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श्रीमद् - जयसेनाचार्यविरचित श्री प्रतिष्ठापाठ सटीक
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श्रीवीतरागाय नमः।
श्रीमद्-आचार्यप्रवर वसुविंदु-अपरनाम
जयसेनविरचित प्रतिष्ठापाठ। भाषाटीका सहित
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जिसको शोलापुरनिवासी श्रेष्ठिवर्य दोशी हीराचंद नेमचंदने
अपने ज्ञानावरणी कर्मक्षयार्थ
प्रकाशित किया।
भाद्रपद श्रीवीरनिर्वाण, सं० २४५२. wwwwwwwwwww
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प्रकाशक
शेठ हीराचंद नेमचंद दोशी मंगलवार पेठ, शोलापुर
मुद्रकश्रीलाल जैन काव्यतीर्थ,
जैन सिद्धांत प्रकाशक पवित्र प्रेस
६ विश्वकोष तेन बाघबाजार, कलकत्ता ।
www.jalnelibrary.org.
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प्रस्तावना।
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यह प्रतिष्ठापाठ भगवत् श्रीकुदकुदखामोके पट्टशिष्प श्रीमत् जयसेनाचार्यका बनाया हुवा है, भगवत्कंदकंदखामोने श्रीमत् जयसेनावार्यको आज्ञा की कि-प्रतिष्ठापाठ बनायो। उसपरसे श्रीमत् जयसेनाचार्य ने यह प्रतिष्ठापाठ दो दिनों बनाया जिससे भगवत्कुदकुंद स्वामीने उनका नाम वसुविंद रखा, वसु माने आठकर्म, बिंदु माने नाश करनेवाला ऐसा वसुबिंदु नामका अर्थ है यह प्रतिष्ठापाठ बहुत प्राचीन है, इसमें शासन देवताका पूजन नहीं हैं, जिससे सर्व दर्शनीक श्रावकोंडूं इस प्रतिष्ठापाठसेहो मन्दिरपतिष्ठा, वेदोपतिष्ठा. मंडपातिष्ठा करानी उचित होगी सबब कि दर्शनीक श्रावक शासनदेवताका पूजन कभी भी करता नहिं ऐसा पंडित आशापरजीने अपने सागारधामृत ग्रंथमें लिखा है
आपदाकुलितोपि दर्शनिकः तनित्यर्थम् । शासनदेवतादीन कदाचिदपि न भजते पाक्षिकस्तु भजत्यपि ॥ पंडित आशाधरजोने जो प्रतिष्ठासारोदार लिखा है सो पाक्षिक वाते है जिससे उसमें शासन देवताका पूजन लिखा गया है। शासनदेवता कुदेव हैं। ऐसा पंडित पाशावरजी अपने अनगारवर्मामृत ग्रंथको टोकामें लिखते हैं सो कुदेवताका पूजन दर्शनोक श्रावक कोसे करेगा ? नहिं करेगा। इस प्रतिष्ठापाठके आधारसे प्रतिष्ठा हुई हैं सो नीचे लिखे मुजब१खुरजामें पंडित शेठ मेवारामजीने कराई। २ इन्दोरमें संवत १९७० में ब्रह्मचारी शीलचंदजी जयपुरवाले और पंडित हजारीमलजी बडनगरवालेने कराई। ३ भिंड जिल्हा ग्वालियरमें पंडित शीलचंदजी ब्रह्मचारीजीने तथा और किसी पंडितने कराई। ४ इन्दोर स्टेटके खातेगांवमें पंडित हजारीलालजीने संवत् १९७६ में कराई।
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५ दो प्रतिष्ठा संवत् १६७८ में ललितपुर में पंडित सुंदरलालजी वसवावालोंने और पंडित नन्हेलालजी और पंडित मोतीलालजी बुन्देलखंडवालोंने कराई । संवत् १६७८ में दा प्रतिष्ठा हुई ।
६ एक प्रतिष्ठा सुजानगढ़ में पंडित धन्नालालजी केकड़ीवालोंने कराई |
७ एक प्रतिष्ठा दिल्ली में पंडित सुन्दरलालजी और नन्हेलालजोने कराई।
८ संवत् १६८० में वेसवा जिल्हा हाथरसमें पंडित सुन्दरलालजोने कराई |
संवत् १९८१ में ब्यावर नयानगर जिल्हा अजमेर में पंडित सुन्दरलालजी और पंडित पन्नालाल गोधाजीने कराई |
१० इस साल नवा नगर मारवाड़में फालगुन सुदी ५ को पंडित पन्नालालजी केकड़ी वालोंने कराई |
और भी कई जगे हुई है सो यह प्रतिष्ठापाठ बहुत प्रामाणिक ग्रंथ है इसको कोई काई शासन देवताभक्त पंडितलोक नांव रखते हैं सो उनकी गलती है, शुद्धाम्नायवाले दर्शनिक श्रावकको तो इसही प्रतिष्ठापाठके आधारसे प्रतिष्ठा करानी चाहिये ।
- हिराचंद नेमचंद सोलापुर ।
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श्रीवीतरागाय नमः।
श्रीमदाचार्यवसुविंदु-अपरनाम जयसेनस्वामिविरचित
प्रतिष्ठापाठः। हिंदीवचनिकया संकलितः।
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भाषाकारका मंगलाचरण ।
दोहा। ऋषभ आदि चउवीस मम, मंगल करहु जिनेश । जास चरण कज रज लगत, जाय विघ्न अरु क्लेश ॥१॥ पूर्वाचार्यपरंपरा जयवंतो जगमाहिं । वनौं ताकी शरण गहि भवभय नाहिं रहाहि ॥२॥ स्याहादादि पतीनिको वाक्-भानूदय होय । मिथ्यामत तम लोकमें, नहि प्रसरे जगमोह ॥३॥ अब श्री ग्रन्थकर्ता वसुविंदु नामाचार्य द्वितीय नाम जयसेन स्वामी इष्ट विशिष्ट आदीश्वर जिनकू नमस्कार करै हैं।
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प्रतिष्ठा
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शार्दूलविक्रीडितं छंदः। स्फूर्जत्केवलबोधसिंधुविसरे यद् विंदुवद् भासते, यस्य श्रीपरमेष्ठिनो जिनपते भेयसूनोस्त्रयं । लोकानां सकलासुभृत्करुणया धर्मो द्विधा द्योतितस्तस्मै श्रीमदनंतचिन्मयकलासंविभ्रते स्तानमः॥१॥
अर्थ-जा श्रीयुक्त परमेष्ठी नाभिपुत्र जिनेन्द्रका दैदीप्यमान केवलज्ञानरूप समुद्रका फैलावमें तीनलोक विंदु समान भास हैं। ऐसा समस्त पाणीनिकी करुणाकरि द्विप्रकार मुनि श्रावकरूप धर्मको उद्योत कियो सो श्रीमान् अनन्त ज्ञान दर्शन सुखकलाने धारण कर्ताक अर्थि नमस्कार होहु ॥१॥ तथा
सर्वानर्थ्यगुणार्णवान् जिनवरान् स्वर्मोक्षसिद्धिप्रदान् भव्यानां हितकाम्यया प्रतिहतैकांतप्रवादामयान्। धर्म तीर्थममुत्र दानयजनत्यागप्रतिष्ठापनाशुद्धयुबोधविधानकैर्बहुविधैर्यैरुक्तमानौमि तान् ॥२॥
अर्थ-अजित आदि समस्त प्रार्थनीक गुणके समुद्र पर स्वर्ग मोक्षकी सिद्धिके देनेवाले, अर भव्य जीवनिक हितकी कामनाकरि दूर कियो है एकांत हठरूप योग जिनने ऐसे जिनेन्द्रकूनमस्कार करू हूं अर तिन जिनेश्वर इसलोकमें दान यजन साग भाव पर प्रतिष्ठाकीशुद्धि | प्रगट करनेवाले बहुप्रकार विधान करि धर्मतीथ जो है सो प्रगट कियौ ॥२॥ श्रीमद्वीरजिनेंद्रभास्करकराः स्याद्वादमुद्रांकिता जीयासुर्नयभेदभावनपरा अज्ञानहृद्ध्वांतहाः । चार्वाकादिमतानि यत्र नितरां खद्योतपद्योपमान्यासन्ते खलु नित्यमात्मधिषणामार्गास्तु संचारिताम् ॥ ३ ॥ ___ अर-तथा श्रीमान स्याद्वाद मद्राकरि अंकित श्री वीरजिनेन्द्ररूप मूर्यके किरण नयभेदके भावनमें तत्पर अज्ञानरूपी अन्धकार दूर करने वाले जे हैं ते जयवंते वर्ती जहां बौद्ध चार्वाकादिकके मिथ्या मतरूप खद्योत ज्यों आगिया नाम पशु (जंतु) विशेषका मार्ग की उपमान प्राप्त होय हैं और निश्चय करि नित्य ही आत्मीक ज्ञानके मार्ग सम्यक् प्रकाश भावने प्राप्त होय हैं ॥३॥
द्रव्यभावमलनाशनतो ये, स्वात्मबुद्धिमवलंब्य निस्तुषाम् ।
केवलावगममाप्य चिन्मयं ज्योतिरभ्ययुरीड्यते मया ॥ ४॥ अर्थ-जे द्रव्य कर्म जे ज्ञानावरणादि प्रकृति अर भावमल जे ज्ञानावरणादि प्रकृति योग्य रागद्वेष कारण इन दोन्यूका अत्यंत नाशतें
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निःकलंक निरावण निज ज्ञानने अवलंबन करि केवलज्ञानकू प्राप्त होय सव करका अभावत चिन्मात्र ज्योतिने प्राप्त हुए हैं ते सिद्ध परमेष्ठी मैं करि पूजिये हैं अर्थात मैं उनकी स्तुति करूं हूँ॥४॥
" रथोद्धता छंदः। आजवंजवमुदीर्णपातकज्वालमालविकरालमुत्पथं । देशनातिशयसौधवर्षणाच्छांतिमीयुरनघा दिगंबराः ॥५॥
स्रग्धरावृत्तम् । शिक्षादीक्षाविधानात्सकलमुनिगणे नेतृतां संविधाय कृत्वोदासीनतां ये निजपरमहितानंदने संयुजानाः । प्राचार्या आर्यभव्यैः कृतचरणसपर्याः स्तुता विघ्नशांत्यै
भूयासुर्मारदर्पप्रकदननिपुणाः शास्त्रसम्पत्तिमूलाः ॥ ६ ॥ अर्थ-उत्कट पापकी ज्वाला समूहकरि विकराल उन्मार्गरूप आजव जव जो आवागमनरूप संसार जो है ताहि उपदेशका अतिश्यरूप । अमृतसंबंधी वर्षाकरि शांतिभावनै प्राप्त किये ऐसे निःपाप दिगम्बर जे हैं ते शिक्षा दीक्षाका विधानतें समस्त मुनि संघमें निर्यापकताने प्राप्त होय बैराग्यरूप साम्यभाव करि आत्महितका प्रानन्दनै जो. ऐसे आचार्य परमेष्ठी जे हैं ते शोभित भव्यनिकरि किया है पूजन स्तुति जिनका ऐसे होत संते मेरे विघ्नकी शांतिके अर्थ होऊ अर कामदेवके विकारका निर्मूलनमें निपुण और शास्त्रनिकी निजसंपत्तिके मूलभूत ॥५-६॥ ऐसें ये दोन्यू श्लोक युग्म हैं।
बसंततिलका छदः। ये पाठका निखिलमागममर्हसाधून संपाठयंति बहुवत्सलताप्रवृत्त्यै।
ते द्वादशांगजलधिप्रकरार्थरत्नान्यापादयतु हृदि मे मतिभूषणार्थ ॥७॥ अर्थ-जे उपाध्याय परमेष्ठी समस्त आगम कहिये जिनसूत्र जो है ताहि वहु वात्सल्यताकी प्रवृत्तिके अर्थि साधु जे हैं तिनने पटावे हैं ते मेरे हृदयवि ज्ञानकी संपत्तिके निमित्त द्वादशांग समुद्रका प्रकर्ष अर्थरूप रत्न जे हैं तिननें प्राप्त करो अर्थात् देवौ ॥७॥
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प्रतिष्ठा
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ऋद्धिप्रवृद्धिविहितात्मगुणप्रकर्षा मुक्तावलीप्रभृतिघोरतपोऽभियुक्ताः ।
ते साधवः शमदयादमधैर्यशीलाः स्तुत्या भवंतु दुरितक्षपणाक्षमायै ॥ ८ ॥ अर्थ-अर साधु परमेष्ठी हैं ते नानाप्रकार ऋद्धिनिकी वृद्धिकरि कीये हैं प्रात्मगुणका प्रकर्ष जिनने तथा मुक्तावलि तथा रत्नावलि आदि * घोर तप करि युक्त ऐसे समभाव दया इंद्रियदमन और धैर्य स्वभाववान मेरा पापका विनाशरूप क्षमाके अर्थि स्तुति करने योग्य होऊ ॥८॥
चैत्यालयानां मनसा विचिंत्य माहात्म्यमारात् तदनूनभक्त्या ।
स्वांतप्रकाशं प्रणिपत्य मूर्धा पीठस्थली संप्रति पूजयामि ॥ ९॥ अर्थ-समस्त अकृत्रिम कृत्रिम चैत्यालयनिकौ माहात्म्य शीघ्र बहु भक्ति करि मनमें आदरपूर्वक चितवनकर अपना मनमें प्रकाशरूप मस्तक करि नमनकरि तिन चैत्यालयपतिकी पीठभूमि जो ताहि प्रत्यक्ष पूजूहूँ॥६॥
शिखरिणी छंदः। जिनानां विंबानि प्रकटितपराम्नायमहितैः कृतान्यक्लप्तानि त्रिभुवनजनानंदकरणात् ।
प्रमह्यानि प्रोचेहरिमनुजचकेश्वरगणनमस्यामो भक्त्या समवसरणस्थेश्वरधिया ॥१०॥ अर्थ-उत्कृष्ट प्रगट किये हैं उत्तम आम्नाय जिननें ऐसे महाव्रतीनिकरि प्रशंसा करनेयोग्य ऐसे श्रावकवरनिकरि किये अथवा अकृत्रिम जिनेन्द्रदेवनिका विव कहिये प्रतिमा तीन जगतका पाणीनके आनन्दका करवात प्राचीन इन्द्र नरेंद्र चक्रवर्ति आदि उत्तम गणकरि पूजित जे हैं तिनमें समवशरणमें विराजमान परमेष्ठी ही हैं ऐसी बुद्धि करि भक्तिभावधरि नमस्कार करूंह ॥१०॥
द्रुतविलंवित छंदः । विशदबुद्धिरियं गुरुभक्तितो भवतु मे श्रुतवारिधिपारदा ।
भगवती परमेश्वरगीर्यया वरविधानविधौ कुशला भवेत् ॥ ११॥ अर्थ-श्री गुरु कुदकुदादिकी भक्ति करि या शास्त्रसमुद्रका पार देनेवारी भगवती दिव्यबाणी निर्मल वुद्धिरूप करौ या करि परमेश्वरः अहंतकी वाणी शुभ विधानका दानमें निपुण होय ॥११॥
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पाठ
उपजाति छंदः। प्रतिष्ठा
काले गृहस्था विकला गृहादिकार्येष्वनुष्ठानमुपाचरंति।
अल्पावबोधद्रविणप्रभावा न धर्मकार्ये बहुधा यतंते ॥ १२ ॥ अर्थ-इस पंचमकालमें गृहस्थ हैं ते अपना गृह पुत्र कलत्र आदि कार्य विर्षे विकल हुवे संते आत्मिक कार्यका अनुष्ठान कहिये निज कृत्य18 पणाने आचरन करै हैं अर अल्पज्ञान और अल्प गव्यका प्रभाव युक्त भये इस ही हेतु धर्मसंबंधी कार्यमें बहुधा यत्न नहीं कर हैं॥१२॥
प्राप्यापि केचिद्विभवं तदीयसंरक्षणोपार्जनदत्तचित्ताः।
स्वायुःसमाप्तिं किल तैलभावाभावाद्यथा दीपगणा लभते ॥ १३ ॥ || अर्थ-अर कितनेक पंचमकालका गृहस्थ धन वैभवने प्राप्त हो करि ह उसधनका संरक्षण और उपार्जनमें दिया है चित्त जिनने ऐसे हुए संते निश्चय अपनी आयुकी समाप्तिहीने जैसे दीपसमूह तेलका अभावतें प्राप्त होय है तैसें प्राप्त होय हैं ॥१३॥
ये नश्वरं वैभवमाकलय्य क्षेत्रेषु सप्तस्वतिवापयंति।
तैलब्धमीशत्वफलं मनुष्यभवस्य सारं सुगृहीतुकामैः ॥ १४ ॥ अर्थ–अर जिनने इस वैभव विनाशीक जान्या ते इस वैभवकू सप्त क्षेत्रनिमें कि जिन मन्दिर, जिनविंच, जिनप्रतिपा प्रतिष्ठा, यात्रा दान, पूजा. जीर्णोद्धारमें अतिवापन करै हैं कि बोबे हैं तिनने मनुष्य भवका सार ग्रहण करि अपना ईशव फलने पायो॥१४॥
येनार्थसम्पत्तिमता जिनेन्द्रबिंब प्रतिष्ठापितमात्मकृत्यः ।
तेनाधिकल्पं यशसापि पुण्यप्रभूतिना व्याप्तमशेषविश्वं ॥ १५॥ अर्थ-जिस पाणी द्रव्य संपत्तिवानने आत्मकल्याणनिमित्त जिनेन्द्रको एक हु बिंव प्रतिष्ठापन किया ता प्राणीने कल्पपर्यंत यश करि पुण्य संपदाकरि समस्त जगत व्याप्त किया ॥१५॥
वदरीफलमालविंबतो हृदये पूर्वमनाप्तमाप्यते।
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प्रतिष्ठा
भवकोटिसमुत्थमेनसां निचयं स्फेटदमेयदर्शनम् ॥ १६ ॥
अथ - ये पुरुष बदरीफलमात्र जिनवित्रकाहू प्रतिष्ठापन करें हैं ते पूर्व हृदय में नहीं प्राप्त भया असा अर कोटि भवसे उत्थित भया सा पापा समूहने स्फेटन करनेवाला अनुपम सम्यग्दर्शनको प्राप्त हूजिये हैं । भावाथ - बदरीफल मात्र जिनविंनकी शांत मुद्राका ध्यान करि सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होय है ॥ १६ ॥
तीर्थादौ भरतेश्वरेण भगवत्सन्देशनालब्धितो गार्हस्थ्ये रसखंडमंडलघनैरष्टापदे निर्मितः ।
चैत्यानां निवस्तु तल जिनराडूविंवानि संस्थापितान्येवं भूतभविष्यदैहिककलां पूज्येश्वराणां पृथक् ॥ १७ ॥ अर्थ-प्रथम चक्रवर्ती जो है ताने तीर्थकी आदि केवलज्ञानरूप अतिशय तीर्थमें गृहस्थाश्रम दशामें श्रीभगवान ऋषमेश्वरका उपदेशका खंड मंडलका अतुल धनकरि कैलाश गिरि मध्ये चैयनिका समूह निर्माण किया अर वहां जिनेन्द्र प्रतिबिंव स्थापन किया असे भूत वर्तमान भविष्यत तीर्थ करोंका न्यारा न्यारा विंव अथवा चैयालय स्थापित कीया ॥ १७ ॥
लाभ
तीर्थेऽजितेशः सगरादिभिस्तथा कृता प्रतिष्ठा जिनसद्मनां शुभा । अनादिसन्तानभवा स्वरूपसत्प्रतिक्रियालम्भनभावतः स्मृता ॥ १८ ॥
अर्थ-अर दूसरा श्री अजिततीर्थंकरका अवसर में सगरआदि महाभव्योत्तमने जिनमंदिरनिको शुभ प्रतिष्ठा को असें अनादिकालका संतान उत्पन्न हुई आत्मीक स्वरूपको समीचीन प्राप्ति करानेवारी भावनिकरि स्मरण कियी जानो ॥ १८ ॥
साक्षाश्चिदानंदघनाभिरामे या देवबुद्धिः किल तत्स्वरूपं ।
दृष्ट्वा तदस्मरणं न किं स्यादेवं तयोर्वै चिदचित्प्रभेदः ॥ १६ ॥
अर्थ - इहां साक्षात् तीर्थंकरका दर्शन में अर धातु पाषाणमयताका विच समानता दिखाये हैं। निश्चयकरि साक्षात् चिदानंद घन तीर्थंकरका शरीरमें देवपनाकी बुद्धि है सो ताका स्वरूप जो प्रतिबिंब देखिकरि ताको स्मरण नाहों होय कहा ? अर्थात् होय हो होय | याप्रकार तिन दोऊमें चेतन अचेतनको भेद है। अर्थात् अन्य भेद नाहीं ॥ १६ ॥
धन्याः पूर्वजनुः प्रवाहमहितोत्साहा धराभूषणा मानौनत्यदयादमादिगुणिनः पुण्यानुबंधोदयाः ।
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प्रतिष्ठा
AchArA0
भोक्तारः कमलाचलार्थवनिताभोगस्य मत्पुन्नताः शक्तास्ते हि जिनेन्द्रविंबभवनानुष्ठापने नेतरे ॥२०॥
अर्थ-अर जे धन्य पुरुष पूर्व जन्मका प्रवाह करि उमत भया उत्साह जिनके अर पृथिवीका भूषणरूप पर पान उन्नतिता दया दम गुणका धारक अर पुण्यानुबन्धका उदय धरनेवारे अर लपीरूप चंचल वारविलासनीको भोगनेवारे पर ऊंची बुद्धिका पात्र हैं ते श्री जिनेन्द्रका विव वा मंदिरका स्थितिकरणमें समर्थ होय हैं। अन्य वराक रंक नहीं होय है ॥२०॥
युतिरयुतिरिति स्याद्विप्रकारोपदेशाद् विकलसकलधर्माध्यासतो मोक्षमार्गे।
तदिह मुनिवराणां वीतरागत्वभावस्तदितरभविकानां दत्तिरिज्या प्रधाना ॥ २१ ॥ अर्थ-श्री जिनेन्द्रदेवने मोक्षमार्ग निमित्त विकलधर्म श्रावकवर्म अह सकतवर्म मुनिधर्म इनका प्रध्यास कहिये प्राश्रयते दोय प्रकार * उपदेश हेतु युति कहिये योग अर्थात् सरागता पर अयुति कहिये अयोग अर्थात् बोतरागता असें होय है। ता कारण इहां मुनिारनके प्रोदासीन्य भाव प्रधान है, और तिनसे इतर श्रावकनके दान अरु पूजारूप धर्म प्रधान है॥२१॥
अतो महाभाग्यवतां धनसार्थक्यहेतवे । नान्योपायो गृहस्थानां चैत्यचैत्यालयाद्विना ॥ २२ ॥
इति जिनविंधप्रतिष्ठापमर्थनम् । अर्थ-या कारणनै महाभाग्यवान गृहस्थमैं धनलाभका सार्थकताहेतु चैत्य जे जिनविम्ब अरु चैत्यालयका निर्यापण विना अन्य उपाय नाहीं है ॥२२॥
पैसे जिनविवप्रतिष्ठाका समर्थन किया।
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अनंतकालप्रसरादिदानींतनावसर्पिण्यवभासमानः । श्राद्यो युगादौ पुरुरीशितायं दयानिधानो वृषमादिदेश ॥ २३ ॥
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EKA
प्रतिष्ठा
SIRECRUIRECORREIGLCHURCE
अय-अनंतकालका विस्तारत इदानींतन कहिये इ अवसर वर्तमान जो अवसर्पिणीकाल तामें आभासमान ऐसा आदिजिन युगकी आदिमें सर्वेश्वर दयालु है सो धर्योपदेशती हवौ ॥२३॥
तं विश्वदृश्वांतिमतीर्थनाथश्चराचरज्ञानविलोकितार्थः ।
श्रीगोतमाख्यं गणिनं सभायामुद्दिष्टवान् सप्तसमृद्धिपण्यं ॥ २४ ॥ अर्थ-विश्वकूदखनेवाला चराचर ज्ञानकर विलोकित किया है पदार्थ जाने ऐसा अंतिम तीर्थकर श्रीवर्धपाननामा उस धर्मकू सप्त ऋदिसमद गोतम नामक गणधरने उपदेश करता भया ॥ २४ ॥
तेनातिकारुण्यरसप्रयोगात्तं द्वादशांगेन परा मुनींद्राः।
पदार्थसार्थ विकसय्य तत्त्वप्रकाशमात्र सहसोपदिष्टाः ॥ २५ ॥ अर्थ-ता समय श्रीगौतम स्वामीने अत्यंत करुणारसके योगत ता उपदेश द्वादशांगरूप रचनाकरि अपर मुनींद्र जे हैं ते सहसा ही पदार्थ समूहने प्रकाशकरि तत्त्वमात्र उपदिष्ट किये ॥२५॥ .
ततः प्रभृत्यद्यगुरुप्रवाहपरम्पराप्राप्तममुं यथार्थं ।
श्रीकुन्दकुन्दो यशसा चरित्रवृत्तन कुन्दो विभरांबभूव ॥ २६ ॥ अर्थ-ताके आगे अवार गुरुपरंपरा करि प्राप्त भया अर्थकू यथार्थ यश अरु चारित्र धारणकरि उज्वल कुंदकुंद नामक श्रीगुरु धारण करता भया ॥२६॥
चतुर्थकालस्य सपक्षनागप्रमाणमासे त्रिकवर्षशेषे ।
श्रीवीरनाथः शिवमाप तस्मादनु वयं केवलिनां बभाषे ॥ २७ ॥ अर्थ-इस अवसर्पिणीका चौथाकालका साढा आठ महिना अरु तीनवर्ष बाकी रह तदि श्रीवीर जिन मुक्ति प्राप्त भये ता पीके तीन केवली प्रकाशमान रहे ॥२७॥
श्रीगोतमश्चापि सुधर्मनामा जम्बूमुनीशस्तदिमे द्विषष्टिः ।
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प्रतिष्ठा
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सम्वत्सरांते परतो निवव्रुरतः परं केवलिनां समाप्तिः ॥ २८ ॥
अर्थ- श्रीगौतम स्वामी १ सुधर्मस्वामी २ जंबूस्वामी ३ ऐसें ये तीन क्रमतें वासठिवर्ष काल पर्यंतमें निर्वाण गये । या पीछे केवलीपदकी समाप्ति होती भयी ॥ २८ ॥
ततः परं विष्णु सुनंदमिवापरा जगोवर्धनभद्रवाहाः ।
इमे च पञ्च श्रुतकेवलांका बभूवुरिष्टाः शतवर्षकाले ॥ २६ ॥
अथ-ता परै विष्णुनामा १, नंदिमित्र २, अपराजित ३, गोवर्धन ४, भद्रबाहु ५, ऐसें पांच ये श्रुतकेंवली सौ वर्ष पर्यंत अनुक्रमतें इष्ट होते भये ॥ २६ ॥
विशाखप्रोष्टिल नक्षत्र जय सेनाहिसेनकाः । सिद्धार्थो धृतिषेणश्च विजयो बुद्धिमांस्तथा ॥ ३० ॥ गङ्गासेनो बुद्धिसेन इमे पूर्वावधारिणः । शतं व्यशीतिसहितं कालमीयुः सुदेशने ॥ ३१ ॥
अर्थ – तातैं आगे विशाखाचार्य १ प्रोष्ठिल २ क्षत्रिय ३ जयसेन ४ नागसेन ५ सिद्धार्थ ६ धृतिषेण ७ विजयसेन ८ बुद्धिमान र गङ्गसेन १० और बुद्धिसेन ११ ऐसे ये ग्यारामुनि पूर्व के वेत्ता एकसौ तियासी वर्ष पर्यंत उपदेशमें व्यतीत करते भये ।। ३०-३१ ॥ नक्षत्रो जयपालश्च पांडुधुवसुकंशकाः ।
सविंशं द्विशतं वर्ष रुद्रसंख्यावधारिणः ॥ ३२ ॥
अर्थ - तथा नक्षत्र, जयपाल, पांडु, ध्रुव, कंसाचार्य ये पांच मुनि दोयसे बीसवर्ष पर्यंत ग्यारा अंगधारी होते भये ॥ ३२ ॥ सुभद्रश्च यशोभद्रो भद्रबाहुर्महायशाः । लोहाचार्य इमे पञ्च प्रथमांगप्रवादिनः ॥ ३३ ॥ शतमष्टादशयुतं व्यतीयुस्तु दिगम्बराः । षट्शतं सत्र्यशीत्यगं समाः पूर्वीगधारिणः ॥ ३४ ॥ अर्थ – सुभद्र, यशोभद्र, भद्रबाहु, महायश और लोहाचार्य ये पांच मुनि पहिला अंगधारी एकसौ अष्टादशवर्ष पर्यंत दिगम्बर मुनि काल व्यतीत करते भये ऐसें छहसौ तियासीवर्ष पर्यंत अगपूर्वका धारी हुआ ।। ३३-३४ ।।
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देशकालवयोवीर्यज्ञानहानेः श्रुताम्बुधेः । लवमानं विनिष्कृष्य गूंथेषु विनिबद्धवान् ॥ ३५॥ कुन्दकुन्दो वीतरागो मुनिर्विध्वस्तकल्मषः । मूलशाखावलम्बेन मूलसंघं बभार सः॥ ३६॥ अर्थ-देश अवस्था वीर्य ज्ञान इनकी हानितें श्रुत समुद्रकौं लवमात्र निष्कर्ष करि ग्रन्थ रचनामें निबंध करते हुये सो वीतराग पापपंकरहित कुन्दकुन्दाचार्य मूल शाखाका अवलम्बन करि मूल संघने धारण करता भयो ।। ३५-३६॥ एवं परम्परायाताव्यावच्छिन्ना गुरुक्रमात् । जिनेन्द्रीयप्रतिष्ठायाः कृतिः संवर्ण्यते लघु ॥ ३७॥
इति ग्रंथपीठिकावर्णनं । अर्थ-ऐसें परंपरासे आयो अव्यवच्छिन गुरु परिपाटीत श्री जिनेन्द्र विवकी प्रतिष्ठाकी कृति लघुरूप वणन करिये है॥३७॥
ऐसे ग्रन्थकी समूळता दिखाई पीठिका वर्णन कोई ।
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अब इस प्रतिष्ठाकी सन्दभ शुद्धि अर्थात् अनुक्रम शुद्धि दिखाइये है सो ऐसे हैउपोद्घातादिसम्बन्धः प्रतिष्ठालक्षणं तथा । प्रतिष्ठेयपरिप्राप्तिः प्रतिष्ठापकलक्षणं ॥ ३८ ॥ प्रतिष्ठाफलमाचार्यप्रतिष्ठेंद्रादिकल्पनं । सामिग्रीद्रव्यक्षेत्रादियोग्यताप्रतिपादनम् ॥ ३६ ॥ सुभिक्षराजसम्पत्तिस्ततो मंदिरनिर्मितिः । तन्मुहूर्तं तु विवादिनिर्माण तन्मुहूर्त्तकं ॥ ४०॥ प्रतिष्ठाया मुहूर्त्तानि तन्महोद्योग एव च । शकुनादिपरिक्षेपः क्षेत्रशुद्धिरुदाहृता ॥ ४१ ॥ स्थंडिलेक्षणशुद्धिश्च गुर्वाज्ञालंभनं तथा । ततो नांदीविधानं च ततो वेदीपरिक्रिया ॥४२॥ ध्वजसंस्था मंडपस्य तच्छेषविधिकल्पनं । चूर्णप्रक्लुप्तिः केतूनां स्थापनं विंबसंस्थितिः ॥ ४३ ॥ होमकुंडानि भूपालगृहं मेरुविकल्पनं । शकलीकरण वर्णमातृकान्यसनगहौ॥४४॥ अनादिमंत्रोपास्तिश्च यंत्रमंत्राधिकारिता। दीक्षाचिन्हं ततो यागमंडलोद्धरणार्चने ॥४५॥
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प्रतिष्ठा
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शवीमातृव्यवस्थानं तदुपासनकल्पनं । रत्नवृष्टिः पञ्चमहः स्तुतिः स्वप्नावलोकनं ॥ ४६॥ श्याापास्तिर्मेरुयानाभिषवौ च जयस्तुतिः। क्रियाकरसमा शुद्धिनृत्यं राज्यपरिग्रहः ॥४७॥ लौकांतिकस्तुतिस्तल भावना वननिर्गमः । संस्कारमालातपसी अधिवासनसंस्कृतिः॥ ४८ ॥ वस्त्ययनानंतरं च श्रीमुखोद्घाटसंविधिः । नयनोन्मीलनं सूरिमंत्रार्पणमपि स्मृतं ॥ १६ ॥ समवस्मृत्यर्चनं च विहारो रथयापनं । गंथमंगलमित्येतदधिकारैकषष्टिकं ॥ ५॥ संक्षेपप्रतिपत्तॄणां कूम एव मयोदितः। क्रियाविशालाद् विज्ञयो निस्तरोऽस्य क्रियाविधैः ॥ ५१ ॥
ति कर्तव्यसूची। अर्थ-प्रथम उपोद्घात कहिये पीठका १ प्रतिष्ठा लक्षण २ प्रतिष्ठा होने योग्य विकी प्राप्ति ३ प्रतिष्ठा करानेवालाका लक्षण ४ प्रतिष्ठाका | फल ५आचार्यका स्वरूप ६ प्रतिष्ठाका इंद्रकी कल्पना ७ सामिग्रीकी शुद्धि द्रव्यक्षेत्रादिकी योग्यताका प्रतिपादन सुभिक्ष १० राज्यकी सहा
यता ११ पीछे मन्दिर निर्माण ताकी मुहूर्त १२ बिंब यंत्र आदिको निर्माण ताकी मुहूर्त १३ प्रतिष्ठाका मुहूर्त ताका उद्योग १४ शकुन आदिका | ग्रहण १५ क्षेत्रकी शुद्धि १६ स्थण्डिल जो चबूतरा ताका निर्माण अरु रचना शुद्धि १७ गुरुकी आज्ञाका ग्रहण १८ पीछै नांदीविधान १६ पीछे | वेदीकी रचना २०ध्वजास्थापन २१ मंडपस्थापन २२ शेषविधान २३ चूर्ण कल्पना २४ छोटी ध्वजाका स्थापन २५ बिवका स्थापन २६ होमकुण्ड स्थापन २७ राजाका भवनस्थापन २८ मेरुस्थापन २६ सकलीकरण ३० वर्णमालाका जप तथा प्रतिमाके अंगमें स्थापन ३१ अनादिमंत्रका अर्चन उपासना ३२ कार्य योग्य यंत्र मंत्रनका अधिकार ३३ दीक्षाके चिन्ह ३४ पीछ यागमंडलका उद्धार तथा अर्चनउपासना ३५ इंद्रानी तथा माताको कल्पना ३६ इनको योग्य उपासना विधि ३७ रत्नदृष्टि स्थापन ३८ पंचकल्याण घोषणा ३६माताजीको स्वपनका देखना ४० श्रोग्रादि दिककुमारिका सेवामें हाजिर होना ४१ पेरुपर गमन तथा अभिषेक विधि ४२ जयस्तुति ४३ क्रियाशुद्धि ४४ खानि आकर शुद्धि ४५ तांडवनत्य ४६ राज्यकी प्राप्ति ४७ वैराग्यके प्रारंभमें लौकांतिक देवकृत स्तुति ४८ बाराभावना ४६ वन प्रति गमन ५० संस्कार मालारोपण ५१ तप ५२ अधिवासना ५३ स्वस्त्ययन विधान ५४ श्रीमुखोद्घाटनविधान ५५ नयनोन्मीलनविधान ५६ मूरिमंत्रविधान ५७ समवसरण ५८ विहार ५६ रथयात्रा ६० अर ग्रन्थमंगल ६१ ऐसे इकसठि अधिकार हैं। जे संक्षेप विधान करनेवाले हैं तिनके अर्थ यह क्रममें आचार्यने कहा है और विशेष क्रिया विधान इस प्रतिष्ठाका क्रियाविशाल पूर्वके अनुसार क्रियाविशाल नामक ग्रन्थतें जानिये योग्य है ॥३८५१॥
असे या ग्रन्थमें कर्तव्यांकी सूचानका कही।
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प्रतिष्ठा
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अब प्रतिष्ठामें इतने मनुष्य अवश्य अधिकारी चाहिये सो कहे हैप्राचार्यो मघवा कर्ता तत्पत्नी पूजकस्तथा।
पञ्चैते यज्ञनेतारो मुख्या व्रतसमन्विताः ॥ ५२॥ आचार्य मूरि मंत्रका दातार १ इंद्र क्रियाका कर्ता २ यज्ञका कर्ता यजमान ३ ताकी स्त्री विवाहिता.४ पूजनका कर्ता ५ ये पांच मनुष्य यज्ञ का कर्ता व्रतधारी जानना ॥५२॥
