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अव जो दूसरा अनादि-शान्त समवाय सम्बंध कहा था सो जीव और कर्म के विषय में जान लेना, क्यों कि तुम्हारा प्रश्न यह था कि कर्मों की आदि नहीं है तो अन्त कैसे होवे ? इसका उत्तर इस दूसरे सम्बंधके अर्थ से खूब समझ लेना और इन पूर्वोक्त अधिकारों के विषय में सूत्र, प्रमाण, युक्तिप्रमाण बहुत कुछ लिख सकते हैं और लिखने की आवश्यकता (जरूरत) जी दै; परन्तु यहां विशेष परिश्रम करने को सार्थक (फायदेमन्द) नहीं समझ गया, क्यों कि एकित जन बुद्धिमान् निरपद दृष्टि से बाचेंगे तो इतने में ही बहुत समऊ लेंगे, और जो न समझेगें वा पद रूपी वृक्ष को ही सींचेंगे तो चाहे कितने ही लिखए कागज काले कर पाथे जरो, क्या फल होगा ? यथा 'राजनीति' में कहा है: