मुक्ति क्या पदार्थ है ? यया कहावत है "काजी! तुम क्यों दुवले ? शहर के अन्देशे.". परन्तु संसार का सिलसिला अब तक तो च-- . +1 Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्द हुआ नहीं, यदि आगे को बन्द हो जावगा तो मोदवालों को कुछ हानि नी नहीं है. क्यों कि सब धर्मात्माओं का यही मत है, कि इस दुःख रूपी संसार से छुटकारा होवे अर्थात् मुक्ति (अनन्त सुख की प्राप्ति) हो, तो हमारी बुद्धि के अनुसार सब की इच्छा पूर्ण होय तो अच्छी बात है, परन्तु तुम यह बतलाओ कि लोक में जीव कितने हैं ?: ... आरियाः-असंख्य होंगे, वा अनन्त. .... जैनी:--फिजकते क्यों हो ? साफ अनन्त दी कहो; तो अब अनन्त शब्द का क्या अर्थ है ? न अन्ते, अनन्ते; तो फिर अनादि की आदि कहनी, और अनन्त का अन्त कइना, यह दोनों दी मिथ्या हैं. और इसका असली परमार्थ तो पूर्वक घडव्य का स्वरूप गुरू कृपा से सीखा वा सुना जाय तब जाना जाता है. यथा कोई विद्यार्थी किसी पएिकत के पास दिसाव सीखने को आया, तब पएिकत Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोला कि लिख,एकर दो दो दूनीचार,तो शिष्य बोखा कि मुझे तो किरोमको किरोड गुणा करना अर्थात् जरव देना, तकसीम देना, समझाओ. चला, जब तक दो दूनी चार भी नहीं जानता तब तक किरोडों के हिसाब को बुदि कैसे स्वीकार करेगी ? जब पढतेश् पाठक की बुद्धि प्रबल परिमत के तुल्य हो जावेगी तब ही किरोगों के हिसाब को समझेगा... प्रारियाः-यूं तो तुमारे सूत्रों को पढते पढते ही बूढे हो जावेंगे तो समझेंगे कब ? जैनी:-अरे नाई! जो पेट नराई की विद्या फारसी अगरेजी आदिक बने परिश्रम से बहुत काल में आती है, कनीर अनुत्तीर्ण ( फेल ) हो जाता है, और कनी उत्तीर्ण (पास) होता है, फिर कोई बी. ए, एम. ए. पास करते हैं. तो तुम स्कूल में बैग्ते दी मास्टर से यों ही क्यों नहीं कह देते, Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि हमतो ए, बी, सी, मी, नहीं सीखते दमा, री बुद्धि में तो आज ही बी. ए, एम. ए. वाली बातें बुद्धि से ही समका के बकालत का ऊँमा दिलवा दो; नहीं तो इतनी २ बमी कि: ताबें पढते ही बूढे हो जायगे. चला, ऐसे हो.. सकता है ? कदापि नहीं. तो फिर यह पूर्ण , परमार्थ रूप अनादि अनन्त मुक्ति आदिक वर्णन (बयान) विना सत्शास्त्रों के अवगादे कैसे जाना जावे? तांते कुछ वीतरांग नाषित सूत्रों को सीखो, सुनो, ना तो सत्यवादियों के वाक्य पर श्रद्धा ही करो; यदि तुम्हारी सी; तरह ईंट मारवें प्रश्नों के उत्तर में ही पूर्वोक्त अर्थ दलील में आ जाता तो सर्वझ और . अल्पज्ञ-विज्ञान और मूर्ख की बात में द ही क्यों होता ? सब ही सर्वज्ञ और विधान हो जाते. अल्पज्ञ और मूर्ख कौन रहता? दे नाई! दलील में सम्पूर्ण ज्ञान नहीं आ सकताः यथा समुद्र का जल न तु खु. Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए टिया, न लोट्टे, न घडे, न मट्टे में ही आ सकता है. हां! स्वाद मात्र से तो सारांश समुद्र का आ सकत है; यथा खारा, वा, मीग.ऐसे ही सर्वज्ञों के कहे हुए शास्त्र अर्थ समुड़ के जल वत् अनन्त हैं. दलील रूपी बूटिया में नहीं आ सकते. और दलील जो तो पूर्वोक्त विधानों के वचन सुन कर ही वमी होती है. बस पूर्व कहे प्रश्नोत्तरों से सिद्ध हो चुका कि ईश्वर का नहीं है. और नाही ईश्वरोक्त वेद हैं; क्यों कि वेदों में पशुवध करना, और मांस खाना लिखा है, यथा मनुस्मृति के पांचवें अध्याय के श, ज, शए वे श्लोक में लिखा है: श्लोक, प्रोदितं जदयेन्मांसं ब्राह्मणानां च काम्यया॥ यया विधि नियुक्तस्तुप्राणानामेव चात्पर॥ प्राणस्यन्नमिदं सर्व प्रजापति रकल्पयत् ।। स्थावरं जङ्गमं चैव सर्व प्राणस्यनोजनम्॥३ता - Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ goo , 'अर्थः-ब्राह्मणों की कामना मांसभक्षण .' करने की हो तो यज्ञ में प्रोन विधि से अर्थात् वेद मंत्रानुसार शु६ कर के लक्षण कर लें: श्राछ में मधुपर्क से, मांस मधुपर्क इति, और प्राणरदा के हेतु विधि के नियम से. ॥२॥ प्राण का यह सम्पूर्ण अन्न प्रजापति ने बनाया है. स्थावर और जङ्गम सम्पूर्ण प्राण का नोजन है. ॥श्ना श्लोक... : यझार्थ पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयं जुवा ॥ यज्ञस्य नूत्यै सर्वस्य तस्माद् यझे वधोऽवधः ॥शए॥ अर्थः-ब्रह्माजी ने स्वयमेव ही यज्ञ की सिद्धि __ की रधि के लिये पशु बनाये हैं. इस लिये यज्ञ में पशुवध अर्थात् यज्ञ में पशु मारने का 'दोष नहीं है. इति ॥४॥ तर्कः-जब कि धर्मशास्त्र मनुस्मृति दी वेदों के आधार से यों पुकारती है, तो पाप Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रों का कहना ही क्या ? और यहां इस विषय में वेदमंत्रो के लिखने की भी आवश्यकता (जरूरत) थी, परन्तु ग्रंथ के विस्तार के नय से नहीं लिखे हैं, और दूसरे हमारे जैनी भाईयों में से इस विषय में कई एक पुस्तक उप चुके हैं. बस ! यदि ऐसे वेद इश्वरोंक्त हैं तो वह ईश्वर ही ठीक नहीं है, यदि ईश्वर के कहे हुए वेद नहीं हैं तो वेदों का कथन ईश्वर को पूर्वोक्त कर्ता कढ्ने आदिक में प्रमाण नहीं हो सकता. पृच्छकः-सत्य शास्त्र कौनसे हैं ? और प्रथम कौनसे हैं ? उत्तरः सत्य और असत्य तो सदा ही से है. परन्तु असली बात तो यह है कि जिन शास्त्रों में यथार्थ जम, चेतन, लोक, परलोक, बंध, मोद, आदि का ज्ञान हो और शास्त्रानुयायियों के नियम आदि व्यवहार श्रेष्ठ हो, चहीं सत्य हैं और बड़ी प्रथम हैं. Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परन्तु पक्ष में तो यों जैनी कहेंगे कि जैन पदिले है और वेदानुयायी कहेंगे कि वेद पहिले है और मतवाले कहेंगे कि हमारा मत पहिले है. यह तो ऊगमा ही चला आता है; जेसे कोई कहता है कि मेरे वमों के हाथ की सन्दुक वढुल पुरानी है, और पीलीय अशरफीयों की भरी हुई है परन्तु ताले बन्द है, दूसरा बोला कि, नहीं, तुम्हारे नीली अशरफियों की है, हमारे वमों की पीली है. यों कहर कर कितने ही काल तक झगडतेरहो क्या सिध होगा? योग्य तो यों है कि सना के बीच अपनी सन्दूक खोल धरें; ते सत्नासद स्वयं ही देख लेंगे कि पीली किसकी हैं और नीली किसकी हैं. और बुद्धिमानों की विद्याप्राप्ति का सारनी यही है कि परस्पर धर्म लेह आकर्षण बुद्धि से, सत्य, असत्य का निर्णय करें; तिर सत्य को ग्रहण करें, और असत्य को त्यागे; जिससे यह मनुष्यजन्मनी सफल होवे. परन्तु ऐसा - Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिलाप कलियुगदूत ने जला कब होने दिया? यद्यपि वनों की शिदा है:मत मतान्तर विवाद में, मत उरको मतिमान्। सार ग्रहो सब मतन का,अपनी मति समान।। निज प्रातम को दमन कर पर आतम को चीता परमातम का नजन कर रही मत परवीण ॥ प्रल १६. पृच्छकः-अजी! आपने १२ वें प्रश्न के अंते लिखा है, कि वेदान्ती नास्तिक है, अर्थात् वेदानुयायी आदि- तो लोक, परलोक, आदिक आस्तिक प्रवृत्ति मानते हैं; परन्तु अन्तमें नास्तिक मत ही सिद्ध होता है सो कैसे है ? उत्तर:-हमारी एक दो वार वेदान्तियों से कुछ चर्चा नी हुई, और वेदान्त के एक दो ग्रंथ प्ली देखने में आयें, उनसे वह ही प्र. गट हुआ कि यद् वेदान्ती अत्तवादी नास्तिक हैं. अर्थात् वेदान्ती नास्तिक ऐसे क Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ हते हैं, कि एक ब्रह्म ही है और दूसरा कुहनी पदार्थ नहीं है, इस में एक श्रुतिका प्रमाण जी देते हैं. “ एक मेवाद्वितीयं ब्रह्म" जैनी:-ब्रह्म चेतन है वा जम? नास्तिकः-चेतन. जैनीः-तो फिर जम पदार्थ चेतन से न्यारा रहा. यह तो दो पदार्थ हो गये; (१) चेतन और (२) जम. क्यों कि जम चेतन दोनों एक नहीं हो सकते हैं. किसी प्रयोग से मिल तो जाय परन्तु वास्तव में एक रूप नहीं होते हैं, क्षीर नीरवत्. और वेदान्ती आनन्दगिरि परमहंस कृत आनन्दामृत वर्षिणी नाम पुस्तक विक्रमी संवत २५५३ में बंव पी जिसके प्रथम अध्याय के २७ वें पृष्ट में लिखा है कि प्रथम श्रुतिने देद आदि को आत्मा कहा, और जीव ईश्वर से गुणका नेद कहा, फिर उसका निषेध किया. Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०५ .... . . तर्क:-प्रथम ही एक निर्गुण ब्रह्म का उपदेश क्यों नहीं किया? ... ... उत्तरः-जो श्रुति प्रथम ही ब्रह्म का बोध न करती, तो ब्रह्म के अति सूक्ष्म होने से इस जीव को ब्रह्मका कदापि बोध न हो सकता. - जैनीः-देखो ! इस लेख से नी द्वैतनाव ' , सिद्ध होता है. अर्थात् जीव और ब्रह्म दो पृथक् हुए, क्यों कि एक तो याद करने वाला और एक वह जिस को याद कियाजावे, तथा एक तो ढूंमने वाला, अर्थात् जीव, और दूसरा वह जिसको ढूंमे, अर्थात् ब्रह्म.. . नास्तिकः--नहीं जी, जीव और ब्रह्म एक ही हैं. वह अपने आप ही को ढुंमता है. - जैनी:-जो आपदी को जुल रहा है वद , ब्रह्म काहेका हुआ ?, वह तो निपट ग्रंथल (अज्ञानी) हुआ.. ... . ( नास्तिक चुप हो रहा.) : Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनीः-नला ! जीव और ब्रह्म चेतन है वा जम ? नास्तिकः-अजी! चेतन है. . जैनी:-तो पूर्वोक्त दो चेतन सिह हुए. एक तो ब्रह्म, दूसरा जीव. ___ नास्तिकः-नहीं जी, ब्रह्म चेतन, और जीव जम. ___ जैनी-यदि जीव जम है, तो पूर्वोक्त ब्रह्म को मिलनेका जीव को ज्ञान होना लिखा है. सो कैसे ? और फिर जीव ब्रह्मज्ञानी हो कर ब्रह्म में मिले अर्थात् मुक्त होवे, सो कैसे ? (नास्तिक चुप हुआ.)." जैनी: वास्तव में तो तुम्हारा ब्रह्म और मुक्त यह दोनों दी जम तुमारे कथन प्रमाण से सिह होते हैं. और नास्तिक शब्द का अर्थ श्री यदी है, कि होते हुए पदार्थ को जो नास्ति कहे, क्यों कि आनन्दामृत वर्षिणी के Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०७ प्रथम अध्याय के अन्त के श्य पृष्ठ में लिखा है,कि ना मोद है और ना जीव है और नाही, ईश्वर और नाही और कुब है:फिर यह नास्तिक ज्ञान और मोक्ष पुकारते हैं, यथा बालूकी जीत पर चुवारे चिनें और फिर तीसरे अध्याय के साठवें पृष्ठ ७ वी नूमीका के कथन में लिखते हैं, कि कोई पुरुष नदी के तट पर खमा हो कर नगर की और दृष्टि करे, तो उसे सारा नगर दीखता है, फिर वह सौ दोसौ कदम जलमें आगे को गया जहां गती. तक जल आया, फिर वह वहां खमा हो कर देखे, तो ऊंचे भकाल तो दीखें परन्तु नीचे के मकान आदिक नगर न दीखें. फिर गले तक जल में गया तो कोई शिखर नजर आया, और कुच्छ नदीखा. जब गरे जलमें बही गया तो फिर कुच्छ नी न देखा. ऐसे ही : मोद हो कर संस्कार नहीं दीखे, अर्थात् सं सार मिथ्या है. Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T - जैनीः-देखो! इन नास्तिकों की क्या अच्छी मोद ढई ? अरे मतिमन्द! मोद होने चाला डूब गया, किनगरादिक न रहा? अपितु नगरादिक तो सब कुच्छ वैसे ही रहा, परन्तु चह ही स्वयं डूब गया. फिर ब अध्याय के (ए४ पृष्ठ में लिखा है. नास्तिकः-संसार तो स्वप्नवत् झुग है, परन्तु सोते हुए सत्य, और जागते हुए असत्यः परमार्थ में दोनों ही असत्य हैं. जैनीः-सोता कौन है ? और जागता कौन है ? और स्वप्न क्या है? और स्वप्न आता किसको है ? ।।.. . ... (नास्तिक चुप हो रहा.). . जैनी:-स्वप्न जी तो कुछ देखे वा सुने आदिक का ही आता है, और तुम कहते हो, कि जागते असत्य, तो तुम्हारे पांच तत्व नी तो रहते ही होंगे, और तूं कहनेवाला Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. . ए और सुननेवाला जी रहता ही होगा, यदि नहीं तो तूं सुनाता क्यों है, और सुनाता किस को है, और सुनने से क्या लाल होता है ? .... ' (४) . . . नास्तिकः-घटाकाश, मगकाश, .म हाकाश, यह तीन प्रकार से हमारे मतमें आकाश माने हैं, सो घटवत् शरीरका नाश होने पर महाकाशवत् मोद हो जाता है. . . जनी:-तो यह बताइये कि वद घटवत् शरीर जम है वा चेतन ? .. नास्तिकः-जड है. ... जैनी:-घटवत् शरीर जम है तो वह बनाये किसने ? और किस लिये बनाये ? क्यों कि तुम चौदहवें पृष्ठ में लिख आये दो कि आत्मा के सिवाय सब अनित्य है. तो वह घमे नी अनित्य ही होंगे, तां ते पुनरपि बनाये जाते होंगे...... . . (नास्तिक चुप हो रहा.) : . . . Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , २१ ., जैनीः-जला. महाआकाश ज़म है बा चेतन है ?, .. नास्तिकः-जम है. . जैनी:- तो फिर महा आकाशवत् मोद क्या हुआ ? यह तो सत्यानाश हुआ! इस से तो वे मुक्त ही अच्छे थे, जो कन्नी ब्रह्मपुरी के कन्नी चक्रवर्त्त आदिक के सुख तो नोगते. मुक्त हो कर तो तुमारे कथन प्रमाण से सुन्न हो गया, क्यों कि तुम मुक्ति को बुके हुए दीपक की नान्ति मानते हो... . (५.)........ ' नास्तिकः--एक तो शुभ ब्रह्म, एक . मायोपहित शुद्ध चेतन, जगत् कारण ईश्वर, एक अवद्योपहित जीव, दूसरे अध्याय के शए वें पृष्ठ में यह सब अनादि हैं, इनको यों नहीं कहा जाता है, कि यह कबसे हैं ? . . जैनीः-तो फिर तुमारा अद्वैत तो नाग . • गया! यह तो तीन हुए. . १६. Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ t २१२ ( ६ ) नास्तिक: - १०२ पृष्ठ में हम आधे श्लोक कोटि ग्रंथों का सार कहेंगे. क्या 'ब्रह्मसत्यं 1 जगन्मिथ्या' बस, ऐसा कहनेवाला जीव ही ब्रह्म है; अपर कोई ब्रह्म नहीं है. जैनी :- देखो इन नास्तिकों की व्यामोहता (बेहोशी). पहिले तो कह दिया कि ब्रह्म सत्य है और जगत् केवल मिथ्या है, प्रर्थात् ब्रह्म के सिवाय जीवादिक कुछ भी नहीं. और फिर कहा कि यों कहने वाला जीव दी ब्रह्म है, और कोई ब्रह्म नहीं है. अब देखिये जीव ही को ब्रह्म मान लिया, और ब्रह्म की नास्ति कर दी. असल में इन बेचारे नास्तिकों के ज्ञान नेत्र ज्ञानसे मुंदे हुए हैं, तां तें इन्हें कुच्छ भी नहीं सकता. (6) 7 नास्तिक: - जीव देढ़ के त्याग के प्र नन्तर पुण्यलोक ब्रह्मपुरी, वा मनुष्य, वा 4 L Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १३. . . . . . . . . पशु होते हैं. .. जैनीतुम तो पूर्वोक्त एक ब्रह्म के "सिवाय दूसरा जीव आदिक कुच्छ जी नहीं. मानते हो, तो क्या ब्रह्म ही जन्म लेता है? और वद आप ही अनेक रूप हो कर पशु,शूकर, कूकर, (सूअर, कुत्ता,) आदिक योनियों में विष्ठा आदिक चरने की सैर करता है ? बस जी, बस ! नास्तिक जी! क्या कहना है ? नला यद तो बताओ कि जो घटवत् शरीर जमरूप है वह योनिये नोगता है या उसमें प्रतिबिम्ब रूप ब्रह्म है वह योनियें नोगता है ? - (नास्तिक विचार में पड़ा.). - नास्तिकः-अध्याय ठे के १०० वें पृष्ठ में श्रीमत्परमहंस परिव्राजकाचार्य श्री शंकराचार्य जी महाराज शिवजी का अवतार हस्तामलक आनन्द गिरिसे आदिले कर बदुत ग्रंथों में हमारा मतं प्रसिद्ध है. जैनी-ओहो ! वही श्री शंकराचार्य Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ । हैं कि जिनको आनन्दगिरि शिष्यने अपनी बनाई हुई पुस्तक शंकर दिग्विजय के 4G के : प्रकरण में लिखा है, कि मएमक ब्राह्मण की ला- सरस वाणिसे संवाद में मैथुन रस के अनुनय विषय में बाल ब्रह्मचारी होने के कारण से हार गये, कि तुम सर्वज्ञ नहीं हुए हो, क्यों कि आनन्दामृत वर्षिणी में जो लिखा है, कि श्री स्वामी शंकराचार्यजीने ठे वर्ष की आयु में सन्यास ग्रहण किया. था. तो फिर उन्हों ने मरे हुए राजा की देह में प्रवेश कर के राणी से लोग किया, लव सर्वज्ञ दो गये, तां ते हिर सरस वाणि को उसका नेद बता कर विजय को प्राप्त हुए. . . तर्कः-क्या तुम्हारे वेदान्तियों में यही सर्वज्ञता होती है ? .. . . . (प्रश्न ए) . जैनी:-नला, तुम यह बताओ, कि यदि एक ही आत्मा है तो सोमदत्तका सुख Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ देवदत्त क्यों नहीं जानता है ? . . . 2, नास्तिकः-पृष्ठ १७५ वें में अविद्या , ‘की उपाधि से जिस शरीर में जिस जगह अ. 'न्यास (खयाल) है, वहां के ऊख आदि, अनुभव हो सकते हैं, और जगद के नहीं. यदि. दूसरे शरीर में अभ्यास होगा, तो उसका नी दुःख सुख दोता है, मित्र और पुत्र के दुःख सुख में सुखी सुखीवत् . '; जैनीः वद मन से भले ही सुख सुख . माने; परन्तु पुत्र के शूल से पिताको शूल : ... नहीं होता है, ताप से ताप नहीं होता. : ..... ...