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अर्थात् अपनी कुतर्के मिला कर विषमपने ग्रहण कर लेना, और जो कोई अवगुण रूप प्रतीत पड़े तो उस बिद्र को पकम कर कुब अपने घर से युक्तिये दुजत पन की मिला कर नन्हीं के शत्रु रूप हो कर निन्दा पवा देनी. क्यों कि इन लोगों की बनाई हुई पुस्तकें नी हर एक मत की निन्दा आदि से नरी हुई हैं!न कुच्छ त्याग, वैराग्यादि आत्मा के नधार करने की विधि से, जैसे 'सत्यार्थप्र'काश महागारत लेखराम कृत् आदिक. और न यह वेदों को दी मानते हैं, क्यों कि (१) वेदों के मानने वाले ही वैष्णव हैं, (घ) वेदों ही के 'मानने वाले ब्राह्मण हैं, (३) शैव, (४) परमहंसादिक वेदान्ती, (५) मनुजी, (६) शंकराचार्य, (6) वाम मार्गी, () दयानन्द सरस्वती आदिक. अब वात समझने की है, (१) वैष्णव तो वेदानुकूल श्राई आदि गंगा पहोये आदिक का स्नान श्री राधा कृष्णाजी की मूर्ति