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________________ ५३ . तथा 'अहिंसापरमोधर्मः' अहिंसालक्षणम् धर्मः” इस अमृतवाक्य ने जैन मत की मदद से दी जयं की पताका ऊंची उगई है. - प्रश्नः-अजी ! तुम जैनी लोग पशु आदि बोद्देश् जीव जन्तुओं की दया तो बहुत कहते हो, वा करते हो, परन्तु मनुष्य की दया कम कहते वा करते हो.. '... - जैनी:-वाह जी वाह ! खूब कही; अरे लोले ! मनुष्य मात्र तो हमारे जाई हैं. उनकी दया क्या, उनसे तो नाईयों बाली लाजी है, जो कहेंगे जी, कहायेंगे जी, और जो कहेंगे मर कदांयेंगेमर. यदि किसीको नवल (गरीब) जान कर सतावेंगे वह जुल्म अर्थात् अन्याय में शामिल है, सों वर्जित है. इनसे तो मित्रता रखनी, मीग बोलना, यथाःगुणवन्त नर को वन्दना, अवगुण देख मददस्त; देख करुणा करे मंत्री नाव समस्त. अवशक में लिखा है,
SR No.010467
Book TitleSamyaktva Suryodaya Jain arthat Mithyatva Timir Nashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParvati Sati
PublisherKruparam Kotumal
Publication Year1905
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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