सामग्रीसम्पत्तिकरा मंत्रिणोऽध्यापका बुधाः। श्रीह्यादिकन्यका लौकांतिककल्पा अपि स्मृताः ॥ ५ ॥
इति कर्तृसूचनिका।। सामिग्री संपादन करनेवाला १ मन्त्री सभासद २ अध्यापक पाठवक्ता ३ पंडित विधिका जाननेवाला ४ श्री ही आदि कन्या ५ लोकांतिक देव ६ भी आवश्यक हो हैं॥५३॥
भैस कर्ता-करनेवालेनिकी सूचनिका कही।
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अथ उपोद्घातः। श्राद्यश्चकूधरः समस्तवसुधासारं स्वसात्कृत्य तत्सारं मंचितुमीड्यमादिपुरुषं ब्रह्माणमीशं जिनं। नत्वा पर्यनुयुक्त देव ! भगवन् ! सागारधर्मे श्रुतामियां दत्तिमनाविलां बहुधनप्रा. निबोधस्व मे ॥ ५४॥ __ अब प्रथम उपोद्धात कहिये है कि-प्रथम भरतेश्वर चक्रवर्ती समस्त पृथ्यवीका सार जो चतुर्दश रत्न, नवनिधि अरु दिग्विजयादि अपने हस्तगत करि ताका भी सार पुण्यने संचय करने पूज्य आदिब्रह्मा आदि जिनेन्द्र श्वर तीर्थकरने नमस्कार करि पूछता भया कि हे देव कि हे भगवान् श्रावकधर्ममें श्रवण कियी ऐसी इज्या अर्थात् पूजा निःपापा अरु बहुत धनकरि होवे योग्य ऐसी दत्ति कहिये दानविधि जो है ताकू मेरे अर्थि निबोधन करो कि आज्ञा करो॥५४॥
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वसंततिलका छंदः। स्वामी जगाद परया सुगिरातिशायिन्या भव्यवर्य ! चतुरङ्गभिदा तदिज्या।
चातुर्मुखप्रतिदिनार्चनकल्पशाखीवास्वान्हिकश्रुतिरिति प्रथिता पुराणैः ॥ ५५ ॥ तब श्रीस्वामी ऋषभदेव अतिशयवती दिव्यवाणी करि कहता भया कि हे भव्यप्रधान ! सो इज्या चतुःप्रकार चतु मुख नाम, नित्यार्चन, कल्पवृक्षनाम अरु आष्टाह्निकनाम करि पुराण पुरुषनिने विख्यात कियी है ॥५५॥
सम्राभिरर्थनिधिभिश्च चतुर्दिशासु संस्थीयमानजिनमूर्तिषु या महाया॑ ।
संकल्प्यते शतसुरेन्द्रनिभैजिनार्चा पूर्वोदिता प्रचुरपुण्यविधानदानी ॥ ५६ ॥ जो अर्थका स्वामी चक्रवर्तीनिने चारू दिशामें जिनप्रतिमा स्थापन करि महान् अन्य संयुक्त शत इंद्रनि करि रची प्रचुर पुण्यकी देनेवाली चर्तु मुख नामक जिनेन्द्रकी पूजा कल्पना कियी है॥५६॥
नित्यं स्वयं निजगृहाजलचंदनादि लात्वा जिनेन्द्रभवने किल भावशुद्धया ।
ईर्यापथप्रचलनेन शुभोपयोगादर्चा हि सा प्रतिदिनाचनमुक्तमुच्चैः ॥ ५७ ॥ अरु जो अपना गृहत स्वयं पाप निस जल चंदन आदि पूजनोपस्कार लेय जिनेन्द्र भवनमें भावशुद्धि करि अर ईर्यापथ गमन करि शुभोपयोग” किया अर्चन है सो उच्च प्रकार नित्यार्चन कहिये है ॥७॥
दुःखार्तदुर्विधजनानुनयेन दानं यादृच्छिकं वृषविधायि पुरा ददित्वा।
पश्चात्समर्चनममौल्यमणिप्रतानसोपस्करं भवति कल्पतरुप्रमाख्यं ॥ ५८ ॥ अरु दुःखित दरिद्री जनांकी वांछपूर्ण करि अर्थात् पुण्यको देनेवाला यादृच्छिक (उनको वांछाके अनुसार) दान देकर बहुमूल्य मणि आदिकी सामिग्रीसे जिनेंद्रकी जो पूजन है सो कल्पक्ष नामक है ॥५५॥
इन्द्रवज्रा छन्दः। ऐन्द्रध्वजं शांतिकसिद्धचकूत्रलोक्यकोटीगुणकादिकार्चा ।
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प्रतिष्ठा
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मूर्छा धनेषु प्रतिहत्य भक्त्या कृतेति साष्टान्हिकनामभाज्या ॥ ५६ ॥ इंद्रध्वज महाशांतिक सिद्धचक्र त्रैलोक्यविधान कोटिगुण आदि पूजा है सो धन वैभव में मूर्छा दुरिकरि भक्तिकरि किया है, सो अष्टाद्विका नामक है ॥५६॥
पूजाहणार्चा यजनं च यज्ञ इज्या सपर्या परिसेवनं च ।
महः क्रतुः कल्प उपासनेति प्रभृत्युपाख्या जिनपूजनस्य ॥ ६॥ पूजा अर्हणा अर्चा यजन यज्ञ इज्या सपर्या सेवा मह ऋतु कल्प उपासना इत्यादिक जिनपूजनका पर्याय नाम हैं ॥६॥
दत्तिं चतुर्धापि दयासुपात्रसमान्वयाधारभिदा निरूप्य ।
सागारधर्म व्यवहाररूपं निबोधयामास विधैर्विधानात् ॥ ६१ ॥ दयादत्ति, पात्रदत्ति, समदत्ति, अन्वयदत्ति ऐसे आधार भेदतें दत्तिने च्यार प्रकार निरूपण करि व्याहाररूप सागारधर्मनै विधिका || विधान करनेवारा श्रीआदिनाथ निबोधन करता भया ॥१॥
श्रुत्वा समासाद् भरतेश्वरोऽपि कैलासभूधे माणिरत्नचूर्णैः।
द्वासप्ततिं जैनपमंदिराणां निर्माप्य चक्रे जिनविंबसंस्थां ॥ ६२॥ भरतेश्वर भी ऐसे संक्षेपपात्र सुनि कैलास नामक गिरिक उपरि भागमें मणि रत्ननिका चूर्णसे जिनेवरीका बहत्तर पन्दिर बणाय जिनेन्द्रPा विवकी त्रिकाल चौबीसीकी प्रतिमाकी स्थापना करतो भयो॥२॥
ततःप्रभृत्येव महाधनैः खं प्रतिष्ठया धन्यतमं विधाय । संरच्यतेऽनादिजिनेन्द्रचन्द्रमुखोद्गतं स्थापनसद्विधानं ॥ ६३ ॥
इत्यनादिकाल जायमान मन्दिर विवस्थापनासमर्थ प्रतिष्ठालक्षणं ।
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प्रतिष्ठा
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तादिनसे महाधन पुरुष जिनमतिष्ठा कर अपनेकू धन्यतम मानि अनादिकाल से प्राप्त भया जिनेन्द्र चंद्रका मुखारविंदतें उन्नत कहिये प्रगट भया ऐसा प्रतिष्ठा विधान कहिये है ॥ ६३ ॥
इति अनादिकालतें परंपरा उपदेशपूर्वक पुण्यानुबंधकारक जिनवैत्यवैत्यालय समर्थन किया ।
अथ प्रतिष्ठालक्षणम् । अब प्रतिष्ठा लक्षण कहिये है—
प्रतिष्ठानं प्रतिष्ठा च स्थापनं तत्प्रतिक्रिया ।
तत्समानात्मबुद्धित्वात्तदभेदः स्तवादिषु ॥ ६४ ॥
प्रतिष्ठान, प्रतिष्ठा, स्थापन, तत्प्रतिक्रिया कहिये ताकासा करणा इत्यादि नाम प्रतिष्ठा शब्दका है। अर ताके समान आत्मबुद्धि होनेत वाका पूजनमें स्तवन अभेद है ॥ ६४ ॥
यत्रारोपात् पञ्चकल्याणमंत्रैः सर्वज्ञत्वस्थापनं तद्विधानैः ।
तत्कर्मानुष्ठापने स्थापनोक्तनिक्षेपेण प्राप्यते तत्तथैव ॥ ६५ ॥
अरु जहां पंचकल्याणक के मन्त्रनिकरि आरोप अर्थात् तद्गुण ताका गुणको स्थापन सो आरोप है तातें अरु ताका विधान करि सर्वज्ञपणाको स्थापन सो कर्मनका क्रियाका अनुठान करि स्थापना निक्षेप करि उस वस्तू उसही असल मार्ग में तैंसे हो प्राप्ति करिये है अर्थात् स्थापनानिक्षेपका प्रधानपणा करि ता वस्तुको तथाज्ञान होय ही है ॥ ६५ ॥
नामक्षेपात्स्थापनांगप्रधानात् भावारोपाद् भव्यवृन्दैकमान्यात् ।
पूजास्तोत्रं सत्त्वबुद्धया कृतं वै पुण्यं सूते किं न नानाप्रकारं ॥ ६६ ॥
रु नाम निक्षेपका प्रधान अरु भाव का आरोपण भव्यसमूह करि सर्वथा पूज्यपण करि पूजा तथा स्तोत्र वस्तुकी सत्ता बुद्धिकरि कीया है सो नाना प्रकार पुण्य कहा नाहीं प्रगट करे है। अर्थात् करे ही करे ॥ ६६ ॥
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प्रतिष्ठा
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संदृष्ट्वा प्रतिमानमात्मविलसद्भावेषु संकल्पना ___ निर्बाधेति गुणैः सुशीलगणने चितामकामृत्स्त्रियाः । संगं चित्तविमर्षणान्नियमतो ज्ञात्वा तु संत्यज्यते
सुज्ञानैस्तदनेकनीतिनिपुणैः संस्थापना श्लाघ्यते ॥ ६७॥ इहां युक्ति कहिये है कि जिसका प्रतिबिंध किया होय तानै देखि आत्माका विलासरूप भावनिमें ताको संकल्पना निर्वाध है-अरोक है याही कारण शीलके भेदकी गणनामें चित्राम पाषाण काठको स्त्रोका प्ताहो गुणनफरि संग है सो चित्राम आदिको विक्षेपका कारण जानि
इनका संग भो नियमतें छांडिये है। यात हो समोचोन ज्ञानका धारो अनेक नयों निपुण ऐसे पुरुषनिनै स्थापना निवेप भी रागदप तथा 8| शांतिमुद्राका हेतु जानि श्लाघा करिये है ॥६॥
नो चेदत्र कलौ चराचरगुरुर्नो वा मनःपर्यय
ज्ञानी वावधिलोचनो मुनिवरस्तसंस्मृतेः कारण । तत्तर्हि स्मरणस्वभावशुचिताध्यानस्तुतेः संभवात्
सम्यग्दर्शनहेतुरेव गदिता संस्थापनाधीश्वरी।। ६८ ॥
इति प्रतिष्ठावश्यकर्तव्यतासमर्थनम् । अथवा पंचमाकालमें चराचरज्ञानधारी गुरु नाही हैं, अथवा मनःपर्ययधारी नाहों हैं वा अवधिज्ञानो नाहीं हैं कि जो असल अहतका स्परणका कारण होंय तातें ताका स्मरण स्वभावको स्वच्छता ध्यान स्तुतिका संभवपणा" या अहंत की स्थापना हो सम्यग्दर्शनका हेतु है ऐसे कही है॥६॥
पसै प्रतिष्ठाकी आवश्यक्ताका समर्थन किया।
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तमुद्राका हेतु जान छाडिये है । यात हो मालाण काठको स्वीकार
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अथ प्रतिष्ठेयस्वरूपम्। अब प्रतिष्ठेयका स्वरूप वर्णन करिये हैं:
__स्वर्णरत्नमाणिरौप्यनिर्मितं स्फाटिकामलशिलाभवं तथा।
उत्थितांबुजमहासनांगितं जैनविंबमिह शस्यते बुधैः ।। ६६ ॥ सुर्वण रत्न मणि चांदी आदिकरि निर्माण किया तथा स्फटिक अर निदोष शिलात उत्पन्न किया अर कायोत्सर्ग वा पन्नासन करि अकित ऐसा जिनेन्द्रसंबंधी विच पंडित जनने सराया है॥६६॥
शांतं नासाग्रदृष्टिं विमलगुणगणैर्धाजमानं प्रशस्त
मानोन्मानं च वामे विधृतवरकरं नाम पद्मासनस्थं । व्युत्सर्गालंबिपाणिस्थलनिहितपदांभोजमानम्रकंवु
ध्यानारूढं विदैन्यं भजत मुनिजनानंदकं जैनविंबं ।। ७०।। हे भव्य हो ! शांतमुद्राधारी नासिकाका अग्रभाग पर लगाई है दृष्टि जाकी अर निर्मल गुणनिकरि शोभायमान अरु मानोन्यान करि प्रशस्त | वाम हस्तमें धारण किया है दक्षिण हस्त जिनने पद्मासनमें तिष्ठता वा कायोत्सर्ग करि लंबायमान है करयुगल जाका अर स्थलमें स्थापित है। किया है चरण कमल जाने, किंचित नम्र है ग्रीवा जाकी, अरु ध्यानारूढ अर दीनतारहित अर मुनिजनकू आनंदका कर्ता ऐसा जैन विंचने || भजो ॥७॥
उत्कीर्ण स्फटिकाशिलारुणहरित्पीताश्माभित्तावपि स्थूल ह्रस्वमवेल्लितं स्थिरतरं शस्तं प्रतिष्ठाविधौ । प्रत्ययं चलनक्षमं दृढ़वपुःसंधिं तथा धातुजं योग्यं नित्यमहोत्सवेषु शिविकासत्स्यदनारोहणे ॥७॥
स्फटिक वा नील वा रक्त वर्ण वा हरितवर्ण वा पीतवर्ण जो पाषाणकी भित्तीमें उकीरथा हुआ स्थूल वा छोटा अरु कुटिलतारहित अरु | स्थिर ऐसा जिनविच प्रतिष्ठाकी विधिमें प्रशस्त है और नवीन अरु हलन चलनमें समर्थ अरु दृढ़ है शरीरकी संधि नाकी बया धातुसंबंधी |ऐसा नित्योत्सबनिमें पालकी अथवा रथका आरोहणमें योग्य कहा है ॥७॥
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प्रतिष्ठा
एककुडये चतुर्विशसमुदायोऽपि पंचशः ।
त्रयं सप्त जिनेंद्राणां विंबसंस्थोपलाल्यते ॥ ७ ॥ __एक भित्तिमें भी चौवीसका समुदाय तथा पंच कुमारका समुदाय, वा तीन जो शांति कुंथु अर इनका तथा सप्त भी विच स्थापन रुपलालन करिये है॥७२॥
प्लुष्टं तथा वेधितगूढनेत्ररेखांगुलिक्लिष्टहतप्रभं च । वयं प्रतिष्ठासु पुराणगावं लंबोदराद्यष्टकदोषयुक्तं ॥७३॥
____ इति प्रतिष्ठेमस्वरूपसमर्थनम् । और दग्ध तथा विद्ध गूढ नेत्र रेखालिवर्जित अरु निष्पम अरु पुराण जर्जर शरीर अरु लांबा उदर पोष्ठ आदि पाठ दोषसंयुक्त ऐसा जिनविच प्रतिष्ठा विधानमें वर्जित है॥७३॥
ऐसे प्रतिष्ठय स्वरूप वर्णन किया।
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अथ प्रतिष्ठापकलक्षणम्। अव प्रतिष्ठापक जो प्रतिष्ठा करावनेवाला ताका स्वरूप कहिये है
आत्मसंपत्तिद्रव्येण व्ययं कृत्वा महोत्सुकः ।
यः करोति प्रतिष्टां च स प्रतिष्ठापको मतः ॥७४॥ आत्मीक द्रव्यकी संपत्तिकरि व्ययकरि महान् उत्सवका कर्ता होय जो प्रतिष्ठा करावै सो प्रतिष्ठापक कहिये ॥४॥ अब ऐसा प्रतिष्ठापक योग्य नाही होय सो कहिये है
निषादनाडिंधममुंडिचंडीपरीष्टिपाटच्चरदारपण्यं ।
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द्यूतव्यवस्योपजनस्थसीधुकृषीबलाद्यर्जनमल वर्ज्यं ॥ ७५ ॥
निषाद कहिये नीच कर्मकर्ता भीलादिक नाडींधम सुनार भेरू चंडिकाका पूजक अरु चोर अरु स्त्रीका व्यभिचार कराय धन पैदा करनेवाला अरु ज्वारी व्यसनी रौद्रकर्म मदरा खेतीवाला आदिका द्रव्य इहां वर्जित है ॥७५॥
परोपदानी किल संघपिंजो भूपार्थिनिर्माल्यधनप्रहर्त्ता ।
न शस्यते क्वापि महोपयोगं कर्तुं जनस्तद्घृतहेमभोक्ता ॥७६॥
पर धन लगा अपना विख्यातपना करै सो अरु संघका निंदक राज्यका द्रव्यहर्ता निर्माल्य धनका हर्ता इत्यादिक: सो कदापि महायज्ञ आदि करने योग्य नाहीं होय है तथा इनका धन लेनेवाला भी योग्य नाहीं है ॥७६॥
न्यायोपजीवी गुरुभक्तिधारी कुत्सादिहीनो विनयप्रपन्नः । विप्रस्तथा क्षत्रियवैश्यवर्गो व्रतक्रियाबंदनशीलपालः ॥ ७७ ॥ श्रद्धालुदातृत्वमहेच्छुभावो ज्ञाता श्रुतार्थस्य कषायहीनः । कलंकपंकोन्मदतापवादकुकर्मदृरोऽर्हदुदारबुद्धिः ॥ ७८ ॥
तो कौन कौन हैं सो कहिये है — न्यायमार्ग जीविका वाला, गुरुकी भक्ति कर्ता, निंदादिक हीन, विनयवान्, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वा वैश्यवर्गी, व्रत क्रिया वंदन आदिमें सावधान अरु शीलका पात्र ॥७७॥
अरु श्रद्धावान्, दातृत्व गुणवान्, महान कार्यका इच्छुक, अरु शास्त्रका ज्ञाता होय अरु कषायकरि हीन, कलंकपंक जाकै पूर्व नाहीं लाग्या होय, उन्मादता अपवाद अरु कुकर्म इनसे दूर होय अरु अहत धर्ममें उदार बुद्धि ऐसा प्रतिष्ठापक होय ॥७८॥ (यो युग्म है ) यज्वा तु याजको यष्टा पूजको यजमानभाक् । षट्कर्मा यागकृत् संघीत्यादिनाम्ना प्रयुज्यते ॥ ७६ ॥
यज्वा, याजक, यष्टा, पूजक, यजमान, षट्कर्मा, यागकृत, संघी इयादि प्रतिष्ठापकका पर्याय शब्द है ॥ ७६ ॥
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अब प्रतिष्ठाका आचार्यका लक्षण कहिये है
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अथ प्रतिष्ठाचार्यलक्षणं ।
अनूचानः श्रोत्रियश्च प्रतिष्ठाचार्य श्राश्रयः ।
समावृत्तः प्राडूविवाकः समाचार्यादिनामयुक् ॥८०॥
अनूचान कहिये प्रगसहित प्रवचनका ज्ञाता होय, श्रुतका श्रद्धानी होय सो प्रतिष्ठाचार्य होय अरु आश्रय समावृत्त प्राविवाक समाचारी इत्यादि याके नाम हैं ॥८०॥
स्याद्वादधुर्योऽक्षरदोषवेत्ता निरालसो रोगविहीनदेहः । प्रायः प्रकर्त्ता दमदानशीलो जितेंद्रिया देवगुरुप्रमाणः ॥८१॥ शास्त्रार्थसंपत्तिविदीर्णवादो धर्मोपदेशप्रणयः क्षमावान् । राजादिमान्यो नययोगभाजी तपोत्रतानुष्ठितपूतदेहः ॥ ८२ ॥ पूर्वं निमित्ताद्यनुमापकोऽर्थसंदेहहारी यजनैकचित्तः।
ब्राह्मणो ब्रह्मविदां पटिष्ठो जिनैकधर्मा गुरुदत्तमंत्रः ॥ ८३ ॥ भुक्त्वा हविष्यान्नमरात्रिभोजी निद्रां विजेतुं विहितोद्यमश्च । गतस्पृहो भक्तिपरात्मदुःखप्रहारणये सिद्धमनुर्विधिज्ञः ॥ ८४ ॥ कुल मापातसुविद्यया यः प्राप्तोपसर्ग परिह तुमीशः ।
सोऽयं प्रतिष्ठाविधिषु प्रयोक्ता श्लाघ्योऽन्यथा दोषवती प्रतिष्ठा ॥ ८५ ॥
अरु स्याद्वाद विद्यामें प्रवीण अरु अक्षरका उदात्त अनुदात्तादि दोषने जाननेवाला होय, आलस्यहीन, रोगरहित होय, बहुप्रकार क्रिया
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कुशल होय, दम दान शीलवान होय, इन्द्रियजेता, अरु देव गुरु ही है प्रमाण जाके ऐसा, शास्त्रका अर्थसंपत्तिकरि वादिननै जीतनेवाला, धर्मका | उपदेशमें प्रवीण, अरु क्षमावान, राजादिकमान्य अनेक नयका भागो, तप व्रत इनका अनुष्ठानसे पवित्र शरीरी पहिली हो निमित्तादित कार्य,
कार्यका भावीको अनुमान करनेवाला, अर्थका संदेहका हर्ता, अनेक प्रतिष्ठाकरि तद्र प चित्तवाला, सद्ब्रह्म विद्यावान्, पंडितनिमैं प्रवीण, अरु | जिनधर्म ही धर्म जाके, अरु गुरुका दिया है मंत्र जाकै, एक वखत भोजन करि रात्रि भोजनका सर्वथा त्यागी, निद्राके जीतवामें उद्यपवान, गई है वांछा जाकै, भक्तिमें तत्पर जनोंका दुःखकी हानिके अर्थि सिद्ध है मंत्र जाके, अरु विधिका ज्ञाता, अरु कुल क्रमकरि प्राप्त भई विद्याकरि प्राप्त भया उपसग नै परिहार करिवेकं समर्थ, सा यो प्राचार्य प्रतिष्ठा करायवेक् श्लाव्य है अन्यथा प्रतिष्ठा दोष देनेवारी होय है॥८१-८॥
शास्त्रानभिज्ञं कुलवावदूकं लोभानलप्लुष्टमशांतशीलं ।
परंपराशून्यमपार्थसाथ दुरात्त्यजंतु प्रणिधाननिष्ठाः ॥८६॥ शास्त्रनै नाहीं जानै, बहुत विकथा वा प्रलाप करै अरु लोभ रूप अग्नि करि दग्ध, अरु प्रशांतखभावी, अरु परंपराकरि होन, अरु अर्थको Mil नहीं जाननेवाला, ऐसा प्राचार्यकू प्रतिष्ठाकारक दूर हीत छोडो॥८६॥
प्रयोक्तृवाक्यं न हि मन्यमानो लोभादिसंचारकृतापमानः ।
प्राप्नोत्यनर्थं गुरुवाविरुद्ध इहान्यतः श्वभ्रमदभ्रदुःखं ॥ ८७ ॥ और जो प्रतिष्ठाकारक है सो लोभ मान आदिके वशीभूत होय अपमान करै अरु आचार्यका काय्यकूनी माने तो गुरुका वचनसे विरुद्ध Pा हुवा संता अनर्थकूप्राप्त होय, इह भवमें दुःख अरु परभवमें बहुत दुःखयुक्त नरककू पावे ॥७॥
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अथ प्रतिष्ठामुख्यकारणेंद्रलक्षणं । अब प्रतिष्ठाका मुख्य कारण भूत इंद्रका वर्णन करिये है
इंद्रः शतक्रतुर्नेता विधिकृद् देशनायनः । यष्ट्रप्रतिनिधिविद्वान् एकार्थाः खल्विमे रवाः ॥८८ ॥
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प्रतिष्ठा
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इंद्र, शतक्रतु, नेता, विधिकृत, प्राज्ञा देनेवाला, यज्वाको प्रतिनिधि, विद्वान ये शब्द समानार्थक हैं ॥८॥
अशूद्रः संपन्नो विधिबहुविधानानुमिहिरः सुभाग्यो वीर्यादिप्रबलगुणयुतो नरयुवा ।
मनोज्ञा हार्यस्रक्कनकमणिभूषः शुचिमनाः जिनोत्साहं कर्तुं कृतपरिदृढ़ारंभयजनः ॥८६॥ शूद्रकुल अरु शूद्राचाररहित संपत्तिवान विधिके अनेकप्रकारमें सूर्य अरु सुंदर भाग्यशाली, बलवोर्यादि गुण सम्पन्न, अरू. मनुष्यनिमें युवावस्थाधारी, अरु मनोज्ञ, मनोहर माल्य कनक मणिके भूषणसे भूषित, अरु शुदयनयुक्त अरु जिनेन्द्रका उत्साह करने दृढ चित्तधारी | होय॥८६
यज्ञसूत्रकटिमेखलांगुलिमुद्रिकाकरविभूषणान्वितः।
कंठिकावलिसुकुंडलक्षभाशीर्षभूषणयुतः सदा भवेत् ॥ १० ॥ से यज्ञसूत्र यज्ञोपवीत अरु कटिमेखला अरु अंगुलिमुद्रिका अरु करभूषण कहिये कटक इन संयुक्त, अरु कंठिकावलो जो हारावली अरु सुदर कुंडल अरु नक्षत्रमाला, शीर्षभूषण कहिये कर्णपौक्तिक इन संयुक्त सदा ही होय ॥२०॥
त्रिकालसामायिकबंदनेभ्यः स्तुतिक्रियामांसलभावभक्तिः।
सोहत्प्रतिष्ठासमये जिनेशविंबं समुद्दिश्य कृतिं विदध्यात् ॥ ११ ॥ अर इंद्र है सो तोनकालमें सामायिक अर वंदना इन जिनेन्द्रको स्तुति करणे करि पुष्ट है भाव भक्ति जाकै, सो अह तकी प्रतिष्ठाका उत्सवमें जिनेन्द्रबिंबकू उद्देशकरि कार्यमात्र विधान करै॥१॥
प्राचार्यचित्तानुगृहीतचेता मनोज्ञवस्त्रः प्रयतः क्रियासु ।
सद्ब्रह्मभूयं पुरतो विधाय प्राणासनायामविधि प्रयुज्यात् ॥ १२॥ अर सो इंद्र आचार्यका चित्तका अनुग्रहरूप है चित्त जाका, अर मनोज्ञ है वस्त्र जाक, क्रिया जे पंचकल्याणकी क्रिया तिनविषै सावधान, | ऐसा हुवा संता, मंत्र न्यास विधिने प्रथम करि प्राणायाम आसन आदि विधियुक्त करै॥२॥
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प्रतिष्ठा २३
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मिथ्याविहारवचनाशनपांशुलत्वदुर्दृष्टिदर्शनपरित्यजनेन सार्द्धं ।
शान्तिक्षमायमतपश्चरणाभियोगं प्रारब्धकर्मणि विशृंखलता विरच्येत् ॥ ९३ ॥
अर वो इंद्र मिध्यागमन, मिध्या वचन, मिथ्या भोजन, अर पाप कर्म अर मिध्यात्व कथन, मिथ्या दर्शन, इनका परिहारसंयुक्त शांति क्षमा यम तपश्चरण आदि योगनें ग्रहण करि प्रारंभ किया प्रतिष्ठा कर्ममें लज्जारहित हुवा थका वैराग्ययुक्त होय ॥ ६३ ॥
अथ सामिग्री लक्षणं ।
गंगादितीर्थोद्भववारिशीतं मुहूर्त्तमाले परिगालितं वा ।
सत्प्रासुकं वस्त्रवितानगूढं पावेभृतं शुद्धतरे विशुद्धं ॥ ६४ ॥
अब सामिग्रीका लक्षण कहिये है—
प्रथम जल ऐसा कि, गंगादि शुद्ध तीर्थतें उत्पन्न शीत जल सो एक मुहूर्त्त कालमें छाण्या हुवा, प्रासुक अरु वस्त्रका चंदवा कर अच्छादित सुन्दर शुद्ध पात्रमें विशुद्ध भरया ऐसा होय ॥ ६४ ॥
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कर्पूर मिश्रं मलयोद्भवं च काश्मीरयोगाभिमतं वरेण्यं ।
सौगंध्यहूतालिगणं सुवर्णपात्रार्पितं यत्ननिगूढमस्तु ॥ ९५ ॥
कर्पूरकरि मिश्रित, केशर करि मान्य, सुन्दर ऐसा मलयागर चंदन है सो सुगंध कर आये हैं भ्रपका समूह जामें, सुवर्ण पात्रमें स्थापित बड़ा यत्नस् गुप्त जिनप्रतिष्ठाके योग्य होहु ॥ ८५ ॥
मुक्ताफलैर्वा कलमाक्षतैर्वा हिमांशुभा तैरपखंडनैश्च ।
धौतैस्त्रिवारं शुचिभाजनैर्वा कुर्यात् प्रपुंजैर्विमरदभैः ॥ ६६ ॥
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अतिष्ठा
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अक्षत ऐसाकि-पोतीका पुज सपान, राजतंदुल चंद्रमाको किरण सपान उज्ज्वल अर अखंडित अर तीन वार प्रक्षालित किये ऐसे निर्मल बहुत पुजनिकरि जिनेंद्रका अर्चन करै॥६॥
सुवासिनीहस्तसमागतानि पुष्पाणि गंधप्रकराणि यद्वा ।
सुवणरुक्मोपचितानि युक्त्या संरोपितानीष्टमनोहराणि ॥ ९७ ॥ ला जितेंद्रार्चनमें सौभाग्यवंती स्त्रीका हायसे आये सुगधका समूहसै भरा अथवा सुवर्ण अर चांदोके उपचार करि कीये अर पूर्वाचार्यनिकी युक्ति करि आरोपित किये अर्थात् केशर करि रंगे अर इष्ट और मनोहर पुष्प योग्य होय हैं ॥१७॥
पीयूषपिंडानि सिताघृतान्नसन्मोदका नित्यदिनोद्भवाश्च ।
हृन्नललावण्यविधानदक्षा अनेकधा यज्ञविधौ प्रशस्ताः ॥ १८ ॥ नैवेद्य ऐसे योग्य हैं कि-सकरा, अर घत अर अन्न इनका योगते उत्पन्न मोदकादि नित्य किये अर दिनमें उत्पन्न किये, अर हृदय नेत्रके सोदयबधावनेवारे अनेक प्रकारके ऐसे जिन द्रका यज्ञमैं प्रशंसा योग्य कहे हैं॥८॥
कर्पूररत्नमणिदीपकमालयार्चा योग्या जिनेंद्रचरणस्य निरामया च ।
पात्र विधत्य वरमंगलवाचनेन, स्वारार्तिकं विधिवदर्जयतीह पुण्यम् ॥ ६ ॥ और घ तका अर रत्नमणिकी दीपकका समूह करि जिन द्रका चरण को निर्दोषरूप अर्चाके योग्य हैं । इसकू सुन्दर मंगलका पठन करि पात्रमें धरि आरती है सो पुण्यांकुरने विधिसंयुक्त पैदा करै है॥६॥
अगुरुचंदनसोमतरूद्भवत्प्रचुरधूपगणेन सुगंधिना ।
दहनपात्रगतेन जिनार्चनं कुरुत भो त्रिदशालयसौख्यदं ॥१०॥ ___ अगर चंदन कपूर आदि सुगंध वृक्षनित उत्पन्न भया प्रचुर धूप समूह करि सुगंधवान् ऐसा करि अरु अग्निपात्रमें प्राप्त करि भो धन्य | Sil पुरुष हो ! स्वर्ग के सुखदेनेवाला जिन द्रका पूजन करो॥१०॥
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भतिष्ठा
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ऋतुरसप्रसवैश्च रसादनवररसालसुदाडिमनागरैः ।
सलिलतः परिशोध्य हिरण्यजे विधुतिमद्भिरजं परिपूजयेत् ॥१॥ षट् ऋतुके रससंयुक्त सरस सुन्दर नेत्रनिके प्यारे अमृत समान पिष्ट ऐसे फल जल शोधन करि सुवर्ण पात्रमें स्थापि स्वयंभू भगवानने पूजिये ॥१०॥
वासांसि शुद्धानि सितानि धौतान्युद्भूतमात्राणि दशायुतानि ।
संधारयेत्पूजनकृत्प्रसन्नं चेतो यतः स्याबहुमूल्यकानि ॥२॥ और पूजक जा प्रकार प्रसन्नचित्त रहै ऐसा बहुमूल्य शुद्ध श्वेत धीत अर नवीन अखंडित वस्त्र धारण करै॥१०२॥
पात्राणि वेदीस्थलतोरणानि सर्वाण्यनेकान्युपकारणानि ।
नव्यानि चित्ताक्षिहराणि यज्ञे जीर्णत्वदुष्टत्वविधाच्युतानि ॥३॥ और पात्र तथा वेदी स्थल तोरण आदि सर्व उपकरण नवीन अर चित्त नेत्रकप्रिय ऐसे अर जीर्णपणा अर सदोषपणा आदि कुरीतिरहित यसमै प्रशस्त कहे हैं ॥१०३॥
सामग्रीयोजने शाट्यं कार्पण्यं योगवंचनं ।
___न कदाचिन्मनस्वीति कुर्यात्स्वहितकामुकः॥ ४॥ सामिग्रीके योजनमें मूर्खपना अर कृपणपना अर योगरहितपणा कदाचित् भी ज्ञानी पुरुष अपने हितका इच्छुक नहीं करें॥१०॥
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अथ प्रतिष्ठाफलं। अब यहां प्रतिष्ठाका फलने को हैंसंबंधो यभिधेयसंधिविषयाशक्यत्वकृत्यात्मतामाचार्याः प्रथमं विचार्य करणे ग्रंथस्य तत्रोद्यम।
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प्रतिष्ठा
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कुवतीह ममापि तन्मुनिवरानूनानुकं पालनात् सिद्धं तत्फलवर्णना खलु फलोद्देशे तथाऽऽवश्यकी ॥ ५ ॥
प्रथम भूमिका आचार्य कहै हैं-सो ऐसे कि सम्बन्ध तो प्रतिपाद्य प्रतिपादक भाव है। अभिधेय जो अभिधान करने योग्य ताकी सन्धि कहिये सन्धान मिलान अरु विषय जो वरार्थं वस्तु तामें अशक्यत्व अर्थात् अशक्य साधनत्वाभाव अर कृत्यात्मता कहिये करणेका फल, ऐसे च्यारि वार्ता जो हैं ताई प्रथम विचार करि श्राचार्य ह सो ग्रंथका करनेमें उद्यम करे हैं तैंसें ही प्रतिष्ठामें भी च्यारि प्रयोजन आवश्यक हैं और इह कहिये प्रतिष्ठामें भी मेरे गुरु की प्राचीन अनुकंपाका योग सिद्ध होय हैं तातैं निश्चय करि फलका उद्देश्यमें फलकी वर्णना आवश्यक है । भावार्थ- देशकालभवभावापेक्षया तो बहुत वार्ता ऐसा उत्तम कार्यमें आवश्यक हैं परंतु संबंध १ प्रयोजन २ अशक्यानुष्ठानत्वाभाव ३ कृतिफल ४ ये च्यारि प्रयोजन आवश्यक होय हैं ॥ १०५ ॥
ये कुर्वंति जिनेंद्रविंबमनघं सत्पंचकल्याणकारोपात्सुस्थितमत्र पुण्ययशसां वृद्धिः सुमार्गावनं । तेषां मार्गविवृद्धिकारकतया पुण्यानुबंधोदयात् यावच्चंद्र दिवाकरं दृशिकृतां सद्द्दष्टिलाभः परं ॥ ६ ॥
