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________________ 1 1 1 २१ या तो न हो, परन्तु मित्रका - नाश तो नहीं हुआ, और जो सोने का थाल नहुआ देखा था, सो उसके न था, तो जगत् में तो है ? न हुआ कैसे हुआ ? यह तो मन की चाल और के और भरोसे में विचल जाती है, जैसे कोई पुरुष अपने साईस को कद र हां था कि तुम घोमा कस कर लाओ, हम ग्रा... मान्तर को जावेंगे; इतने में एक कुम्दार गंधे ले कर च्या गया तो वह शाहूकार कहता है कि तूं इन गधों को परे कर, उधर साईस को N देख कर कहता है कि अरे तूं गधे को कस लाया; जला कहीं गधा जी कसवा कर मंगवाया जाता है ? परन्तु संकल्प की चाल और के नरोसे और जगह लग जाती है; यथा कोई पुरुष नौकर को दाम दे कर कहने लगा .कि. बाजार में से मगज और सेमियें यह‍ ले आओ. इतने में उस की लम्की च्या कर . कदने लगी, कि लालाजी ! देखो नाईने मेरी r " f
SR No.010467
Book TitleSamyaktva Suryodaya Jain arthat Mithyatva Timir Nashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParvati Sati
PublisherKruparam Kotumal
Publication Year1905
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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