________________
G कि, जीव कर्म तो आप ही कर लेता है, परन्तु 'स्वयं (आप) ही कैसे नोगता है ? जैसे सम्बत् १५४ के उपे हुए “ सत्यार्थ प्रकाश" के ४४ाए पृष्ठ पंक्ति नीचे की रस में लिखा है कि, “कोई जीव खोटे कर्म का फल भोगना नहीं चाहता है, इस लिये अवश्य ही परमास्मां न्यायाधीश होना चाहिये.” अब देखिये कि, कर्म कास्वरुप न जानने से यह मनः कल्पना कर लीनी, अर्थात् मान लिया कि कर्म फल भुगताने वाला अवश्य होना चाहिये, इस लेख से यहनी सिद्ध हुआ कि, नन्हें नी निश्चय न हुआ होगा कि कर्म नुगता में के ऊगमे में पड़ने वाला जी कोई ईश्वर" है." क्यों कि ' होना चाहिये " यह शब्द सन्देहास्पद अर्थात् शकदार है. यों नहीं लिखा है कि, फल जुगताने वाला अवश्य है. बस ! वही ठीक है जो जैनी-लोग कहते हैं. जैसे कि चोर चोरी का फल-निमित्तों से जोगता