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· गुरुः-धीरज से सुनो ! कर्ता वा अकर्ता . जीव ही है...
शिष्यः-हांजी! यह तो सत्य है; क्यों कि जीव दी शुन्न (अछे ) और अशुन (बुरे) कर्म करने में स्वतंत्र है. परन्तु गुरुजी ! इस में एक और सन्देद उपजा है. कि यदि जीव ही कर्ता हो, तो फिर जीव अपने आप को दुःखी होने का, बूढे होने का, मृत्यु होने का और दुर्गति में जाने का तो कनी यत्न नहीं करता है; फिर यह पूर्वोक्त व्यवस्था (हालतें)
क्यों कर होती हैं ? • गुरू (योमा हंस कर):-तो नाई! कोइ
इश्वरादिक कर्ता होगा, '... शिष्य (उदर कर )।-ऐसा ईश्वर को. नसा है जो जीवों को पूर्वोक्त व्यवस्था (हालते) देता है ? क्यों कि जीव तो अर्थात् हम
तो दुःखी दोना, बूढे होना, मर जाना, दुर्गति '. में पडना चाहते नहीं है. और वह हमें व