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शिष्यः-तो फिर वही पहीले वाली बात .." यदि कर्म कर्ता है तो जीवों को उपदेश
क्यों ?" " गुरुः-तूं तो अब तक नीअर्थ को नहीं समका.
शिष्यःमें नहीं समझा.
गुरु:--ले समऊ, तेरा यह प्रश्न था कि, (१) “यदि कर्म कर्ता हैं तो जीवों को ले बुरे __ कर्म की रोक टोक क्यों ? और (२) यदि जीव - कर्ता है तो पूर्वोक्त सुखों के ऊपायं करते हुए
ख और मृत्यु आदि का होना क्यों ? अब इसका तात्पर्य्य (नेद)सुन. जब यद जीव क्रियमाण अर्थात् नये कर्म करे उनमें तो जीव कर्ताहै, और फिर वही कर्म किये हुए वासनाओं से खिंचे हुए अन्तःकरण में सन्चित पूर्व कर्म हो जाते हैं अर्थात् पिग्ले किये हुए,तब उनके पूर्वोक्त फल जुगताने में वह कर्म ही कर्ता हो जाते हैं. इसका विशेष वर्णन हम आगे करेंगे,