________________
१२६ बाद नहीं, परन्तु गुणीजनों के गुण खुद ही गाये जाते हैं, और गा कर पूर्वोक्त लान नगते हैं. इसी तरह से परमात्मा में,सर्वज्ञ, सर्वानन्द, अखंकित, अविनाशी इत्यादि अनन्त गुण हैं, परन्तु ईश्वर सुख दु:ख दे कर मनुष्यों से वमाई अर्थात् अपना नाम नहीं स्मरण करवाता है. सत्संगी पुरुष खुद व खुद ही परमेश्वर के परमगुण रूप ज्योति में अपनी सुरती रूप बत्ती लगा कर अपने हृदय में गुणों का झान प्रकाश करते हैं, और उसीका नाम ध्यान है. इसी प्रकार से ईश्वर का ध्यान
और जाप अर्थात् गुणों के याद करने से चित्त में भले गुणों का निवास हो जाता है, और अपगुणों अर्थात् विकारों का नाश हो जाता है; यही पूर्ण धर्म है. और इत्यादिक धर्मसे दुर्गति दूर हो जाती है, और शुन्न गति प्राप्त होती है, अर्थात् श्वा रहित कर्म रहित होकर मोद का लाल हो जाता है,