अरु जे पुरुष निःपाप कहिये माया मिध्या निदानरहित तथा ख्याति पूजा लाभ रहित पंचकल्याणका आरोपतें जिनेंद्र बिंबनै स्थापित करें हैं वापुरुषके पुण्य अरु यशकी वृद्धि होय है । अरु सुन्दर मार्ग की रक्षा होय है । अर उनके मार्ग की विशेष वृद्धि करवातें अरु पुण्यानुबंधका उदयतें यावच्च ंद्र अरु सूर्य तिष्ठ गे तावत् सम्यग्दर्शन योग्य भव्योंके सम्यग्दर्शनका लाभ उत्कृष्ट होय है । भावार्थ-यो लाभ कर्ताका आश्रय होवातें परम पुरुषार्थ प्रगट किया ऐसे जानो ॥ १०६ ॥
भ्रश्यत्पातककर्ममर्मनिगलात् स्वानंदथुप्रीणनमंतातीतगुणार्णवं मनसिजोद्रेकव्यतीतस्पृहं ।
शांतं विंवमपेक्षितं स्मृतमपि प्रत्यूहनिर्णाशनं मान्यं तत्सति चित्रमाश्रय इव स्यात्तत्प्रतिष्ठापने ॥७॥
ऐसे हैं कि गलित किया जो पातक कर्मका मर्मरूप बेडी तांत आनंदकी प्राप्तिमैं तत्पर अरु अनंत गुणका समुद्र अरु कामका बिकारमें नष्ट हो गई है वांछाजाकै अरु शांतरूप विंबने देखत मात्रही तथा स्मरण मात्र ही समस्त विघ्नका नाश होय है । सो जैसी भिति होय तैसा चित्राम होय तैसें प्रतिष्ठा होय तो विब समस्तके मान्य होय ॥ १०७ ॥
कल्याणपंचकविधिः स्वयमात्मसत्त्व कर्तव्यतानियत कर्मवशाज्जनेन ।
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प्रतिष्ठा
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तेनेह जन्मसफलत्वमितं प्रकर्षादुद्भतिशक्रपदवी नियतं गृहीता ॥८॥ जा पुरुषने स्वयं कहिये आप पंचकल्याणकको विधि जो है सो अपना सत्त्व पराक्रम अरु कर्त व्यतारूप नियम प्राप्त कपका बखतें किया ताही जनने इह भवमैं जन्मका सफलपणा पाप्त कोया अरु उत्कर्षता करि बहु विभूतिमान इंद्र पदवी नियमपूर्वक ग्रहण की ॥१८॥
द्रव्यं वपुः स्थिरतरं नहि जातु कस्य राज्यं मनोज्ञसुरचक्रिनरेंद्रतादि।
___ तस्मादखंडभवकोटिसमुद्धरके स्थाप्यं जिनेंद्रभवनप्रतिमानमुच्चैः ॥९॥ देखो ! कोई पुरुषको द्रव्य कहिये धन अथवा शरीर स्थिर नहीं है, अरु मनोज्ञ देवपदवी, चक्रवर्ति विभूति, नरेंद्र संपदा आदि राज्य भी स्थिर नहीं तातें अखंड कोटि भवकू उद्धार करणेमें अद्वितीय एक जिने द्रको मन्दिर अरु प्रतिविव उच्च प्रकार स्थापन करना योग्य है १०६
कल्पे सुराणां भवनेऽसुराणां ज्योतिःकृतां व्यंतरसन्निकाये।
असंख्यपुण्योदयसेतुहेतु जिनेंद्रविंबं यदनादिकालं ॥१०॥ __ अरु ये भवन अथवा प्रतिबिंब देवनिका कल्पमें कि स्वर्गमें तथा असुरादि कुमारनिका भवनमें तथा ज्योतिषी देवनिका भवनमें तथा | व्यंतर देवनिका निकायमें है अर असंख्यात पुण्यका उदयरूप जाको कारण है, तातें जिनेन्द्रबिंब अनादिकालतें मान्य है ॥ ११०॥
भाव्यभावकसंबंधो विषयाः पुण्यहेतवः।
स्वर्गमोक्षसुखं तत्र फलं शक्यप्रतिक्रियं ॥ ११॥ इहां प्रतिष्ठामें भाव्य भावक कहिये सेव्य सेवक संबंध है अरु पुण्यके कारण सर्व याके विषय हैं । स्वर्ग मोक्षका सुखरूप फल है, शक्यानुष्ठान है ही॥१११॥
समस्तकार्ये प्रथमं विचार्यानुष्ठानमेवं विदधातु कर्ता।
यशःप्रवृत्तिः सुकृतोपपत्तिरनर्गला स्यात्कृतिकर्मकर्तुः॥ १२ ॥ ऐसे ये च्यारि वस्तु समस्त कार्यमें पहिली विचार करि कर्ता अनुष्ठान करो जाकरि यशकी प्रवृत्ति होय, अनर्गल पुण्यकी प्राप्ति काय | करनेवालाकै होय॥११२॥
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प्रतिष्ठा
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अथ द्रव्यक्षेत्रकालभावानां शुद्धिरुपदिश्यते ।
अब याके आगे द्रव्य क्षेत्र काल भावनिकी विशुद्धि कहिये है
द्रव्यं द्विविधमुद्गीतं सचित्ताचित्तभेदतः । कर्तृकारापकेंद्रादि प्रथमं बहुभेदयुक् ॥ १३ ॥ प्रतिमापात्रवेद्यादिस्तंभवस्त्राद्यनेकधा । अचित्तं तद्वयं योग्यं स्वस्वरूपानुभावतः ॥ १४ ॥
कि द्रव्य सचित्त अचित्तका भेदतें द्विप्रकार कहया है। प्रथम सचित्त द्रव्य तौ कर्ता प्रतिष्ठापक अरू इंद्र श्रादिक बहु प्रकार है। दूसरा प्रतिमा अरु पात्र वेदी स्तंभ वस्त्र आदि बहुभेद है सो इहां सचित्त अचित्त द्रव्य अपना अपना स्वरूपका उदयमें दोन्यू ही उचित है ॥ ११३ - ११४ ॥ अब क्षेत्र शुद्धि कहिये है
क्षेत्रमार्यजननांचितं शुचि सुंदरं नदनदीतटाकयुक् ।
संनिधाननगरोपदेशकं तीर्थभूमिनिकटं विशालकं ॥ १५ ॥
कि क्षेत्र प्रथम तौ प्राये मनुष्यनि करि युक्त होय, पवित्र सुन्दर होय, नद नदी तालाव आदि करि युक्त होय अरु समीप प्राप्त है नगर अरु उपदेश देनेवारा जन जा विषै अरु तीर्थ भूमिके निकट होय अरु विस्तीर्ण होय ॥ ११५ ॥ पिपीलिकाकीटकवृश्चिकाहिशूका न यतोषरता न भूम्यां ।
प्रभीत्यग्निभयं न यत्र क्षवं प्रशस्तं जिनयज्ञकार्ये ॥ १६ ॥ न मूषिकासर्पविलोपरोधः श्मशान भूताद्युषितं न दुष्टं । विलोमजातीतरनीचगेहप्रवासितं क्षेत्रमपार्थदूरं ॥ १७ ॥
बहुरि कीढी कीडा वीक सर्प अरु कंटक आदि जहां नहीं होय अरु भूमिमैं ऊपरपणा नाहीं होय, अरु ईति भीति अग्निभय नहीं होय, मूषक सर्प आदिकं विल नाहीं होंय अरु श्मशानभूमि आदि कर व्याप्त नहीं होय तथा दूषित नहीं होय अरु वर्षाशंकर शुद्र नीचका गृह करि प्रवासित कहिये ऊजड़ हो, अरु खोटे कारणनिकरि दूर होय सो क्षेत्र प्रशस्त है | ११६-११७ ॥
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प्रतिष्ठा
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RAKASHALAUREGA
अब कालकी शुद्धि कहिये हैकालोऽत्र वर्षासमय व्यतीत्य प्रवीतराजोपनृपप्रधानः।
संघाधिपाचार्यमृतिक्षणोऽपि न शस्यते रोगभयार्तिदायी ॥ १८ ॥ कि बर्षा विना सर्व काल सराहने योग्य है। अरु जासमै राजा मंत्री प्रधानका मरण नहीं हवो होय, अरु आचार्य प्रतिष्ठापक का भी मृत्यु नहीं होय, अरु रोग महामारी अर शत्रुभय अरु पीड़ा नहीं होय ॥११८॥
भूकंपदिग्दाहनवैरिचक्रस्वचक्रभीर्यत्र न तस्कराणां।
उपद्रवैर्वाप्यपरैः समेतो यागप्रयोगाय बुधैर्न धार्यः ॥ १६ ॥ बहुरि भूकंप अरु दिशानका दाह अरु परचक्र स्खचक्र की भोति नहीं होय, अरु तस्कर लुटेरेनिका भय नहो होय अथवा अन्य उपद्रवकरि संयुक्त काल है सो प्रतिष्ठा यज्ञके अर्थि नहीं धारिये है ॥ ११६॥
अब भावथुद्धि कहिये हैसमस्तसंघोचितसत्प्रसादात् सद्धर्मवृद्धयुत्सवपूर्णचित्तः।
जनोनुकूलागमवस्तुजातो भावो मनोनंदनजाभिलाषः ॥ २० ॥ कि समस्त संघके प्रसन्नता होय तातें समीचीन धर्म की वृद्धिका उत्सवमें प्रसन्न चित्तयुक्त जन होय अर अनुकूल वस्तुका मागममें वस्तु समूहनै देखने वारा जन अपने मनका आनंद करि अभिलापवान् भाव प्रशस्य होय ॥ १२० ॥
अनेकभव्यप्रणिधानयोगादनेकसाहाय्यवितानसंगात् ।
अनेकविद्वज्जनसंनिधानात् शोभां विधत्ते जिनयज्ञ एषः॥ ___ अर एह जिनयज्ञ अनेक भव्यनिका उपयोगके योगते अर अनेक सहाई जनका होने पर अनेक पंडित जनोंका निकट होने शोभाको धारे है ।। १२१॥
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प्रतिष्ठा ३०
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प्रपन्नसाताप्रकृतेरुदीर्णोदयान्मनः प्राणभृतां शुभाय ।
कार्याय शीघ्रं यतते कृतौ तु देशीयराष्ट्रीयशुभप्रवृत्त्या ॥ २२ ॥
येह प्राणीनिका मन है सो प्राप्त भया साता कर्मका उदयतें शुभ कार्यके अर्थि शिष्ट प्रयत्नवान् होय है अर कृतिविषै देश राष्ट्र को शुभ प्रवृत्तिरि प्रयत्नवान् होय है ।। १२२ ।।
अस्मिन्महे राज्यसुभिक्षसंपदाद्यो हि हेतुः कथितो मुनींद्रेः । कलाविदानीं नृपभूतिरिष्टा मिथ्यादृशां नोदयमिष्टमव ॥
अर या जिनप्रतिष्ठाका उत्सवमें मुनीश्वरने प्रथम हेतु राज्य की अर सुमितको संपत्ति ही कहया है अर ई कलिकालमें नृपभूति कहिये राजाकी प्रसन्नता ही श्रेष्ठ है, मिथ्यात्वीनिका अर्थात् जनमार्ग विरोधीनिका उदय नाहीं इष्ट है ॥ १२३ ॥
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दुर्भिक्षस्तेयमारीपिशुन जनकृतोपद्रवाणां प्रवृत्तिभूयाद्धर्मनाशप्रणयनचटुलो भूपनाम्नाऽपि वैरी । पौनःपुन्येन शास्ता सकलमतिमतामग्रगामी सुपुण्यः
सूते शिष्टिं विशिष्टां बुधखलसमुदायेषु योग्यां यतोऽसौ ॥
याही हेतु दुर्भिक्ष अर चोर और मारी अर दुष्ट जनकृत उपद्रवनिको प्रवृत्ति कदाचित् भी मति होहु अर धर्मका नाशमें प्रवीण ऐसा राजा नामक वैरी भी कदाचित् मति होहु याही कारण वार वार सकल मतिमाननिमें अग्रगामी पुण्यवान् राजा होहु या कारण यो राजा पंडित अर दुर्जनजनोंके योग्य विशिष्ट आज्ञाने प्रगट करै तातें ॥ १२४ ॥
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अथ मंदिरनिमाणविधिः। अब मन्दिरका बनानेको विधि कहिये है
शुद्धे प्रदेशे नगरेऽप्यटव्यां नदीसमीपे शुचितीर्थभूम्यां।
विस्तीर्णगोन्नतकेतुमालाविराजितं जैनगृहं प्रशस्तं ॥ २५ ॥ शुद्ध स्थानमें तथा नगरमें तथा वनमें तथा नदीका समीपमें तथा तोकी भूमिमें विस्तारयुक्त शिखर अरु केतुको पंक्तिकरि शोभायमान, ऐसा जिनभवन प्रशस्त होय है ॥ १२॥
शुद्ध मुहूर्ते किल वास्तुशांतिं विधाय सीमानमकालदोषं ।
खनेत्सुवर्णोद्धृतयंत्रपीठं निवेश्य तद्द्वारसमीपवति ॥ २६ ॥ मुहूर्त शुद्ध देखकरि प्रथम वास्तु शांतिका विधानकरि कालका दोषने रिकरि सोमा ज्यो ताहि खोद ताका द्वार सपोप सुंदर पत्रमें यंत्रने निवेशन करै॥ १२६ ॥
स्थानं परीक्षां च दिशां च साधनं वस्त्वचनं मंडललेखनार्चने।
गावानिवेशो भुवनस्य लक्षणं शैलानयश्चेति तदष्टधा मतं ॥ स्थानकी परीक्षा १ दिग्साधन २ वास्तुशुद्धि ३ मंडल शुद्धि ४ मंडल शांति ५ पापाण स्थापन ६ गृहलक्षण ७ शिलानयन ८ या प्रकार ए वास्तु कर्म आठ प्रकार है ॥ १२७॥
जलाशयारामसमगूशोभा वाल्मीकजंतुप्रविचारवा।
कीलास्थिदग्धाश्मविवर्जिता भूरन प्रशस्या जिनवेश्मयोग्या ॥ । अरु इहां प्रतिष्ठा कर्ममें पृथ्वी, जलका प्राशय--कूप, वापिका, तड़ाग, नदी आदि, बगीचा वृक्षसमूह इन सपस्त करि शोभित अरु
वल्मीक अरु जंतु कीटकादिके संनिवेशसे शून्य अरु श्मशान शूली आदिके स्थाननिसे रहित अथवा दग्ध पाषाणों से रहित पृथ्वी जिनेन्द्र || * भवनके योग्य प्रशंसनीय होय है ॥२२८॥
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तबाध्वरं गतमधः खनित्वा तदोषवयं यदि तेन पांशुना।
प्रपूरयेन्न्यूनसमाधिकेषु भगं समं लाभ इति प्रशस्यते ॥ २६ ॥ उस जगह एक हायभर गढ़ा खोदै ऊपर लिखे दोषेसे रहित हो तो यत्रादि पूजन विधिको करके फिर उसी धूलिसे उसे भर दे, यदि | वह गर्त कुछ कम भरै तब तो कार्य में उपद्रव प्रावैगा ऐसा समझना चाहिये यदि पिट्टी भरकर कुछ न वचे, बरावर हो जाय तो समान समझ | और मिट्टी गढा भरकर भी बच रहै तो लाभकी प्राप्ति समझना चाहिये ॥ १२६॥
सीम्नि प्रखाते प्रथमं शुभेनि घृतोद्भवं दीपमुपांशुमंः।
सयोज्य तामे कलशे पिधाय न्यसेत् सयंत्र कनकं तदव्यां ॥३०॥ जब नीम खोदै तब प्रथम शुभ मुहूर्त में घृतका दोपक पद्धतिके मंत्रनिते प्रचलित करि फिरि ताक् ताम्रका कलशमें स्थापि अरू पाच्छादित करि उसके अधोभागमें सुवर्णका यंत्र स्थापन करे ॥ १३०॥
व्यपोहनं नो लभते प्रदीपस्तथा दृषद्भिः खनिताल(ई )कुडथे ।
नयेद् व्रतारंभनिवेदनादि कर्ता विदध्याजनसाक्षियुक्तं ॥ ३१ ॥ उस दीपक ऐसे स्थापन करै जैसे निर्वाण नहीं होय, पाषाण करि ऊर्चकुड्यो भित्ति स्थापन करै अरु पन्दिरकर्ता खापोः ब्रत अरु मन्दिरका प्रारंभमंगल अरु सज्जन प्रार्थना आदि अपने सहायीनिकी साक्षीपूर्वक करै ॥ १३१ ।। "
तत्स्थानवासान्निखिलान्सुरादीन् संतोष्य पंचेशसुमंडलेन ।
पूजां विधायेतरदीनजंतून सन्मानयेत्कारुणिका महात्मा ॥ ३२॥ अर स्थानमें वसनेवाले समस्त देवादिने संतोषित करि अर्थात् प्राज्ञा लेय पंचपरमेष्ठीके मंडलकरि पूजा रचि गरीव दीन पाणिनिक करूणा पूर्वक वे महापुरुष सन्मान करें ॥ १३२ ॥
चैत्रादिमासे विषुवं प्रसाध्य दिग्मूढतापोहनपूर्वमन ।
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मुखं तु शकोत्तरपश्चिमासु कुर्याग्जिनेशालयकस्य मुख्यं ॥ ३३ ॥ मन्दिरके नीमकी पहिली चैतका महीना अर्थात् रात्रिदिनकी तुल्यतामें मध्य रेखाकूसाधन करै अर्थात् सूयछायाकी मध्यभागमें दिशाकी | तिरछापणाकी संगति मेटि मन्दिरका मुख पूर्व उत्तर कदाचित पश्चिममें भी राखे ॥१३३ ॥
अब मन्दिरकी रचनाका संनिवेश कर हैं कितत्क्षेत्र पंचविंशत्यवधिपरिमितं संविभज्यात्र मध्ये, निध्यंशे मध्यकाष्ठे जिनपतिनिलयं पार्श्वयोः सिद्धपाठ्यो। श्राचार्यश्चोर्ध्वभागे तदितरगृहयोरागमो धर्मतीर्थमगे साधुर्विधानालययजनपरिष्कारगेहं निवेश्यं ॥ १३४ ॥
कि-पन्दिर बनावणे योग्य चौखूटा क्षेत्रका पच्चीस अंश परिमित विभाग करि अर मध्यका नव अंशमें मध्यभागमें तो अरहन्तनिकी | स्थापना अर पार्श्ववर्ती दोन्यू कोष्ठमें सिद्धांका विब अर उपाध्यायका प्रतिविष अर ऊर्ध्व भागका कोष्ठमें प्राचाय परमेष्ठीका विच अर अन्य | गृहनिमें भागय अर निर्वाण क्षेत्र अर साधुपरमेष्ठी अर मंडलविधानका स्थान पर सामिग्री संपादन स्थान ऐसे नव कोष्ठक कराना ॥ १३४ ॥
पूर्वोत्तरं दक्षिणमस्य कार्य द्वार तथा पूर्वदिशासु नृत्य
गीतालयं चोत्तरमर्थशास्त्रसद्वाचनागेहमतः प्रशस्तं ॥ १३५ ॥ अरु याका द्वार पूर्वोत्तर अथवा दक्षिण भी द्वार होय तथा पूर्व दिशामें नृत्यसंगीतका स्थान अरु उत्तरमें शास्त्र स्वाध्यायका स्थान प्रशस्त कया है॥१३॥
पाश्चात्यभागे द्रविणालयादि विद्यालयं दक्षदिशि प्रदक्षिणा।
जिनालयादेः परितोऽत्र कार्या प्राचीनयंत्रोपमसंनिवेशतः ॥ १३६ ॥ अरु पाश्चात्यभागमें भंडार तथा दक्षिणकी तरफ विद्या शाला, अरु प्रदक्षिणा भूमि चौतर्फ ऐसे प्राचीन यंत्रका उपमा राखि संनिषेध करना ॥ १३६॥
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मंदिरजीका प्राचीन यंत्र ।
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इति प्रथमो विभिः |
विद्वारं हृदये जिनेंद्रनिलये चाष्टोत्तरं सच्छतं विंवानां विनिवेशनं तदभितः प्रादक्षणीयक्रमः | अग्रे प्रेक्षणगेहमास्थितिगृहं माहेंद्रनामादिकं स्वच्छा पुष्करिणीत्यकृलिमजिनेशावासरूपा कृतिः॥ १३७ ॥
या तो प्रथम विधिरूप मंदिर कहया अब दूसरा विधि में ऐसे हैं कि- पूर्व उत्तर तो बड़ा द्वार अरु दक्षिणमें छोटा द्वार अरु बीचमें देवच्छंद कि वेदी तामैं एकसौ आठ गर्भगृह अर जिनबिंब अर चौतर्फ प्रदक्षिणा पर अग्रभागमें प्रेक्षागृह ताके पश्चात् आस्थान मंडप माहेंद्र नामक ताके पीछे पुष्करिणी वापिका ऐसे अकृत्रिम जिनभवनरूप रचना सो दूसरा विधान है ॥ १३७ ॥ इति द्वितीयो विधिः । पूर्वोत्तरं चोत्तरदिग्मुखं वा पार्श्वे सभायां श्रुतसंनिवेशः ।
मध्ये चतुष्कं सुविधानकारि तत्पूर्वमगे जिनसंस्थितिः स्यात् ॥ १३८ ॥
शास्त्र सभा
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पृथक् कपाटादिधृतावकाशा वेदी त्रिभंगा त्रिककहिनीका । ऊर्ध्व महबृत्तशिरस्कदेशे छत्रोपमं केतुसुकिंकिणीकं ॥ १३६ ॥ तदूर्ध्वदेशे शिखराकृतिस्थे जिनेंद्रविबादिलसत्सुशोभं ।
प्रदक्षिणा तत्परितो विधेया यथा सुशोभं गृहकल्पनादि ॥ १४० ॥ पूर्वोत्तर वा उत्तर एकही द्वार अरु पार्श्व में सभामें शास्त्रोपदेश, मध्यमें चौक, तहां महाशांतिकादि मंडल ताके भागे जिनपिंथनिकी स्थिति, | तहां जुदा स्थानसूचक वेदी, तीन कटिनी अरु ऊपर अंडाकृति शिखरमें ध्वजा किंकिणी संनिवेश होय । उपरिय शिखरमें जिनेंद्रबिंब आदि शोभा और प्रदक्षिणा होय और सरस्वती भांडार यथावकाश शोभायमान होय यो तीसरा विधान है ।। १३८४०॥
द्वित्रिक्षणं वाऽपि चतुःक्षणादि शृंगोन्नतं केतुपरीतभालं।
वास्तूत्पथं कर्तुरनर्थयोगस्तस्माद्विधयं किल वास्तुपूर्वं ॥ १४१ ॥ आगे कहै हैं-ए मंदिर दोयखण तीन खण चारि खग्ण आदि होय, शिखर ध्वजा उपरि खण में होय ऐसे वास्तुविधिकू उतधन कर ताके अनथको योग होय तातें वास्तु शास्त्र विपरीत नहीं करना योग्य है ।। १४१ ॥
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अथ मंदिस्मुहूर्तम् । अब मंदिर बनानेका मुहूर्त कहिये तहां जो वस्तु अत्यावश्यक वर्जनीय है अथवा कर्तव्य है सो कहिये
कालनागमावर्ण्य मानयेत् भूपसीमधरपार्श्वकान्मुदा।
ज्योतिरर्थपरिपूर्णकारुकैः संनियोज्य खनिमुत्तमा क्रियात् ॥ १४२ ।। प्रथम नीवका रोपणमें राह चक्रनै वर्जित करि राजाज्ञा लेय सीमाने देनेवाला तथा पार्श्ववर्तीनिनै प्रसन्नतापूर्वक सन्मानित करै ग्रह ज्योतिषी अरु कारीगरने संयोजन करि उत्तम खनि न्यो है ताहि करै खात करि नीवभरै॥१४२॥
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मीनमेषवृषराश्यवस्थिते ग्रीष्मभासिशिवदिग्यमाननं । युग्मकेशरिकुलीरगेऽनिले कन्यकालितुलगेऽश्रये भवेत् ॥ १४३ ॥ कार्मुके च मकरे घटे रवावग्निदिश्युपगतं विदुर्बुधाः ।
निश्चयेन तदपास्य पृष्ठतः संखनेन्नयविशारदो जनः ॥ १४४ ॥ राहु चक्रका मुखका निवारणार्थ परिभ्रपण राहूका कहें हैं—यीन पेष अरु वृष राशिगत मूर्य संक्रमण होते ईशान कोणमें राहु मुख है। अरु मिथुन सिंह कर्कट राशिगत मूर्य में वायु दिशामें तथा कन्या वृश्चिक तुलामें नैऋत्यदिशामें, अर धन मकर कुंभका सूर्यमें अग्निकोणमें राहु मुख है। याते नयमें प्रवीण पुरुष इस मुखकू छोडि पृष्ठ भागमें खनन करे॥१४३-४४ ॥
अधोमुखभैविर्दधीत खातं शिलास्तथैवोर्ध्वमुखैश्च पढे ।
तिर्यग्मुखैरकपाटदानं गृहप्रवेशो मृदुभिर्भुवःः ॥ १४५ ॥ अर नक्षत्रनिमें अधोमुख संज्ञक नक्षत्रमें अर्थात् मूल अश्लषा विशाखा, कृत्तिका, बुध, पूर्वा भाद्र, पूर्वाषाढ़, पूर्वा फाल्गुनी, भरणी, मघा, भौमवार ऐ अधोमुख नक्षत्रमें खनन करै अर ऊर्ध्वमुख संज्ञक अर्थात् आर्द्रा, पुष्या, धनिष्ठा, शतभिषा, उत्तरात्रय, रोहिणी, सूर्य बार इनमें शिला स्थापन अरु पट्टीन गिराना करै। तथा तिर्यम मुख अर्थात् अनुराधा, हस्त, स्वाति, पुनर्वमू, ज्येष्ठा, अधिनी इनमें द्वारके कपाटदान करना अरु मृदु अरु ध्रुव नक्षत्रनिमें अर्थात् उत्तरा त्रय रोहिणी सूर्य वार इनमें गृह प्रवेश करना ॥१५॥
मार्गादिषु विचैत्रेषु मासेषूत्तरसंक्रमे।
व्यतीपातादियोगेन शुभेऽनि प्रारभत तत् ॥ १४६ ॥ मार्गशिर आदि पंच महीनेमें परन्तु चैत्रविना अरु उत्तरायण मूर्य में व्यतिपातादि योगरहित शुभदिनमें जिनालयको प्रारंभ करै ॥१४॥
पुष्योत्तरालयमृगश्रवणाश्विनीषु चित्राकया हि वसुपाशिविशाखिकासु। आर्द्रापुनर्वसुकरेष्वपि भेषु शस्तं जीवज्ञशुकूदिवसेषु जिनेषु सद्म ॥ १४७ ॥
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बुष्य, उत्तरात्रय, मृगशिर, श्रवण, अश्विनी, चित्रा, पुनर्वसु, विशाखा, आर्द्रा, हस्त इनमें, अरु वृहस्पति, बुध, शुक्रवारमें जिन मंदिर त प्रारंभ करना योग्य है ॥१७॥
जीवेन चंद्रहरिसर्पजलध्रुवाणि पुष्यं प्रशस्तमथ तक्षवसुद्विनाथाः ।
इस्रार्दिका शतपदाश्च सुभार्गवेन वाहोत्तराकरकदाश्च बुधेन योगात् ॥ १४८ ॥ वृहस्पतिवारमें मृगशिर, अनुराधा, अश्लेषा, पूर्वाषाढ़ अरु ध्रुवसंज्ञक प्रशस्त है, अरु पुष्य भी प्रशस्त है । अरु चित्रा, धनिष्ठा, विशाखा, टू अश्विनी, आर्द्रा, शतभिषा, शुक्रवारमें श्रेष्ठ है अरु बुधवारमें अश्विनी उत्तरा हस्त रोहिणी श्रेष्ठ है॥१८॥
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अथ लग्नशुद्धिः। अब लग्न शुद्धि कहिये हैमीनस्थे तनुगे कवावपि चतुर्थे कर्कगे गीप्पतौ रुद्रम्थे तुलगे शनावथ बलाधिक्ये सुतारायुजि।
लग्नायां वरगेषु शुक्रतपनज्ञेष्टामरे केंद्रगेषष्ठेऽर्के विदि सप्तमोऽग्निषु शनौ शस्तोजिनेंद्रालयः ॥१४६ ॥ मीन लग्नमें शुक्र होय अथवा चौथ होय, कक को वृहस्पति होय, अरु म्यारमें तुलाको शनि होय, बलकरि अधिक अरु सुन्दर ताराको IN योग होय अरु लग्न, अरु ग्यारमे अरु दशमे शुक्र सूर्य वृहस्पति होय अथवा केंदमें वृहस्पति होय, अरु छटठे मर्य होय अरु सातये बुध होय, त्रिकोणमें शनि होय तो यामेंसे एक भी योग होय तो जिनेंद्रालय प्रशस्त कहिये है ॥१४६॥
सूर्याधिष्ठितभात् चतुर्भिरुपरिस्थैरष्टभिः कोणगैस्तस्मादग्रिमभाष्टभिस्तत इतै:ह्निसंख्यैरलं । देहल्यामथ तत्पुरःस्थितचतुर्भिभः कृते चकूके लक्ष्मीप्राप्तिरमानवं सुखकरं मृत्युः शिवं च कूमात् ॥ १५०॥
और मूर्य करि आश्रित नक्षत्रत चारि नक्षत्र पर ऊपरिके आठ नक्षत्र कोण स्थित, अर तातें अग्रिप आठ नक्षत्र पाश्च में होय ताके अग्रिम तीन नक्षत्र देहलीमें होय ताके अग्रिम च्यारि नक्षत्र चक्रमें होय तो यह योगमें लक्ष्मीकी प्राप्ति होय अरु शून्य होय अरु सुखकारो होय अरू मृत्यु होय, अरु कल्याण होय येह पांच योगका पांच फल अनुक्रमते जानना ॥१५॥
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or विनिर्माणविधिः ।
अब बिंबनिर्माणकी विधि कहिये है
संस्थानसुंदरमनोहररूपमूर्ध्वप्रालंबितं ह्यवसनं कमलासनं च ।
नान्यासनेन परिकल्पितमीशविंबमहविधौ प्रथितमार्यमतिप्रपन्नैः ॥ १५१ ॥ वृद्धत्वबाल्यरहितांगमुपेतशांतिं श्रीवृक्षभूषिहृदयं नखकेशहीनं । सद्वाचिदृषदां समसूलभागं वैराग्यभूषितगुणं तपसि प्रशक्तं ॥ १५२ ॥ संस्थान कहिये अगोपांगकरि सुन्दर अरु कांति लावण्यकरि मनोहर कायोत्सर्ग धारी दिगम्बर तथा पद्मासन, याही अन्य ग्रासन कुकु - टादिकरि कल्पना किया जिनबिंब पूजाविधिमें सुन्दर मतिबारे जननिने योग्य नहीं कहया है बहुरि वृद्धपणा अरु वालपणा इनकरि रहित अरु शांतिभावने ग्रहण कीया अरु श्रीवृक्ष चिह्न करि भूषित है, हृदय जाका अरु नख केशकर हीन अरु धातु नाना प्रकार पाषाणनिकरि रचित अरु समचतुरस्र संस्थानयुक्त अरु वैराग्यकू भूषित करनेवाला, अरु तपकी अवस्थामें प्रशस्त ऐसा होय ॥ १५१-१५२ ।। यह युग्म है । ऊर्ध्वे द्विपाभ्रविधुभागकृतौ स्वकीयमानेन तव मुखमंडलमक्षिसोमं । ग्रीवादौ च चतुरक्षिमितौ हृदानुप्रेक्षाप्रमं जठरमत्र तु नाभिमूलात् ॥ १५३ ॥ तावत्प्रमैव मदनादि तदादि (भातु) जानुद्वयं करमितं च ततोऽपि गुल्फं ।
तस्माच्च पादतलमव हि गुल्फदेशात् पिंडिर्दृढा तु पदयोः शुभलक्षणांका ॥ १५४ ॥
ऊंचाई में कायोत्सर्ग प्रतिमामें द्विपकहिये आठ, अभ्रकहिये शून्य, विधु कहिये एक, अर्थात् १०८ भाग अपना प्रमाण करि होय है तहां | मुख मंडल गोलाकार बारह भाग प्रमाण है अर ग्रीवा अर हृदय, ये दोन्यू प्रत्येक चोईस भाग होय अर हृदयतें जठरताई बारहभाग नाभिपर्यंत होय, अर तावत् प्रमाण ही कि बारहभाग ही नाभितें लिंगमूल पर्यंत अरु तात गोडा पर्यंत एक हस्तमात्र अरु तातें भी टिकूरावां पय त एक हस्तमात्र, अरु बातें पादनिका तल पर्यंत एक इस्तमात्र होय अरु टिकोरायां की पिंडली, गाढ़ी (दृढ़) अरु शुभलक्षणकरि चिह्नत होय ।। १५३ - १५४ ॥
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वेदांगुलं भालन सोर्मुखस्य मानं तु घोणा चतुरंगुला च । मूर्धानमन्नतमत्र कार्यमदुर्विबं पृथुभालदेशं ॥ १५५ ॥
अरु च्यारि श्रगुल ललाट अरु नासिकाका प्रमाण कहया है अरु मुख विस्तार अरु नासिकाका विवर विस्तार च्यारि 'गुल जानो । तहां मस्तक किंचित नम्र करनो, अरु अष्टमीका चंद्र समान ललाट करना ।। १५५ ।।
वोरंतरं युग्मभागप्रमाणं तथा नेत्रयोः श्वेतिमा तत्प्रमाणं । सुतारास्थितिश्चैकभागे विभागा नसोर्मूलभागेऽक्षिणी युग्मभागे ॥ १५६ ॥
भंवरानिका अ ंतर दोय भाग प्रमाण तथा नेत्रनिका श्व तस्थल भी दोय भाग प्रमाण अरु तामध्य काली कनीनिका एक भाग प्रमाण तातें नेत्र तीन भाग प्रमाण है । अरु नासिकाका मूल भाग मैं नेत्रनिकी स्थिति दोय भाग प्रमाण जानो ॥ १५६ ॥
लते वेदभागायते मध्यतः स्थौल्ययुक्तेऽन्तिमे सत्कृशे धानुषे ।
नेत्रयोः पक्ष्मणी (यावता ) त्र्यंगुलं दृष्टितः कूलतुल्ये नदीनामिवोपर्यधः ॥ १५७ ॥ भंवारा च्यारि भाग प्रमाण विस्तृत होय अरु मध्यमें स्थूल अरु अन्तमें कुश धनुषाकार होय, अरु नेत्रनिकी वाफणी जहां तक तीन अंगुल दृष्टि पडै सो नदीका तट समान नीचै उपरि होय ॥ १५७ ॥
चांगुलमुच्छ्रितं स्यान्मध्ये तथा विस्तृतमव तुर्याः
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भागास्तु किंचिन्मिलितं द्विपार्श्वे किंचित्प्रकाशेऽतरुदीर्यमानं ॥ १५८ ॥ rai ला कार्धपृथ्वीनेत्रांगुलं स्याच्चिवुकं विशालं । मृलाद्वनोरंतरमस्य तद्ज्ञैर्वेदांगुलं द्वयंगुलविस्तरं स्यात् ॥ १५६ ॥
to दोन्यू ओष्ठ एक अंगुल मोटया अरु च्यारि भाग चोडा किंचित मिलित अरु दोन्यू पखवाडा किंचित् प्रकाशवान् अभ्यंतर उदीरित है प्रमाण जाका, ओष्ठकी अतिस्थिति नामक सृक्किणी एकांगुल होय अरु साढ़ा तोन भाग दाढीको नीचलो भाग सो चिवुक होय, अरु | विशाल होय, दाढीके अरु मुखके च्यारि अंगुल अन्तर अरु विस्तार दोय अंगुल होय ।। १५८-१५६ ॥
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प्रमाण समित्तिकदमें या
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कर्णों च षड्भागयुतौ प्रलंबो वेदांगुलव्यासयुतौ तदंतः। छिद्रे तु नाली यवनालिकामा त्व(गुलं चांतरमुच्यतेऽथ ॥ ६॥ श्रोत्रस्य नेत्रस्य च वेदमंतरमष्टादशांशा द्वयकर्णभित्तेः।
पाश्चात्यभागे तु चतुर्दशांशाः शल्याक्षिभागा परिधिस्तुकस्य ॥ ६१॥ अरु कान छह भाग प्रयाणा लंबाई अरु दोय भाग चौडे अरु तिनके मध्य छिद्रमें यवनालिका समान नाली अगुल चौडी, तथा कण अरू | है। नेत्र इनके च्यारि अंगुल अन्तर है अरु दोन्यू कर्णसमेत वा भित्तिके अर्थात् गंडस्थल के अठारह भागको अन्तर अरू पछाड़ी की तरफ चौदह भाग है अरु पस्तककी परिधि तेईस भाग प्रमाण है ॥ १६०-१६१॥
