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वह जड ही अपने खेल खिलाती है. ऐसे ही जीवनी स्वतंत्रता से कर्म करता है. फिर कही कर्म पूर्वोक्त अन्तःकरण में सञ्चित्त हो कर (जमा दो कर) इस लोक अथवा परलोक में अन्तःकरण की प्रकृतियों को बदलने की शक्ति रखते हैं. और उन प्रकृतियों के बदलने से अन्तःकरण मे अनेक. शुन्न--अशुन्न, संकल्प उत्पन्न (पैदा) होते हैं. यथा नर्तृहरि 'नीतिशतक :श्लोक
: कर्मायत्तं फलं पुंसां, बुद्धिः कर्मानुसारिणी । तथापि सुधिया भाव्यं, सुविचार्य च कुर्वता ॥
जन संकल्पों के वश हो कर जीव अनेक प्रकार की हिंसा, मिथ्या आदि क्रिया करता है, फिर राजदण्फ, लोकलण्ड, दर्प-शोक आदि के तिमित्तों से नोगता है.
आरियाः नलाजी! परखोक में कर्म कैसे जाते हैं ? क्यों कि जिस शरीर से कर्म