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(जर) यदि (तसि) तेरी, (जोगे) जोगों के विषय में, (चश्ओं) त्याग बुद्धि की; (असत्तो) असमर्थता है अर्थात् संयम लेने की ताकत नहीं है, तो (अजाइं) आर्य (कम्माई) कर्म (करे हीण्यं ) कर हे राजन् ! वह आर्य कर्म क्या (धम्मे विओ) वीतराग नाषित धर्म के विषे स्थित हो कर, (सव पयाणुकंपी) सर्व पद अर्थात् सर्व जीवों के जेद त्रस्स और थावर इनका (अणुकंपी) दयावान् हो, (तो दोदिसि ) तू जी होगा, (देवो) देवगति का वासी, अर्थात् देवता, (वी ओवी) विक्रिय शरीरवाला; इति...
और जगवतीजी सूत्र शतक २ य, उद्देशा वठवां, तुङ्गापुर के श्रावक जैनाचार्य जी को पूरते हैं:- .. ..
. गाथा. . . संजमेणं नंते किं.फले, तवेणं नंते किं कसे, ततेणं तेथेरा जगवंता ते समणो चासय,