तथोर्श्वभागे रविभागमाला त्र्यंशांगुलाः पंच च कूपरस्य ।
तषोडशांशाः परिधेस्त तस्य तत्रापि हानिर्मणिबंधमात्रा ॥१६॥ तथा उपरि मस्तककी परिधि तालु रंध्र ताई वारा भाग अरु तीन अंगुल है। अरु कपालकी पांचभाग प्रमाणकी षोडशभाग परिधि है। परन्तु मणिबंध क्रमकरि हानि भी होती है ( इहां मणिबंधका अर्थ स्पष्ट नहीं हुआ)॥१२॥
पंचागुलं वा त्रिकभागकोनं मध्यं प्रबाहोर्विततेस्तु तस्य ।
विशालता स्याद् युगचंद्रभागा स्कंधं वृषस्कंधमिवाप्तशोभं ॥ १६३ ॥ अरु बाहुका मध्य विस्तार तीन भाग ऊन पंचागुल है अरु विशालता बारा भाग मात्र है और स्कंध है सो बैलका यूहा समान उन्नत शोभायमान होय ॥ १३॥
तुर्यागुला स्यान्मणिबंधको: वैशालमस्यास्तु चतुर्दशांश ।
मध्यांगुले दशकांतरं च मध्यांगुलिः पंचमिता करस्य ॥ ६४॥ अरु मणिबंध न्यो पोछ्यो (पोंचा) ताको विस्तार च्यारि अंगुल है लंबाई कूणी ताई चौदह भाग प्रमाण है। मध्यागुलित द्वादश भाग । प्रमाण अन्तर है अरु मध्यांगुलि पंच अंगुल प्रमाण है ॥ १६४॥
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अनामिका मध्यसुपर्वणार्धा प्रदेशनी स्वायततुल्यभागा।
कनीयसी पर्वलघुस्तथाऽत्र पंचांगुलं मूलमधो विशालं ॥ ६५ ॥ मध्यांगुलित अर्ध पर्व हीन अनापिका अरु प्रदेशनी अंगुलि अपनी मध्यमासे किंचिन्यून भागवारी है अरु कनिष्ठा अंगुलि एक पर्व हीन है अरु हस्तका मूलभाग अर अधोभाग पांच अंगुल है ॥ १६५ ॥
अर्धांगुला मध्यमतो विधेया हीना सुतर्जन्यपि योग्यदेशा । अंगुष्ठयुग्मं चतुरंगुलं स्यादेकांगुलं विस्तृतमन साधि ॥ ६६ ॥ द्विपर्वणांगुष्ठधृतिस्तथासां त्रिपवणा पुष्टियुता नखानां । पर्वार्धमानेन तलं करस्य सप्तांशकं पंच सुविस्तृतं च ॥६७ ॥ दृढं च बाहुद्वयमुन्नतांश निःसंधिहस्तिप्रकराकृतिः स्यात् । लंबौ तथा जानुगतौ सुवीरताख्यापकौ शोभनलक्ष्मभाजौ ॥ ६८ ॥ न चातिनिम्नौ मृदुलौ समौ च निश्छिद्रकौ मांसलरक्तवर्णो।
उरो वितस्तिद्वयविस्तृतं स्याच्छीवत्ससंभासि सुचूचुकं च ॥ ६६ ॥ अरु तर्जनी मध्यमातें आध अंगुल होन है। अरु अंगुष्ठ द्वयही समान च्यारि अंगुल विस्तृत अर एक अंगुल मोटा किंचिद धिक, अरु अंगुष्ठ में दोय ही पर्वको धारणा ह अरु ये सई अंगुली तीन तीन पवेवाली अर नखनको पुष्टिने देनेवारी अरु अर्ध पर्व प्रमाण हस्तका तल, अरु सात अंश लंबा पांच अंश चौडा, अरु बाहुद्वय ऊंचा कांधायुक्त अरु गाढा होय अरु संधिरहित हाथीका डिके आकार होय सो प्रशंसा योग्य है तथा लंबे गोड़ा ताई अपनी सुन्दर वीरपणके विख्यात करणहारे सुन्दर चियुक्त होय अर हस्त दोन्यू समान होय अरु नहीं
अत्यंत उंडा अर्थात् किंचित् ऊंडा होय अरु कोमल होय, अंगुलीका छिद्ररहित होय अरु मांसल होय अर्थात् पुष्ट होय अरु रक्तवणं, होय | सो योग्य है। अरु वक्षस्थल दोन वितस्ति होय, अर्थात् चौईस अंगुलेका होय अरु श्रीक्षका चिहकरि शोभायमान अरु सुन्दर कुचकरि | संयुक्त होय ॥ १६६-१६६॥ o nal
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सषट्कपंचाशसमांगुलं तु पुष्टोरसः स्यात्परिणाहदेशः ।
स्तनांतरं तालवितानभाजि युग्मांतरं स्यात्स्तनचूचुकं वै॥ ७० ॥ अरु वक्षस्थलकी पीठकी चौडाई छप्पन अगुल होय, अरु स्तनका अन्तर बारह अंगुल होय, दोन्यू अन्तर कुचनिका अग्रभागताइ होष सो योग्य है॥१७॥
तस्याधरस्तात्तु वितस्तिमालं नाभिर्यमावर्त्तमनोहरा च । मुखांगुलं रंध्रमथो तदीयं तस्याप्यधोऽष्टांगुलमंतरं स्यात् ॥ १७१॥ मेदस्य गुप्ताग्रिमभागकस्य कटिर्विशालाष्टदशांगुला स्यात् । हस्तद्वयं तत्परिधिः प्रशस्यः स्फिग् स्यान्मदांगुल्यवधिस्त्रिपर्णा ॥ १७२ ॥ सद्व्यंगुलं लिंगवितानमस्य मूले च मध्येऽगुलमेकमेव ।
व्यासाच्च नाहस्त्रिगुणस्तथामू त्वक् (१) प्रायसापौत्रकृतिविधेया ॥ १७३ ॥ अरु ता स्तनान्तरके नीचे एक वितस्तिमात्र दक्षिणावर्त नाभि होय अरु वा नाभिका मुख एकांगुल होय अरु ता नाभिके नीचे आठ अंगुल अन्तर छोडि लिंग है, अर वा लिंगका अग्रभाग गुप्त होय अर दोन्याके वीच अर्थात नाभि अर लिंगका पार्थ में कटि होय सो अठारह अंगुल प्रमाण होय अरु ता कटिकी परिधि दोय हाथ प्रमाण होय अर पेडू लिंग ऊपरि है सो आठ अंगुल होय तामें तीन रेखाका चिह्न होय, अरु किंचिदधिक दोय अंगुल लिंगका विस्तार होय अरु मूल अथवा मध्यमें एक अंगुल मोटा अरु अंतमें किंचिद् अधिक एकांगुल होय अर विस्तारसे परिधि तीनि गुणी होय है अर पोताका आकार आमकी गुठली समान होय ॥ १७१-१७३ ॥
कुकुंदरौ वाऽपि नितंबदेशौ समांसलग्रंथिकया वितानौ । स्कंधस्य पायोः रसबनिसंख्यं स्यादन्तरं पृष्ठविभागदेशे ॥ १७ ॥ वितस्तियुग्मायतमूरुयुग्मं विस्तीर्णतेकादशभिः प्रनुन्ना।
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मुले च मध्ये नवकांगुलं स्यात्रिः स्यात्तयोः सत्परिधिप्रतानं ॥ १७५ ।। जंघाद्वयं वृत्तमथो द्वितालं षडंगुला तत्पिटिका सुमध्या। सपादतुर्याशकगुल्फदेशः पादौ चतुश्चंद्रकलावदातौ ॥ १७६ ॥ सुगूढगुल्फो शुभचिह्नलक्ष्यौ सदंगुलीयोगविधानदृश्यौ। निम्नोन्नतं तत्र तलं प्रदिष्टं सत्र्यंगुलांगुष्ठविभासमानं ॥ १७७ ॥ ऋज्वायतस्य स्विति मार्ग एष पर्यंकसंस्थस्य विशेष उक्तः। उत्सेधमूर्ध्वात्परिणाहकार्धं तावत्सुपर्यकमवस्थितं स्यात् ॥ १७८ ॥ सुबाहुयुग्मांतरिते प्रदेशे तुर्यागुलं चांतरमाहुरन्ये ।
प्रकोष्ठकास्कूपरमूलवृद्धं सद्वन्यंगुलं सन्निपुणैर्विधेयं ॥ १७९ ॥ अरु कुकुदराकार अर्थात बालूका टीवाके आकार नितंब होय सो पुष्ट मांस करि गांठि संयुक्त होय । अरु कांधाका प्रदेशते अपानका - प्रदेश छत्तीस अंगुल अन्तर पृष्ठकी तरफसे जानौ अरु ऊरु दोन्यू ओर दोय विलस्ति प्रमाण प्रत्येक लंबे अरु विस्तीर्ण ग्यारा अंगुलसे नीचा अरु गोड़ा की तर्फ से मूल अरु मध्यमें नव अंगुल होय, अरु तिगुणी ताकी परिधि होय । अरु दोन्यूजंघा वृत्त कहिये गोलाकार अरु लंबे दोताल हैं, चौईस अंगुल हैं अरु ताकी पीडी सुन्दर है मध्यभाग जाका ऐसी छह अंगुल होय अरु टिकूण्यां किंचित् दृश्य च्यारि अंगुल होय अरु चरण चौदह अंगुल होय । बहुरि वे चरण गूढ़ हैं टिकूण्या जाकी अर सुन्दर चिन्हसंयुक्त होंय अर सुन्दर अंगुलीनिकी योजनामें निपुण
ऐसे होंय अर वाका तल किंचित् नीचा कहिये ऊंडा पर तीन अंगुल प्रमाण अंगुलीनिकर शोभायमान होय । ऐसें सरल सीधा कायोत्सर्ग है प्रतियाका येह मार्ग कया है । अर पद्मासन मूर्तिका कुछ भेद है सो येह ऊंचाईत मोटाई अधे प्रमाण होय दोन्यू हस्त और चरण ऊपरि नीचे है।
पर्यंकासनमें जैसै अवस्थित है, तैसें होय । बहुरि याही पर्य कासनमें दोन्यू भुजानिका अपना पखवाड़ाका अन्तर च्यारि अंगुल प्रमाण कथा । || है। अरु अन्य प्राचार्यनिका ऐसा मत है कि इस्तका पोहच्यांसे कूण्यांकी वृद्धि ताई दोयही अगुल अन्तर होय ॥ १७४-१७६ ॥
सल्लक्षणं भावविवृद्धिहेतुकं संपूर्णशुद्धावयवं दिगंबरं ।
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सत्प्रातिहार्येनिजचिन्हभासुर संकारयेद्विबमथार्हतः शुभं ॥ १८॥ या प्रकार श्री अहतका बिंब समीचीन लक्षणसंयुक्त अरु शांतभावकूबधावनेवारा, संपूर्ण अंगोपांग शुद अरू दिगंबर स्वरूप अष्ट प्रातिहायनिकरि संयुक्त अरु अपना अपना चिन्ह करि भासमान कराणा योग्य है ॥१८॥
सिद्धेश्वराणां प्रतिमाऽपि योज्या तत्प्रातिहार्यादिविना तथैव ।
प्राचार्यसत्पाठकसाधुसिद्धक्षेत्रादिकानामपि भाववृद्धथै ॥ १८१ ॥ और सिद्ध परमेष्ठीका प्रतिबिंब भो प्रातिहार्यविना स्थापना योग्य है अरु शुभभावकी वृद्धिके लिये आचार्य परमेष्टी अरु उपाध्याय अरू साधु अरु सिद्ध क्षेत्र आदिकी प्रतिमा योग्य होय ॥१८॥
नासाग्रदत्तक्षणमुग्रतादिदोषैरपेतं जिनबिंबमा ।
अंगाधिके हीनतनौ प्रकर्तुर्नाशाय स्यादत एव यत्नः ॥ १८२॥ इस प्रकार अपनी नासाग्रदृष्टि अरु क्रूरतादि दोपनिकरि रहित जिन विंब पूजने योग्य है। अर अंग हीन वा अधिक होय तो कर्ताका अर्थात पूजकका नाशके अर्थि होय है इस हेतु प्रतिमानिर्माणमें यत्न ही परिपूर्ण श्रेष्ठ है ॥१२॥
विस्तारतोऽस्य प्रथितुं समीहा चेच्छ्रावकाचारत ऊहनीयं ।
न मृत्तिकाकाष्ठविलेपनादिजातं जिनेंद्रेः प्रतिपूज्यमुक्तं ॥ १८३ ॥ और इस अंगोपांगकी रेखा चिन्ह आदि विस्तारसे जाननेका इच्छुक होय सो श्रावकाचार मूल अंगसैं विचार करना योग्य है और मृतिका काष्ठ अरु चित्राम आदिका जिनबिंब पूज्य नहीं कया है ॥१८३॥
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अथ प्रतिमानिर्माणमुहूर्तः । अथ प्रतिमाका निर्माणका मुहूर्त कहिये है
- उत्तराणां त्रये पुष्ये रोहिण्यां श्रवणे तथा ।
वारुणे वा धनिष्ठायामार्दायां विंबनिर्मितिः ॥ १८४॥ अथे-उत्तरा तोन पुष्य रोहिणी श्रवण चित्रा धनिष्ठा आर्द्रा सोम गुरु शुक्रमें विव वनावना श्रेष्ठ है ॥१४॥ प्रसन्नमनसा कारं संतप्यं पुष्पवाससैः। तांबूलैविणर्यज्वा कारयेन्नेत्रहृत्प्रियं ॥१८५ ॥
गुरुपुष्ये तथा हस्तार्यम्णि गर्भोत्सवे शुभान् । निमित्तान्नवलोक्येशप्रतिमानिर्मितिः शुभा ॥१८६ ॥ __सो ऐसे कि-पूजक प्रथम प्रसन्न मन करि पुष्प वस्त्र तांबूल अर दक्षिणा आदि करि कर्ता सिलावटनै संतोषित करि अपना नेत्र हृदयको | मनोहर ऐसा बिव करावै तथा गुरु पुष्य योग तथा हस्ताक योगमें तथा जिस भगवानका विव बना होय उस भगवानका गर्भ कल्याणक दिनमें निमित्त शुभसूचक देखि करि प्रतिमा निर्माण योग्य होय ॥१८५-१८६ ॥
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अथ प्रतिष्ठामुहूर्ताः। अब प्रतिष्ठाके मुहूर्त कहिये है
लग्नस्य शुद्धिमभिधाय सुपंचधाग्यां. यां वारयोगतिथिभादिकलमशुद्ध्या । नैमित्तिकार्थपरिसंकलनैः पुराणैरुक्तां प्रतिष्ठितिविधौ पुरतो विदध्यात् ॥ १८७॥
भौम रविं शौरिमपास्य वाराः सर्वे हि शस्याः किल संस्थितौ च । सिद्धामृतादिं परियोज्य रिक्ताममां त्यजन् याति सुसौख्यभावं ॥ १८८॥
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रिक्तास्वथो योगविशेषसिद्धया कार्याणि कुर्यात्सिनिवालिकां च । संवर्जयेत्सिद्धियुजं तथापि रुद्रामपि प्रांततिथिं विनेष्टं ॥ १८ ॥ जिनस्य यस्यान दिने प्रजातं कल्याणकं तन्नियमेन तत्र । तस्यास्तु तत्कार्यमथोत्तरायां पुनर्वसूपुष्यकरस्रवस्सु ॥ १०॥ अंत्येऽपि रोहिण्यजवाजिषु द्राक् चित्रामघाखातिभगांगमूलं।
कदाचिदंगीकृतमल चान्यत् गाह्य सुनक्षत्रमधीतिवाक्यात् ॥ १६१॥ पांच प्रकारकी तिथि वार नक्षत्र योग कर्णरूप दिनशुद्धि है तिसमें भी लग्नशुद्धित मुख्य करि निमित्तज्ञानोनकरि संकलित ऐसा दिनमें F पुराण पुरुषनिकरि कथित ऐसा दिनमें प्रतिष्ठाकी विधिने अग्रं विधान कर । अर मंगल दीत शनिवारनि छोड सर्व ही वार संस्थापनमें
प्रशंस्य है और सिद्ध अमृत आदि योगर्ने योजनकरि अमावस्याने सांगि कर्ता सुख भावने प्राप्त होय। रिक्ता तिथिके विषै भी योग विशे
पकी शुद्धि होय तो कार्य शुभ करै पूर्णिमानै वर्जित करै अर सिद्धि योग भी होय परन्तु एकादशी होय तो वर्जित है तथा मासांत तिथिविना ४ भी इष्ट कहिये है । अर जिस जिनंद्रका जिस तिथिमें जो कल्याण हुवा होय उस तिथिमें वह कल्याण इष्ट है और उत्तरा पुनर्वसु पुष्य हस्त
श्रवण इनमें अरु रेवती में, रोहिणी अश्विनी में शुभ योग तो ग्राहय है अरु चित्रा मघा स्वाति भरणो मूना भी कदाचित् आवश्यक कार्यमें अंगीकार किया है अर अन्य भी शुभयोगयुक्त नक्षत्र ज्योतिषीका वाक्यतै ग्रहण करना॥१८७-१६१ ॥
विष्कंभमूले शरनाडिका षट् गंडातिगंडे नव वज्रघाते। . व्यत्यादिपातं परिघं च सर्व विवर्जयेद् मुक्तिसुखाभिलाषी ॥ १६२ ।। भूकंपदिग्दाहनरशमृत्यूनुद्दिश्य घस्त्रत्रयमल वज्यं ।
चरेषु विष्टिप्रगतेषु नैवं प्रतिष्ठितिं प्रांचति पूज्यलोकः ॥ १६३॥ और विष्कंभ अरु मूलमें प्रथम पांच घड़ी वर्जित है अरु गंड अतिगडमें छह घड़ी, वज्र अरु घातमें नव घडी वर्जित है ओर मुक्ति सुखकी | वांछावालाने व्यतिपात अरु परिघ सर्व ही वर्जित करना योग्य है । अरु धरतीको कांपिवो अरु दिशाका दाह अरु भूपतिका मरण आदि
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प्रतिष्ठा है
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| उत्पातने उद्देश करि तीन दिन इस प्रतिष्ठामें वर्जनीक है ओर पूज्य पुरुष इस कार्यको स्थापनामें चरनक्षत्र अरु विष्टि योगमें होय तो सवथा वर्जित कहे हैं ॥१२२-१२३॥
सूर्येण वा चंद्रमसा कुजेनाष्टम्यंकशल्यानि शुभावहानि ।
बुधेन च द्वादशिका द्वितीया गुरुस्पृशो दिक्शरपूर्णिमाश्च ॥ १६४ ॥ बहुरि सूर्यवारा अष्टमी, सोमवारा नवमी, मंगल वारा तृतीया शुभ होय है। बुधवारा द्वादशी तथा द्वितीया अर गुरुवारयुक्त दशयो, पंचपो, पूर्णिमा होय सो श्रेष्ठ है ॥१६४॥
शुक्रेण षष्ठी प्रतिपत्प्रशस्ता चतुर्थिका वा नवमी शनिस्था।
सिद्धिं तथा चामृतयोगमुच्चैः प्रशस्तमाहुर्मुनयो निमित्तात् ॥ १९५॥ तथा शुक्रवारा षष्ठी वा पड़िवा शुभ है , अरु शनिवार चतुर्थो वा नवमी श्रेष्ठ है। उनमें सिद्धि योग अमृत सिद्धि होय तो मुनीश्वर निमितज्ञानतें अतिप्रशस्त कहें हैं ॥१९॥
सूर्यादितो वा भरणी च चित्रां तथोत्तराषाढधनिष्ठभं च ।
सदुत्तरां फाल्गुणिकां च ज्येष्ठामन्त्यं तथा जन्मभमेव मोच्यं ॥ १६६ ॥ बहुरि मय वारतें सप्तवारमें अनुक्रम करि भरणी १ चित्रा १ उत्तराषाढा १ धनिष्ठा १ उत्तराफाल्गुनी १ ज्येष्ठा १ रेवती १ त्याज्य है तथा जन्मनक्षत्र भी त्याज्य है॥१६॥
दग्धा तिथिः प्रयत्नेन वर्जनीया तथा शुभाः।
अमृताख्या अत्र योज्याः प्रतिष्ठाया महोत्सवे ॥ १९७॥ अर बड़ा प्रयवकरि दग्ध तिथि वजनीय है तथा शुभ अमृतादि योग ही प्रतिष्ठाका उत्सवमें उचित है ॥१७॥
क्रूरासन्ने दृषितोत्पातलूता विद्वा दुष्टाः पर्वसन्नोपपाताः ।
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प्रतिष्ठा
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वाः सर्वेऽसद्ग्रहास्सूर्यबेधो राशिद्रेष्काणक्षकांशोऽपि वयः॥ १८॥ तथा क्रूर आसन्न दूषित उत्पात लुता विद्धदुष्ट सन्न उपपात वर्जित है अथवा राशि द्रेष्काण नक्षत्र संबंधी स्य वेध भी वजित है ॥१६॥
लग्नात्तृतीये शिवषट्कदेशे भौमो यमश्चापि शनैश्चरोऽपि ।
शुभाय सूर्यो दशमोऽपि सौम्यो मुक्त्वाष्टमं द्वादशमं शुभाय ॥ ६ ॥ अरु लग्नस तीसरे स्थान तथा षटक स्थान ग्यारेमे स्थान तथा भोम राहु शनेश्चर होय तो शुभ है। अरु दशपे सूर्य श्रेष्ठ है। परन्तु चंद्रमा || आठपे तथा बारमे नहीं होय तो शुभके अर्थि है ॥ १६ ॥
षष्ठाष्टमं द्वादशकं तृतीयं त्यक्त्वा गुरुः स्याद् शुभदो विधिज्ञः।
शुक्रो रसाष्टांत्यमुनिस्थितोऽसौ न स्याच्छुभोऽन्यत्र शुभाय बोध्यः ॥ २०० ॥ अरु छठे पाठये तथा बारमे तीसरे नहीं होय तो गुरु श्रेष्ठ है । पंचममें गुरु श्रेष्ठ है। अरु छ? पाठये वारपे शुक्र शुभ नहीं, अन्यत्र शुभ होय है ॥२०॥
शशी त्रिरुद्रद्वितये प्रशस्तो यदास्तदौर्बल्यमुपागतो न ।
ताराबलं चात्र विधौ विधेयं त्रिसप्तपंचम्यपराः शुभाय ॥ २०१॥ अरु चंद्रमा तीसरे दूसरे ग्यारेमे श्रेष्ठ होय है। जो होनवली तथा अस्त न हाय अथवा तारा बल ही इस विधि विधान करनो सो तीसरो पंचमी सप्तमीतें अन्य होय तो शुभ होय ॥२०१॥
कृष्णे च ताराबलमत्र शुक्ले सुधांशुवीर्य नियतं मुनींद्रैः।
जीवेंदुसूर्योऽस्य बलं प्रधानमन्यद्ग्रहाणामपि निर्बलत्वे ॥ २० ॥ अरु कृष्णपक्षमें ताराबल प्रशस्त है। अरु शुक्लपक्षमें चंद्रमाको वन श्रेष्ठ है। पर मुनोंदने ऐसा कहा है कि अन्य ग्रह निवन भी होय तथापि वृहस्पति चंद्र गुरु सूर्य का बल प्रधान निश्चय कियो है ॥ २०२॥ ..
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प्रतिष्ठा
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अथ प्रतिष्ठामहोद्योगः। ऐसे मुहत काड, अब प्रतिष्ठाको उत्तम उद्योग कहिये है
इत्थं मुहूर्त पारिशोध्य सम्यक् राजाज्ञया संघनिमलणार्थ ।
विधानकृत्यस्फुटलेखनांका प्रेष्या पुरः पत्रावनीतरज्जूः ।। २०३ ।। प्रतिष्ठाकारक प्रथम ऐसे मुहुर्तका शोधन करि राजाको आज्ञा लेय सकलसंघ ज्यो मुनि अजिका श्रावक श्राविका समूहकू नियंत्रणायें जिस जिस विधान नियुक्त दिनमें होय उसकी स्फुटता लेखनपूर्वक पत्ररूप विनयपत्रिका-रूप रज्जू प्रेषित करे। रज्जूका कहनेकरि जैसे दोरोसे | खंच लीजिये है तैसे विनयपत्रिका संघकू खेंचे है ॥२०३ ॥
अादिष्टिनं सदसि पूज्य विचार्य कार्य मात्सर्यसंशयितनिस्त्रपवाक्यहीनं ।
पलं लतांतमलयादिभिरर्च्य दूरादामंत्रयेद् गुणवतो बहुमानपूर्वं ॥ २०४॥ वह कर्ता सभामें आदिष्टो जो आचार्यनै पूजि अरु कार्य. विचारि मत्सरता संशयता निर्लज्जता वाक्यहीन पत्रने पुष्प चंदनादिककरि पूजि | दादरवर्ती गुणवाननै बहुमानपूर्वक आमंत्रित करै॥२०४॥
सहायान् ब्राह्मण्ये विधिवदतिथीन् कल्पनिरतान् मरुत्वंतं संतं प्रकृतिविरतं कोशनिरतं । परं चान्यं सने सदसि विनियुज्याद्यजनभूद् धृतौदार्याशंसुः प्रथमपठितार्हच्छुतनुतिः ॥२०५॥ धारण किया है उदारता अरु प्रशंसा जिननें ऐसा यज्ञका कर्ता प्रथम अहं त अरु शास्त्रका नमन करि विधिपूर्वक यनमें गुरुजनक कल्पमें नियुक्त करि उनकू सहाय मानि अपनी प्रकृति जाननेवाला ऐसा योग्य इन्द्रने तथा कोषाध्यक्षने तथा अन्यने अन्यकार्यमें प्रतिष्ठा-विधानमें नियोजित करै ॥२०॥
गुरुं नत्वा पृच्छेद यजनसमनीतांबुधितटं परिप्राप्तुंकामो मुनिवर ! निमित्तानि कथय । तदुद्देशे सम्यकप्रणिधिनिहतात्मप्रतिभया स चाप्यालोकेत श्रितविजनदेशोपवसनः ॥ २०६ ॥
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अथ श्रीगुरुसे पूछ है कि हे मुनिवर ! यसका प्राप्त भया है समुद्र पार जिसने ऐसा प्राचार्य ने नमस्कार करि अपनी बांछको प्राप्त होनेका इच्छुक मैं हूँ, आप इसकार्य का उद्देशमें निमित्तनै कहो। ऐसे पूछ्ता वह मुनि भी समीचीन चित्त काग्र-संयुक्त प्रात्माकी प्रतिभा कहिये युक्ति पूर्वक बुद्धिकरि तिनि निमित्तने पालोकन करे सो एकांत वन आदिमें उपवासका धारण करे ॥२०६॥
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अथ तत्समयशकुनावधारण । भूमौ विधाय परिकर्म चतुष्कमध्ये चक्रं सुकूर्मविधिना परिभाव्य रम्यं ।।
देवांशसंस्थितिवता खलु सिद्धचक्र मंत्रं यथोक्तविधिना परिजल्पनीयं ॥ २०७॥ अथ ता समय शकुनका अवधारण करै वह आचार्य अथवा मुनि भूमिमें ईर्यापथ शुद्धिपूर्वक परिकर्वने करि कर्मचक्र लिखै। चतुष्क कहिए । नियमकरि स्थापन किया चौकामें स्थितिकरि राक्षस मनुष्य देव ऐसा त्रिभागर्न जहां देवांश आवै तहां पद्मासन माडि सिदचक्रम'त्र जो ‘ों ही
अनाहतसिद्धचक्राधिपतये ह ही ह्रीं स्वाहा' इस मत्रका जप करे, पाछे वहां ही शयन करे इहां प्रतिष्ठामें गृहस्थाचार्य हीका प्राधान्य. है। वीत| राग मुनिका क्रियाको कर्तव्यमें मुख्यता नहीं है। ऐसा भी जान लेना ॥२०७॥"
स्वप्ने स्वरांगाविधाविधिज्ञः प्रातर्जिनाराधनसंस्तवं च ।
कृत्वोपदिश्येत यथावरीयं शुभाशुभं यन्निशि लोक्यमानं ॥ २० ॥ फिरि वहां स्वप्नमें स्वर अग नक्षत्र इनि भेदनमें निगमन स्फुरण कंपन आदि शुभाशुभ सूचक है तिनकी विधिनें जाननेवालो प्रभातही उठि जिन'द्रको पूजन संस्तवन करि जो यज्ञमें शुभाशुभ रात्रिने देखा था सो निवेदन करे ॥२०८॥
गोहस्तिशार्दूलमुनीश्वराणां चंद्रार्यमाम्भोनिधिकल्पभाजां।
शालेयमुक्ताफलपर्वतानां सौख्याय दृष्टिः स्वप्ने नितांत ॥६॥ स्वप्नमें बैल, हाथी, सिंह, मुनि तथा चंद्रमा, सूर्य, समुद्र, कल्पवृक्ष तथा चावल, मोती, पर्वत इत्यादिकी दृष्टि प? तो सुख प्राप्ति करे अरु निर्विघ्न कार्य सिद्धि होय ॥२०६॥
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समाप्तिकाले मनुजल्पनस्य वामा शुभांका निजनाडिकेष्टा ।
आरंभकाले खलु दक्षिणार्ध्या स्वस्थस्य निर्णीतिकृतो जनस्य ॥२१०॥ अर मन्त्रका समाप्ति समयमें अपनी वाम नाडी बहै तो शुभ इष्ट है पर प्रारंभ समयमें दक्षिण नाड़ो श्रेष्ठ है परंतु इह नियम बात पित्त । कफ आदि रोगरहितके अरु स्वर निर्णय करनेवाला जनके होय है ॥२१०॥
बाहोः परिस्फूर्तिरुरोनितंबतुंदस्तनानामपि सौख्यपात्रं ।
घन तु नित्यं विपरीतपक्षः स्यादेतदंगस्फुरणे निमित्तं ॥ ११॥ __ अर दक्षिण भुजाका फरकना वा वक्षस्थल अरु नितंब-भाग अरु उदर अरु स्तनका फुरकना भी शुभ है परन्तु दिनमें है। रात्रिमें वाप! शरीर ही श्रेष्ठ होय है अर जपमें तथा प्रभातनिमित्तावलोकन समयमें एक कुभ लग्न विना सर्व ही श्रेष्ठ होय है ॥२११॥
लग्ने विचार्ये सति कुंभवज्यं षष्ठाष्टमे चंद्रमसा वियुक्ते।
धर्मे गुरौ तदृशिनापि युक्ते वीर्ये तनौ वा बलवत्प्रदिष्टे ॥ १२॥ अरु अन्य लग्नमें चन्द्रमा छठे आठमें नहीं होय अरु दशमभावमें वृहस्पति होय वाकी दृष्टि भी होय अरु लग्न बलवान होब तौ शुभ कहिये ।। २१२॥
तैलसर्पधरणीधरकंपमाक्षिकाक्ततनुकूपनिपाताः ।
यद्यशुद्धशकुनेक्षणलब्धी शांतिकर्म विदधीत तदानीं॥ १३ ॥ अर जो स्वप्नमें तैल सर्प पर्वतका कंपन, अरु स्वहस्तसे लिप्त शरीर यद्वा वनमक्षिकान करि व्याप्त शरीर अरु कुप्रामें पड़ना इसादि अशुभ शकुनका देखना अथवा लाभ होय तो उसी समय शांतिविधान करना ॥२१॥
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प्रतिष्ठा ५२
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अथ यज्ञविधानयोग्यक्षेत्रशुद्धिरुपदिश्यतं ।
अब प्रतिष्ठा के योग्य क्षेत्रकी शुद्धि कहिये हैं
मनोज्ञवर्णा सुरसा विशाला कार्कश्यवल्मीकशिलादिवर्ज्या । दग्धादिदोष रहिता जलाद्यारामादिसंस्था धरिणी प्रशस्ता ॥ १४ ॥
इस यज्ञमें भूमि ऐसी प्रशस्त हैं, मनोज्ञ वर्ण अर्थात गौरवर्ण सुन्दर रसवती अरु विस्तीर्ण होय अरु कंकर पत्थर बंबी शिला आदि प्राणिवाधक वस्तु-रहित होय, दग्ध नहीं होय; जल जहां सुलभ होय अरु बाग-बगीचा आदि जहां बहुत होय, ऐसी भूमि प्रशस्त होय है ॥ २१४ ॥ हो धरायामिह ये सुराश्च क्षमंतु यज्ञाधिकृतिं ददंतु ।
प्रीतिः पुराणा बहुवासयोगात् क्षितावतोऽस्मद्विनिवेदनं वः ॥ १५ ॥
र यज्ञकी भूमिमें जब प्रतिष्ठाकी रचना करे, उसके पहली प्रतिष्ठाचार्य वा प्रतिष्ठाकारक भूमिस्थ देव तिच मनुष्यनि प्रति क्षमापन कर, सो ऐसें है-अहो ! बड़ा हर्ष है, इस स्थानमें देव हैं ते क्षमा करो अरु यज्ञका अधिकार देहु, आपका बहुत कालका इहां निवास है अरु इस क्षेत्र पुरातन प्रीति है, इसी हेतु में निवेदन करू हू ॥ २१५ ॥
तद्वादशांशेषु जिनेंद्रगर्भगृहं तु मध्ये परिकल्पनीयं ।
तत्प्राचि सन्मंडलमुन्नतांगं क्रियाकलापोचितमाविधेयं ॥ १६ ॥
बहुरि उसी भूमिका बारमा हिस्सामें मध्य जिनेंद्र-गर्भ गृह करना । अरु ताका पूर्व-मंडप डा उन्नत जहां विधान होना होय सो
करना ।। २१६ ॥
प्रेक्षागृहं साधनिकागृहं तु तदप्रभूमावपि सव्यपार्श्वे ।
माहवनीयोद्धरणं सुदक्षे पार्श्वे सभा प्रश्नकृतां मनोज्ञा ॥ १७ ॥
अरु जाके अग्र दर्शनार्थी पुरुषनिके वास्तें द्वितीय मंडप करना, अरू ताका पार्श्व में सामग्री- संपादन-गृह करना अरु दक्षिणी पखवाड़ा में होम आह्वाननादिका उद्धार करना, अरु समीप ही प्रश्न-सभा करना बहुत मनोज्ञ ॥ २१७ ॥
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प्रतिष्ठा
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आचार्यशक्रस्थितिरस्य पृष्ठे स्नानासनादीनि तदंतिके च ।
तथोत्तरस्यां जननोत्सवादि दीक्षावनं ज्ञानविभूतिसद्म ॥१८॥ ___ अरु याके पृष्ठ भागमें आचार्य अर इंद्रकी स्थिति करनी, अरु समीप हो स्नान सामयिक आदिको सभा अर ताके उत्तरमें जन्मोत्सवसूचक सुमेरु पर्वत रचना अरु ताके अग्र दीक्षावन अरु समवसरण स्थान करना ॥२१८॥
नृत्यालयादिः स्वकयोग्यभूमौ विकल्पनीयं परिणाहभागे। गर्भालयात्पश्चिमदिग्विभागे सामग्रिकाकल्पनमग्रभागे ॥ १६ ॥ संप्रेष्यकानामपि नृत्यगीतमतांडवं पुण्यविधानदक्षं।
मार्गाविदूरा किल दानशाला सभेषजागारमपि कियावत् ॥ २०॥ अरु अपनी योग्य दिशामें न त्य तांडव वादित्र आदिका स्थान बड़ा विशाल स्थानमें करना। अब इनका विधान कहैं हैं कि गर्भगृहका पश्चिमपार्श्व में सामग्रीकी कल्पना अरु अग्रभागमें प्रेक्षक जनोंका स्थान अरु न त्य गोत तांडव भी सन्मुख करना, अरु तहां पुण्यका विधानमें निपुण ऐसी दानशाला मार्ग के समीप किंचित दूर करनी। अर औषधगृह भी क्रियासंयुक्त दानशालाके समीप ही योग्य है॥२१-२२० ।
निस्तारके धर्मनिरूपणं च पृच्छाश्रुतोद्घोषणवाचनादिः।।
गोत्सवे मातृजनोपवेशः पृथग नपागारनिवेशनं च ॥ २१॥ अरु निस्तारक जो प्रश्नसभा तिसमें धर्म चर्चा अरु धर्म प्रश्न अर शास्त्रको पठन श्रवण करना, अरू गर्भ कल्याणगृहमें मातृजनोंका निवाश | होय अरु भिन्न ही राजाका स्थानमें मंडप करे ॥२१॥
एवं विधिज्ञस्तु यथानुरूपं देशोचितं संविदधीत युक्त्या।
