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जिये निरुत्तर हो कर चले गये, और सना विसर्जन हुँई, यहां मुक्ति के विषय में पूर्वोक्त प्रश्न समतुल्य होने के कारण यह कथन याद आने से लिखा गया है.
॥१५ वा प्रश्न आरियाः-जलाजी ! तुम मोद से हट कर अर्थात् वापिस आना तो नहीं मानते हों
और सृष्टि अर्थात् लोक को प्रवाह से अनादि मानते हो, तो जब सब जीवों की मुक्ति हो जावेगी तो यह सृष्टि क्रम अर्थात् उनिया वी सिलसिला बन्द न हो जायगा?
जैनीः--ओहों ! तो क्या इसी फिकर से. शायद पुनरारत्तिमानी है अर्थात् मुक्ति से वापस आना माना है? कि संसार का सिलसिला वन्द ना हो जाय; परन्तु मुक्ति की खबर नदी कि मुक्ति क्या पदार्थ है ? यया कहावत है "काजी! तुम क्यों दुवले ? शहर के अन्देशे.". परन्तु संसार का सिलसिला अब तक तो च--
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