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प-संयम से शुक्ष हो कर मुक्त होता है उसे दी सिछ अर्थात् ईश्वर मानते हैं; अ. नादि सिद्ध अर्थात् ईश्वर कोई नहीं मा
नते हैं.
जैनः-उत्तराध्ययन सूत्र-अध्ययन ___३६ गाथा ६५ में सि को दी अनादि कहा है:
(गाथा.) एगत्तेण साझ्या अपऊवसीया 'विय पुहुत्तेण अणाश्या अपजावसिया विय ॥६६॥
(एगत्तेण) को एक तप-जप से निकर्म हो कर सिधपद को प्राप्त हुआ उसकी अपेक्षा से सिम (साश्या) आदि सहित, (अपजवसीया) अन्त रहित माना गया है;
और (पहुत्तेण) इस से पृथक् वहुत की अपेदा से सिम (अनाश्या) आदि रहित अर्थात् जिसका आदि नहीं है, (अपऊवसिया)