गर्भालये स्थापनमीश्वराणां वेदीत्रिभूव॑विशालमध्या ॥२२॥ या प्रकार विधिने जाननहारो यथायोग्य देशकालोचित रचना युक्तिपूर्वक कर। अर जो गर्भगृह है उसमें प्रतिबिंबनका स्थापन होय अरू वहां वेदी तीन कटिनीकी उर्ध्व-मध्य-अधोरूप विशाल कर ॥ २२२ ॥
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प्रतिष्ठा
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तदग्रवेदी चतुरस्रकाष्ठकरप्रमाणा सुकुमारिकाभिः ।
सुवासिनीभिश्च सुलिंप्यमाना सन्मृत्स्नया चित्रविचित्रशोभा ॥ २३ ॥ अर ताका अग्रभागमें चौकोर आठ हाथ प्रमाण चोतराके आकार वेदो है सो सुन्दर कुमारिका तथा सुवासिनी स्त्रियां करि शुद्ध मृत्तिका करि लिपी अरु चित्र विचित्र शोभावती करना ॥ २२३ ॥
अपक्वपक्वेष्टिकसंनिवेशा दृढा सिता दर्पणवत्समाना।
अंतःस्थितैः षोडशभिर्लसद्भिः स्तंभैर्वितानोद्गथितैःप्रयुक्ता ॥२४॥ सो वेदी पकी तथा कच्ची इटनि करि रची अरु गाढी अरु उज्वल अरु दर्पण सपान सम, ऐसी होय । अर ताके भीतर सोलह सुदर चंदवाका आधार भूत ऐसे काठके स्तंभनि करि युक्त होय ॥ २२४ ।।
वेद्याः कोणे हस्तिहस्तोच्चवेदस्तंभान् दद्याद बनिदिक्तः सचूडान् ।
प्रादक्षिण्यात् पंचमांशं तु भूमौ दद्यादेवं षोडशस्तंभसंस्था ॥ २५ ॥ अरु ता वेदीका कोणमें हाथीकी मूढि समान ऊंचे ऐसे चार स्तंभ तो अग्निदिशा देणा, च डा ऊपर कला है तिनि संयुक्त होय अरू प्रदक्षिणाकी रीतिते देणा, अरु तहां स्तंभका पाचवां हिस्सा तो भूमिमें गाडना ऐसे षाडश स्तभिनिको स्थिति कहो ॥ २२५॥
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अथ स्थंडिलशुद्धिप्रकारः ।। अब इहां वेदीकी रचनाकरि ऊपरि मंडल रचना करै सो ऐसे है
मध्ये स्थंडिलमुन्नतं शुचिसितस्फारार्ध्यवासोभृतं, यागोपस्कृतमंडलार्थमभितो वाटीभिरावेष्टितं ।
द्वारैर्दिक्षु विराजितं ध्वजपताकाभिस्ततं सर्वतो राजच्छतसुचामरादिविभवं प्रेक्षावतां प्रीतिदं ॥२६॥ वेदीका मध्यमें चोंतरो किंचित ऊंचो सुफेद शुद्ध विस्तीर्ण वस्त्र करि ढको, सो यज्ञ का उपकारक मंडल निमित्त चोतरफ वाडिकरि वेष्टित
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अरु दिशांमें द्वारनिकरि शोभायमान अरु ध्वजा घर छोटो धुजानिकरि व्याप्त ऐसा राजचिन्द छत्रादि चामर सिंहासन आदि हैं संपदा जहां ऐसा दर्शन करनेवारेनके प्रीतिको देनेहारो स्थंडिल करै ॥ २२६ ॥
स्थंडिलं याद हीनांगं यष्टुर्नाशाय कीर्तितं ।
अधिकं राष्ट्रभंगाय तस्माद् योग्यं प्रकल्पयेत् ॥ २७ ॥
अरु जो स्थंडिल अपनी प्रमाणतासे हीन होय तो यजमानका नाश करे। जो अधिक होय तो राज्यका देशका नाश करे। माही हेतु स्थंडिलने सममूत्रपात करि माप ही करने योग्य है ॥ २२७ ॥
वेदी चतुर्विधा तल चतुरस्रा च पद्मिनी ।
श्रीधरी सर्वतोभद्रा दीक्षासु स्थापनादिषु ॥ २८ ॥
अर वेदी च्यारि प्रकार है-१ चोकोर, २ कमलके आकार पद्मिनी नामक, ३ श्रीधरी अर्धचन्द्राकार, ३ सर्वतो भद्रा आठ कूटकी, सो दीक्षा में तथा प्रतिष्ठामें करनी ॥ २२८ ॥
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चतुरस्रा चतुःकोणा वेदी सौख्यफलप्रदा ।
केचिच्चैत्यप्रतिष्ठायां पद्मिनी पद्मसंनिभा ॥ २६ ॥
अरु तामें चौकोर बड़ी सुखकी देनहारी आचार्यने विवप्रतिष्ठायें पद्मिनी नामक कही है पद्माकार ॥ २२६ ॥
शुभेहून लग्नात्प्रथमं तु पक्षादर्वाक् निशीथे यजनस्य कर्ता ।
आचार्य मामंत्र्य तदाज्ञयेंद्रतंत्रः स्वबंधूपस्मृतिं विदध्यात् ॥ ३० ॥
जनकौ कर्ता प्रथम एक पक्ष पहिली रात्रिने श्रीश्राचायेंने आमंत्रणकर असता की आज्ञाप्रमाण अरु इंद्रने साथि लेय अपना ] बंधु कुटुंब जनाने बुलाबै ॥ २३० ॥
तान्मानयित्वा कुलकामिनीभिः कन्याभिरष्टाभिरलंकृताभिः ।
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सन्मंगलोद्गानपवित्रताभिर्वेद्या तथा स्थंडिलकोपकंठे ॥ ३१॥ अर उनको सन्मानकरि कुलवती शीलवती स्त्रियां संयुक्त पाठ कन्याकरि भूषित होय समीचीन मंगलपाठ स्तोत्रन करि पवित्र असा भूषण वखादि संयुक्त कन्याकरि वेदो समीप स्थंडिलमें तिष्ठ ॥२३१ ।।
चूर्णानि संमद्य सितासितानि पीतानि रक्तानि हरिन्निभानि ।
पात्रे निधायार्घ्यमनर्थ्यशील प्राचार्यभक्तिं प्रपठेद् यतात्मा ॥ ३२ ॥ अरु वहां शुक्लवर्ण, कृष्णवर्ण, अरु पीतवर्ण रत्नवण तथा हरितवण के चूण नको पीसकरि पात्रमें स्थापनकरि यजमान स्वच्छ-वभागो यजमान हुवो संतो आचार्यभक्तिने पडे ॥२३२
अत्राचार्यभक्तिश्रुतभक्त्यहभक्तिनिर्वाणयोगमक्तयोऽनुपदमेव वक्ष्यमाणास्ततोऽत्र सर्वत्रान्नेवाः । इहां प्राचार्यभक्ति श्र तभक्ति अहं द्रक्ति निर्वाणभक्ति पाठ करना जरूर है सो आचार्य ग्रयकर्ता समोप हो कहेंगे, तात सर्वत्र जहां मेसो । भक्ति पाठका कार्य होय तहां तैसी ग्रहण करि लेना ।
अथ गुर्वाज्ञालंभनविधिः। अब प्रथम गुरुकी आज्ञाको लाभको विधान कहिये है, सो ऐसे हैं
पुष्पाक्षतैक्तिकदामभिस्तान् सर्वान् समापृच्छय मृदुस्वभावात् ।
रात्रिं समां जागरणवतेन नयेत्स्वयं मांगलिकानुभावः ॥ ३३ ॥ स्वयं आप मंगलाचरणकर्ता व सर्व बंधुजन अथवा कन्या अथवा सुवासिनी आदिकपुष्पाक्षतादिक मौक्तिक मालानकरि कोमल स्वभाव || ते सत्कार-युक्तकरि समस्त रात्रिने जागरण व्रतकरि व्यतीत करे ॥ २३३ ।।
प्रातर्गृहीत्वा गुरुपूजनाऱ्या वादिननादोल्वणयावया सः । गुरूपकंठे नतमस्तकेन भूमिं स्पृशन् वाक्यमुपाचरेत्सत् ॥३४॥
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निर्हेतुबंधो ! सुकृतानुभावात् संप्राप्तजन्मा सुकुले सुगोल। नरत्वमासाद्य यथार्यदेशे क्षेत्रेऽथ काले जिनधर्ममाप ॥ ३५ ॥ न्यायेन पित्रा धनमर्जितं मे मह्यं प्रदत्तं च मयार्जितं यत् ।
तदात्मनीनं कतिचिद्विधं स्त्रीपुत्राद्यनुज्ञातमुपस्पृशामि ॥ ३६ ॥ यजमान प्रभात समय गुरु-पूजननिमित्त अर्घ ने पात्रमें लेय नानापकार वादिनको बजाय यात्राकरि प्रतिष्ठाचार्य वा मुनि समीप पस्तक | नमाय पृथ्वीने स्पर्श करतो संतो बीनतो करे कि-हे अकारण बांधव ! में कोई पूर्वोपार्जित पुण्यका प्रभावत सुदरकुलमें शुभगोत्रमें जन्म प्राप्त भयो अरु आर्यदेशमें इस क्षेत्रमें मनुष्यभव पाय इह जिनधर्म प्राप्त भया । अरु न्यायोपाय करि जो मेरा पिताने धन उपार्जन किया पर मेरा अर्थि दिया तथा मैने उपार्जन किया सो धन आत्महितकरि अरु स्त्री-पुत्र-मित्रादि करि माज्ञा दियो ऐसो कितनेक संख्यावानने सुकृतार्थ लगायो चाई ॥२३४-२३६ ॥
जानामि लक्ष्मी कुलटां तथाहि स्त्रीपुत्रमित्राणि वियोगभांजि ।
आयुश्चलं नश्वरमेव गात्रं वियोगमूला परिषद्विभूतिः ॥ ३७॥ अरु स्वामिन् तथापकार मैं या लक्ष्मीन कुलटा स्त्रीवत् जानूहूँ। अर स्त्री-पुत्र-मित्रनकू वियोगके भजनवारे जानू । अर बापुडू चंचल पर शरीरकू विनश्वर जानूहूं पर परिवार संपदाकू वियोगमूल जानू हूँ॥२३७॥
चक्रेश्वराणां महनीयसंपदपेक्षया मे कतिधानुभूतिः।
यथांबुधेः कूपजलं कियद्वा शकः क्व वा मे प्रचरत्सहायः ॥ ३८ ॥ भर चक्रवर्ती प्रादिकी महदि विभूति ही स्थिर नहीं तो इसकी अपेक्षाकरि तो मेरे कितनीक संपदा है सो स्थिर हो? जैसे समुद्रका जल की अपेक्षा कूपका जल कितनाक होय ? तथा मागधादि कृतमालदेव पयत देव जिसकी सहायता करें, तिसकी अपेक्षा मेरे अप्रतिहत सहाव कौन है अर्थात् नहीं है ॥२१॥
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प्रतिष्ठा
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तथापि मेऽर्हत्सवनाभिलाषा वर्वति हास्यानुपबृंहणाय ।
अतो जनोऽयं भवदाज्ञयेव शास्यो भवेच्चेत्सुकृते समिच्छेत् ॥ ३६ ॥ तथापि हे स्वामिन् ! मेरे अरहतका पंचकल्याणकी कर्तव्यताका अभिलाषा वत है, सो हास्यका अनुपाणके कि वृद्धिके अर्वि है सो यो द में सारिखो नन आपकी आज्ञा मात्रही सहाय पाय शिक्षा करने योग्य हूँ यदि तो कल्याण पावूहूँ॥२६॥
यस्त्रेधहेतुः कृतकारितानुमोदव्यवस्थाप्रसराद विधत्ते ।
पुण्यांकुरं मोक्षफलप्रसूतिं विंब जिनेंद्रस्य निवेशनीयं ॥ ४०॥ अर जे पदार्थ तीन प्रकार मन वचन-कायसे हेतुरूप हैं, सो निश्चय करि कृत-कारित-अनुमतिकी व्यवस्थाका प्रचारतें पुण्यका अंकुरने अर मोक्षरूप फलकी प्रसूतिने देवे हैं। सो जिनेंद्रका विच है, सो ही निवेशन किया चाह हूँ ॥२४॥
इंद्रादिभिश्चक्रधरादिभिर्वा न शक्यमिष्टार्थविधानमुच्चैः।
तत्कल्पना काचिदपि त्वदीयपादाब्ज,गाय निवेदनीया ॥४१॥ अरु यो इंद्रादि चक्रवर्ति पर्यंतन करि प्रार्थित करिये तो सो विधान उच्चप्रकार इष्ट अर्थका विधानमें समर्थ नहीं होय है तात ताकी कल्पना अनिर्वचनीय है। आपका चरणारविंदका भ्रमर समान मेरे अर्थि संबोधित होने योग्य है । २४१ ॥
पिपासुना सौधसरो निदाघे ग्रीष्माकुलश्चाम्रतरं दरिद्रः।
निधिं समाश्रित्य सुखी न किं स्यात्तथा भवदृष्टिपथानुयायी ॥ ४२ ॥ ___ जैसे ग्रीष्मऋतुमें तृषाकुल पुरुष है सो अमृत समान मिष्ट सरोवरकू तथा ग्रीष्माकुल पुरुष आम्रका वृक्षक तथा दरिद्र पुरुष है सो निPाधिक आश्रित होय सुखी न होय कहा ? अपि तु होय ही होया तैसे आपका दृष्टिपथका शरणग्राही सुखी ही होय ॥२४२।।
एवंविनीतेन समर्थितोऽपि गुरुः प्रमाणीकृतसंस्तवादिः । सामर्थ्यसाकल्यविधि प्रशस्य निश्छद्मना तं प्रतिबोधमीयात् ॥ ४३ ॥
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प्रतिष्ठा ५६
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ऐसे विनीत यजमानकरि प्रार्थनारूप कियो ऐसो अरु प्रमाणीकृत कहिये अंगीकृत कियो है संस्तवादि जानें असा प्रशंसनीय गुरु ह सो हू अपनी समर्थता श्ररु यज्ञ-सामग्रीकी विधि कू निष्कपट भावकरि वा यजमानकू प्रतिबोध करे ।। २४३ ॥
नितांत जनकोटिमध्ये एकेन धन्येन धनं वृषार्थे । वितीर्यते तत्र च सत्प्रतिष्ठाविधौ जिनानामुदये प्रकर्षे ॥ ४४ ॥
सो ऐसेकि बड़ा हर्ष है कोडि मनुष्यनिमें कोई एक धन्य पुरुषने अपना अतिशय धनकू धर्मनिमित्त वितीर्ण कीजिये है कि दीजिये है अरु तहां भी उदयकरि उत्तम ऐसा जिनेश्वरकी प्रतिष्ठाका विधान में अर्थात् ऐसा उत्तम कार्यकी कहा कहानी १ ॥ २४४ ॥
प्रधानभव्येषु सहस्रकोटिमनस्विचित्तेषु विवृद्धमिष्टं ।
पुण्यांकुरं तत्स्वकुलांशुमांस्त्वं प्रशंसनीयः किमु वाक्प्रभेदेः ॥ ४५ ॥
इस प्रतिष्ठा पुण्य कार्यमें अतिउत्तमता दिखाने हैं कि, हे भव्य ! तुमने कोटि सहस्र मनस्वीनका चित्तमें अरु प्रधान 'भव्यनिमें बांछित पुण्यको कुर वृद्धि प्राप्त कियो, तातें तुम अपना कुलको प्रकाशक सूर्य हो और वचनका प्रवचन कहा ? ।। २४५ ॥
तुभ्यं परं स्वस्ति मयाऽभ्यधायि व्रतं गृहाणाखिलकर्मसिद्धये ।
पूर्वं गृहीतेष्वभिवृद्विपुष्टिर्यथाभवेत्त्वं कुरु तत्तथैव ॥ ४६ ॥
इस हेतु मैं तेरे अर्थि उत्कृष्ट कल्याण विधान कियो । अव समस्त कर्मकी सिद्धिके अर्थ तू व्रत ग्रहण कर, अरु पूर्व व्रत ग्रहण किया, तिनमें तेरे वृद्धि अरु पुष्टि होउ तथा तैसे होउ ॥ २४६ ॥
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यावत्प्रतिष्ठासमयावतीर्णो न स्यादपब्रह्मचतुः कषायाः ।
श्रन्यायभुक्तिर्वसनाशनानां वर्ज्या त्रिकालं समताग्रहेण ॥ २४७ ॥
रु यावत् प्रतिष्ठा समय से पारंगत न होय, तावत कुशील सेवन अरु क्रोध-मान-माया लोभ अरु अन्य सजातीयके भोजन अरु अन्यका वस्त्र भोजन ग्रहण करना वर्जनीक हो अरु त्रिकाल सामयिकको ग्रहणसहित होउ ॥ २४७ ॥
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प्रतिष्ठा
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अन्यायसर्वस्वकुभुक्तिकुत्सामिथ्याप्रलापादिविमोचनं च ।
पूर्व प्रयोगेष्वतिचारमृष्टिः स्वतस्तवास्त्येव किमर्थमन्यैः ॥४८॥ अरु अन्याय सर्व धन, कुभोजन, निंदा-मिथ्यामलाप आदिको त्यागकर, अर पूर्व प्रयोग ग्रहण किये हैं तिनमें अतीचारकी मष्टि कहिये || साग स्वतः ही तेरे है। अन्य कार्यन करि कहा है ? ॥२४८॥
इत्याद्यभिप्रायवशादुदीर्य व्रतगृहः सद्गुरुणोपदेश्यः ।
मंत्रण बद्धांजलिमस्तकाभ्यां यज्वेंद्रकाभ्यामपरैविधायः॥१९॥ इत्यादि अभिप्रायका वसते उदीरित करि व्रतका ग्रहण है सो गुरुनै उपदेश करना योग्य है अरु मन्त्रपूर्वक बांधी है अंजली जाम ऐसा मस्तकसयुक्त यजमान अरु इंद्रजे हैं तिनने तथा अन्यने वो उपदेश धारण करने योग्य है ॥२४॥
ओं ह्रीं अह अहसिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुसमक्षकं दृढ़ब्रत समारूढ़ भवतु स्वाहा यावत्कलासमाप्तिस्तावदर्थितभंगेन पालयितव्यमिति मंत्रेण व्रतदानं कुर्यात् ॥
मंत्र ये है-ओं ह्रीं अह अह सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुसमक्षकं दृढव्रतं समारूढ भवतु भवतु स्वाहा ॥ मा याका अर्थ-श्री अहंत आदि पांच परमेष्ठीकी साक्षीने व्रत किया सो गाढ तेरे होइ। ऐसे नियम यावत्कार प्रतिष्ठा विधिकी समाप्ति न होइ तावत् ग्रहण करावै।
इत्थं वदंतं प्रणिपत्य भक्त्या स्वीयं कृतार्थं ननु मन्यमानः।
अभ्यर्च्य पुष्पांजलिना स वोवीं नयेत्करिस्पंदनयानवाह्य ॥५०॥ अपनेकू कृतार्थ मानता यजमान या प्रकार बोलतो गुरु जो है ताहि भक्ति करि नमस्कार करि अरु पुष्पांजलि आदि करि पूजि हस्तीका रथरूप वाहन करि जहां प्रतिष्ठाकी भूमि है ता-अति ले जावे ॥२५॥
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भतिष्ठा
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अथ नांदीविधान। अथ नांदी विधान कहिये है
अथोपनीतेऽध्वरसंनिवेशस्थले समागत्य पुरंध्रिगानैः ।
वादिननादैः परिपूरिताशं नांदीविधानं पुरतो विधत्ताम् ॥५१॥ अब पवित्र रूप यज्ञकी संस्थान भूमिमें महामुदर खोनका गोतन करि तथा वादिननका शब्द करि सर्व दिशा व्याप्त होते संते श्रीजिना नांदीविधान जो है ताहि करना योग्य है ॥२५॥
शाल्यक्षतैः कुंकुमकर्दमाक्तैविधाय नंद्याव्रतमर्जितांशे।
वेद्यां कृतायं मणिदर्पणस्रग्वस्त्रावृतं सत्कलशं निवेश्येत् ॥ ५२ ॥ प्रथम वेदीमें देवांश भागमें शालिके अक्षत केशरि चंदन करि लिप्त ऐसेनिकरि नंद्यावत नामक सांथिया रचि अरु वहां अघ देय पणि-रत्न दर्पण माला वस्त्रनिकरि समीचीन कलशकू निवेशन करै ॥२५२ ॥
रक्तवस्त्रफलदामभूषिते वेदिकांतरितभूतले शुचौ।
स्वस्तिके मणिसुवर्णशालिजैर्निर्मिते कुलबधूभिरादरात् ॥ ५३ ॥ कहां निवेशन करे सो कह हैं-रक्तवर्ण वस्त्र अरु फूल मालानिकरि भूषित अरु शुद्ध वेदिकाके मध्य भूतलमें मणि रत्न शालि सुवर्ण पुष्पनि करि कुलवंती स्त्रीनि करि आदर पूर्व क रचित ऐसा स्वस्तिकमें स्थापन करे ॥२५३ ॥
इंद्रमध्वरकृतं सुचंदनैः कुंकुमाक्ततिलजैः सतीर्थगैः।
अंबुभिः कलशधारिधारया स्नापयेदवभृतार्थमंजसा ॥ ५४॥ अरु तहां चन्दन कुंकुम करि व्याप्त तिल करि युक्त तीर्थके जल करि कलश धारा करियज्ञका कार्यमें इंद्र संज्ञक पुरुषने अर यज्ञकर्ता यजमानने अग्रिम क्रियाविशेष वास्तै स्नान करावे ॥२५४ ॥
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पाठ
प्रतिष्ठा
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स्वस्तिमंत्रपरिपाठनपूर्वमाशिषां ततिमवाप्य हितार्थो ।
श्रोत्रियेण विहितक्रिययाऽमू यज्ञयोग्यपरिकर्मभृतौ स्तः ॥ ५५ ॥ या प्रकार स्वस्ति मन्त्रनका पठन पूर्व क गुरुदत्त हितकारी आशीर्वादका समूहने प्राप्त होय करि आचार्यकरि करी क्रिया करि इंद्र अरू यजमान ये दोन्यू प्रतिष्ठाका योग्य कार्यमें सावधान होय हैं ॥२५५ ॥
__ों ही अर्ह असि पा उ सा णमो अरहनाणं सप्तद्धिसमृद्धगणधराण अनाहतपराक्रमस्ते भवतु । ह्रीं नमः । अनेन मंत्रेण स्नातयोरुपरि पुष्पाततक्षेप आचार्येण कार्यः।
अभिषेकका मन्त्र या प्रकार है-ओं ह्रीं अहं असि आ उ सा णपो अरहताणं सप्तदिसमगणधराण अनाहतपराक्रमस्ते भवतु भवतु ह्रीं नमः॥ | अर्थ श्री पंचपरमेष्ठी अरु णमोकार अनादि सिद्ध मंत्र अरु सात ऋद्धिके धारक गणवरदेवके साक्षी अतुल पराक्रम तेरे होउ ॥ या मन्त्र करि इंद्र यजमान इनि दोन्यू परि आचार्य पुष्प अक्षत क्षेपे ।
आर्या उपवासमेकभक्तं तदिवसे संविधाय भावनया।
वैषष्टिस्मरणकथानिपुणः पंक्त्यां तु वर्जयेद् भोज्यं ॥ ५६ ॥ उस दिन इंद्र यजमान उपवास नथा एक वखत भोजन करि तथा व सठ सलाका पुरुषनिको कथा करि अपना भाई पुत्र आदिकी पंक्तिमें भोजन वर्जित करे॥२५६ ॥
तत्प्रभृति सोऽपि याजकवर्यो मघवाऽऽज्ञया गुरुदिशा विचरेत् ।
दानाध्ययनपरार्थिषु भक्त्या चेहानयेत्संघ ॥ ५७ ॥ ता दिनसे सो यजमान इंद्रकी आज्ञा करि गुरुकी परिपाटीका उपदेश करि दान अध्ययन परोपकार विष प्रवत तथा संघ बुलावे २५७॥
यद्वंश्यतीर्थकरविंबमुदीर्य संस्था मुख्या तदीयकुलगोलजनिप्रवेशात् । संवृत्तगोलचरणप्रतिपातयोगादाशौचमावहतु नोद्यभवप्रशस्तं ॥ ५८ ॥
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अथ मंत्रः अरु जिस वंशमें भयो तीर्थंकरका बिंबने उद्देश करि मुख्य प्रतिष्ठा होय ताही वंशका कुल गोत्र अरु जन्म इनका प्रवेशत प्रवार प्रवर्तमान गोत्र अरु प्राचरणको निवृत्तिका योगते वर्तमान भव गोत्र कुलमें प्राप्त भया अशोचकू नहीं धारण करे॥ भावार्थ-जिस दिन नांदी अभिषेक भया ता दिनसे वर्तमान कुलको मूतक तथा मूवो नहीं माने है ॥२५॥
ओं तत्सदध योगभक्तिसिद्धभक्तिस्वस्तिवाचनपूर्वकमंत्राभिषवकर्मणि अस्य यजमानस्य इक्ष्वाक्वादियशे श्रीऋषभनाथादिसंताने का. श्यपगोत्रे परावर्तनं यावदध्वरं भवतु भवतु क्रौं ही है नमः इत्युक्त्वा यजमानस्य पट्टबंध इन्द्रस्य मुकुटवंधं व क्रियादाचायः ।
याका मन्त्र-ओं तत्सदद्य .. "याका अर्थ-संवत्सर मास तिथि नक्षत्र वारादि तथा देशकालादि उच्चारण करि योगभक्ति सिद्भाक्त अरु स्वस्ति वाचन पूर्वक जो इंद्र नांदी अभिषेक कर्ममें अमुक यजमानको इक्ष्वाकु आदि वंशमें श्री ऋषभनाथ आदिका संतानमें काश्यपगोत्रमें परावृत्ति होऊ। यावत यज्ञ समाप्ति न होय तावत ऐसे कहि यजयान पवध तथा इंद्रके मुकुटबंध प्राचार्य करे।
तस्मिन् क्षणे तन्महतीपुरस्तात् चतुर्विधं वाद्यगणं प्रशस्य ।
स्थाप्यं तदीशान् पुरुचारुवस्त्रेः सन्मानयेत्तत्र विधौ नियुज्यात् ॥ ५॥ अर ताही क्षण उस उत्सबमें मंडप वेदोके चहु'तरफ च्यार प्रकार जो तत वितत घन सुषिर-रूप जो वादिन गणने प्रशंसित करि स्थापन करनो अरु ताके स्वामीनिको प्रचुर सुंदर वखादिकरिता प्रतिष्ठा विधिमें नियोजित करे ॥ २५६ ॥
एवं नांदीविधानेन कृतारंभक्रियो नरः।
सन्मंगलपुरस्कारैः सौख्यभागी भवेत्सदा ॥६॥ ऐसे नांदी विधान करि जो प्रतिष्ठाको प्रारंभक्रिया करे सो पुरुष समीचीन मंगल अगवाणी करि सदा सुखकों भागो होय है ॥२६॥
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अथ ग्रन्थान्तरोपनिबद्ध आचार्यादिभक्तिपाठ उल्लिख्यते। *अब यहां दूसरे प्रयसे उद्धृतकर आचार्यादि भक्ति पाठ लिखते हैं उनमेंसे सबसे प्रथम यहां सिद भक्तिका उल्लेख करते हैं
असरीरा जीवघना उवजुत्ता दंसणेय णाणेय ।
सायारमणायारा लक्खणमेयंतु सिद्धाणं ॥१॥ अर्थ-जिनके कोई शरीर नहीं हैं, जो अनंत दर्शन अनंत ज्ञानप्ते संयुक्त हैं, अंतिम शरीरके सदृश आकारवाले होकर भो निराकार हैं वे परपात्या सिद्ध भगवान हैं ॥१॥
मूलोत्तरपयडीणं बंधोदयसत्तकम्मउम्मुक्का।
मंगलभूदा सिद्धा अडगुणा तीदसंसारा ॥२॥ ज्ञानावरणादि पाठ कर्पोको मूल ओर उत्तर प्रकृतियोंके बंध उदय ओर सख सबसे जो रहित हैं, सम्यक्त्व आदि आठ निजी गुणोंसे भूषित हैं, जो संसारके आवागमन वा जन्म मरणसे विमुक्त हैं वे मंगलमय सिद्ध भगवान हैं ॥२॥
अट्टवियकर्मविघडा सीदीभृता णिरंजणा णिच्चा।.
श्रहगुणा किविकिच्चा लोयग्गणिवासिणो सिद्धा ॥३॥ जो आठ प्रकारके कांस विमुक्त हैं, निरंजन नित्य हैं, अष्ट गुणोंसे भूषित हैं, कृतकृत्य हैं, और लोकके अग्रभागपर विराजपान हैं ये | सिद्ध परमेष्ठी हैं॥३॥
सिद्धा णट्ठट्ठमला विसुद्धबुद्धी य लद्धिसब्भावा ।
तिहुअणसिरिसेहरया पसियंतु भडारया सव्वे ॥४॥ * भाषाटीकाकारने इन ७ मायामोका अर्थ नही लिखा है इसलिये इनका अर्थ हम लिख देते हैं ।-संपादक.
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जिनके प्रष्ट कर्मोंसे जायमान समस्त मल नष्ट हो गये हैं, जिनका ज्ञान विशद-निर्मल है, और जो तीनों लोकोंके मुकुट मणिके समान हैं वे समस्त सिद्ध परमेष्ठी प्रसन्न हों ॥ ४ ॥
गमणागमणविमुक्के विडियकम्मपय डिसंघारा । सासह सुहसंपत्ते ते सिद्धा बंदियो णिच्चं ॥ ५ ॥
जिनका गमनागमन नष्ट होगया है समस्त कर्म प्रकृतियोंको जिन्होंने चूर्ण कर दिया है और जिन्होंने शाश्वत सुख पालिया है उन सिद्ध भगवानकी सदा वंदना करनी चाहिये ॥ ५ ॥
जयमगलभूदाणं विमलाणं गाणदंसणमयाणं । तइलो सेहराणं णमो सदा सव्वसिद्धाणं ॥ ६ ॥
जो जयमंगल रूप हैं, निर्मल हैं, दर्शनज्ञान मय हैं, तीनोलोकोंके मुकुट हैं, उन भगवानको सदा नमस्कार हो ॥ ६ ॥ सम्मत्तणाणदंसणवीरियसुहुमं तहेव श्रवग्गणं ।
अगुरुलघु व्ववाह ठगुणा होंति सिद्धाणं ॥ ७॥
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सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहन, अगुरुलघु, अव्याबाध ये सिद्धोंके आठ गुण हैं ॥ ७ ॥ तवसिद्धे यसिद्धे संजमसिद्धे चरित्तसिद्धे य ।
गामि दंसणम्मिय सिद्धे सिरसा गमस्सामि ॥ ८ ॥
जो किसी भी तपसे सिद्ध हुये हैं, किसी भी नयसे सिद्ध हैं, जो किसी भी संयमसे सिद्ध हुये हैं, जो किसी भी चारित्रसे सिद्ध हुये हैं और जो चाहें जिस ज्ञान दर्शन से सिद्ध हुये हैं सब सिद्ध भगवानों को मस्तक नवाकर नमस्कार करता हूं ॥ ८ ॥ भावार्थ- समस्त ही जीव यद्यपि यथाख्यात चारित्र, और केवल ज्ञान पाकर हा सिद्ध होते हैं तथापि भूतप्रज्ञापन नयकी अपेक्षासे उनके तप चारित्र आदिमें भेद किया जासकता है अर्थात तपश्चर्या ग्रहण करते समय तेरहवे गुणस्थानसे पहिले उनके तप आदि में भेद था ही। इसलिये सिद्ध भगवानोंमें उक्त श्लोकसे भेद बतलाया गया है ॥ ८ ॥
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मत, आठ गुणास
सिद्ध परमेष्ठियाकहो , और जिनेंद्र में
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इच्छामि भंते सिद्धभाच काओसग्गो कओ तस्सालोचेओ सम्मणाणसम्मदसणसम्मचरिचजुत्ताणं है। | अट्टविहकम्ममुक्काणं अद्वगुणसंपण्णाणं उड्ढलोयमच्छयम्मि पयढियाणं तवसिद्धाणं णयसिद्धाणं संजमः | सिद्धाणं चरितसिद्धाणं सम्मणाणसम्मदसणसम्मचरित्तसिद्धाणं तीदाणागदवहमाणकालचयसिद्धाणं सव्वसिद्धाणं बंदामि णमस्सामि दुक्खक्खओ कम्मक्खओ बोहिलाओ सुगइगमणं समाहिमरणं जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं। इति पूर्वाचार्यानुक्रमेण भावपूजास्तवसमेतं कायोत्सर्ग करोमि।। __ में अभीष्टार्थ कहता हूँ-सिद्ध भक्ति करताहू, कायोत्सर्ग सहित में सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक् चारित्रसे युक्त, पाठो काँसे है मुक्त, आठ गुणोंसे सहित, ऊर्ध्वलोकपर विराजमान, तपःसिद्ध, नयसिद्ध, चारित्रसिद्ध, सम्यग्ज्ञान दर्शन चारित्र सिद्ध, और भूत भविष्यत | वर्तमान तीनो कालवर्ती समस्त सिद्ध परमेष्ठियोंको बंदना करता हूँ, नमस्कार करता हूं। हे भगवन् ! मेरे दुःखका क्षय हो, कोका क्षय हो, बोधिलाभ हो, सुगतिकी प्राप्ति हो, समाधिमरणकी प्राप्ति हो, और जिनेंद्र भगवानके गुणोंकी संपत्ति मुझे मिले। मैं पूर्वाचार्योंकी परंपरासे चले आये क्रमसे भावपूजास्तवसहित कायोत्सग करता हूँ॥
अथ श्रुतभक्तिः। अब श्रुतभक्ति कहते हैं
अर्हद्वक्तप्रसूतं गणधररचितं द्वादशांगं विशालं ___चित्र बह्वर्थयुक्तं मुनिगणवृषभैर्धारितं बुद्धिमद्भिः। मोक्षायद्वारभूतं व्रतचरणफलं ज्ञेयभावप्रदीपं.
भक्त्या नित्यं प्रबंदे श्रुतमहमखिलं सर्वलोकैकसारम् ॥१॥ श्री महत भगवानने जिस शास्त्र का उपदेश दिया है, गणधर देवने जिसको बारह अङ्गों में रचा है, जिसका विशाल गभीर अथ है, जिसे
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ज्ञानी मुनिगणोंने धारण किया है, जो मोक्षका प्रधान द्वार है, जिसके पठन पाठन से व्रत चरणरूप फल मिलता है, जो ज्ञेय-पदार्थोंको प्रकाशित करनेमें दीपकके समान है, उस समस्त संसारके सारभूत श्रुत को मैं भक्तिपूर्वक बंदन करता हूं ॥१॥
जिनेंद्रवक्तप्रविनिर्गतं वचो यतींद्रभूतिप्रमुखंगणाधिपः ।
श्रुतं धृतं तैश्च पुनःप्रकाशितं द्विषट्प्रकारं प्रणमाम्यहं श्रुतं ॥२॥ जिस श्रुतका प्रादुर्भाव श्रीजिनेंद्र भगवान की दिव्य ध्वनिसे हुआ, और उसके बाद श्रीमद् इन्द्रभूति प्रभृति गणधर देवोंने जिसको सुनकर प्रकाशित किया उस बारह प्रकारके श्रतको मैं प्रणाम करता हूं ॥२॥
कोटीशतं द्वादश चैव कोट्यो लक्षाण्यशीतिस्त्र्यधिकानि चैव ।
पंचाशदष्टौ च सहस्रसंख्यमेतच्छ्रतं पंच पदं नमामि॥३॥ जिस श्रुतमें एकसौ बारह करोड तिरासी लाख अठ्ठावन हजार पांच १२८३५८००५ पद हैं उसको मैं नमस्कार करता हूं ॥३॥
अंगवाह्यश्रुतोद्भूतान्यक्षराण्यक्षराम्नये।
पंचसप्तैकमष्टौ च दशाशीतिं समर्चये ॥ ४॥ पूर्वश्लोक में पदसंख्या जो कही गई है वह अङ्गमविष्ट श्रुत की है और इस श्लोकसे अङ्गवाहयकी संख्या बतलायी जाती है-में अद्भवाय | 6 श्रुतके आठ करोड एक लाख आठ हजार एकसौ पचहत्तर ८०१०८१७५ पदोंको पूजता हूँ॥४॥ .
