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________________ . .. .. .. .. दीजिये, जो हमारी बुद्धि (समऊ) में आ जाय. ... जैनी:-तुम समझो तो बहुत अबा है; समझाने ही के लिये तो परिश्रम किया गया है--न तुटकों के वास्ते; क्यों कि हम निग्रंथि साधु धर्म में हैं हमारे मूलसंयम यह हैं कि कोमी पैसा आदिक धातु को न रखना, बल्कि स्पर्श मात्र जी न करना;और पूर्ण ब्रह्मचर्य अर्थात् सर्वदा (हमेशा) यतिपन में रदना; सो परोपकार के लिये ही लिखा जाता है; केवल (सिर्फ) मान बमाई के ही लिये नहीं है. अब सुनीये! (१)अनादि-अनन्त, तादात्मिक सम्बंध को कहते हैं; (२) अनादि-सान्त, समवाय सम्बंध के कहते हैं; (३) सादि-सान्त, संयोग सम्बंध को कहते हैं;(४)सादि-अनन्त, अबन्ध को कहते हैं. इसका अर्थ यह है: (१) तादात्मिक सम्बध' वह होता है कि चेतनमें चेतनता,जड मेंजमता अर्थात् चेतन पहिले जी चेतन था, अब जी चेतन हैं; आगे को
SR No.010467
Book TitleSamyaktva Suryodaya Jain arthat Mithyatva Timir Nashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParvati Sati
PublisherKruparam Kotumal
Publication Year1905
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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