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________________ - - - -MALE ₹३३ से कर अपनी उदरपूर्ति करनी, ५ मनको वश करने के लिये ज्ञानं चक्ष अर्थात् धर्म शास्त्र का अन्यास करते रहना, ६ परोपकार के लिये धर्मोपदेश को जी यथा बुद्धि करते रदेना, इन्स्यिों को वश करने के अर्थात् विषयों की नियत्ति के लिये यथा शक्ति तप और व्रतं आदिकों का करना, ६ अन्तकास में अनुमान से, मृत्यु आसन्न (नजदीक) जान कर 'संग लेखन' अर्थात् इचा निरोध के लिये देद की प्रीति को त्यागता हुआ संगतुहि दो कर खान पान आदिकं सर्व आरंन का त्याग करना. और इन जैनी साधुओं के शुन्न आचार (चलनों) से, और सत्य उपदेश से पादशादों और राजों को नी बहत वानं पहुंचता है, यथा राजा लोग अपने पास से व्य दे कर चौंकी पहरा लगा कर चोरी, चुगली, खून आदिक ऽष्ट कर्मों से बचा ३ कर प्रजा की रक्षा कर के अपने राज्य को
SR No.010467
Book TitleSamyaktva Suryodaya Jain arthat Mithyatva Timir Nashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParvati Sati
PublisherKruparam Kotumal
Publication Year1905
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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