अरहतभासियत्थं गणहरदेवेहिं गंथिय सम्म।
पणमामि भत्तिजुत्तो सुदणाणमहोवहिं सिरसा ॥ ५॥ जिसको अरहंत भगवानने उपदेशा, गणधर देवोंने जिसका सम्यक्तया ग्रंथन किया, उस श्रुतज्ञानरूपी महोदधि को मस्तक नपाकर भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ॥५॥ . इच्छामि भंते सुदभाच काओसग्गो को तस्सालोचेओ अंगोबंगपइण्णयपाहुउपरियम्मसुचपढ- हैं।
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मासिओय पुत्वमय चूलिया चेव सुतत्थयत्थुइधम्मकहाइयं सुदं णिचकालं अंचेमि पूजेमि बंदामि णम-18| म्सामि दुक्खस्खओ कम्मखओ बोहिलाओ सुगहगमणं सम्मं समाहिमरणं जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं ॥ || ___मैं अभीष्टार्थ कहता हूँ मैंने श्र तभक्ति करनेके लिये कायोत्सर्ग किया है। उस श्रतको, जो अङ्ग उपांग प्रकीर्णक प्राभृत परिकर्म सूत्र पूर्वगत चूलिका धर्म कथा आदि रूप है, उसको, सदा पूजता हूं, नमस्कार करता हूं, बंदना करता हूं, (हे श्रुत) मेरे दुःखका नाश हो जाय, कोका क्षय हो जाय, बोधिकी प्राप्ति हो, सुगतिमें गमन हो, सम्यग्दर्शन प्राप्त हो, समाधिमरण मिले, और जिनेंद्र भगवानके गुणोंकी संपत्ति मुझे प्राप्त हो।
अथ चारित्रभाक्तिः। अब चारित्रभक्ति कही जाती है
। संसारव्यसनाहतिप्रचलिता नित्योदयप्रार्थिनः
प्रत्यासन्नविमुक्तयः सुमतयः शांतैनसः प्राणिनः। मोक्षस्यैव कृतं विशालमतुलं सोपानमुच्चैस्तरा
मारोहंतु चरित्रमुत्तममिद जैनेंद्रमोजस्विनः॥१॥ जो संसारके भयानक दुःखोंसे घबडा उठे हैं, जो अविनाशी सुखकी प्राप्ति चाहते हैं, जिनको बहुत ही थोडे समय बाद मुक्ति मिलनेवाली हैं, जिनकी श्रेष्ठ बुद्धि है, जिनके पाप शांत हो गये हैं, ऐसे उत्तम तेजस्वी प्राणी उस जिनेंद्र भगवानसे उपदिष्ट चारित्रको धारण करते हैं, जो चारित्र पोक्ष महलमें पहुंचनेके लिये अनुपम विशल सोपानस्वरुप है ॥१॥
तिलोए सव्वजीवाणं हियं धम्मोवदेसणं ।
वड्ढमाणं महावीर बंदित्ता सव्ववेदिनं ॥२॥ तीनो लोकोंमें सब जीवोंका हितकारक एक सर्वज्ञ महावीर भगवान द्वारा उपदिष्ट धर्म ही है ॥२॥
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भतिष्ठा
६ ६
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घाइकम्मविघातत्थं घाइकम्मविणासिणा । भासियं भव्वजीवाणं चारित्तं पंचभेददो ॥ ३॥
उन घातिया कर्मोंके नष्ट करने वाले भगवानने भव्यजीवोंको घातिया कर्म नष्ट करनेके लिये पांचमकारके चारित्रका उपदेश दिया है ॥३॥ सामायियं तु चारित्तं छेदोवड्ढावणं तहा । तं परिहारविसुद्धिं च संयमं सुहमं पुणो ॥ ४ ॥ जहाखायं तु चारितं तहाखायं तु तं पुणे । किच्चाहं पंचहाचारं मंगलं मलसोहणं ॥ ५ ॥
वह चारित्र—सामायिक, क्छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मपराय, और ययाख्यात वा तथाख्यात भेदसे पांच प्रकारका है और यह पांचों प्रकारका चारित्र पापका नाशक मंगलमय है ॥ ४-५ ॥
अहिंसादीणि वृत्तानि महव्वयाणि पंचय । समिदी तदो पंच पंचइंदियणिग्गहो ॥ ६ ॥ छब्यावासभूसिज्जा हाणत्तमचेलदा । लोयत्तं ठिदिभुत्तिं च अदंतवणमेव च ॥ ७ ॥ एयभत्तेण संजुत्ता रिसिमूलगुणा तहा । दधम्मा तिगुती सीलागि सयलागि य ॥ ८ ॥ सव्वे वि य परीसहा वृत्तत्तरगुणा तहा ।
वि भासिया संता तेसिंहाणीमयेकया ॥ ६ ॥
अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, और निःसंगता ये पांच महाव्रत, पांच समिति, पांचों इन्द्रियों का निग्रह, छह प्रकारके आवश्यकोंका पालन,
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भूमि शयन, अस्नान (स्नान नहीं करना) विवस्त्रता, (नग्न रहना) लोच, (केशलोच) स्थितिभोजन (खडे होकर भोजन लेना) अदन्तधावन (दांतोन न करना) एकभुक्ति (एकवार आहार लेना) ये मुनियोंके अट्ठाईस मूल गुण हैं।
उत्तम क्षमादि दश धर्म, मनोगुप्ति आदि तीन गुप्ति, समस्त प्रकारकेशील और वाईस परिसहका जय ये उत्तर गुण हैं इसी प्रकार अन्य भी मूल गुणों के सहायक उत्तर गुण हैं॥६ ॥
जइ रागेण दोसेण मोहेण णदरेण वा। वंदित्ता सव्वसिद्धाण सजुहा सामुमुक्खुण ॥ १०॥(?) संजदेण मए सम्म सव्वसंजमभाविणा।
सव्वसंजमसिद्धीओ लब्भदे मुत्तिजं सुहं ॥ ११ ॥ समस्त प्रकारके संयम पालन करनेवाले तपस्वोको समस्त प्रकारको संयमकी सिद्धि होती है और मुक्तिसुख प्राप्त होता है। ११॥
धम्मो मंगलमुक्किट्ठं अहिंसासंजमो तो।
देवा वि तस्स पणमंति जस्स धम्मे सया मणो ॥ १२॥ धम ही उत्कृष्ट मंगल है, और वह अहिंसामय संयम तप है जिसका उक्त धर्म में सदा मन लगा रहता है उसको देव भो नमस्कार | करते हैं ॥१२॥
इच्छामि भंते चारिचभत्ति काओसग्गो को तस्सालोचेओ सम्मणाणजोयस्स सम्मत्नाहिटियस्त सवपहाणस्स णिबाणमग्गस्स संजमस्त कमाणेजरफलस्त खमाहरस्त पंचमहन्वयसंपण्णस तिगृति| गुचस्स पंचसमिदिजुत्तस्स गाणज्झाणसाहणस्स समयाइपवेसयस सम्प्रचरिचस्स सदापिचकालं अंचेमि पूजेमि बंदामि णमंसामि दुक्खखओ कम्मखमओ बोहिलाओ सुगहगमणं समाहिमरणं जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं॥
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MP में अभीष्ट कहता हूं। चारित्र भक्ति करता हूँ। उसकी आलोचनामें सम्यग्ज्ञानसे युक्त, सम्यग्दर्शनसे अधिष्ठित, सबमें प्रधान, मोक्षके मतिष्ठा 15 मार्ग स्वरूप, कोंकी निर्जरा करनेवाले, क्षमाके धारक, पांच महाव्रतोंसे संपन्न, तीन गुप्तियोंसे सहित, पांच समितियोंसे भूवित, ज्ञानध्यान
के कारण, सम्यक् चारित्रको सदा मैं पूजता हूँ, वंदना करता हूँ, नमस्कार करता हूं, (हे सम्यक्वारित्र!) मेरे दुःखोंका नाश हो, को-: का क्षय हो, बोधिकी प्राप्ति हो, सुगतिमें गमन हो, मुझे समाधिमरण मिले और जिनेंद्र भगवानकेसे गुणों को संपत्ति प्राप्त हो॥"
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अथ आचार्यभक्तिः। अब आचार्यभक्ति कही जाती है
देसकुलजाइसुद्धा विसुद्धमणवयणकायसंजुत्ता।
तुम्हं पायपयोरुहमिह मंगलत्थिं मे णिचं ॥१॥ देश कुल जातिसे शुद्ध, विशुद्ध मन वचन कायसे संयुक्त हे प्राचार्य तुम्हारे चरण कमल इस संसारमें पेरा सदा कल्याण करें ॥१॥
सगपरसमयविदुएहु आगमहेदूहिं चावि जाणित्ता । सुसमच्छा जिणवयणे विणएमुतागुरूवेण ॥२॥ बालगुरुबुड्ढसेहे गिलाणथेरेयखमणसंजुत्ता। अट्ठावयग्गअण्णे दुस्सीले चावि जाणित्ता ॥३॥ वयसमिदिगुत्तिजुत्ता मुत्तिपहे ठावया पुणो अण्णे । अज्झावयगुणणिलया साहुगुणेणावि संजुत्ता ॥ ४ ॥ उत्तमखमाइपुढवी पसण्णभावेण अच्छजलसरिसा । कम्भिधणदहणादो अगणी वाऊ असंगादो ॥५॥
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भातष्ठा
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गयणमिव णिरुवलेवा अक्खोहा सायरुव्व मुनिवसहा ।
एरिसगुणणिलयाणं पायं पणमामि सुद्धमणो ॥ ६ ॥ जो आचार्य महाराज समस्त शास्त्रोंके पारगामी हैं, बाल वृद्ध रोगो आदि समस्त मुनियोंसे सहित उनके अपराधों को जानकर पुनः चारित्र || में दृढ़ करने वाले हैं, व्रत समिति गुप्तियोंसे मडित हैं, उपाध्यायके गुणोंसे भूषित हैं, सावुके गुणोंसे पंडित हैं, जो क्षमा धारण करने में पृथ्वीके समान हैं, प्रसन्नतामें निर्मल जलसे पूरित सरोवरके तुल्य हैं, कर्मरूपो ईधनको जलानेमें अग्निके सपान हे वायुके सपान निःसंग हैं, आकाशके समान निर्लप-परिग्रहरहित हैं, समुद्र के समान अक्षोभ्य गंभोर हैं, उन आचार्य महाराजके चरण कपलोंको शुद्धापनसे नमस्कार करता हूँ॥२-६॥
संसारकाणणे पुण बंभममाणेहिं भव्वजीवहिं।
णिव्वाणस्स दु मग्गो लदो तुम्हें पसाएण ॥७॥ हे प्राचार्य ! इस संसाररूपी भयानक जंगलमें भटकते हुये भव्यजीवोंने आपके प्रसादसे हो मोतका मार्ग प्राप्त किया है॥७॥
अविसुद्धलेसरहिया विसुद्धलेसेहिं परिणदा सुद्धा ।
रुद्दड्ढे पुणवत्ता धम्मे सुक्के य संजुत्ता ॥८॥ हे प्राचार्य ! आप अविशुद्ध लेश्याओंसे रहित हैं, विशुद्ध लेश्यानोंसे भूषित हैं, रौद्र और प्रार्तध्यानसे मुक्त हैं, और धर्ना तथा शक्ल ध्यानसे संयुक्त हैं॥८॥
श्रोग्गहईहावायाधारणगुणसंपएहिं संजुत्ता ।
सुत्तत्थभावणाए भावियमाणेहिं बंदामि ॥ ६ ॥ जो आचार्य महाराज प्रवग्रह, ईहा, आवाय ओर धारणारूप गुणोंसे संयुक्त हैं, अतार्यको भावनासे भावित हैं उन्हें म नमस्कारका करता
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भतिष्ठा
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तुम्हे गुणगणसद अयाणमाणेण जं मए वृत्ता । दिंतु मम बोहिलाहं गुरुभत्तिजुदत्थश्र णिच्चं ॥ १० ॥ हे आचार्य महाराज ! मुझ अज्ञानीने जो आपके गुणोंकी स्तुति की है वह गुरुभक्ति होनेके कारण मुझे बोधिलाभ दे ॥ १० ॥ इच्छामि भंचे आइरियभत्ति काओसग्गो कओ तस्सालोचेओ सम्मणाणसम्मदंसणसम्म चरिचजुचाणं पंचविद्याचाराणं आयरियाणं आयारादिसुदणाणोवदेसयाणं उवज्झायाणं तिरयणगुणपालणरयाणं सव्वसाहूणं णिच्चकालं अमि पूजेमि बंदामि नमस्सामि दुक्खक्खओ कम्मक्खओ बोहिलाओ सुगड़गमणं समाहिमरणं जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं ॥
अभीष्ट अर्थ कहता हूँ । आचार्य भक्ति करनेके लिये कायोत्सग करता हूँ । सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक् चारित्रसे भूषित, पंच प्रकारके आचार पालनेवाले आचार्योंको श्रुत ज्ञानके उपदेशक उपाध्यायोंको, रत्नत्रयके पालनमें निरत रहने वाले सर्व साधुपरमेष्ठियोंको सदा पूजता हूँ, नमस्कार करता हू, हे आचार्य महाराज ! मेरे दुःखोंका नाश हो, कर्मोंका क्षय हो, बोधिकी प्राप्ति हो, सुगतिमें गमन हो, समाधिमरणकी प्राप्ति हो, और मुझे जिनेंद्र भगवानके गुणोंकी संपत्ति मिले ॥
अब योगभक्ति कही जाती है
इस प्रकार आचार्य भक्ति पूर्ण हुई।
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अथ योगभक्तिपाठः ।
थोसामि गणधराणं श्रणयाराणं गुणेहिं तच्चहिं । अंजुलिमउलियहत्थो अहिबंदंतो सविभवेण ॥ १ ॥
मैं मुनिराजों के समस्त गुणोंसे अलंकृत गणधर महाराजको मस्तक पर हाथ लगाकर नमस्कार करता हूँ ॥ १ ॥
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सम्म चेव य भावे मिच्छाभावे तहे व बोद्धव्वा ।
चइऊण मिच्छभावे सम्ममि उवट्ठिदे बंदे ॥ २ ॥ जोवके सम्यक्त्व और मिथ्यात्व दो प्रकारके भाव होते हैं उनमेंसे जिनके मिथ्यात्वभाव कूटकर शुद्ध 'सम्यक्त्वभाव-सम्यग्दर्शन माप्त हो गया है उन्हें में नमस्कार करता हू ॥२॥
दोदोसविप्पमुक्के तिदंडविरदे तिसल्लपरिसुद्ध ।
तिरिणयगारवरहिए तियरणसुद्धं णमस्सामि ॥ ३ ॥ जो रागद पसे विनमुक्त हैं, त्रिदंडसे विरत है, तीनों शल्योंसे शुद्ध हैं, जो तीन गारव दोषोसे रहित हैं, और जो त्रिकरणसे विशुद्ध हैं उन्हें मैं नमस्कार करता हूं ॥३॥
चउविहकसायमहणे चउगइसंसारगमणभयभीए।
पंचासवपडिविरदे पंचेंदियणिजदे बंदे ॥ ४॥ जिनके चारो कषाय कृश होगये हैं, जो चार प्रकारके संसारमें भ्रमण करनेसे भयभीत हैं, जो पांचों पापोंसे विरत हैं, जिन्होंने पांचों इंद्रियोंको जीत लिया है उन्हें में बंदना करता हूँ॥४॥
छज्जीवदयावरणे छडायदणविवज्जिये समिदभावे।
सत्तभयविप्पमुक्के सत्ताणभयंकरे बंदे ॥ ५॥ जो सदा षड् कायके जीवोंपर दया करते हैं, छह अनायतनसे जो रहित हैं, जो शांत हैं, सात प्रकारके भयोंसे मुक्त हैं, समस्त प्राणियोंको अभय देनेवाले हैं उन्हें मैं नमस्कार करता हूँ ॥५॥
णदट्ठमघट्ठाणे पणट्ठकम्मट्ठणठ्ठसंसारे । परमट्ठणिट्ठिमढे अट्टगुणट्ठीसरे बंदे ॥ ६ ॥
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जिनके अष्टकर्म नष्ट होगये हैं, संसार जिनका छुट गया है, जो परमपदमें विराजमान हैं, और जो आठ गुणोंके ईश्वर हैं उन्हें में नमस्कार करता हूँ॥६॥
णवबंभचेरगुत्ते णवणयसब्भावजाणगे बंदे।
दसविहधम्मट्ठाई दससंजमसंजुदे बंदे ॥७॥ जो नव प्रकारके ब्रह्मचर्यको पालते हैं, जो नय सदभावके ज्ञाता हैं, जो उत्तम क्षमादि दश प्रकारके धर्म के पालक हैं, दशमकारके संयमसे ६। संयुक्त हैं उन्हें मैं नमस्कार करता हूं ॥७॥
एयारसंगसुदसायरपारगे बारसंगसुदणिउणे।
बारसविहतवणिरदे तेरसकिरयापडे बंदे ॥ ८॥ जो द्वादश अंगरूप श्रत समुद्र के पारको पहुच गये हैं, बारह प्रकारके तप करनेमें रत हैं, त्रयोदश प्रकारके चारित्रको पालते हैं उन्हें में नमस्कार करता हूँ॥८॥
भूदेसु दयावरणे चउ दस चउदस सुगंथपरिसुद्ध ।
चउदसपुव्वपगब्भे चउदसमलवज्जिदे बंदे ॥६॥ जो समस्त जीवोंपर दया करते हैं, चौवीस प्रकारके परिग्रहसे रहित हैं, चौदहपूर्वके पाठी हैं, और चौदह प्रकारके पलसे रहित हैं उन्हें में * बंदना करता हूँ॥६॥
बंदे चउत्थभत्तादिजावछम्मासखवणिपडिपुगणे ।
बंदे आदावते सूरस्स य अहिमुहट्ठिदे सूरे ॥ १०॥ जो मुनिराज वेला तेला आदि छह मास तकके उपवासोंको करते हैं, जो सूर्यके सन्मुख खड़े होकर तप तपते हैं उनको मैं नमस्कार करता हूं ॥१०॥
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बहुविहपडिमट्ठाई णिसेजवीरासणोझवासीयं ।
अणिटु अकुटुंबदीये चतदेहे य णमस्सामि ॥११॥ जो बहुत प्रकारके प्रतिमायोगसे तप तपते हैं, जो वीरासन आदिको माडकर देहमें ममत्व छोड ध्यान धरते हैं उनको में नमस्कार करता हूँ॥१॥
ठाणियमोणवदीए अब्भोवासी य रुक्खमूलीय ।
धुदकेसमंसु लोमे णिप्पडियम्मे य बदामि ॥ १२ ॥ जो तपस्वी मौनधारण कर आतापन योग धारण करते हैं, वृक्षके नीचे ध्यान धरते हैं, उन निष्पतिकर्म युक्त मुनिराजोंको में नमस्कार करता हूँ ॥१२॥
जल्लमललित्तगत्ते वंदे कम्ममलकलुसपरिसुद्धे ।
दीहणहणमंसु लोये तबसिरिभरिए णमस्सामि ॥ १३ ॥ जिन मुनियोंका शरीर कर्ण नेत्र आदि अंगोंके मलसे तथा पसीनासे तो संयुक्त है परंतु जो कर्म मलसे परिशुद्ध होरहे हैं, जो समस्त परि६ ग्रहसे मुक्त हैं परंतु तपलक्ष्मीसे भूषित हैं उन्हें मैं नमस्कार करता हूँ॥१३॥
णाणोदयाहिसित्ते सीलगुणविहूसिये तवसुगंधे ।
ववगयरायसुदढे सिवगइपहणायगे बंदे ॥ १४॥ जो मुनिराज समस्त शीलके गुणोंसे भूपित हैं, तपसे वेष्टित हैं, ज्ञानवान हैं, रागद पसे विमुक्त हे जो मोक्ष माग में स्थित हैं उन्हें मैं बंदना || करता हूं ॥१४॥
उग्गतवे दित्ततवे तत्ततवे महातवे य घोरतवे। बंदामि तवमहंते तवसंजमइट्ठिसंपत्ते ।। '५ ।।
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जो मुनिराज तपकी अतिशयरूप उग्रतप, दीप्ततप, तप्ततप, महातप, घोरतप ऋद्धि से विभूषित हैं, उन्हें मैं नमस्कार करता हूं ॥ १५ ॥ आमोसहिए खेलो सहिएजल्लोसहिय तवसिद्धं । विप्पोसहिए सव्वोसहिए बंदामि तिविहेण ॥
६ ॥
जो योगी श्रमषैषधि, लौषधि, जल्लोषधि, विडौषधि, सर्वौषधि ऋद्धिके धारी हैं, उन्हें मैं मनवचनकाय तीनोंसे नमस्कार करता हू ॥ १६ ॥
श्रममुहघीरसथी सव्वी अक्खीण महाणसे बढ़े । मणवत्तिवचैवलिकायवरिणणो य बंदामि तिविहेण ॥ ७ ॥
जो तपस्वी अमृतस्रावी, मधुस्रावी, घृतस्रावी, रसस्रावी, तथा अक्षीण महानस ऋद्धियोंके धारक हैं उन्हें मैं मन वचन काय तीनोंसे नमस्कार करता हूं ॥ १७ ॥
वरकुटवीयबुद्धी पयागुसारीयसमिराणसोयारे । उग्गहसमत्थे तत्थविसारदे बंदे ॥ १८ ॥
मुनिराज को स्थधान्यो, एकबीज, पादानुसारित्व, स भिन्नश्रोतृत्व इन चार प्रकारकी बुद्धि ऋद्धिके धारक हैं, अवग्रह ईहामें समर्थ हैं, श्रुतार्थमें विशारद हैं उनको मैं नमस्कार करता हूं ॥ १८ ॥
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आभिणिबोहियसुदई ओहिणाणमणणाणि सव्वणाणीय । बंदे जगप्पदीवे पच्चक्खपरोक्खणाणीय ॥ ६ ।
जो मुनिगण अभिनिबोधक, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यय ज्ञान और केवलज्ञान ऋद्धियोंके धारक है उन प्रत्यक्ष परोक्ष ज्ञानसे भूषित जगतके दीपकों को मैं नमस्कार करता हूं ॥ १६ ॥
आयासततुजलसेढिचारणे जंघचारणे बंदे |
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farauइट्ठिहाणे विजाहरपण्णसमणे य ॥ २० ॥
जो मुनिराज आकाशगामिनी ऋद्धिसे संयुत हैं, तन्तु जल श्रेणी पर विना जोवबाधा पहुंचाये चलनेको ऋद्धिसे भूषित हैं, जो जंघाओं द्वारा आकाशमें गमन करनेकी शक्तिवाले हैं उन्हें मैं नमस्कार करता हूं ॥ २० ॥
इचउरंगुलगमणे तहेव फलफुल्लचारणे बंदे |
मतवमहंते देवासुरबंदिदे बंदे ॥ २१ ॥
पृथ्वीसे चार अंगुल ऊंचे रह कर गमन करने की सामर्थ्य रखने वाले, फल फूलको किसी भी प्रकार बाधा न पहुंचाकर चलने की ऋद्धि अनुपम तपके तपने वाले और सुर असुरोंसे वंदनीय मुनिराजोंको में नमन करता हूं ॥ २१ ॥
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जियभयजियउवसग्गे जियइंदियपरिसहे जियकसाये ।
जियरायदोसमोहे जियसुहदुक्खे मस्सामि ॥ २२ ॥
जिन्होंने समस्त प्रकारके भय जीत लिये हैं, जो समस्त उपसगोंको जीतते हैं, जिन्होंने इंद्रियोंपर विजय कर लिया है, जो समस्त परिपहों को जीतते हैं, जिन्होंने कषायोंपर विजय करलिया है, राग द्व ेष मोहको जीत लिया है, जो सुखदुःखको समान समझते हैं, उन योगिराजोंको मैं नमस्कार करता हूं ॥ २२ ॥
एवम श्रभित्थु अणयारा रायदोसपरिसुद्धा । संघस्स वरसमाहिं मज्झवि दुक्खक्खयं दितु ॥ २३ ॥
इस प्रकार जिन मुनिराजोंकी मैंने स्तुति की है वे यद्यपि रागद्वेषसे सर्वथा शुद्ध हैं तो भी संघके लिये श्रेष्ठ समाधि और मेरे लिये दुःखोंका नाश करें ॥ २३ ॥
इच्छामि भंते जोगभत्ति काओसग्गो कओ तस्सालोचओ अट्ठाईजजीवदोससुद्धेसु पण्णरसकम्मभूमीसु आदावणरुक्खमूल अन्भोवासठाणमोणवीरासणेक्कवासकुक्कडा सणच उत्थपरकरक्खवणादिजोग
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६ जुत्ताणं सब्बसाहूणं णिच्चकालं अंचमि पूजमि बंदामि णमस्सामि दुक्खक्खय कम्मक्खय बोहिलहोई सुग- ॥ इगमणं सम्मं समाहिमरणं जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं ॥२५॥
इति योगभक्तिपाठः। अब इष्ट प्रार्थना करता हूँ। योग भक्ति करता हूँ कायोत्सर्ग धारण करता हूं, उसकी आलोचनामें में आतापन वृक्षमूल अब्भोवास, || स्थान, मौन, वीरासन, एकवास, कुक्क टासन आदि योगोंसे युक्त समस्त साधुओंको सदा पूजता हूं बंदना करता हूं, नमस्कार करता हूं।
परे दुखोंका क्षय, काँका क्षय हो, बोधिलाभ हो, सुगतिमें गमन हो, सम्यक्त्वकी प्राप्ति हो, समाधिमरण हो, और मुझे जिनेंद्र भगवानके Bा गुण प्राप्त हों।
इसप्रकार योगभक्ति पाठ समाप्त हुआ।
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एवं यत्र यस्या भक्तेरावश्यकता तत्र अस्मात् पाठोहितेच्छुना विधेयः, पश्चात सर्वत्रांते कायोत्सर्गा- ॥४॥ || दिगवार्येणेंद्रेण वा तचस्क्रियावता करणीय इति दिक् ।
इस प्रकार जहां जिस भक्तिकी आवश्यकता हो, उस जगह वह पाठ इस ग्रन्थसे हित चाहनेवाले आचार्य अथवा इंद्रको अथवा अन्य Pउचित क्रिया करनेवालेको पढना चाहिये और पाठके वाद सर्वत्र अंतमें कायोत्सग धारण करना चाहिये ॥
अथ निर्वाणभक्तिपाठः। अब निर्वाणभक्ति पाठ कहते हैंतद्यथा-इच्छामि भंते परिणिबाणभचि काओसग्गो को तस्सालोचेओ इमम्मि असप्पिणीए ६ चउत्थसमयस्स पच्छिमे भागे आहट्टयमाप्तहीणे वासचउक्कम्मि सेसकालम्भि पावाए णयरीए कचियमासस्स
किण्हचउद्दसिए रचीए सादीए णखत्ते पच्चूसे भयवदोमहदि महावीरो वड्ढमाणो सिद्धिंगदो तीसुवि Pलोएसु भवणवासियवाणवितरजोइसिह कप्पवासिय चि चउबिहा देवा सपरिवारादिवेण गंधण दिव्वेण ||
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पुप्फेण दिव्वेण धूवेण दिव्वेण चुण्णेण दिव्वेण वामेण दिव्वेण ण्हाणेण णिञ्चकालं अञ्चति पुज्नंति बंदंति णसंति परिणिव्वाणमहाकल्लाणपुज्जं करंति अहमवि इहसतो तत्थ सत्ताह णिञ्चकालं अंचेमि पूजेमि बंदामि नमस्सामि परिणिव्वाण महाकल्लाणपुज्जं करेमि दुक्खक्खओ कम्मलओ बोहिलाओ सुगहगमणं सम्मं समाहिमरणं जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं । इति पूर्वाचार्यानुक्रमेण कर्मक्षयार्थं भावपूजा भावबंदनासमेतं कायोत्सर्गं करोमि इतेि तत्तत्क्रिया निष्ठापनीया । अन्योऽपि पाठः क्रियासंपत्त्यै कर्मनिर्जरायै च कार्यः प्रामाणिकः । इत्थं निर्वाणभक्तिः ।
वह इस प्रकार है—
इष्ट प्रार्थना करता हू ं । निर्वाण भक्तिमें कायोत्सर्ग करता हूँ । उसकी आलोचना यह है कि इस अवसर्पिणीके चतुर्थ कालके अंतिम भागमें आठ मास हीन चार वर्ष समय रह गया उस समय पावा नगरीमें कार्तिक मासको कृष्ण चतुर्दशीकी रात्रिको स्वाति नक्षत्र के उदयमें प्रातः काल श्रीमहावीर वर्द्धमान मुक्तिको प्राप्त हुये इसलिये उस समय तीनो लोकोंके भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी ओर कल्पवासी चारो प्रकारके देव सपरिवार दिव्य गंध, दिव्य पुष्प, दिव्य धूप, दिव्य चूर्ण, दिव्य वस्त्र, दिव्य स्नानसे सदा पूजन करते हैं, बंदना करते हैं, परिनिर्वाण कल्याणकी पूजन करते हैं, उसी प्रकार में भी यहां रह कर ही उस समय जिनेंद्र भगवान की सदा पूजा करता हूं, बंदना करता हूँ, नमस्कार करता हू औ परिनिर्वाण कल्याणकी पूजन करता हूँ । मेरे दुःखोंका क्षय हो, कमका नाश हो, बोधिकी प्राप्ति हो, सुगतिमें गमन, सम्यक्त्वकी प्राप्ति, समाधिमरणका लाभ हो और मुझे जिनेंद्र भगवानकेसे गुणोंकी प्राप्ति हो ।
इसप्रकार पूर्वाचार्योंके अनुक्रमसे कम के नाशार्थ भावपूजा वंदनासहित मैं कायोत्सर्ग धारण करता हूँ । इसके बाद जिस जिस क्रियाके अतमें यह पाठ पढा जाय वह समाप्त करनी चाहिये ।
इसीप्रकार के अन्य भी प्रामाणिक पाठ क्रियाकी पूर्णता और कर्मों की निर्जराके लिये करने चाहिये ।
या प्रकार मूल ग्रन्थकर्ता ग्रंथांतर प्रबंधित आचार्यादि भक्तिका पाठ लिख्या, याका अर्थ नहीं लिखा; अन्यत्र पाइए है इस वास्तै । अरु पूर्वाचार्य मंत्रविषै अर क्रियानमें अधिक शक्ति कही है। अर इन विना अन्य भी उपयोगी पाठ जप स्तव आदि हैं सो क्रियाकी पुष्टिनिमित्त तथा कर्म -निर्जराथ करना जो प्रमाणीक होय; सो ।
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प्रतिष्ठा
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अब वेदीनकी प्रतिष्ठा कहिए हैं,—
अथ वेदीप्रतिष्ठा ।
मुहूर्त्तसिद्धौ कृतसिद्धभक्तिर्विलिख्य यंत्र सुविनायकाख्यं ।
aaai सिद्धमुनीश्वरर्द्धिश्रुतानि संस्थाप्य चरेत्सपर्याम् ॥ २६९ ॥
मैं पूर्वोक्त मुहूर्तनकी सिद्धि होतेसंत करी है सिद्ध भक्ति जाने असो यजमान वा इंद्र है सो आग कहेंगे असा विनायक नामक यंत्रनैं विलेखन करि अरु तीन छत्र अरु सिद्ध अरु मुनीश्वरांकी ऋद्धिनैं अरु श्रुतदेवतानें स्थापित करि पूजानें रचै ॥ २६२ ॥ प्रत्यूहनिर्णाशविधौ प्रसिद्धं गद्रवक्लाम्बुजगीतकीर्तिम् ।
यतं पुरापूजितमल नेयं पात्रे लिखित्वाऽपि कृतार्चनादि ॥ २६२ ॥
इहां वेदी यजमान सर्व विघ्ननका नाशमें प्रसिद्ध अरु गणधरादि करि गाई है कीर्ति जाकी अरु पहली ही प्रतिष्ठा प्राप्त भया सा यंत्रनैं ल्यावना योग्य है। यदि असा यंत्र नहीं मिले तो पात्रमें चंदनादिकसे लिखिकर भी अर्चन करना ॥ २६२ ॥
जय जय जय, निस्सही, निस्सही, निस्सही, वर्धस्व, वर्धस्व, वर्धस्व, स्वस्ति, स्वस्ति, स्वस्ति, वर्द्धतां जिनशासनं । णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं । चचारि मंगलं, अरहंतमंगलं, सिद्धमंगलं, साहुमंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं । चचारि लोगुत्तमा, अरहंत लोगुत्तमा, सिद्ध लोगुत्तमा, साहु लोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा । चचारि सरणं पव्वज्जामि, अरहंतसरणं पव्वज्जामि, सिद्धसरणं पव्वज्जामि, साहुसरणं पव्वज्जामि, केवलिपण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि ।
अब अनादिसिद्ध मंत्र का अर्थ कहें हैं
ॐ जयवंते वर्ती, ॐ जयवंते वर्ती, ॐ जयवंते वर्ती। मैं निःसहाय हूँ, मैं निःसहाय हूँ, मैं निःसहाय हूँ । वृद्धि प्राश होउ, वृद्धिकू ११
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प्रतिष्ठा
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प्राप्त होउ, वृद्धि प्राप्त होउ। जिनशासन सदा वृद्धिंगत होउ ॥ अरहंतके अर्थि नपस्कार होउ। सिद्धनकू नपस्कार होउ । प्राचार्यनकू नमस्कार होउ । उपाध्यायनिकू नमस्कार होउ । ई लोकम सर्वसाधु हैं, तिनकू नमस्कार होउ ॥ अर चार मंगल होउ । श्रीअरहंत पंगल होउ । अर सिद्ध मंगल होउ। साधु मंगल होउ । अर केवलीकरि प्रणीत धर्म है सो मंगल होउ ॥ अर पारि लोकोत्तम हैं। श्रीअरहंत लोकोत्तम हैं। सिद्ध लोकोत्तम हैं। साधु लोकोत्तम हैं। अर केवली करि प्रणीत धर्म है सो लोकोत्तम है। च्यारिकी शरण प्राप्त
। श्रीअरहंतकी शरण प्राप्त हूं। सिद्धनकी शरण प्राप्त हूँ । साधूनकी शरण प्राप्त हूं। अर केवली-भणीत धर्म है ताकी शरण प्राप्त हूँ॥ ऐसे अनादिसिद्ध मत्रका अर्थ है। .
ओमद्य वेदीमंडपप्रतिष्ठायां, ततशुद्धयर्थ भावशुद्धये पूर्व आचार्यभक्तिश्रुतभक्तिपूर्व कायोत्सर्ग | कम्य।
ॐ अद्य' कहिए इस अवसर वेदीमंडपकी प्रतिष्ठाम , ताकी शुद्धिके अर्थि अरु भावनकी शुद्धिके अर्थि प्रथम आचार्यभक्ति अरु श्रतभक्ति पूर्वक में कायोत्सर्ग करूं हूँ॥
अथ यंत्रपूजा। अब यंत्र पूजा कहै हैं
परमेष्ठिन् ! मंगलादित्रय विघ्नविनाशने ।
समागच्छ तिष्ठ तिष्ठ मम सनिहितो भव ॥ २६३ ॥ हे पंच परमेष्ठी हो ! हे मगल लोकोत्तम शरण ! इहां आवहु, तिष्ठहु तिष्ठहु, मेरे समीप होउ ॥ २६३ ॥
ओं अवसिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुप मष्ठिन् ! गल लोकोत्तम !! शरणभूत !!! अत्रावतर अव Hd तर संवौषट् (आह्वाननं), अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः (स्थापनं), अत्र मम संनिहितो भव भव वषट् ।। (संनिधिकरणं)।
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पाठ
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स्वच्छे लैस्तीर्थभवर्जरापमृत्यूग्ररोगापनुदे पुरस्तात् । प्रतिष्ठा
अहन्मुखान् पंचपदान् शरण्यान् लोकोत्तमान्मांगलिकान् यजेऽहं ॥ २६४ ॥ नियल अरु तीथसे उत्पन्न ऐसे जलनि करि जरा अपमृत्यु अर रोग इनिका नाशके अर्थि अग्रभागमें अहत हैं मुख्य जिनमें ऐसे पंच-1 IM पद-रूप परमेष्ठी शरण अरु लोकोत्तम अरु मगलरूप हैं तिनने में पूजू हूँ ॥२६॥
ऐसे मंत्र पदि जलधारा देवै___ओं ह्रीं अद्य विवप्रतिष्ठोत्सवे वेदिका विधाने अईसिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुमंगललोकोचम|| शरणेभ्यो जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥ जलं ॥
___ सञ्चंदनै धहृतालिवृंदचितैर्हिमांशुप्रसरावदातेः ।
अर्हन्मुखान् पंचपदान् शरण्यान् लोकोत्तमान्मांगलिकान यजेऽहं ॥ २६५ ॥ गंध करि हरथा है भ्रपर-समहका चित्त जिनने अरु चंद्रमाका प्रसर कहिए किरण तत्समान निर्मल ऐसे चंदन करि, 'अरहंत' हैं मुरू | जिनमें ऐसे पंचपदरूप परमेष्ठी शरण अरु लोकोत्तम अरु मंगलरूप हैं तिनने में पूजू हूँ ।। २६॥ ऐसे मात्र पढ़ि चंदन चढ़ाना
ओं ह्रीं अद्य विवप्रतिष्ठामहोत्सवे वेदिकाशुद्धिविधाने अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुमंगललोकोचमशरणेभ्यश्रंदनं निर्वपामीति स्वाहा ॥ चंदनं ॥
सदक्षतैर्मोक्तिककांतिपाटचरैः सितैर्मानसनेत्रमित्रैः।
अर्हन्मुखान् पचपदान् शरण्यान् लोकोत्तमान्मांगलिकान् यजेऽहं ॥ २६६ ॥ मोतीनकी कांतिकूहरनेवारे, स्वेत, अरु मन अर नेत्र इनकप्रिय, ऐसे समीचीन अखंडित अक्षतन करि अरहंत हैं मुख्य जिनमें ऐसे पंचपदरूप परमेष्ठी शरण अरु लोकोत्तम अरु मंगलरूप हैं तिनने में पूजू हूँ॥२६६ ॥
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ऐसें मंत्र पढ़ि अक्षतका पुज करनाप्रतिष्ठान
___ओं ही अद्य विवप्रतिष्ठामहोत्सवे वेदिकाशुद्धिविधाने अईसिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुमंगललोको-18 चमशरणेभ्यो अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा । अक्षतम् ।
पुष्पैरनेकैरसवर्णगंधप्रभासुरैर्वासितदिग्वितानैः।
अर्हन्मुखान् पंचपदान् शरण्यान् लोकोत्तमान्मांगालिकान् यजेऽहं ॥ २६७ ॥ रस वर्ण गंध इन करि देदीप्यमान अरु सुगधित किया है दिशाका समूह जिननें, ऐसे अनेक पुष्पनि करि 'अरहंत' हैं मुख्य जिनमें || ऐसे पंचपदरूप परमेष्ठी शरण अरु लोकोत्तम अरु मगलरूप हैं तिनने में पूजू हूँ ॥२६७॥ ऐसे मंत्र पढ़ि पुष्पांजलि देना
ओं ही अद्य विवप्रतिष्ठामहोत्सवे वेदिकाशुद्धिविधाने अईसिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुमंगललोकोछत्तमशरणेभ्यो पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा । पुष्पं ।
नैवेद्यपिंडेघृतशर्कराक्तहविष्यभागः सुरसाभिरामैः।।
अर्हन्मुखान् पंचपदान् शरण्यान् लोकोत्तमान्मांगलिकान् यजेऽहं ॥२६८॥ बहुरि घृत शर्करा करि व्याप्त है हविष्यान भाग जिनविर्षे अरु सुन्दर रसकार मनोज्ञ, ऐसे नैवेद्यको पंक्तिनकरि 'परहंत' हैं मुख्य जिनमें ऐसे पंचपदरूप परमेष्ठी शरण अरु लोकोत्तम अरु मंगलरूप हैं तिनने में पूज हूँ ॥२६॥ ऐसें मंत्र पढ़ि नैवेद्य स्थापन करना
ओं ही अद्य विवप्रतिष्ठामहोत्सवे वेदिकाशुद्धिविधाने अर्हसिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुमंगललोकोचमशरणेभ्यो नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा । नैवेद्यं ।
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पारातिकैरत्नसुवर्णरुक्मपात्रार्पितैर्ज्ञानविकाशहेतोः।
अर्हन्मुखान् पञ्चपदान् शरण्यान् लोकोत्तमान्मांगलिकान् यजेऽहं ॥ २६६ ॥ रत्नननिका अरु सुवर्ण-चांदोका पात्रमें स्थापित किये, ऐसे पारार्तिक दीपन करि ज्ञान प्रकाशनका हेतुते 'अरहन्त' हैं मुख्य जिनमें ऐसे चपदरूप परमेष्ठीका शरण अरु लोकोत्तम अरु मंगलरूप हैं तिनने में पूजू हूँ॥२६॥ असें दीपन करिआरती उतारनी
ओं ही अद्य विवप्रतिष्ठोत्सवे वेदिकाशुद्धिविधाने अहमिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुमंगललोकोचमशरणेभ्यो दीपं निर्वपामीति स्वाहा । दीपं ।
अाशासु यधूमवितानमृद्धं तैयूंपदैर्दहनोपसर्पः।
अर्हन्मुखान् पंचपदान् शरण्यान् लोकोत्तमान्मांगलिकान् यजेऽहं ॥ २७० ॥ सर्व दिशानमें श्रेष्ठ धूमकौ समूह फैलायौ भसा अग्निमैं क्षेपे धूपका समूह करि 'अरहंत' हैं मुख्य जिनमें ऐसे पंचपदरूप परमेष्ठी शरण ४ अरु लोकोत्तम अरु मंगलरूप हैं तिनने मैं पूजू हूँ ॥२७॥
ऐसे मंत्र पढ़ि धूप क्षेपना___ओं ह्रीं अद्य विवप्रतिष्ठोत्सवे वेदिकाशुद्धिविधाने अहसिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधुमंगललोकोचमशरणेभ्यो धूपं निर्वपामीति स्वाहा । धूपं ।
फलैरसालैवरदाडिमाद्यैर्द्धघाणहार्येरमलैरुदारैः।
अर्हन्मुखान् पंचपदान् शरण्यान् लोकोत्तमान्मांगलिकान् यजेऽहं ॥ २७ ॥ सुन्दर सरस मनोज्ञ फल आदि हृदय अरु नासिकाकू प्रिय अरु प्रचुर अनेक फलनि करि 'अरहंत' हैं मुख्य जिनमें ऐसे पंचपदरूप परट्रा मेष्ठी शरण अरु लोकोत्तम अरु मंगल रूप हैं तिनने में पूजू हूँ॥२७१॥
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ऐस मंत्र पढ़ि फल स्थापन करना
ओं ह्रीं अद्य विंबप्रतिष्ठत्सवे वेदिकाशुद्धिविधाने अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधुमंगललो कोचमशरणेभ्यो फलानि निर्वपामीति स्वाहा । फलानि ।
द्रव्याणि सर्वाणि विधाय पावे ह्यनर्घमघं वितरामि भक्त्या । भवे भवे भक्तिरुदारभावाद्यषां सुखायास्तु निरंतराया ॥ २७२ ॥
बहुरि पूर्वोक्त सर्व द्रव्य पात्र धारण करि बहुमूल्य अर्घ जो ताहि मैं चढाऊं हूं जाकरि उदार भावत उत्पन्न हुई मेरें भक्ति है सो भव भव निर्विघ्नके अथि होउ ऐस अघ चढ़ावना ॥ २७२ ॥
ओं ह्रीं अद्य विंबप्रतिष्ठोत्सवे वेदिका शुद्धिविधाने अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्व साधु मंगल लोकोत्तमशरणेभ्यो अर्धं निर्वपामीति स्वाहा । अर्धं ।
इति अष्टप्रकार पूजा |
समुदायरूप करि प्रत्येक असो अस
अनादिसंतानभवान् जिनद्रानर्हत्पदेष्टानुपदिष्टधर्मान् ।
ar श्रिया लिंगितपादपद्मान् यजामि वेदीप्रकृतिप्रसत्त्यै ॥ २७३ ॥
अनादिकालके संतानतै उत्पन्न अरु अरहंत पदमैं इष्ट उपदेश कियो है धर्म जिनमें ऐसे जिनेंद्र जे हैं तिननैं वेदीकी प्रकृतिकी प्रसन्नता निमित्त मैं यजन करू हू कैसे हैं जिनेंद्र ? दोय प्रकार-अतरंग अरु बहिरंग लक्ष्मी करि आलिंगन किये हैं चरण कपल जिनके ॥ २७३ ॥ ओं हूँ। उद्भिन्नानंतज्ञानगभस्ति संदृष्ट लोकालोकानुभावान् मोक्षमार्ग प्रकाशनानंतचिद्रूपावलासान् अईत्परमेष्ठिनः संपूजयामि स्वाहा ॥ अर्धं ॥
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कर्माष्टनाशाच्च्युतभावकर्मोद्भृतीन् निजात्मस्वविलासभूपान् ।
सिद्धाननं तांत्रिककालमध्ये गीतान् यजामीष्टविधिप्रशक्त्यै ॥ २७४ ॥
निजाष्टगुणगणोघूर्णान्
प्रगुणी
कर्म का नाश खिर गये हैं कम निके उदय जिनके, अरु निज कहिए अपनो स्वभाव - परिणतिका विलासके भूपति अरु अनंत अरु भूत-भविष्य वर्तमान रूप तीन कालम वतते ऐसें सिद्ध परमेष्ठीनन में इष्ट विधानकी प्राप्तिके अर्थि यजन करू ं हू ं ॥ २७४ ॥ ॐ ह्रीं द्विविधकर्मतांडवापनोदविलसत्स्वाकारचिद्विलासवृत्तीन् भूतानंतमाहात्म्यान् लोकखरावस्थायनः सिद्धरमेष्ठिनोऽर्चयामि स्वाहा ॥ अधं ॥ ये पंचधाचारपरायणानामग्रेसरा दीक्षणशिक्षिकासु । प्रमाणनिर्णीत पदार्थसार्थानाचार्यवर्यान् परिपूजयामि ॥ २७५ ॥
जे पंच प्रकारके आचरणमै निपुण हैं, तिनम अग्रेसर अरु दीक्षा- शिक्षा देने निपुण अरु प्रमाण करि निर्णय किये हैं पदार्थनिका समूह जिननें, ऐसे आचार्यनमें मुख्यनैं मैं पूजूं हूं ॥ २७५ ॥
ॐ ह्री व्यवहाराधाराचारवत्त्वाद्यनेकगुणमणिभूषितोरस्कान संघप्रतिसार्थवाहानाचार्यवर्यान् परि पूजयामि स्वाहा ॥ अर्धं ॥
अर्थश्रुतं सत्यविबोधनेन द्रव्यश्रुतं ग्रंथविदर्भनेन ।
येऽध्यापयंति प्रवरानुभावास्तेऽध्यापका मेऽर्हणया दुर्हतु ॥ २७६ ॥
मतिज्ञानका जाननपणा करि अर्थरूप श्र तर्ने अरु ग्रन्थनका पठन पाठन तथा रचना करि द्रव्यश्रु त जो है, तानें जे पढावें असे प्रवर अनुभवमें प्राप्त भये उपाध्याय परमेष्ठी मेरी करी अर्हणा पूजा करि प्रसन्न होऊ ॥ २७६ ॥
ओं ह्रीं द्वादशांगतां निधिपारंगतान् परिप्राप्तपदार्थस्वरूपान् उपाध्याय परमेष्ठिनः पूजयामि स्वाहा ॥ अर्धं ॥
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द्विधा तपोभावनया प्रवीणान् स्वकर्मभूमिधविखंडनेषु ।
विविक्तशय्यासनहर्म्यपीठस्थितान तपखिप्रवरान् यजामि ॥ २७७॥ दोय प्रकार, अतरंग अरु वाय जो तपकी भावना करि सावधान अरु कर्य-रूप पर्वतनिका खंडन निपुण अरू एकांत शय्यासन रूप प्रासादकी पीठ परि स्थित असे तपस्वीन प्रवर जे, तिनन में पूजूंह ॥२७७॥ ____ओं ह्रीं घोरतपश्चरणोयुक्तप्रयासभासमानान स्वकारुण्यपुण्यपुण्यागण्यपण्यरत्नालंकृतपादान साधुपरमेष्ठिनः पूजयामि स्वाहा ।। अर्घ ॥
- अर्हन्मंगलमर्चे सुरनरविद्याधरैकपूज्यपदं ।
तोयप्रभृतिभिरविनीतमृ| शिवाप्तये नित्यं ॥ २७८ ॥ सुर-नर-विद्याधरनि करि पूज्य हैं पद जिनके असे अहंत मंगलजलादि अष्ट द्रव्यनि करि नम्र पस्तक करि मोक्ष प्राप्ति निमित्त हा पूंजूहूं ॥२८॥
ओं ही अन्मंगलाय अर्घम् । ध्रौव्योत्पादविनाशनरूपाखिलवस्तुजाननार्थकरं ।
सिद्धं मगलमिति वा मत्वाचे चाष्टविधवसुभिः ॥ २७६ ॥ धौव्य-उत्पाद-व्यय रूप जो अखिल कहिए समस्त वस्तु वा पदार्थ जानवा करि तत्वका कहनेवारा अरहंत रूप मगल. असा मानि || अष्ट द्रव्यनि करि पूजू हूँ॥२६॥ असे सिद्ध मंगलके अर्घ अर्थ देना
__ओं ही सिद्धमंगलाया। यदर्शनकृतविभवाद रोगोपद्रवगणा मृगा इव मृगेंद्रात् ।
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प्रतिष्ठा.
