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ब्राह्मण, वैष्णव, समाजी, व्यादिक हजार वा मेढ हजार के लगभग स्त्रिये वा पुरुष सजा में उपस्थित थे. और दिन के आठ बजे से दस बजे तक व्याख्यान होने के अनन्तर
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दयानन्दी पुरुषों में से, दो आदमी कुच्छ प्रार्थना करने के लिये प्राज्ञा मांगी. तदनन्तर हमने जी एक घण्टा और सजा में बैठना मंजूर किया. तब उन्हों में से एक नाईने सजा में खडे हो कर लैक्चर दिया, कि जैनयजी श्रीमती पार्वतीजी ने दया सत्यादि का प्रत्युत्तम उपदेश किया, इसमें हम कुच्छ जी तर्क नहीं कर सकते हैं, परन्तु इनके 'रत्नसार नामक ग्रंथ में लिखा है कि जैन मत के सिवाय और मतवालों से प्रियाचरण करना, अर्थात् हतना चाहिये; जला देखो इनकी यह: कैसी दया है ? तब कई एक सासद परस्पर कोलाहल (कुरुवुमाट ) करने लगे. तब हमने कहा कि नाई ! इसको भी मन
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