नास्तिक:-शरीर पृथक्श् (न्यारे) जो होते हैं. . . . . . . . . . . जैनीतो फिर मन नी: तो न्यारे ही होते हैं. .. नास्तिकः--तो देख लो पुत्र के दुःखमें पिताको दुःख होता ही है, तुम ही बताओ, कि कैसे होता है ? . ... - - -- ---- Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૧૫ ..., जैनी:-अच्छा दम से ही पूगे,तो हम 'दी बता देते हैं. रागद्वेष के प्रयोग से उख . सुख माना जाता है; परन्तु शरीर और मन । - यह दोनों ही जम हैं.जम को तो दुःख, सुख का ज्ञान नहीं होता है, दुःख सुख के ज्ञान वाले चेतन (जीव) शरीर में न्यारे होते हैं: यदि जम को ज्ञान होता, तो मुर्दो को नी झान. होता. और यदि सब का आत्मा एक ही होता, . अर्थात् सब में एक ही ब्रह्म होता तो एक दूसरे का दुःख सुख दूसरे को अवश्य ही होता. . (२०) . . . . . नास्तिकः-जब यों जाने कि मैं जीव हूं, तब उसको जय होता है; जब यों जाने कि मैं जीव नहीं परमात्मा हूं तब निर्णय हो जाता है. जैनी:-इस तुमारे कथन प्रमाण से तो — यों हुआ, कि जब तक चोर यों जाने कि मैं __ चोर हूं, तब तक चोरी का जय है,और जब Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ . . .. यों जान ले कि मैं तीन लोक का राजा दूं फिर. खूब ही चोरीयां किया करे, कुच्छ नय नहीं. परन्तु नास्तिकजी! वह मन से चाहे राजा हो जावे, परन्तु पकमा तो जावेगा. .. , - नास्तिकः-यदि जीव और ब्रह्म में हम लेद मानेंगे, तब तो सब में नेद मानना पमेगा.... . .... ... जैनी:--लेद तो है ही, मानना ही क्या पमेगा? .... .. ...... (११) .. . नास्तिकः--10 पृष्ठ में यह संसार इन्जाल है? : जैनीः-इन्जाल जी तो इन्जालिये का किया ही होता है. तो क्या तुम्हारा ब्रह्म इन्जालिया है ? नास्तिकः-जैसे तोत्ता तलकी पर लटक कर ज्रम में पम जाता है. . Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१७ • . . , जैनीः वद नलकी किसने लगाई, और ज्रम में कौन पडा? .. नास्तिकः ब्रह्म ही. - जैनी:-ब्रह्म को तो तुम, सर्वज्ञ और सर्वव्यापक मानते दो, तो सर्वज्ञ को भ्रम - कैसे ? और पडा कहां? . नास्तिकः-जैसे मकमी आप ही जा ला पुर के आप ही फन्से. ... जैनी:-वाहवा ! ब्रह्म तो खूब हुआ जो आप ही तो कूआं खोदे और फिर आंख मीच आप ही गिर कर डूब मरे... (१३) ..नास्तिकः--१२२ पृष्ठ में जैसे स्वप्न के खुलते हुए स्वप्न में जो पदार्थ कल्प रखे थे, सब सही समय नष्ट हो जाते हैं, ऐसे . ही पीले विदेद मुक्ति के सब संसार नष्ट हो जाता है. कोई ऐसा न विचार करे कि मैं तो मुक्त हो जाऊंगा, और मेरे शत्रु मित्रादिक Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और जगत् बना रहेगा, और इनके पीछे के , लिये यत्न करना मूर्खता है. जैनी:-देखो इन वेदान्त मतवाले नास्तिकों की बुद्धि कैसे मिथ्यारूप भ्रम चक्र में पम रही हैं ? नला, किसी पुरुष को स्वप्न दुआ कि मेरा मित्र मेरे घर आया है, और मैने उसे सुवर्ण के थावं में बूरा चावल जिमाये हैं, फिर उसकी नींद खुल गई, तो कदो नास्तिकजी! क्या उसके घर का और मित्रादिक का नाश हो गया? . नास्तिक:-नहीं. " जैनी:-तो तुम्हारा पूर्वोक्त लिखा मि-.. थ्या रहा, जो तुमने लिखा है कि स्वप्न के अनन्तर स्वप्नवाले पदार्थ नाश हो जावेंगे. - ... नास्तिकः—उस समय तो वहां मित्र नहीं रहा, और जो उसने सुवर्ण का थाल अनहुआ स्वप्न में देखा था वदनी न रहा. जैनीः-अरे मूर्ख! मित्र जस बक्त नहीं , . -~-~~.......... Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 1 1 २१ या तो न हो, परन्तु मित्रका - नाश तो नहीं हुआ, और जो सोने का थाल नहुआ देखा था, सो उसके न था, तो जगत् में तो है ? न हुआ कैसे हुआ ? यह तो मन की चाल और के और भरोसे में विचल जाती है, जैसे कोई पुरुष अपने साईस को कद र हां था कि तुम घोमा कस कर लाओ, हम ग्रा... मान्तर को जावेंगे; इतने में एक कुम्दार गंधे ले कर च्या गया तो वह शाहूकार कहता है कि तूं इन गधों को परे कर, उधर साईस को N देख कर कहता है कि अरे तूं गधे को कस लाया; जला कहीं गधा जी कसवा कर मंगवाया जाता है ? परन्तु संकल्प की चाल और के नरोसे और जगह लग जाती है; यथा कोई पुरुष नौकर को दाम दे कर कहने लगा .कि. बाजार में से मगज और सेमियें यह‍ ले आओ. इतने में उस की लम्की च्या कर . कदने लगी, कि लालाजी ! देखो नाईने मेरी r " f Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ गोद में पुरीषोत्सर्ग कर दिया है, मेरे कपमे ' विष्ठा से जर गये, उधरसे नौकर पूब रहा है, कि अजी क्या श्लाऊं, तो वह कहने लगा, कि विष्ठा लाओ! ऐसे ही प्रायः स्वप्न में मन के संकल्प नी हुआ करते हैं. नास्तिकः-तो यह बताओ, कि स्वप्न कै से आता है ? और कुछ का कुछ क्यों दीखने लग जाता है ? ., जैनी:- तुम स्वप्न स्वप्न यों ही पुकारते हो, तुम्हें स्वन्न की तो खबर ही नहीं है. दे जाई! स्वप्न कोई ब्रह्मा तो नहीं दिखाता है, और न कोई स्वप्न में नई सृष्टि ही बस जाती.' • है, और नाही कोई तुम्हारा ब्रह्म अर्थात् जीव, देह से निकल कर कहीं जाग जाता है. स्वप्न तो इभिन्यों के सो जाने और मन के जागने से आता है.और कुब का कुब तो पूवोक्त मन के खयाल बिचल जाने से दीखता है." Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... ... . (२४) . जैनीः--और तुमने यह जो ऊपर लिखा है, कि विदेह मुक्ति अर्थात् जो वेदान्ती ब्रह्मज्ञानी मुक्त हो जाता है; (मर जाता है) तब सब संसार का नाश हो जाता है, सो हम तुमको यों पूबते हैं, कि जो वेदान्ती ब्रह्मज्ञानी मर जाता है, उसका नाश हो जाता है, वा उसके मरते ही सब वेदान्तियों की मुक्ति हो जाती है,अथवा सर्व संसार का प्रलय हो जाता है, अर्थात् मुक्ति (मर जाना) क्यों कि तुम तीसरे अध्याय ६० वें पृष्ठ में लिख आये हो कि, जो अपने आपको ब्रह्म मानता है वह चाहे रो पीट कर मरे, चाहे चंमाल के घर मरे, उसकी अवश्य ही मुक्ति हो जाती है, तो तुम्हारे कथनानुसार उसकी मुक्ति होते ही सब संसारका नाश हो जायगा, इसमें हमें एक तो .. खुशी दासिल दुई कि वेदान्ती तो बडे सा. धनों से परम हंस बन कर मुक्त होंगे, और Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनके मरते ही सब अज्ञानी और पापीयों की स्वयं ही मुक्ति अर्थात् नाश हो जायगा. और तुम्हारे कथनानुसार ऐसे जी सिक होता है, कि जब वेदान्ती उत्पन्न होता है। तब संसार बस जाता है, और वेदान्ती जब . मर जाता है तब संसार का नाश हो जाता है. परन्तु यह सन्देह ही रहा कि वेदान्ती का . पिता, वेदान्ती से पहिले कैसे हुआ? और वेदान्ती की मुक्ति अर्थात् मरणे के अनन्तर वेदान्ती के पुत्र कन्या कैसे रह जाते हैं ? . ना तो हम लोग आस्तिक आंखों वालों को यों दी मानना पडेगा, कि वेदान्ती को न कनी 'मोद प्राप्ति हुई और नाही होगी, क्यों कि सब संसार पहिले नी था, और अबनी है, और वेदान्ती के मरण के अनन्तरजी रहेगा. . . . . (१५). . . . . . . . ... नास्तिकः-अला, जैनीजी! तुमही बताओ; किजीव चेतन है वा.जम ? Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२३ जैनीः-चेतन. नास्तिकः-यदि जीव चेतन है तो जीव को परलोक का ज्ञान अर्थात् स्मरण क्यों नहीं होता ? जैनीः-जीव को परलोक का ज्ञान अथात् स्मृति के न होने से क्या जीव की चेतनता की और परलोक की नास्ति हो जायगी? , नास्तिकः और क्या ? .... . जैनी:-किस कारण से ? . . नास्तिकः-किस कारण से क्या ? यदि जीव चेतन अर्थात् ज्ञानवान् होता, और परलोक से आता जाता, तो परलोक का स्मरण (याद) क्यों कर न होता? . जैनी:-अरे नोले ! तुझे गर्जवास की अवस्था स्मरण नहीं है, तो क्या तुम गर्न से उत्पन्न नहीं हुए हो? वा, तुम चेतन नहीं Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ हो ? जम हो ? (२) तुम्हें माता के दुग्ध का स्वाद याद नहीं है तो क्या माता का दूध पी कर नदीं पले हो ? (३) यथा, किसी पुरुष ने विद्या पढी, फिर दो-चार वा ब महीने तक बीमार रहा, उसे पिबला पढा हुआ स्मरण न रहा, तो क्या उसने पढा न था ? 1 I -3 (४) प्रथवा, किसी पुरुषने कैद में कठिन वेदना जोगी, फिर वह कैद से छूट कर घर के सुखों में मग्न हो कर कैद के कष्ट भूल गया; तो क्या उसने कैद नहीं जोगी ? (५) अथवा, स्त्री प्रसववेदना से दुःखित होती है, फिर कालान्तर में श्रृङ्गार भूषण हास्य विलास यादि जोगों में मग्न हो कर प्रसूत की अवस्था भूल गई, तो क्या उसको प्रसूत की पीमा नदीं हुई? किंवा यह पूर्वोक्त जम हो जाते हैं? अपितु नहीं, तो ऐसे ही जीव चेतन, के पर-. लोक याद ना रहने से परलोक की नास्ति नदीं दो सकती. 1 " 1 2 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) नास्तिकः-यह तो आपने सत्य कहा, परन्तु यह बता दीजिये कि ना याद रहने का कारण क्या है ? जैनीः-अरे नाई! यह जीव चेतन कर्मों से पूर्वोक्त समवाय सम्बन्ध है, तां ते न जीवों की चेतनता, अर्थात् ज्ञान शक्तियें सूक्ष्म रूप ज्ञान, आवरण आदि कर्मानुबंध दो रही हैं, बम के बीज की न्यांई. जैसे बम के बीज में बम वाली सर्व शक्तिये सूक्ष्म दो कर रही हुई हैं, और निमित्तों के मिलने से उसी बीजमें से किसी काल में अङ्कुर फूट कर माली, पत्ते आदी होते हुए संपूर्ण बम प्रकट हो जाता है; ऐसे ही इन जीवों को इन्स्यि और मन आदि प्राणों के निमित्तों से मति, सुरत,आदि ज्ञान प्रगट होते हैं. जब तक यद जीव कर्मों के बंधन सहित है, तब तक विना शख्यि आदिक औजारों के कोई ज्ञान - Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . Maina 1 - २६ उपकर्म आदि क्रिया नहीं कर सकता है. जैसे मनुष्य को सीवना तो आता है परन्तु सूई । बिन नहीं सी सकता, इत्यादि. और जी बहुतसे दृष्टान्त हैं. (१७) नास्तिकः-यद इन्ज्यि शरीर पांच तत्व से होते हैं.-(१) पृथिवी, (२) जल, (३) अग्नि, (४) वायु, (५) आकाश, इन तत्वों ही के मिलने से झान हो जाता है वा और कोई जीव होता है ? जैनी:-देखो, इन अंधमति नास्तिकों के आगे सत्य उपदेश करना कुक्कुहू कुंवत् है. अरे नाई ! यह पूर्वोक्त पांच तत्व तो जड हैं. इन जमों के मिलाप से जम गुण तो. उत्पन्न हो जाता है. परन्तु जमों में चेतन गुण अन हुआ कहांसे आवे ? जैसे हल्दी और नील के मिलाप से हरा रंग हो जाता हैं, जिस को Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२७ अज्ञान लोग तीसरा हरा रंग कहते है. परन्तु बुध्मिान् पुरुष जानते हैं कि तीसरा नहीं, . दोही हैं. हल्दी का पीलापन, और नील का नीला पन,यह दोनों ही रङ्ग मिले हुए हैं.