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१६ए । कोई मतान्तरों के ग्रंथ आदि देखेनी होंगे तो गुरुगम्यता के विना, और मतपद के नशे से बुद्धि में नहीं आये. और इस ही पृष्ठ की सोलहवीं पंक्ति में दयानन्द उपहास रूप लेख लिखता है कि अग्तालीस कोस की जूं जैनियों के शरीर में ही पमती होगी हमारें जाग्य में कहां? सो हे नाई! जैनियों के तो अठतालीस कोस की जूं स्वप्नान्तर में नी प्राप्त नहीं हुई और नाही जैनियों के तीर्थकरों ने कन्नी देखी, और ना जैन शास्त्रों में कहीं लिखी है. हां, अलबत्ता दयानन्दजी का ईश्वर तो कर्त्तमकर्ता था; यदि वह अवतालीस कोस की जू बना कर दयानन्द को और उसके अनुयायियों को वखश देता तो इसमें सन्देह नहीं था. वाहवा! दयानन्दजी ! तुम सरीखा निधि झुठे कलंकित वाक्य बोलने वाला और कौन होगा ? परन्तु बमे शोक की बात है कि ऐसे