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संध्या, राग, वादल, इन्क्ष धनुष, आदिक मिलने-विमने का.
(५) 'अबंध' जसे कहते हैं, जो अनादि जम रूप अन्तःकरण, जिसके लक्षण अज्ञान मोहादि कर्म उनके बंधन से चेतन का छुटकारा हो जाना, अर्थात् मोद हो कर परमेश्वर रूप हो जाना, अर्थात् अजर, अमर, कृतकृत्य (सकलकार्यसि६), सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, सर्वानन्द पद में प्राप्त होना, पुनरपि (फिर) कर्मों के बंधन में न पमना, अर्थात् जन्म-मरण रूप आवागमन से रहित हो जाना, जिसको जैन में 'अप्पुणरावती पद कहते हैं,
और 'वैष्णव गीता अध्याय ५ वें श्लोक १७ वें में लिखते हैं.
श्लोक. . , गवन्य पुनरावृत्तिं ज्ञाननिषूतकल्मषाः॥ इसका अर्थ यह हैः-गच्छन्ति' जाते हैं जीव वहां यहां से, 'अपुनरावति' फिर नहीं आयें