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________________ 1 [ए: ऐसे ही जीव भी स्वतंत्रता से कर्म करने से खुद मुखत्यार है (अर्थात् क्रियमाण में ) और फिर वही कर्म जिस‍ अध्यवसाय से ( वासना से ) किये हैं उसी वासना में मिल कर कारण रुप सञ्चित होजाते हैं तब वह कर्म ही निमित्तों से कर्मफल भुगताने में स्वतंत्र हो जाते हैं. mite आरिया:-नवा जी ! कोसी पुरुष नें कर्म किया कि जमीन पर एक लकीर खैंच दी; ' अब वह लकीर नसे कर्मफल देगी ? जैनी :- अरे नोले! क्या तुम 'क्रिया' को 'कर्म' मानते हो ? लकीर खेंचना तो एक 'क्रिया' है; और 'कर्म' तो यहां ' क्रियाफल को कहा है अर्थात् जिस इच्छा से वह लकीर खेची है: यथा (जैसे) कीसी पुरुषने कहा कि मेरी तो वात पत्थर की लकीर है, यों कहते हुए नें लकीर खैच दी; और किसी पुरुषने कहा कि एक बार तो उसकी ग्रीवा (गर्दन)
SR No.010467
Book TitleSamyaktva Suryodaya Jain arthat Mithyatva Timir Nashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParvati Sati
PublisherKruparam Kotumal
Publication Year1905
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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