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बूरं भजंति देशं साधुयोऽर्च्यते विधिना ॥ २८० ॥
जाका दर्शन का किया प्रभावतें रोग उपद्रवनिके गण हैं ते जसे सिंह मृग दूर भाजै तैसें दूर देशनतें आश्रय करें हैं, ऐसे साधु मंगल हैं सो विधि करि पूजिये हैं ॥ २८० ॥
ऐसे साधु मंगल अर्थ अर्घ देना
साधु गलाया।
केवलमुखावगतया वाण्या निर्दिष्टभेदधर्मगणं ।
मत्वा भवसिंधुतरीं प्रयजे तन्मंगलं शुद्धयै ॥ २८९ ॥
मैं श्री केवलीका मुख निर्गत दिव्यध्वनि करि दिखायौ है मुनि श्रावक भेद-युक्त धर्मको गण जो है, ताहि भवसागरको निदान मानितिहि मंगल शुद्धि निमित्त पूज हूं ॥ २८९ ॥
ऐसे केवली -प्रणीत धर्म के अर्थ अर्घ देना
केवलज्ञप्ति म गलायाघ म् ।
लोकोत्तममथ जिनराडू पदाब्जसेवनममितदोषविलयाय ।
शक्तं मत्वा धृतये जलगंधैरीडितुं प्रभवे ॥ २८२ ॥
लोकोत्तम ऐसे जिनराजका चरणबिंदकौ सेवन है सो समस्त दोषनिका विनाशके अर्थ समर्थ मानि आत्मधृति निमित्त जल-गंधादि - कनि करि पूजन करनेकू समर्थ हुवो हूं ॥ २८२ ॥
ऐसे केवली -प्रणीत धर्म के अर्थ अघ देना
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श्रीं ह्रीं अरहंतलोकोत्तमायाघं ।
सिद्धाश्च्युत दोषमला लोकाग्र्यं प्राप्य शिवसुखं व्रजिताः । उत्तमपथगा लोके तानर्चे वसुविधार्चनया ॥ २८३ ॥
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प्रतिष्ठान गये हैं दोष-मल जिनतें ऐसे सिद्ध जे हैं, ते लोकका अग्रभागर्ने प्राप्त होय शास्वत शिवसुखने प्राप्त भये, अरु उत्तम माग गामी जे हैं,
तिन. अष्ट प्रकार पूजन करि पूज हूं ॥२८॥ ऐसे सिद्धलोकोत्तमके अर्थि अर्घ देना
ओं ही सिदलोकोत्तमाया। इंद्रनरेंद्रसुरेंद्रे रथिततपसां व्रतैषिणां सुधियां।
उत्तमपंथानमसावर्चेऽहं सलिलगंधमुखैः ॥ २८४ ॥ BU इंद्र नरेंद्र अरु सुरेंद्रनि करि प्रार्थन किया तप जे हैं, तिनका अरु व्रतका वांछक सुन्दर बुद्धिमानका उत्तम मार्ग नै नलग धादि अष्ट द्रव्यनि करि यो मैं हूँ सो पूज हूं ॥२४॥ ऐसे साधु लोकोत्तम-अर्थि अर्घ देना
___ओं ही साधुलोकोत्तपेभ्यः अर्घ म्। रागपिशाचविमर्दनमत्र भवे धर्मधारिणामतुलम् ।
उत्तममवतकामो वृषमर्चे शुचितरं कुसुमैः ॥ २८५॥ राग रूप पिशाचको मर्दन इस भवमें धर्मधारी पुरुषनके अतुल अप्रमाण होइ, ऐसा शुद्ध उत्तम धर्म नै पुष्पनिकरि पूजू हूँ॥॥ ऐसें केवली-प्रणीत लोकोत्तम धर्म के अथि अर्घ देना
ओं ह्रीं केवलिपज्ञप्तिधर्माय लोकोत्तमायाघम्। यहच्चरणमथाऽनंतजनुष्वपि न जातु संप्राप्तं ।
नर्तनगानादिविधिमुद्दिश्याष्टकर्मणां शांत्यै ॥ २८६ ॥ अनंत भवनिम कदाचित् भी न प्राप्त भयो ऐसा अरहंतका शरण जो है, ताहि नृत्य गानादि विधिनै उद्देश करि अष्टकम निकी शांतिके अर्थ में पूजू हूं ॥२६॥
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प्रविष्ठा ९.१
ऐसें अरहंत शरणके अर्थ अघ दना
अरहंतशरणायार्घम् ।
निर्व्याबाधगुणादिक प्राग्र्यं शरणं समेतचिदनंतं ।
सिद्धानाममृतानां भूत्यै पूजेयमशुभहान्यर्थम् ॥ २८७ ॥
व्यावाध आदि गुणनि करि प्रसिद्ध अरु चैतन्यालंकृत अरु मृत्यु करि रहित असे सिद्धनिका शरण जो है ताहि अशुभकी हानि निमित्त संपदाके अर्थ पूज हूं ॥ २८७ ॥
ऐसें सिद्ध शरण के अर्थ अघ देना
ह्रीं सिद्धशरणायाम् ।
चिदचिभेदं शरणं लौकिकमाप्यं प्रयोजनातीतं ।
त्यक्त्वा साधुजनानां शरणं भूत्यै यजामि परमार्थम् ॥ २८८ ॥
शरण चैतन्य अचैतन्य-रूप लौकिकनै भजनीय अरु प्रयोजन व्यतीतकू छोड़ि करि साधुजनका शरणनैं परमार्थभूतनें यजन करू हूं ॥ २८८ ॥
ऐसें साधुशरण के अर्थ अर्घ देना
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साधुशरणायाम |
केवलिनाथमुखोद्गतधर्मः प्राणिसुखहितार्थमुद्दिष्टः । तत्प्राप्त्यै तद्यजनं कुर्वे मखविघ्ननाशाय ॥ २८६ ॥
केवली जिनराजका मुखारविंदतै उत्पन्न अरु प्राणीनका सुख-हितके अर्थि उपदेश किया ऐसा धर्म जो है, ताहि यज्ञके विघ्नका नाशिके अर्थ पूजन करू हूं ॥ २८६ ॥
ऐसें केवली -प्रणीत धर्म की शरणके अर्थ अर्घ देना
केवलिम शरणायार्थ म् ।
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प्रतिष्ठा
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अथ महर्षिपर्युपासनम्। ऐसें अर्घ पाद्य करि महर्षिनकी उपासना करिये हैं,
औषधीरसबलर्द्धि तपःस्था क्षेत्रबुद्धिकलिताः क्रिययाढयाः ।
विक्रयर्धिमहिताः प्रणिधानप्राप्तसंसृतितटा मुनिपूज्याः॥ २६॥ औषधि-ऋद्धि अर रसऋद्धि-जनक तप करि युक्त, क्षेत्रऋद्धि अरु बुद्धिऋद्धि करि संयुक्त, क्रिया नायक ऋदि तथा विक्रियादि| करि पूजित अरु अपना अनुभव करि प्राप्त किया है संसारका पार जिननें, ऐसे मुनीनम पूज्य जयवंते रहो ॥२०॥
केवलावधिमनः प्रसरांगाः वीजकोष्ठमतिभाजनशुद्धाः।
वीतरागमदमत्सरभावा बोधिलाभमनघाः प्रदिशंतु ॥ २६१॥ अरु केवलज्ञान अवधिज्ञान अर मनःपर्ययज्ञानका फैलावका अंग संयुक्त अरु वीज-बुद्धि-कोष रूप भाजन करि शुद्ध, अरू गये हैं राग-1 मद-मत्सरभाव जिनके, ऐसे महर्षि निःपाप हमारे अर्थि ज्ञानलाभन देवो ।। २६१॥
यद्वचोऽमृतमहानदमन्ना जन्मदाहपरितापमपास्य ।
निर्ववुः सुखसमाजतटेषु बोधिलाभमनघाः प्रदिशंतु ॥ २६२॥ जिनके वचनामृतरूपी महानदमें मग्न होनेवाले भव्य जीव जन्ममरणके दाह (संताप) से छुटकर परप सुखको प्राप्त करते हैं, वे पाप रहित मुनिराज हमें ज्ञानलाभ देवै ॥२२॥*
श्रोत्रभिन्नमतयः पदपंथाः दृष्टसंमृतिपदार्थविभावाः।
तत्त्वसंकलितधर्म्यसुशुक्लाः बोधिलाभमनघाः प्रदिशंतु ॥ २९३ ॥ * इस श्लोक का अर्थ हस्तलिखित प्रतिमें न बहने के कारण हमने लिख दिया है। -सपादक,
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पतिष्ठा ६३
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अरु स भिन्न-श्रोत्र-पतिका धारो अरु पादानुसारी असे देखे हैं संसारका पदार्थ विभाव जिनन, अरु तत्त्व करि संकल कियौ है धर्म - ध्यान अर शुक्लध्यान जनन", असे निःपाप मुनीश्वर जे हैं ते ज्ञानलाभनं देवौ ॥ २८३ ॥
स्पर्शनश्रवणलोकनबुद्धाः घ्राणसंस्थरसनोपकृता ये ।
दुरतोऽप्यनुभवं समाप्ता बोधिलाभमनघाः प्रदिशंतु ॥ २६४ ॥
अरु स्पर्शन श्रवण अवलोकन बुद्धिके धारी अरु घ्राण रसनाका उपकार-कर्त्ता, ते दूरतै अनुभवने प्राप्त भये जे निःपाप मुनीश्वर मेरे अर्थि बोध-लाभनै देवी ॥ २८४ ॥
नवर्यविधिना चतुर्दश दिग्सुपूर्वमतिना निमित्तगाः ।
वादिबुद्धकृतिनो मतिश्रमाः बोधिलाभमनघाः प्रदिशंतु ॥ २६५ ॥
बहुरि छिन्नस्वर आदि निमित्त विधि करि चोदह पूर्वका धारी निमित्तज्ञानी तथा वादिबुद्धिका धारी, नहीं है मतिका परिश्रम जिनकें, से निःपापमुनीश्वर जे हैं ते मेरे अर्थि ज्ञानलाभ देवी ॥ २८५ ॥
अष्टधोक्तदशधाभिदया ये बुद्धिवृद्धिसहिताः शिवयत्नाः ।
विमलादिगदहापनदेहा बोधिलाभमनघाः प्रदिशंतु ॥ २६६ ॥
बहुरि अठारा प्रकार बुद्धि ऋद्धिका धारी अरु मोक्षमै है यत्न जिनकैं अरु विशुद्ध अरु जिनके मल आदि करि रोग नष्ट होजांय ऐसे. निःपाप मुनीश्वर मेरे अर्थ ज्ञानलाभनें देवो ॥ २६६ ॥
दृष्टिवक्लमनसां विषभक्ति प्रीणिताः श्रुतसरित्पतिपुष्टाः ।
लोकमंगलिषु संन्यसिता ये बोधिलाभमनघाः प्रदिशंतु ॥ २६७ ॥
दृष्टि अरमुख र मनके आधार विषऋद्धिके धारी अरु शास्त्र समुद्रका पारगामी अरु लोकनैं अपनी अंगुलि करि स्थापन करनेवारे जे हैं, ते मेरे अर्थि ज्ञानलाभनें देवौ ॥ २६७ ॥
पाठ
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भतिष्ठा
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वाक्यमानसवलेन समग्राः उग्रदीप्ततपसस्त्रिकगुप्ताः ।
घोरवीर्यगुणभावितचित्ता बोधिलाभमनघाः प्रदिशंतु ॥ २६८ ॥ अरु वचनवली अर मनोवली अर उग्रदीप्त तपके धारक अरु तीन गुप्ति संयुक्त अरु घोर पराक्रम करि भवित चित्त जिनके, ते निःपाप मुनी|| श्वर मेरे अर्थि ज्ञानलाभने देवौ ॥२८॥
दुग्धमध्वमृतभोजनकृत्याः सर्पिषाश्रववचोऽभिनियुक्ताः ।
अण्वलाघववशित्वविदर्भा बोधिलाभमनघाः प्रदिशंतु ॥ २६६ ॥ बहुरि दुग्धस्रावी, मधुस्रावी अरु अमृत भोजन ऋद्धिका धारी, अरु सर्पिस्रावो वचनऋद्धिके धारी, अरु अणु-गुरु वश करनेवारी ऋद्धिके धारी ग्रन्थनके कर्चा निःपाप मुनीश्वर मेरे अर्थि ज्ञानलाभ देवौ ॥२६॥
कामरूपगुरुताप्रतिसातर्द्धहीनवसतिगृहयुक्ताः।
चारणा जलफलाग्निकसूता बोधिलाभमनघाः प्रदिशंतु ॥३०॥ बहुरि काम-रूप ऋद्धिके धारी, विस्तार अरु अन्तर्धान अरु अक्षीण पहालय ऋद्धिके धारी, अर जल फल अग्नि अरु सूत्र आदि चारण ऋद्धि के धारी जे हैं, ते निःपाप मुनीश्वर मेरे अर्थि ज्ञानलाभ देवौ ॥३:०॥
श्रात्मशक्तिविभवागतसर्वपौद्गलीयममताश्च्युतवस्त्राः।
सत्परीषहभटार्दनदास्ते बोधिलाभमनघाः प्रदिशंतु ॥ ३०१॥ अरु आत्मशक्तिके वधावनेवारे, पौद्गलिक भावरहित दिगंबर अरु बाईस परीषह-रूप पटनिके जेता, असे निःपाप मुनीश्वर मेरे अर्थि ज्ञानलाभ देवौ ॥३०॥ असें आठ प्रकार ऋद्धिधारीनके अर्थि अर्घ देना
ओं ही अष्टपकारसकलऋद्धिमाप्तभ्यो मुनिभ्योऽयम् । अब तीर्थंकरोंके आदि कहिये मुख्य गणधरका नाम लेय सर्व गणधरनके अर्थि प्रार्थना करिये हैं।
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पाठ
मतिष्ठा
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येसितु वृषभसेनपुरस्सरा ये, सिंहादिसेनपुरतोऽजिततीर्थभर्तुः। श्रीसंभवस्य किल चारुविसेनमुख्यास्तुर्यस्य वज्रधरमुख्यगणाधिराजाः ॥ ३०२॥ कोकध्वजस्य चमराधिपपूर्वगाः स्युः पद्मप्रभस्य कुलिशादिपुरःस्थिताश्च । श्रीसप्तमस्य बलमुख्यकृताः पुराणे चंद्रप्रभस्य शमिनः खलु दत्तमुख्याः ॥३०३ ।। मकरांकितो गणभृतश्च विदर्भमुख्याः श्रीसीतलस्य गणया अनगारगण्याः। श्रेयोजिनस्य निकटे ध्वनि कुंथुपूर्वा धर्मादयो गणधरा वसुपूज्यसूनोः ।। ३०४ ॥ मेर्वादयश्च विमलेशितुरुद्धबुद्ध्या जय्यार्यनामभरणाश्चतुर्दशस्य । धर्मस्य भांति शमिनः सदरिष्टमूलाश्चक्रायुधप्रभृतयः खलु शांतिभर्तुः ॥ ३०५ ॥ कुथुप्रभोर्यमभृतः कथिताः स्वयंभूवर्याः पुनंत्वरविभोः स्मृतकुंभमान्याः। मल्लेविशाखमुनयो मुनिसुव्रतस्य मल्लिप्रवेकगणता नमिभर्तुरिष्टाः ॥ ३०६ ॥ सप्तर्द्धिपूजितपदाः सुप्रभासमुख्या नेमीश्वरस्य वरदत्तमुखा गणेशाः ।
पार्श्वप्रभो स्त्रयमितः सुभवोंतनाम्ना वीरस्य गौतममुनींद्रमुखाः पुनंतु ॥ ३०७ ॥ जे श्रीआदिनाथ स्वामीके वृषभसेन आदि गणधर हैं, अरु अजिसनाथस्वामीके सिंहसेन आदि गणधर हैं, अरु श्रीसंभवनाथ भगवानके चारुसेन आदि मुख्य गणधर हैं, अरु चौथे श्रीअभिनंदननाथ स्वामीके वजूधरस्वामी आदि गणधर हैं, अरु कोकको है चिद जिनके असा सुपतिनाथके चमरसेन आदि हैं , अरु पद्ममभस्वामीके कुलिशनाथ आदि हैं, अरु सातपां सुपार्श्वनाथ प्रभूके बल आदि गणधर है, अरु पुराणमैं श्रीचंद्रप्रभके शयका धारी दत्तधर आदि हैं, अरु मत्स है चिद जिनक असा पुष्पदंतस्वापोका विदर्भ आदि गणधर हैं, अरु शोतलनाथका अनागार आदि गणधर हैं, अरु श्रेयांसनाथका निकटयार्गवर्ती कुंथदत्त आदि गणधर हैं, अरु धर्म सेन आदि गणधर हैं श्रीवासुपूज्य महाराजका जानो, अरु विमलनाथके मेरु आदि सुन्दर बुदिधारी गणधर हैं, अरु चौदमां अनंत नाथस्वापीके जयदत्त आदि नामधारी हैं, अरु
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कृत्वाऽघ मुत्तारयामि
TEACHECREHSAASHIRKERSNELOCALCHING
धर्मनाथके अरिष्ट आदि शपधारो गणधर हैं, अरु शांतिनाथ स्वामीके चक्रायुध आदि हैं, अरु कुथनाथके स्वयंभूदत्त आदि मणापर हैं, अक
अरनाथके कुम्भ आदि मान्य गणधर हमकू पवित्र करो। अरु मल्लिनाथके विशालभूति आदि,अरु मुनिसुव्रतके पल्लिदत्त आदि, अझ नमिदानायके सप्तमृद्धिके धारी प्रभास आदि गणधर हैं, अरु नेमिनाथ पहराजके वरदत्त आदि गणधर हैं, अरु पार्श्वनाथ प्रभुके स्वयंपद है अब जाके ऐसा भू नामक अर्थात् स्वयंभू आदि, अरु वीरनाथस्वामीके गोतम आदि गणधर हैं, ते पवित्र करो॥३०२-३.७॥
एभ्योऽर्घ्यपाद्यमिह यज्ञधरावनार्थ दत्तं मया विलसतां शुचिवेदिकायां ।
पुष्पांजलिप्रकर तंदिलमाज्यपात्र मुत्तारयामि मुनिमान्यचरित्रभक्त्या ॥३०॥ अरु यज्ञ-पृथ्वीका रक्षण निमित्त सुन्दर वेदीम करि दीया अर्घ पाद्य, इनिके अर्थ प्रकाशपान हो । अरु मुनीश्वरोंकी भक्ति करि कि आचार्यभक्ति पढ़ि अरु चारित्रभक्ति पढ़ि पुष्पांजलिका समूह करि पुष्ट, ऐसा चारुपात्र अग्रभागमें उतारण करूं हूँ॥३०८॥
ओं ह्रीं श्रीचतुर्विंशतितीर्थंकरगणधरेभ्यस्त्रिपंचाशत्सहित चतुर्दशशतसंख्येभ्यश्चरुपात्रप कृत्वाऽघ मुत्तारयायि स्वाहा ॥
ऐसा चोईस तीर्थकरोंके गणधर जो चोदह सौ त्रेपन (१४५३) हैं, तिनके अर्थि चारुपात्र-पूर्वक अर्थ उतारण करना। टू अत्र चारित्रभक्तिपाठं कृत्वा पुष्पांजलिना वेदिका भूषयेत् । इहां चारित्रभक्तिपाठ पढ़ि पुष्पांजलि करि वेदिकानें भूषित करै। पुनश्च
इंद्रमतिरग्निभतिर्वायभतिः सधर्मकः ।
मौर्यमौड्यौ पुत्रमित्रावकंपनसुनामधक् ॥ ३०६ ॥ बहुरि इंद्रभूति कहिये गौतम अरु वायुभूति, अग्निभूति, सुधर्म, मौर्य नामक, मौड्य, अरु पुत्र नामक, मित्र नायक, अकंपन, अंधवेल अरू प्रभास , ऐसा म्यारा गणधर श्रीपहावीरके हैं, तिन मुनिन· पूजू हूं ॥३०६ ॥ ऐसें गौतम आदि एकादश मुनि पनि अब देना।
___ओं हीं गौतमादि एकादशमुनिभ्योऽधम् । अंधवेलः प्रभासश्च रुद्रसंख्यान् मुनीन् यजे ।
भक्तिपाठं कृत्वा पुष्पांजलिना अपन (१४५३) हैं, तिन
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मौरोलवायुभूतिः सुधर्मकः ।
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प्रतिष्ठा
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गोतमं च सुधर्म च जंबूस्वामिनमूर्ध्वगम् ॥ ३१॥ तथा वेही केवलज्ञानी हुवे-गौतम १, सुधर्माचार्य १, जम्बूस्वामी १ ऐसे वीरस्वायीके पीछे तीन उर्ध्वगतिके गामी जे हैं तिनने अर्घ देना ॥३१०॥ ऐसे सकेवलीत्रयके अर्थि अघ देना-।
ओ हीं अंसकेवलित्रयायाघम् । श्रुतकेवलिनोऽन्यांश्च विष्णुनंद्यपराजितान् ।
गोवर्धनं भद्रबाहुं दशपूर्वधरं यजे ॥ ३११ ॥ अन्य जे श्र तकेवली-विष्णुनन्दी १, अपराजित १, गोवर्दन १, भद्रबाहु १, ये दशपूर्वका धारीनें पूजू ह॥३१॥ ऐसें श्रु तकेवलीनकूअर्घ देना
ओं ह्रीं श्रुतकेवलिनोऽर्घम् । विशाखप्रोष्ठिलनक्षत्र जयनागपुरस्सरान् । सिद्धार्थधतिषणाहौ विजयं बुद्धिबलं तथा ॥ ३१२ ॥ गंगदेवं धर्मसेनमेकादश तु सुश्रुतान् । नक्षत्रं जयपालाख्यं पांडुं च ध्रुवसेनकम् ॥३१३॥
कंसाचार्य पुरोंगीयज्ञातारं प्रयजेऽन्वहं । अरु विशाखदत्त १, पौष्ठिल १, नक्षत्र, जय १, नागर, सिद्धार्थ १, धृतिषेण१, विजय१, बुद्धिवल १, गंगदेव १, धर्य सेन १, ऐस ग्यारा सुन्दर श्रु तपाठी जे हैं तिनने, तथा नक्षत्र १, जयपाल १, पांडु १, ध्रुवसेन १, कंसाचार्य १, ऐसें प्रथम पूर्वका जाननेवारानें निरंतर पूजू हूँ॥३१२-३१३॥ ऐस कितनाक अंगपाठीननै अर्घ देना
ओं ही कतिचिदंगधारिभ्योऽधम् ।
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पाव
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SPECIRUSPENSGHAREC%ARCH
सुभद्रं च यशोभद्र भद्रबाहुं मुनीश्वरम् ॥ ३१४ ॥ लोहाचार्य पुरा पूर्वज्ञानचक्रधरं नमः। अर्हद्बलिं भूतबलिं माघनंदिनमुत्तमम् ॥ ३१५ धरसेनं मुनींद्रं च पुष्पदत्तसमाह्वयं ।
जिनचंद्रं कुंदकुंदमुमास्वामिनमर्थये ॥ ३१६॥ अरु सुभद्रा, यशोभद्र १, भद्रबाहु मुनि १, अरु लोहाचार्य १ प्रथमपूर्वका किंचित् ज्ञाताकै अर्थि नमस्कार करै हैं तथा अवलि १, भूत|| वलि १, माघनंदि १, धरसेन १, पुष्पदंत नामक मुनि १, जिनचंद्र १, कुंदकुद १, उमास्वापि १ जे हैं, विनर्ने प्रार्थना करूं हूँ ॥३१४-३१६॥ ऐसें अवार पंचपकाल-स्थित निग्रंथ वीतराग प्राचार्यनिनै वेदीका स्थापन विधानमैं अष्ट प्रकार पूजन करूंह। ऐसें अर्थ देनाओं ह्रीं ऐदंयुगीनदीक्षाधरणधुरंधरनिग्रंथाचार्यवर्यान् वेदीपतिष्ठाने संस्थाप्याष्टविधार्चनं करोमि स्वाहा । निग्रंथान् वकुशान् पुलाककुशलान् किंशीलनिगूंथकान् ।
मूलस्वोत्तरसद्गुणावधृतसाः किंचित्प्रकारं गतान् बंदित्वा जिनकल्पसूत्रितपदान् प्रध्वस्तपापोदयान्।
वेदीशुद्धिविधिं ददंतु मुनयो ह्यर्पण संपूजिताः ॥३१७॥ बहुरि निग्रंथ जे पुलाक, वकुश, कुशील, निग्रंथ हैं, तिनने मूलगुण-संयुक्त उत्तरगुणनि किचित प्रकार भेदन प्राप्त भये, अरु जिन कल्पसूत्रके पदारूढ़ अरु दुरि किये हैं पापका उदय जिननें ऐसे मुनीश्वरनकूबंदन करि अर्घ करि पूजित किये सते वेदीकी विशुद्ध विधि. देवो ॥ ३१७॥
ऐसें तीन घाटि एक कोटि मुनीश्वरनिके अर्थि अर्थ देना पर पुष्पांजलि क्षेपना
___ोंहीं पुलाकवकुशकुशीलनिग्रंथस्नातकपदधरत्रिकन्यूनैककोटिसंख्यमुनिवरेभ्योऽयम्। इति अघ पाद्य दवा वेदीशुद्धि प्रति॥ ज्ञानाय पुष्पांजलि चिपेत् ॥
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अथ ध्वजास्थापनं । अब ध्वजा:स्थापन विधान कहिये हैं,
तदनदेशे ध्वजदंडमुच्चै र्भास्वद्विमानं गमनाद्विरुंधत् ।
निवेश्य लग्ने शुभभोपदेश्ये महत्पताकोच्छ्रयणं विदध्यात् ॥ ३१८ ॥ ध्वजा इह यज्ञका चिह्न है सो यज्ञभूमिकी अग्रभूपिम स्थापना करिये हैं ॥३१॥ ओं ही अर्ह जिनशासनपताके सदोच्छूिता तिष्ठ तिष्ठ भव भव वषट् स्वाहा ॥ अर्घ म्॥
अथ मंडपप्रतिष्ठाविधानं। सो सोहू मंडपप सुशोभित होय तातें प्रथम मंडपको वर्णन ऐसा जानना कि,
चीनश्लक्षणमृदुत्तरीयपटलैश्छन्नं पुरा निर्मितं
__मस्तोपर्यनुयोगसूचिकलशं लंबत्पताकापटं । चातुर्दिश्य तिरस्करिण्यधिवृतं गोपानसीभियुतं
द्वारोपांतविशोभियक्षयुगलं प्रांशुं मनोह्लादकं ॥ ३१६ ॥ कोणोद्भूतपताकमुच्छलदपावृत्ताभिर्जस्वला
भीरज्जूभिरुदंचितं कलरवनत्किंकिण्युदात्तारवं । स्फूर्जद्वंदनमालिकं परिलुठत्सत्प्रातिहार्याष्टकं
लज्जत्स्वर्गविमानशोभमभितो धूपोत्यगंधांचितं ॥ ३२० ॥
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KISSAMACO
SASSAMSUHAGRACHERSITE
द्वारोपांतसुतोरणादिसुषमं छतेश्च हंसैरिव
सेवार्थ स्थितवद्भि रबंधुरकृद्वाधातिगं भूयसा । घंटादर्शकसुप्रतीकविधुभाभंगारसिंहासनै
र्भास्वद्भूतलमीशपूजनकृतां हस्तै शं स्थापितैः ॥३२१ ॥ चीनका कोमल सचिक्कण सुंदर आच्छादन वस्त्रनि करि ढक्या हुवा पूर्व निर्मापित किया अर उपरिभाग अनुयोग कहिये च्यारि हैं कलस जाम अर्थात एक उपरि मस्तक परि अर च्यार च्यारू कोणम कलस शिखराकारनि करि युक्त, अरु लंबायमान है पताकाका पट जाऐं अरु च्यारू दिशामें तिरस्कारिणी कहिये चढाई आदिकी कनात तिन करि वेष्टित, अरु उपरि छाजा तिन करि, युक्त, अरु द्वारके समीप शोभायमान है यक्ष-युगल जाके, अरु उन्नत अर मनको आनंद करणे हारो, अरु कोणम उद्भत है छोटी ध्वजा जा, अरु उछलती अर दृढ़ देदीप्यमान रज्ज न करि बंधननै प्राप्त भयो, अरु शब्दायमान किंकणी जे तुद्र घटा जिनका उदार शब्द है जहां, अरु नवीन बंदनवाला करि संयुक्त अरु पर्यंत भागमें स्थित है आठ मातिहार्य जामें, अरु स्वर्ग के विमानकी शोभाकू हंसनेवारो अरु चंऊं तरफ धूपका सुगंधस पृजित ऐसौ, अरु द्वारका प्रांतभागम तोरणादिकी शोभा संयुक्त, अरु मानू जिनेंद्रकी सेवा निमित्त आए हंसे समान स्थित छत्रन करि भूषित अर मेघकी बाधा-रहित अर प्रचुर घंटा, दर्पण, ठोणो, भाम'डल, झारी, सिंहासन आदि करि भूषित है भूतल जाको अरु तीन लोकपति जिनेंद्र-1 का पूजन करणेवारेनके हस्तन करि नित्य स्थापन किये ऐस मंडपके अग्रध्वजारोहण करना ॥३१६-३२१॥
अथ तत्रैव शेष विधिः। अब इहां विशेष विधि है सो वर्णन करिये हैं,
चतुर्णिकायामरसंघ एष आगत्य यज्ञे विधिना नियोगं ।
स्वीकृत्य भक्त्या हि यथार्हदेशे सुस्था भवत्वान्हिककल्पनायां ।। ३२२ ॥ प्रथम चतुनिकायका जिनभक्त देवका समूह जे इहां यज्ञम आय विधि-पूर्वक अपना नियोगर्ने अंगीकार करि भक्ति करि यथायोग्य | स्थान तिष्ठ करि नित्य सेवामें सावधान होहु ॥ ३२२ ॥
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प्रतिष्ठा
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आयात मारुतसुराः पवनोद्भटाशाः संघहसंलसितनिर्मलतांतरीक्षाः । वात्यादिदोषपरिभूतवसुंधरायां प्रत्यूहकर्मनिखिलं परिमार्जयंतु ॥ ३२३ ॥
अरु - भो पवनकुमार जातिके देवहो ! तुम, पवन करि उद्भट किई है दिशा जिनि, अरु पवनका संघट्ट करि लसित निर्मल किया है आकास जिनने, अरु पवनका समूह आदि दोष करि तिरष्कृत भूमिमें समस्त प्राप्त भयो, विघ्नकर्म नै दूरि करो, इहां आवो ॥ ३२३ ॥ आयात वास्तुविधिषूद्भट संनिवेशा योग्यांशभागपरिपुष्टवपुः प्रदेशाः ।
अस्मिन् मखे रुचिरसुस्थितभूषणांके सुस्था यथार्हविधिना जिनभक्तिभाजः ॥ ३२४ ॥
अरु - भो वास्तुकुमार जातिके देवहो ! तुम, अपना योग्य अंश विभाग करि पुष्ट देह संयुक्त इस यज्ञ प्रयुक्त सुन्दर सुस्थित भूषणनि करि 'कित विधानमें जिनेंद्रकी भक्तिपूर्वक आवो, तिष्ठो, योग्य स्थानमें सन्निवेश करो ॥ ३२४ ॥
श्रायात निमलनभः कृतसंनिवेशा मेघासुराः प्रमदभारनमच्छिरस्काः । अस्मिन्मखे विकृतविक्रयया नितांते सुस्था भवंतु जिनभक्तिमुदाहरंतु ॥ ३२५ ॥
अरु - भो मेघकुमार जातिके देवहो ! निर्मल आकाशका सन्निवेशके धरनहारे तुम, इस जिनयज्ञ- विधानमें विक्रिया करि अरु आनंदभार करि मस्तक धारि जिनेंद्रकी भक्तिमें अत्यंत सावधान होय तिष्ठो ॥ ३२५ ॥
आयात पावकसुराः सुरराजपूज्यसंस्थापनाविधिषु संस्कृतविक्रियार्हाः ।
स्थाने यथोचितकृते परिवद्धकक्षाः संतु श्रियं लभत पुण्यसमाजभाजां ॥ ३२६ ॥
बहुरि - भो अग्निकुमार जातिके देवहो ! जे इंद्रनि करि पूज्य श्रीजिनेंद्रदेव की सम्यक् प्रतिष्ठा विधानमें तुम आवो, अरु अपनी संस्काररूप विक्रियाके योग्य हो अर अपना योग्य स्थानमें कठिबद्ध होहु. अर इस पुण्यका समाजकू भजनेवारेन की शोभा तथा लक्ष्मी जो है ताकू' प्राप्त होहु ॥ ३२६ ॥
नागाः समाविशतभूतलसंनिवेशाः स्वां भक्तिमुल्लसितगावतया प्रकाश्य ।
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RECECRECIS
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E SECRECORRECASUALCOME
आशीविषादिकृतविघ्नविनाशहेतोः स्वस्था भवंतु निजयोग्यमहासनेषु ।। ३२७ ॥ बहुरि-भो नागकुमार-जातिके देवहो! तुप इहां समावेश करो। तुप पृथ्वीतलमें रहनेवारे हो, सो अपनी भक्तिनै प्रसन्न शरीर विक्रिया | | करि प्रकाशित करि आशी-विव (स) आदि कृत विनका विनाशके अर्थि अपना योग्य प्रासनमें स्वस्थ होइ तिष्ठो ॥३२७॥
इति जिनभक्तितत्परवास्तुकुमारयथायोग्यस्थाननिवेशनाथ पुष्पांजलिं क्षिपेत् मंडपोपरि।। ऐसें जिनभक्तिमें तत्पर वास्तुकुमारदेवनायथायोग्य स्थानका सन्निवेश निमित्त वेदोमंडल ऊपरि पुष्पांजलि क्षेपणी॥ अब च्यारू दिशा नियोगवारे चोबदारके कार्यमें सावधान हैं सो ऐसें जानना,
पुरुहूतदिशिस्थितिमेहि करोद्धृतकांचनदंडगखंडरुचे ।
