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नपजी कह लेने दो. तब लोक चुप कर बैठे. उसने अपने प्रश्न को सविस्तर कहाः अनन्तर दमने उत्तर दिया कि, हमारे प्रमाणिक सूत्रों में ऐसा नाव कहीं भी नहीं है. और जो तुमने ग्रंथ का प्रमाण दिया है, जस ग्रंथ को हम प्रमाणिक भी नहीं समझते हैं. परन्तु तुम्हारे दयानन्द कृत 'सत्यार्थप्रकाश' नामक पुस्तक संवत २०५४ के उपे हुए पृष्ठ ६३० में ऐसा लिखा है, कि और धर्मी अर्थात् वेदादिमत सेवादिर चाहे कैसा दी गुणीजी हो उसका नी नाश अवन्नति
और अप्रियाचरण सदा ही किया करें. अब तुम देख लो यह दयानन्द की कैसी, दया हुई? फिर कहा, कि अजी! हमारे दयानन्दजी ने सत्यार्थप्रकाश' के बारहवें समुल्लास के ४६७ पृष्ठ में प्रथम ही ऐसा लिखा है कि देखो इनका वीतराग जाषित दयाधर्म दूसरे मतवालों का जीवन जी नहीं चाहते हैं ! तब