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________________ १०३ का उसमें ठहदारण्यकोपनिषद् नाषान्तर प्रथम अध्याय के १३३ पृष्ठ की ७ वी १२ पंक्ति में लिखा है, कि अश्वमेध यज्ञ सब यज्ञों में से बमा यज्ञ है, तिसका फल जी संसार ही हैतो अग्निहोत्रादि का तो कहना दी क्या ? बस ना कुब त्याग, न वैराग्य, न धर्म, न मोद. ___आरियाः-मुक्ति नी तो किसी कर्म दी का फल है. सो कर्म अब्धि (दद) वाले होते हैं. तो फिर कर्म का फल मुक्ति नी अब्धि वाली होनी चाहिये. ___. जैनी:-दाय ! अफसोस! देखो, मुक्ति को कर्म का फल मानते हैं ! नला, यह तो बताओ कि मुक्ति कौन से कर्म का फल है ? , आरियाः--शान का, संयम का, तप का, और ब्रह्मचर्य का. जैनीः-देखो, पदार्थ झान के अज्ञ (अझान) ज्ञान आदि को कर्म बताते हैं !
SR No.010467
Book TitleSamyaktva Suryodaya Jain arthat Mithyatva Timir Nashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParvati Sati
PublisherKruparam Kotumal
Publication Year1905
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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