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जैनी कढ़ाते हुए लाखों में से शायद एक दो मांसनदी हो परन्तु जैन से बाहिर और मत.. अनुयायी लाखों में से शायद दस नदीं खाते होंगे. क्यों कि हम देखते हैं कि आज कल के समय में कागज और स्यादी के यंत्रालय ( टापेखाने ) के प्रभाव से बहुत खर्च हो रहा है. अर्थात् हरएक मत के धर्मशास्त्र उपर कर प्रकट हो रहे हैं. तिस पर भी कसाईयों और कलालों की दुकानो की तरक्की दी देखी जाती हे. हाय ! प्रमोस ! बस, इसका यही कारण हैं कि कहते हैं परन्तु करते नहीं त् 'प्रहिंसा परमो धर्मः ' यादवल मुख से पुकारते हो रहत दें, परन्तु हिंसा अर्थात् दद्या पालने की युक्तियें नहीं जानते. जाने कसे ? बिना जीव प्रजीव के नंद जानने वाले क्या धर्मा कनककामिनी के त्यागी साधु-सती के कौन बतावें ? यह तो वह क हावत है:---