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२७३ तो हम आगे देंगे, परन्तु तुमसे हम पूछते हैं कि पूर्वोक्त मुक्त चेतन एक जगह स्थित न रहे तो क्या इस लोक के ऊंच नीच स्थानों में घूमता फिरे ? अर्थात् ब्रमर बन कर वागों के फूलों में टक्कर मारता फिरे ? अथवा कृमि वन कर खाईयों (मोरियों) में सुल सलाता फिरे ? अथवा किसी और प्रकार सें? अरे नाई! तुम कुच्छ वुद्धिधारा नी विचार कर देखो, कि जैसे नकारे पामर (गरीव) लोग गली में नटकते फिरते नजर आते हैं, ऐसे श्रेष्ट सुखी पदवीधर अर्थात् बमेओहदेवाले ली गलोश में लटकते देखे हैं ? अपितु नहीं. कारण क्या ? जितनी निष्प्रयोजनता होगी उतनी ही स्थिति अधिक होगी. सो हे नाई ! तुम कैद के अर्थ नहीं जानते हो; केद नाम तो पराधीनता का होता है, स्थित रहने का नहीं है. यथा, मैं जो इस ग्रंथ की रचिता (कर्ता) हूं सो विक्रम सम्बत् २०१० के साल में नि