हरेमें तीसरा रङ्ग, इनसे पृथक् लाली तो नहीं आ गई, अर्थात् गुल अनारी तो नहीं हो गया. ऐसे ही जम में जम गुण, तो नांति के हो - जाते हैं, परन्तु जम में जम से अलग चेतन __ गुण नहीं हो सकता. (१७) - नास्तिकः-(१) शोरा, (२) गंधक, (३) कोयला मिलाने से बारूद हो जाती है, जिस में पहामों के जमाने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है. . - जैनी:-बारूद में नमाने की शक्ति हो- '. ती तो, कोढे में पमीर ही नमा देती, उडाना तो बारूद से अलग अग्नि से होता है. Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ giri . . नास्तिकः-खैर, अग्नि से ही सही. परन्तु जैनी जी! अग्नि नी तो जम है. ... .. जैनी:-अग्नि जम दी सही, परन्तु नास्तिक जी! मिलाने वाले चलाने वाला तो चेतन दी है. तांते जम से न्यारा चेतन कोई और ही है. (१५) नास्तिकः-नला! शब्द, रूप, गंध, रस, स्पर्श, ग्रहण करने की शक्ति इन्ज्यिों में है वा जीव में, अर्थात् देखने का गुण आंखों . में है वा जीव में ? जैनीः-जब तक जीव अज्ञान कर्म के . अनुबंध है, तब तक तो न अकेला जीव देख सकता है और नाही आंख देख सकती है; ... क्यों कि यदि जीव देख सकता, तो अन्ध पु रुष जी चक्षु से विना दी देख सकता, और जो आंखें देख सकती तो जीव निकल जाने Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शश . के अनन्तर अर्थात् मुर्दा नी देख सकता.क्यों कि मुर्दे की नी तो अल्पकाल तक वैसी ही आंखें बनी रहती हैं. बस वही ठीक है जो हम ऊपर लिख चुके हैं, कि कर्म अनुबन्ध जीव इन्द्रियों के निमित्त से अर्थात् जीव इ'निस्य इन दोनों के मिलाप से देखने आदि । की क्रिया सिह होती है. ' . . (२०) . नास्तिकः-अजी! मैं आपसे फिर पूबता हूं कि कर्मानुबन्ध जीव परलोक आदि पूर्व कृत कैसे भूल जाता है ? कोई दृष्टान्त दे कर सविस्तर समझा दोजिये. जैनी: दृष्टान्त तो हम पहिले दी पांच लिख आये हैं लो अब और नी विस्तार पूर्वक सुनो. यथा, राजग्रह नगर में किसी एक घनी पुरुष शिवदत्त के पुत्र देवदत्त को कुसझं के प्रयोगसे मद्यपान करने का व्यसन पम Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “२३०. गयाथा; एक समय मद्यपान कर बाजार में से. जा रहा था, तो उसके मित्र ने उसे अपनी में कान पर बैठा लिया, और मोदक वा पेमे आदिक खिलाये. उसने आदरका और मिगई - आदि खानेका अपने मन में अति सुख माना. फिर आगे गया तो उसे किसी एक पुरुष ने पूग कि आज तो तुम्हें मित्र ने खूब लमू खिलाये, तो उस मद्यपने जब वर्तमान समय लडू आदिक खाये थे तब उसकी, चेतनता अर्थात् बुद्धि जिस धातु (मगज) से काम ले रही थी अर्थात् मित्र के सत्कार को अनुन्नव कर रही थी, सो उस धातु (मगज). के मादेपर उस मदिरा के पुद्गल (जौहर) मेदकी गर्मी से नड कर मगज की धातु को रोकते थे, तां ते वह अपने अतीत काल की । व्यतीत बात को स्मरण नहीं रख सकता था, __ तांते वह पूर्वोक्त सुखों को भूला हुआ यों बोला, कि मुझे किस ऐसे तैसे ने लडू खिला Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये हैं? फिर आगे नस एक शत्रू मिला, उसने उसके खूब जूते लगाये, वह मारसे दुःखित हुआ, और चिल्लाने लगा, और बमी लझाको प्राप्त हुआ. फिर थोमी देर के बाद आगे चल कर किसी पुरुष ने कहा कि तेरे शत्रुने तुझे बहुत जूते लगाये तो वह पूर्वोक्त कारण से अपने वीते दुःख को जूल ही रहा था, तां तेयों बोला, कि मेरे जूते लाने वाला कौन जन्मा है ? अब देखो, वह मद्यपायी पुरुष वर्तमान काल में तो सुख को सुख जानता था और दुःख को दुःख, परन्तु मदिरा के जौहर मगज पर लगने से अतीत, अनागत के सुख दुःख को याद नहीं रख सका ऐसे ही पुरुष वत् तो यह जीव, और मदिरावत् मोह कर्म के परमाणु, सो इस मोद कर्म के प्रयोग से यह जीवनी जब वर्तमान काल जिस योनि में होता है तव वहां के सुख कुःख को जानता है. और जब इस देह को बोझ कर दू इन Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० गयाथा, एक समय मद्यपान कर बाजार में से जा रहा था, तो उसके मित्र ने उसे अपनी - कान पर बैठा लिया, और मोदक वा पेमे आदिक खिलाये. उसने आदरका और मिठाई.. आदि खानेका अपने मन में अति सुख मा., ना. फिर आगे गया तो उसे किसी एक पुरूघ ने पूग कि आज तो तुम्हें मित्र ने खूब लमू खिलाये, तो उस मद्यपने जब वर्तमान : समय लडू आदिक खाये थे तब उसकी, चेतनता अर्थात् बुद्धि जिस धातु (मगज) से । काम ले रही थी अर्थात् मित्र के सत्कार को " अनुन्नव कर रही थी, सो उस धातु (मगज) : के मादेपर उस मदिरा के पुद्गल (जौहर): मेदकी गर्मी से उड कर मगज की धातु को रोकते थे, तां ते वह अपने अतीत काल की । व्यतीत बात को स्मरण नहीं रख सकता था, तांते वद पूर्वोक्त सुखों को भूला हुआ यों बोला, कि मुझे किस ऐसे तैसे ने लड्डू खिला ....... .. Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकेगा; यथा किसी कवी ने कैसा. ही सुन्दर दोहा कहा है:परमेश्वर परलोक को जय कहीं जिस चित्त, गुह्य देशमें पाप सों कबहूं नवचसी मित्त र - तां ते परमेश्वर और परलोक पर निश्चय करके हिंसा, मिथ्या, काम क्रोधादि पूर्वोक्त उष्ट कर्मों का अवश्य ही त्याग, करना चादिये, और दया, सत्य, परोपकार आदि सत्य धर्म का अवश्य ही अनुष्ठान करना चाहिये, क्यों कि यदि परलोक होगा तो शुन के प्रजाव से इस लोक में तो यश दोगा और . विविध प्रकार के रोग और कलंक और राज दण्मादिकों से बचा रहेगा, और परलोक में शुन्न गति हो कर अत्यन्त सुखी होगा; यदि परलोक तेरी बुद्धि के अनुसार नहीं नी होगा तौ नी धर्म के प्रयोग से इस जगह तो यश आदिक पूर्वोक्त सुख होगा. Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ सरी योनि में कर्मानुसार उत्पन्न होता है तब पूर्वोक्त कारण से परलोक को भूल जाता है.' और जियादह शरीर और जीव के न्यारा : होने में ज्ञात होने की आवश्यकता हो तो सूत्र श्री रायप्रसैनी जी के दूसरे अधिकार में : परदेशी राजा नास्तिक के ग्यारद प्रश्न और श्री जैनाचार्य केशी कुमारजी आस्तिक की ओरसे उत्तरों में से प्राप्ति कर लेना; इस ज- : गह पुस्तक बमा होने के कारण से विशेष कर .. नहीं लिखा गया और हमारी तर्फ से यह शिक्षा नी स्मरण रखने के योग्य है कि यदि तुमारी बुदिमें परलोक नहीं नी आवे तो जी परलोक अवश्यही मानो, क्यों कि जो परमेश्वर और परलोक को नहीं समझेगा अर्थात् नहीं मानेगा, तो वह पापों से अर्थात् बालवात आदि अगम्य गमनादि कुकर्मो से कनी नहीं बच Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सकेगा; यथा किसी कवी ने कैसा. ही सुन्दर दोहा कहा है:- . . परमेश्वर परलोक को जय कहीं जिस चित्त, . गुह्य देशमें पाप सों कबहूं नवचसी मित्त र तां ते परमेश्वर और परलोक पर निश्चय करके हिंसा, मिथ्या, काम क्रोधादि पूर्वोक्त पुष्ट कर्मों का अवश्य ही त्याग, करना चादिये, और दया, सत्य, परोपकार आदि सत्य धर्म का अवश्य ही अनुष्ठान करना चाहिये, क्यों कि यदि परलोक दोगा तो शुन्न के प्रनाव से इस लोक में तो यश होगा और विविध प्रकार के रोग और कलंक और राज दएकादिकों से बचा रहेगा, और परलोक में शुन्न गति हो कर अत्यन्त सुखी होगा; यदि परलोक तेरी बुद्धि के अनुसार नहीं नी दोगा तौ नी धर्म के प्रयोग से इस जगह तो यश आदिक पूर्वोक्त सुख होगा. Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ । यदि ज्ञाता जनों की सम्मति से विरुद्ध । कुब न्यूनाधिक लिखा गया होवे तो 'मिच्छामि कमम्' ॥श्रुन्नं नूयात् ॥ .. नोट:-इस ग्रंथ में जो मत मतान्तरोंके पुस्तकों के प्रमाण दिये ___ गये हैं, यदि उनका अर्थ इस ग्रंथ मे कहीं लिखे के वजिब न हो तो वह भपना अर्थ प्रकट करे ठीक किया जायगा. REME: A SRY . ८.. . .. May RAYANAMA ...auruaari - -- . 25 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ श्री वीतरागाय नमः॥ ॥जैन धर्मके नियम॥ .१-परमेश्वर के विषय में। १ परमेश्वर को अनादि मानते हैं अर्थात् सि. द्धस्वरूप, सच्चिदानंद, अज, अमर, निराकार, निकलङ्क, निष्प्रयोजन, परमपवित्र सर्वज्ञ, अनन्त शक्तिमान् सदासर्वानन्दरूप परमात्मा को अनादि मानते हैं। -जीवों के विषय में। . ५-जीवोंको श्रनादि मानते हैं अर्थात् पुण्य पाप रूप कर्मों का कर्ता और नोक्ता संसारी अनन्त जीवोंको जिनका चेतना लक्षण है अनादि मानते हैं। ___३-जगत के विषय में। ३-जम परमाणुगों के समूह रूप लोक (ज__ गत्) को अनादि मानते हैं अर्थात् पृथिवी, पानी, - अग्नि, वायु, चन्छ, सूर्यादि पुदगलों के स्वन्नावसे Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समूह रूप जगत् १ काल (समय) २ स्वन्नाव (जम में जमता चेतनमें चैतन्यता) ३ आकाश (सर्व पदा__ों का मकान) ४ इन को प्रवाह रूप अकृत्रिम (विना किसी के वनाये) अनादि मानते हैं। -अवतार । ... ...... ४-धर्मावतार ऋषीश्वर वीतराग जिन देव को जैन धर्म का बताने वाला मानते हैं अर्थात् जि, - - धातु, जय, अर्थ में है जिसको नक प्रत्यय होने से , जिन, शब्द सिद्ध होता है अर्थात् राग द्वेष काम , क्रोधादि शत्रुयों को जीन के जिन देव कहाये, जि नस्याय, जैन, अर्थात् जिनेश्वर देव का कहा दुश्रा . ___ यह धर्म उसे जैन धर्म कहते है ॥ - - - ए-जैनी। ५-जैनी मुक्ति के साधनों में यत्न करने : • वालो को मानते हैं, अर्थात् उक्त जिनेश्वर देव के . __ कहे हुये जैन धर्म में रहे हुये अर्थात् जैन धर्म के'. ___ अनुयाईयों को जैनी कहते हैं । ...:६-मुक्ति का स्वरुप। .... ... ६-मुक्ति, कर्म बंध से अबन्ध हो जाने श्र व जन्म मरण से रहित हो परमात्म पदको प्राप्त . Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. कर सर्वज्ञता, सदैव सर्वानन्द में रमन रहने को 1 मानते हैं अर्थात् मुक्ति के साधन धन और कामनी के त्यागी सन्त गुरुयोंकी, सङ्गत करके शास्त्र द्वारा जम चेतन का स्वरुप सुनकर संसारिक पदार्थों को अनित्य [ते] जान कर उदासीन होकर सत्य संतोष दया दानादि सुमार्ग में इच्छा रहित चल कर काम क्रोधादि पर गुन के अन्नाव होने पर आत्म ज्ञान में लीन होकर सर्वारंन परित्यागी अर्थात् हिंसा मिथ्यादि के त्याग के प्रयोग से नये कर्म पैदा न करे और पुरःकृत [पहिले किये हुये कर्मों का पूर्वोक्त जप तप ब्रह्मचर्यादि के प्रयोग से नाश करके कर्मों से अलग दोजाना अर्थात् जन्म मरण से रहित होकर परमपवित्र सच्चिदानन्द रूप परमपदको प्राप्त हे ज्ञान स्वरूप सदैव परमानन्द में रमन रहने को मोक्ष मानते हैं. g - साधुयों के चिन्ह और धर्म । - पञ्चम (पांच महाव्रत के ) पालने वालों को साधु कहते हैं. ६ ! { , . अर्थात् श्वेत वस्त्र, मुख वस्त्रिका मुखपर वां धना, एक जन आदि का गुच्छा (रजोहरण ) जीव Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रक्षा के लिये हाथ में रखना काष्ठ पात्र में श्रार्य गृहस्थियों के द्वार से निर्दोष निक्षा ला के श्राहार - करना. . . . . . . . . . पूर्वक ५ पञ्चाश्रव हिंसा ? मिथ्या र चोरी ३ मैथुन ४ ममत्व ५ श्नका त्यागन .. . और अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्याऽ परिग्रह- . यमाः श्न उक्त (पञ्च महाव्रतों के) धारण करना अर्यात्. दया १ सत्य २ दत्त ३ ब्रह्मचर्य-४ निर्ममत्व ५ दया, (जीवरदा अर्थात् स्थावरादि कीटी से कुजर पर्यंत सर्व जीवों की रका रूप धर्म में यत्न का. करना. ? सत्य (सच बोलना.) २ दत्त (गृहस्थियों का दिया हुआ अन्न पानी वस्त्रादि) निर्दोष पदार्थ । का लेना ३ ब्रह्मचर्य [ हमेशा यती रहना ] अपितु .. स्त्री को हाथ तक जी न लगाना जिस मकान में स्त्री रहती हो उस मकान में लीन रहना ऐसे ही साध्वी को पुरुष के पक्ष में समझ लेना ४ निर्ममत्व [कोमी पैसा आदिक धन, धातु का किंचित् नीन । रखना ५. रात्रि नोजन का त्याग अर्थात् रात्रि में न खाना न पीना रात्रिके समय में अन्न पानी आदिक खान पान के पदार्थ का संचय जी न करना . . Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 [न रखना] और नङ्गेपांव नूमि शय्या, तथा काष्ठ शय्या का करना. फलफूल आदिक और सांसारिक विषय व्यवहारों से अलग रहना, पञ्च परमेष्ठी का जाप करना धर्म शास्त्रों के अनुसार पूर्वोक्त सत्य सार धर्म रीति को ढुंमकर परोपकार के लिये सत्योपदेश यथा बुद्धि करते हुए देशांतरो में विचरते रहना एक जगह मेरावना के मुकाम का न करना ऐसी वृत्ति वालों को साधु मानते हैं। ज-श्रावक (शास्त्रं सुनने वाले) गृहस्थियों का धर्म। . ८-श्रावक पूर्वोक्त सर्वज्ञ नाषित सूत्रानुसार सम्यग् दृष्ट में दृढ हो कर धर्म मर्यादा में चलने वालों को मानते हैं अर्थात् प्रातःकाल में परमेश्वर का जाप रूप पाठ करना अनयदान, सुपात्रदान का. देना सायंकालादि में सामायक का करना फूलका न बोलना, कम न तोलना जूठी गवाही का न देना चोरी का न करना, परस्त्री का गमन न करना स्त्री. योने परपुरुष को गमन न करना अर्थात् अपने पतिके परन्त सब पुरुषो को पिता बंधु के समतुल्य समजना जूए का न खेलना, मांस-का न खाना, Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • शराब का न पीना, शिकार (जीव घात) का न करना । । इतना ही एही बटिक मांस खाने, शराब पीने वाले शिकार ( जीव घात) करने वाले को जाति में जी.. न रखना अर्थात् उस्के सगाई (कन्यादान) नही करना उसके साथ खानपानादि व्यवहार नहीं करना । खोटा वाणिज्य न करना, अर्थात् हाम, चाम, जहर, .. शस्त्र आदिक का न वेचना और कसाई आदिक हिंसकों को व्याज पै दाम तक का नी न देना क्यूं कि उनकी दुष्ट कमाई का धन लेना अधर्म हैं ॥ .. ए-परोपकार । ए-परोपकार सत्य विद्या ( शास्त्र विद्या) सी- । खने सिखाने पूर्वोक्त जिनेन्द्र देव नाषित सत्य शास्त्रोक्त जम चेतन के विचार से बुद्धिको निर्मल करने में जीव रक्षा सत्य नाषणादि धर्म में उद्यम करने को कहते हैं अर्थात् यथा. . दोहा-गुणवंतोकी वंदना, अवगुण देख मध्यस्थ। दुखी देख, करुणा करे मैत्रीनाव समस्त ॥१॥ .' अर्थ-पूर्वोक्त गुणोंवाले साधु वा श्रावकों को नमस्कार करे और गुण रहित से मध्यस्थ नाव रहे अर्थात् जसपर राग द्वेष न करे ५ दुखियों को देख 2m Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । करुणा (दया) करे अर्थात् अपना कल्प धर्म रख के यथा शक्ति उनका दुःख निवारण करे ३ मैत्री ताव सबसे रक्खे अर्थात् सब जीवों से प्रियाचरण करे किसी का बुरा चिंते नहीं ॥ ४॥ १०-यात्रा धर्म ॥ १०-यात्रा चतुर्विध संघ तीर्थ अर्थात् ( चार तीर्थों ) का मिल के धर्म विचार का करना उसे यात्रा मानते हैं अर्थात् पूर्वोक्त साधु गुणों का धारक पुरुष साधु १ तैसे ही पूर्वोक्त साधु गुणोंकी धारका स्त्री लाध्वी र पूर्वोक्त श्रावक गुणोंका धारक पुरुष श्रावक ३ पूर्वोक्त श्रावक गुणों की धारका स्त्री श्राविका ४ श्नका चतुर्विध संघ तीर्थ कहते हैं इनका परस्पर धर्म प्रीति से मिल कर धर्म का निश्चय करना उते यात्रा कहते हैं और धर्म के निश्चय करने के लिये प्रश्नोत्तर कर के धर्म रूपी लान्न उगने वाले ( सत्य सन्तोष हासिल करने वालों ) को यात्री कहते हैं अर्थात् जिस देश काल में जिस पुरुष को सत्न सं. गतादि करके आत्मज्ञान का लान हो वह तीर्थ । न्यथा चाणक्य नीति दर्पण अध्याय १५ श्लोक में Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधूनां दर्शनं पुण्यं, तीर्थ जूताहि साधवः।। कालेन फलते तीथ, सद्यः साधु समागमः ।। अर्थ-साधु का दर्शन ही सुकृत है साधु ई तीर्थ रूप हैं तीर्थ तो कनी फल देगा साधुओं के संग शीघ्र ही फलदायक हैं १ और जो धर्म सन्न में धर्म सुनने को अधिकारी आवे वह यात्री श्री जो धर्म प्रीति और धर्म का वधाना अर्थात् आश्न का सम्बर का बधाना ( विषयानन्द को घटाना आ त्मानन्द को बधाना) वह यात्रा ३ श्न पूर्वोक्त सः का सिद्धान्त (सार ) मुक्ति है अर्थात् सर्व प्रकार • शरीरी मानसी दुःख से बूटकर सदैव सर्वज्ञता श्रा त्मानन्द में रमता रहे ॥ ॥ इति दश नियमः ॥ शुजम् ॥ A ॥ संपूर्णम् ॥ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- _