विधिना कुमुदेश्वरसव्यशये धृतपंकजशंकितकंकणके ॥३२८ ॥ हे कुमुदेश्वर ! शंकायुक्त अर्थात् निःशब्द है कंकण जामें ऐसा वाम हस्तमें धारण किया है कमल पुष्प जानै अरु दक्षिण इस्तय विधि करि सुवर्णका दंड करि गमन करनेवारे अरु खंडरुचिवारे तुप इहां पुर्वदिशामें स्थिति करो ॥३२॥
वामनाशुयमदिग्विभागतः स्थानमेहि जिनयज्ञकर्मणि ।
भक्तिभारकृतदुष्टनिग्रहः पूतशासनकृतामबंध्यकः ॥ ३२६ ॥ बहुरि-हे वायन नामधारक ! तुम जिनराजका यज्ञ-विधानमें दक्षिणदिशाका विभागमें स्थान प्राप्त होवो। अरु भक्ति करि दुष्टनका निग्रह कारक अरु जिनाज्ञा धारण करनेवारेकू सफलताका देनहारा होउ ॥ ३२६॥
पश्चिमासु विततासु हरित्सु भूरिभक्तिभरभूकृतपीठाः ।
अंजनस्वहितकाम्ययाऽध्वरे तिष्ठ विघ्नविलयं प्रणिरिधेहि ॥ ३३०॥ बहुरि-हे प्रचुरभक्तिका भार करि पृथ्वीकू किया है पीठस्थान जानें ऐसा अंजन नामक द्वारपाल ! यज्ञकी पश्चिम विस्तृत दिशामें अपना |हितकी कामना सिद्धि करि या जिनेंद्रका यज्ञमें तिष्ठो, अरु दुष्ट-कृत विघ्नका नाशकू करो॥३३०॥
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पुष्पदंतभवनासुरमध्ये सत्कृतोऽसि यत इत्थमवोचम् ।
उत्तरत्र मणिदंडकराग्रस्तिष्ठ विघ्नविनिवृत्तिविधायी॥ ३३१ ॥ बहुरि-हे पुष्पदंत यक्ष ! तुम भवनकुमार-जातिके देवनमें सत्कार पाया है, यात में ऐसे कहूं हूँ कि उत्तर दिशामें विघ्नको, नित्तिका विधान करनेवारा होय मणिदंड है करके अग्रभागमें जाके ऐसा तिष्ठो ॥ ३३१॥
इत्युक्त्वा चतुर्दितु द्वारेषु पुष्पाक्षतक्षेपं क्रियात् ॥ ऐसें कहि च्यारों दिशाके द्वारमें पुष्प अक्षतनका अंजलि क्षेपै ।
करकृतकुसुमानामंजलिं संवितीर्य धनदमणिसुरत्नानीशपूजार्थसार्थे ।
विकिर विकिर शीघं भक्तिमुद्भावयित्वा निगदतु परमांके मंडपोर्ध्वावकाशे ॥ ३३२ ॥ बहुरि-हे कुवेर ! तुम हस्तमें पुष्पनिको जुलिकूवितरण करि जिनेंद्रकी पूजाका साहित्यम मणि अरु रत्ननिन शीघ्र भगवानको है| भक्तिकूप्रगट करि वर्षावो वर्षावो, ऐस मंडपका उपरिभागमें पुष्पांजलि करि यजनकर्ता कहै ॥ ३३२॥
इत्युक्त्वा मंडपोपरि सर्ववर्णा चितपुष्पाक्षताः क्षेप्याः। ऐसें कहि मंडपके उपरि सर्वप्रकार रंग-संयुक्त पुष्प अक्षतनकूपना । ऐसे मंडपको प्रतिष्ठाका विधान जानना।
इति मंडपमतिष्ठाविधान।
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CBSSSSSSSSOCIACASEASESASY
अथ मंडले चूर्णनिक्षेपविधिः । अब मंडलमैं चूर्णका स्थापनकी विधि कहिये हैं,
मुक्ताचूर्णमुदीर्णपूर्णकनकस्थाल्यर्पित शुद्धिभृद्
व्यस्रोद्भासितपेषणीषु युवती श्लाघ्याभिरुत्पेषितम् ।
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SARVACAECARIORRECERRECISIS
चंचच्चंद्रकलाकलापहृदयाहंकारनिर्वापक
__स्थाप्याग्रेविधिमंजुलं धनद भो सन्मंडलं संलिख ॥ ३३३ ॥ पंचवर्णके चूर्ण-मंडल मांडनेके योग्य विस्तीर्ण पूर्ण सुवर्णके थालय अर्पण किया, अरु शुद्धिक धारण करनेवारा अरु रात्रिम प्रकाश करै हा ऐसी चाकीम युवान शोभनीक स्त्रियां करि पेषित किया अरु देदीप्यमान चंद्रयाकी कला सुमूहका मनका मानकू दरि करनेवारा ऐसाकू, हे कुचेर ! अग्रभागमें स्थापन करि समीचीन मंडलकूलिख । ऐसें पढ़ि सुफेद चूर्णनकू स्थापन करना ॥३३॥
श्वेतचूर्ण स्थापना हारिद्रपीतमणिचूर्णकृताधिवासो स्वर्णावखंडपरिमंडलमृद्विकल्पः ।
त्वं भो कुवेर ! जिनसद्मनि चित्रशोभे सन्मंडलं रदशुभायति पुण्यहेतोः॥३३४ ॥ बहुरि हलदी समान पीतवर्ण पणिका चूर्ण करि किया है वास्तु-विधि जानें, ऐसा हे कुवेरदेव ! तुप सुवणे खंडनके परिमंडल कहिये आभूपण तिनने धारण करनेमें है विकल्प जाकै ऐसा हुवा संता चित्र विचित्र है शोभा जाको ऐसा जिनेन्द्रभावान सुन्दर पुण्य-फलके समीचीन मंडल लिखौ ॥३३४॥
पीतचूणस्थापनं ॥ वैडूर्यरत्नकृतचूर्णमनर्घ्यजातं वास्तोष्पतीयवनभूसदशं मनोज्ञं ।
उड्डीयमानशुकपक्षवदाप्लुतांगं संगृह्य गुह्यकपते रदमंडलानि ॥ ३३५ ॥ बहुरि-हे गुहयकपते, हे कुवेर ! बहुमूल्य अरु इंद्रके नंदनवनको पृथ्वी सपान, अर्थात् सघन हरितवर्ण ऐसा मनोज्ञ अरू उड़ता जो शुभ पक्षीका पक्षवत् दैदीप्यमान चिह-युक्त वैडूर्यमणिका चूर्णर्ने ग्रहण करि मंडलन लिखौ ॥ ३३५॥
हरिच्चूर्ण स्थापनं ॥ माणिक्यतानमणिचूर्णमुपांशुमंत्रः हस्ते प्रगृह्य समवस्मृतिचित्रकार। सन्मंडलं जिनपतेः प्रतियातनेष्टौ सांलिख्य निर्जरगणे कृतिमान् भवेथाः ॥ ३३६ ॥
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प्रतिष्ठा
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Jain Education
बहुरि - हे कुबेर ! ह समवसरणका चित्रकार ! तुम वेद-मंत्रन करि माणिक्य मणि अरु तांडा नामक मणिका चूर्णने हस्त ग्रहण करि जिनेंद्रका विबकी प्रतिष्ठा यज्ञ में मंडलनें लिखि देवनका गण कृतकृत्य होउ ॥ ३३६ ॥
रक्तचूर्णस्थापनं ॥
गारुत्मताश्म शिखिकंठमारीप्रवाहजातः सुकौशलकृता हृदयापहारी । चूर्णोलिपक्षसमतामुपनीय यक्षराजेन मंडलविधौ विनियोक्तुमिष्टः ॥ ३३७ ॥
बहुरि नीलकंठ मणि अरु मयूरकंठ मणिका प्रवाहमें उत्पन्न भयौ ऐसा चतुराई करनेहारेनका हृदयकू' हरणेवारो चूर्ण है सो भ्रमर - पक्षकी समानता प्राप्त होय कुवेरनैं मंडलका विधान में विनियोग करनेकू इष्ट किया है ॥ ३३७ ॥ कृष्णचूर्णस्थापनं ॥
वेदकाच्या स्थापन करै ॥ ३३८ ॥
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कोणेषु वेद्याश्चतुरस्रदेशे संस्थाप्य गाढं घनघातयोगात् ।
सीरकान् शंकुवदासितांश्च काष्ठाविमूढीं शिथिलीकरोतु ॥ ३३८ ॥
कोणा गाढ़ा घणकी चोटतें समीचीन कीलां समान हीरानें स्थापित करि दिग - मूढता निवारण करौ । ऐसें हीरक
इति वेद्याः कोणे हीरक स्थापन ॥
ऐसें पृथक् पृथक् मं ंत्र पढ़ि करि पंच वर्णका चूर्ण कू स्थापन करे श्ररु मंडल लिखै ॥ आर्गै अन्य विधि कहिये हैं,— स्थाने स्थाने संनिवेश्याः पताका लघ्वः स्थूला उन्नतांशा महोर्व्याम् । वादिलाणां नादपूर्वं वरस्त्रीगीतध्वानैमंगलार्थैरनूनैः ॥ ३३६ ॥
बहुरि ठिक ठिका मंगल अर्थ करावना ॥
छोटी बावडी ध्वजा ऊंची स्थापन करनी, अरु यज्ञभूमिमें वादिनका शब्द- पूर्वक बहुत सुन्दर स्त्रियोंका गीत-गान ३३६ ॥
इति वेद्यग्रभूमौ च वेदपरितो लघुपताका स्थापनं ॥
ऐसें वेदीकी अग्रभूमि तथा चहुओर छोटी ध्वजा स्थापन करनी । अब मंगल-कलसका स्थापन कहिये हैं,—
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वाहवाहिन्युत्तमे तीरदेशे पुण्यस्त्रीभिर्मंगलध्वानरम्यं ।
गत्वा शुद्ध संवरं स्वर्णकुम्भे संग्राह्योच्चै नीयतां वेदिकायाम् ॥ ३४०॥ यज्ञकर्ता पवित्र स्त्रियांका मंगल शब्द-पूर्वक सुन्दर गंगा सिंधु आदि नदोनका उत्तम तीर-प्रदेशम प्राप्त होय अरु शुद्ध सुवर्णका कुंभ जल ग्रहण करि उच्च वेदीम ल्यावै ॥ ३४०॥
वेद्या मूले पंचरत्नोपशोभं कंठेलंबान्माल्यमादर्शयुक्तं ।
माणिक्याभं कांचनं पूगदर्भस्रक्वासोभं सद्घटं स्थापयेद वै ॥ ३४१ ॥ बहरि वेदका मूलम रत्न-पंचक पंच वर्णात्मक करि शोभित अरु कंठमें लंबायमान है माला पुष्पनिकी जाके, अरु दर्पण-संयुक्त अरु माणिक्य वर्ग सुवर्णमयी अरु सुपारी दर्भ पुष्प वस्त्र करि भासमान, ऐसा घटकू स्थापन करै॥३४१॥ कलश स्थापनका इह मंत्र पढ़ना
ओं हीं अहं मंगलकलशकस्थापन करोमि स्वाहा ।।
इति कलशस्थापन॥ अब इस यज्ञमें दोय वेदी सम्मत हैं। एक तौ याग-पंडलके वास्ते मुख्य वेदी, अरु दुजी उत्तरकर्म जप ध्यान मंत्र आदिके निमित्त उत्तर
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अथोत्तरस्मै कृतिकर्मणे कृती वेदी द्वितीयां विनिवर्त्य पावनीं।
यागीयमंत्राणि तथोत्तरं पृथक् कर्मारंभतां यजनक्रियोचितं ॥ ३४२ ॥ अथानंतर यज्ञका कर्त्ता उत्तर क्रियाकर्म के निमित्त दूसरी पवित्र वेदीकू रचि, उसमें यज्ञके मंत्रनकूतथा यज्ञ-क्रियाके योग्य कम जुदा । प्रारंभ करै॥३४२॥
अलेव शैलानयनं विधाय मुहूर्त्तवर्ये विधिवेदिशिल्पी। पद्मासनकायविसर्जनांकं विंबं जिनेंद्रस्य घटेत युक्त्या ॥३४३ ॥
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प्रतिष्ठा १०७
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हाँ ही सुन्दर मुहूर्त विधिन जाननेवारो शिल्पी है सो जिनेंद्रका विंबन पद्मासन वा कायोत्सग आसन युक्त करि गढ़; अर्थात् पूर्व घटित भी मूर्ति ताका लाछनका चिह्न इहां घडै ॥ ३४३ ॥
चंद्रप्रभं वा नवमं वलक्षं सुपार्श्वपार्श्वो हरितौ विधेयौ ।
श्यामं तु विंशं खलु नेमिनाथं श्रीवासुपूज्यं कमलप्रभं च ॥ ३४४ ॥ गांगेयवर्णानितरान् विदध्यात् सत्प्रातिहार्यादिविभूतिभूषान् । सिद्धेश्वराणां तु विभूतिमुक्तं बिंबं मुनीनामपि नामचिन्हं ॥ ३४५ ॥
तहां चन्द्रप्रभ अष्टमतीर्थंकर तथा नवम जो पुष्पदंत तीर्थंकर तो स्वेतवर्ण तथा सुपार्श्व नाथ स्वामीका विचनैं हरित्वर्ण निर्मापन करना अरु बीसमां मुनिसुव्रतस्वामी र नेमिनाथनैं श्यामवण करना, अरु वासुपूज्य अर पद्मप्रभनेँ रक्तवर्ण करना, अरु अन्य षोड़श तीथकरोंका वर्ण सुवर्ण समान करना । सो सर्व प्रातिहार्य विभूति संयुक्त करना । अरु सिद्धांकी प्रतिमा प्रातिहार्य अर चिह्नरहित करनी अरु बाहुबलि संजयंतस्वामीकी मूर्तिभी अपना नाम ही चिह्न जाकैं ऐसी करनी ॥ ३४४—३४५ ॥
गोवारणाश्चाः कपिकोकपद्माः स्वस्त्यौषधीशौ मकरद्रुमांकौ ।
गंडौलुलायः किटिसेधिके च वज्रं मृगोजः कुसुमं घटश्च ॥ ३४६ ॥ कुर्मोत्पलं शंखभुजंगसिंहाः क्रमेण विवेंऽकविकल्पनानि ।
स्थाप्यानि तेषां सुखतो ग्रहार्थमचतने संव्यवहारसिद्धयै ॥ ३४७ ॥
अब वे चिह्न कौनसे हैं, तिनकू क्रमकरि दिखायें हैं। गो कहिये वृषभ १, वारण वा हाथी १, अश्व वा घोड़ा १, कपि वा बानर १, कोक चकवो १, पद्म लाल-कमल १, स्वस्तिक सांथियो १, औषधीश कहिये चंद्रमा १, मकर वा बडो मत्स्य १, द्रमवृक्ष १, गंड गडो १, लुलाय भैंसो 2, किटि शुकर १, सेधिका सेही १, वज्र आयुध विशेष १, मृग हरिण १, अज बकरो १, कुसुम पुष्प १, घट कलश १, कूर्म कछुवो १, उत्पल मुद्रित कमल १, शंख समुद्र-जलजंतु १, भुजंग सर्प १, सिंह नाहर १, ऐसें चौईस तीर्थकरनके चौईस चिह्न सुखसैं मूर्तिका पिछाणवा तांई तथा कार्या तर मूर्तिका ग्रहण करने अर्थि अचेतन वस्तु संव्यवहार सिद्धि निमित्त स्थापन कारना ॥ ३४६-३४७ ॥
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प्रतिष्ठा
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मला
चायविंबे तु तदग्रभूमौ कल्याणयोगाद्धरणं विधेयं ।
भावानुरूपाऽऽत्मनि शक्तिरिष्टा गौणार्पिता न्यायसमागमेन ॥ ३४८ ॥
और विशेष इह है कि पर्वत भित्तिमैं उकीरा अचल विंग निर्माण करिये तो ताका अग्रभागम कल्याण कल्पना अथवा याग मंगल आदिको उद्धार करो। इस आत्माम अपने भावानुकूल गौण मुख्य विधि करि अनंतशक्ति कथित है सो इष्ट है ॥ ३४८ ॥ प्राणप्रतिष्ठाप्यधिवासना च संस्कारनेत्रोच्कृतिसूरिमंलाः ।
मूलं जित्वाऽधिगमे कियाऽन्या भक्तिप्रधाना सुकृतोद्भवाय ॥ ३४६ ॥
इहां प्राण-प्रतिष्ठा मंत्रविधि अरु अधिवासना मंत्रविधि अरु नेत्रोन्मीलन संस्कार कहिये अंक स्थापन अरु सूरिमंत्र, ये विधि सर्वज्ञत्व मुख्य है । अन्य विधि पुण्यानुबंध देनेवारी क्रिया भक्तिविशेष निमित्त है। अर्थात् आवश्यक विधि सर्व विवनमें करनी, अन्य क्रिया मूल व करनी, अर्थात् प्राण-प्रतिष्ठा आदि तौ होय ही अरु पंचकल्याणकादि विधि स्वभावसिद्ध है ॥ ३४६ ॥
विधाय गर्भान्वयसत्क्रियादिं यागोपकार्याध्वरमंडलार्चाम् !
मेरी कृतस्नानविधिं जिनेंद्रं पूर्वत्र वेद्यां तु नयेन्मरुत्वान् ॥ ३५० ॥
अरु तिन विधि गर्भान्वय क्रिया आदि अरु यज्ञ-मंडल यज्ञपूजा अरु मेरुपै स्नान कराय स्थापन पूर्व वेदीमें इंद्र करे ।। ३५० ॥ इति विज्ञानयनविधानम् ।
होमार्थकुंडानिपुरोत्तरस्याः क्रियान्नवोत्कृष्टतया च पंच । मध्याद्विधेर्वा वयमेव तल वृत्तं त्रिकोणं चतुरस्रमेव ॥ ३५१ ॥
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प्रतिष्ठा
१०६
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तन्मेखलानां वयमल कुंड प्रशस्तमार्यैः पृथुनोन्नतत्वे । वाणानुयोगाग्निमितं वितस्तिप्रमावगाहा यतिरुढपक्षात् ॥ ३५२ ॥
वेद्याः कुंडीय भूम्याश्चांतरं हस्तद्वयाधिकं । तवपीठे छलचकत्रयं पूजार्हमादिशेत् ॥ ३५३ ॥
गार्हपत्याहवीयाख्यौ दाक्षिणाग्नि रुदाहृताः । आहूतिकार्ये तीर्थेशान्यकेवलिगणोद्धृतः ॥ ३५४ ॥
शांतिकृन्मनुभिस्तवान्नाहूतिर्व्याहृतीष्टिभिः । अग्निसंस्कारपूर्वं तत्प्रकारस्त्वमिमे विधौ ।। ३५५ ॥
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वास्तुप्रमाणेन तु गालकेन वामेन शेते खलु नित्यकालः। त्रिभिस्तु कालौ परिवर्त्य भूमौ तं वास्तुनागं प्रवदंति संतः॥ ३५६ ॥
भाद्रादिके वासवदिक शिरस्को मार्गादिषु स्यात्रिषु याम्यमूर्धा । प्रत्यशिरस्कः खलु फाल्गुनादौ ज्येष्टादिमासेषु कुबेरदृश्यः ॥३५७ ॥
RECIPSCIENUGRECECRECORICS
मृलवेद्याविधानेऽपि मुख्याकालव्यवस्थितिः । यथार्ह शोधयेद् वास्तुशास्त्रं नोल्लंघयेत् कदा ॥ ॥ ३५८ ॥
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अथवाऽपि मृदा सुवर्णभासा करमानं चतुरंगुलोच्चमल्पे। हवने विदधीतकार्यमूलं विबुधः स्थंडिलमेव वेदकोणं ॥ ३५ ॥
इति होमकुंडप्रक्लप्तिः।
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अथ राजगृहोपकल्पनं। अब जिनेंद्रकी उत्पत्ति आदि उत्सवको मूलकरण राजाको गृह होय है। ताकी रचना कहिये है
दक्षिणदिशि जिनवेद्या राजगृहं प्रसृतचत्वराकीर्णम् । दशपंचकत्रिकधरिणीभागमनेकावासयुतं ॥ ३६० ।। कुर्यादतः पुरकृतसुषममधोभुवि च सर्वतोभद्रं । पाषाणकाष्ठशिविरै रचितं दृढबंधनाकीर्णम् ॥ ३६१॥ चलत्पताकं धृततोरणांक संगीतवादित्रगणेन रुद्धं । स्वर्गात्समानीतमिव प्रक्लृप्तं तदृ भागेडितमातृगेहं ॥ ३६२॥ स्वप्नावलीषोडशचित्रवल्ली संदर्भमांगल्यनियावभासि ।
अनेकनारीकलगीतरम्यमंतःपुरं संविदधीत यज्वा ॥ ३६३ ॥ वेदीत दक्षिण दिशाकी ओर विस्तार युक्त अंगणावारो दशखंण पांचखंण तीनखंणको अरु अनेक अटारी युक्त, अरु अंतःपुर जोराणीका महल तिनकी शोभा युक्त अरुनीचली पृथ्वी सर्वतोभद्र नाम स्थान संयुक्त अर पाषाण अरु काष्ठके गृह वस्त्र के गृहके दृढ़ बंधन करि रचित, अरु चलायमान ध्वजावारो अरु तोरणका चिह्न धारण करनेवारो अरु संगोत वादित्रका समूह करि व्याप्त अरु खग से ही मानू आय रच्यो गयौ अरु पाताका शयन-स्थान ऊर्दू भाग है जाके ऐसो अरुषोडश स्वप्नका चित्राम संयुत आभूषण स्नानशाला करि शोभायमान अरु अनेक सौभाग्यवती स्त्रियांका मधुर गीत करि रमणीक ऐसो अंतःपुरयजमान रचै । ऐसो घ्यार श्लोकको संबंध है ॥३६०-३६३ ॥
तदंगणे नाटकसत्प्रसज्जोपकार्यमारादिशि चोत्तरस्यां ।
सुदर्शनो मेरुरुदीर्णशालो वनैश्चतुर्भिः परितो विभातु ॥ ३६४ ॥ अरु ताका अंगण तांडव नृत्यका स्थान रचै अरु ताकी उत्तर दिशा दर वा समीप सुदर्शनपेरु, भद्रशालादि च्यारू बन करि वेष्टित 8 शोभायमान करै॥३६॥
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HOROSESAMAGROCEROSECONGRES
अथ मेस्वर्णनम् । अथ येरू वर्णन । जन्मकाल्याणमें मेरू ऐसा है सो कहिये हैंसप्तच्छदाशोकरसालचंपामहीरुहानेककृतोपशोभः।
पांशुश्चतुर्भिः क्षणकोपरिष्टात् भागैः सुवर्णाचितविग्रहोद्धः ॥ ३६५ ॥ सप्तब्द कहिये सनूनो अशोक-प्रासोपालो आम्र अरु चंपा आदिके अनेक वृक्ष निकरि उपशोभित अरु ऊपरि उपरि च्यार वन अर्थात् | भद्रशाल नंदन सौमनस पांडुक वन चतुष्टय करि उन्नत अरु सुवर्ण रत्नमय ऐसा करावना ॥३६॥
पांडुशिलामासनसंनिविष्टां संस्थाप्य सोपानचतुष्पथाढ्यां ।
तत्वकार्यो जलधिः शरांकः क्षीराब्धिनामा शुचितोयपूर्णः ॥ ३६६ ॥ अरु वहाँ सोपान पैडी राजमार्ग संयुक्त पांडकशिला तीन सिंहासन संयुक्त स्थापि करि वहां ही पंचम तोरसमुद्र सुंदर-शुद्ध जल करि भृत ऐसा रचना ॥ ३६६ ॥
तत्रैव पूर्वत्र दिशासु दीक्षावनं विशालांगणकल्पशाख ।
दीक्षातरुस्तत्र शिलाप्रदेशः संस्कारवाटीकृतगूढमध्या॥ ३६७॥ अरु वहां ही वेदोकी पूर्वदिशाम विशाल अनेक वृक्ष युक्त दोक्षावन स्थापन करना। वहां दीक्षारक्ष मुख्य स्थापना, तिसका अधोभागम शिला स्फटिकपयो संस्कार करने के पात्र अरु बाटिका कहिये अच्छादनकी कनात करि मध्यभाग है गृह जाप ऐसो थापना ॥ ३६॥
अथाचार्यो यजमानेंद्रसामानिकानां तत्पत्नीनां च रक्षाबंधनपूर्वकसकलीकरणम् । अब इहां विधिका प्रारंभम आचार्य है सो यजमान अरु ताकी विवाहिता स्त्री अरु अन्य सभा-निवासो अरु स्त्रीजनोंके रक्षबंधन करि सकलीकरण करें। अब सकलीकरणके योग्य पात्र कहै हैं,
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अथेंद्रराजः परिबद्धकर्मा ह्याचार्यवर्यः कृतुनायकश्च ।
स्थित्वा स चैत्योपकृतौ सुवेद्यां देहस्य शुद्धिं विदधातु मंः ॥ ३६८।। प्रथम इंद्र बांध्यौ है यज्ञको व्यवसाय जानै सो अरु यज्ञको कर्त्ता यजमान अरु प्राचार्य ए तीन प्राचीन प्रतिष्ठित विंब-युक्त वेदी मैं स्थित होय भामंत्र करि देहकी शुद्धि करै ॥३६॥
मनःप्रसत्यै वचसः प्रसत्य कायप्रसत्यै च कषायहानिः।
सैवाऽर्थतः स्यात् सकलीक्रियाऽन्या मंदारैःकृतिकल्पनांगा ॥ ३६६ ॥ मनकी प्रसन्नता निमित्त अरु वचनकी अरु कायकी प्रसन्नता निमित्त अंतरंग मल क्रोध मान माया लोभादि कषायनिकी हानि है सो ही! निश्चय सकलीकरण है। और बडे उदार मंत्र करि हस्त हृदयादि स्पर्शन आदि क्रिया है सो यज्ञादि विधानम कल्पना पात्र है कि उसका ही संबोधनार्थ है ॥३६॥
प्राक्कल्पितानेकविदुष्टभावप्रत्याहृति तां पुरतो विधाय।
प्राचार्यसिद्धश्रुतभक्तिपाठं करोतु पूर्व विजनप्रदेशे ॥ ३७०॥ अरु ये तीन महाशय श्रीजिनके आगे पहली कालांतरम कल्पित रचित अनेक दुष्ट-भावनका प्रयाख्यान करि, फिर एकांत स्थानम | आचायभक्ति सिद्धभक्ति श्रुतभक्ति पाउनै करै ॥३०॥
शिरस्युरस्यक्षिगले ललाटे पंचाक्षरान् पिंडगधर्मसिद्धथै ।
श्राद्यतवीजादिविदर्भग: गुरूपदेशादथवा विदध्यात् ॥ ३७१ ॥ अरु पिंडस्थ धमध्यानकी शुद्धिके हेतु मस्तकम तथा वक्षःस्थलम, नेत्र अर कंठम, ललाटमें पंच अक्षर 'असि आ उ सा' जे हैं तिननें आदि अंतम ॐनमः' इत्यादि बीज अर विदर्भ जो ममशिरो रक्ष रक्ष आदि गर्भ करि विधान करो अथवा गुरु उपदेशतें अन्य प्रयोजनांतर
रोरक्ष रक्ष प्रादिगमका ललाटमें पंच अक्षर 'असि आ उ सा' देखि करै ।। ३७१ ॥
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प्रतिष्ठा
SORRECASEARCLACESEARESCORE
अथ न्यासः। अब न्यास कहिये हैं
पूर्वयाचार्यसिद्धश्रुतचारित्रभक्तिपाठाः कर्तव्याः कायोत्सर्गसमालोचनं च कृत्वा । ओं हां गयोअरहताणं, हां अंगुष्ठाभ्यां नमः। ओं ह्रीं गयो सिद्धाणं, ही तर्जनीभ्यां नमः । ओ हणमो इरीयाणं, हमध्यमाभ्यां नमः। ओं होणपो उवज्झायाणं, ह्रौं अनामिकाभ्यां नमः । ओं हः णमो लोए सव्वसाहूणं, ह्रः कनिष्ठिकाभ्यां नमः । ओं हां ह्रीं ह्रौं हः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः । ओं हीं णमो अरहंताणं हां मम शीष रक्ष रक्ष स्वाहा । ओं ही णमो सिद्धाणं ह्रीं मम वदनं रक्ष रक्ष स्वाहा । ओ हणमो आइरीयाणं इ. हृदयं मप रक्ष रक्ष स्वाहा । ओं ह्रौं णमो उक्झायाणं ह्रौं मम नाभिं रक्ष रक्ष स्वाहा। ओं इः णमो लोए सव्वसाहूणं हः मम पादौ रक्ष रक्ष स्वाहा । ओं हां णमो अरहताणं हां एवंदिशात आगतविघ्नान् निवारय निवारय मां रक्ष रक्ष स्वाहा। ओं ह्रीं णमो सिद्धाणं हों दक्षिणदिशात आगतविघ्नान निवारय निवारय मां रक्ष रक्ष स्वाहा। ओ हणमो आइरीयाणं ह पश्चिमदिशात आगतविघ्नान निवारय निवारय मां रक्ष रक्ष स्वाहा । ओं ह्रौं णमो उवज्मायाणं ह्रौं उत्तरदिशात आगतविघ्नान निवारय निवारय मां रक्ष रक्ष स्वाहा। ओं हः गायो लोए सव्वसाहणं ः सर्वदिशात आगतविघ्नान् निवारय निवारय मां रक्ष रक्ष स्वाहा । ओं हां गामो अरहताणं हां मां रक्ष रक्ष स्वाहा । ओं हीं णमो सिद्धाणं ही मय वन रक्ष रक्ष स्वाहा। | ओं ह, मो आइरियाणं हूँ मम पूजाद्रव्यं रक्ष रक्ष स्वाहा। ओं ह्रौं णमो उवझायाणं ह्रौं मम स्थलं रक्ष रक्ष स्वाहा । प्रों हः णमो लोए सब्बसाहूणं हः सर्वं जगत रक्ष रक्ष स्वाहा । क्षांक्षी तूं क्षौं क्षः सर्वदिशासु हां हां ह हौं हः सर्वदिशासु ओं ही अमृते अमृतोद्भवे अमृतबर्षिणि अमृतं श्रावय श्रावय सं सं क्ली क्लीं ब्लू ब्लूद्रां द्रीं द्रीं द्रावय द्रावय ठः ठः ह्रीं स्वाहा ॥
इति चुलुकोदकं मंत्रयित्वा शिरः परिषेचनं ॥ पहली प्राचार्य, सिद्ध, श्रुत , चारित्रभक्ति पाठ करने योग्य है; फिरि कायोत्सर्ग. समालोचन करै। प्रथम अरहंतकूनमस्कार करि अंगुष्ठ, शुद्धि करै, फिरि सिद्धांका मंत्रांकरि तर्जनी अंगुलीकी शुद्धि करै, फिरि आचार्यनका नमस्कार मंत्र पदि मध्यमा अंगुलीकू शुद्ध कर, फिर उपाध्याय-मंत्र करि अनामिका अंगुलीकू तथा साधु-मंत्रका उच्चारण करि कनिष्ठा अंगुलीकू शुद्ध करे। अर सकल मंत्र करि अपने हाथ अरु तलभागका शोधन कर । सर्व क्रिया हस्तसें होय है तातें हस्तशुद्धि कही ऐसे ही शिर, वदन, हृदय, नाभि, पादनकू शुद्ध करे। फिरि दिशा-शुद्धि मत्र पढे । फिर शरीरकू, वस्त्रनकू, पूजा-द्रव्यनकू, बैठनेके स्थानकू, तथा सर्व दृश्यमान जगत्कू शुद्ध करै । 'क्षा आदि पंच बीजनतें सर्व दिशा. द्वितीय 'हां' आदि मंत्रनत शुद्ध करै। आगें ॐ ह्रीं' आदि अमृत मंत्र करि अपना दक्षिण हस्तकी अंजुली पवित्र जल करि अपना मस्तक परि सींच।
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प्रतिष्ठा
RECASHARM
KERSALCASEASNSAROBARAKAR
निजोत्तमांगामरभूधराग्रे संस्नापितः पाश्वजिनेंद्रचंद्रः।
क्षीराब्धिवृंदेन सुरेद्रवि॑दैः स्वं चिंतयेत्तजलपूतगात्रं ॥ २७२ ॥ अरु ऐसा ध्यान करै कि अपना मस्तक-रूपी मेरुपर्वतका अग्रभागमैं श्रीपार्श्वनाथ जिनेंद्र संस्थापित है अरु देवनका समूह करि क्षीरसमूद्र करि सिंचित किया ता जल करि मैं पवित्र भया हूं ॥ ३७२ ॥
पृथद्विधैकवाक्यांतं मुक्त्वोच्छ्वासं जपेन्नव ।
वारान गाथां प्रतिक्रम्य निषिद्यालोचयेत्ततः॥ ३७३॥ बहुरि णमोकार मंत्रके पंच पदनकूदोय दोय वाक्यका अर एक वाक्यका अन्तम उच्छ्वास छोडि नव वार ज । अरु गाथा सामायि| कोक्त पढ़ि करि प्रतिक्रमण करि फिरि बैठि आलोचना करै॥ ३७३ ॥
हस्तद्वये कनीयस्यायंगुलीनां यथाक्रमं । मूले रखात्रयस्योर्ध्वमग्र च युगपत् सुधीः ॥ ३७४ ॥ तस्यौहामादिहोमांतान्नमस्कारान् मिथः करौ।
संयुज्यांगुष्ठयुग्मेन व्यस्तान् वांगेष्विति न्यसेत् ॥ ३७५ ॥ फिरि दोन्यू हाथकी छोटी आदि अंगुलीनका मूल मूलमें रेखात्रयके ऊपरि यथाक्रम एक काल, ॐ हीं आदि स्वाहान्त पंच नपस्कारने स्थापि दोन्यू हाथ. जोड़ि अंगुष्ट आदि क्रमतें विचक्षण अपना अंगमैं न्यास करै ॥ ३७४-३७५॥
ओं ह्रीं गयो अरहंताणं णमो सिद्धाणं स्वाहा । ओं हीं णमो भाइरीयाणं गामो उवज्झायाणं स्वाहा। ओं हीं णमो लोए सव्वसाहणं |स्वाहा ॥ एवं नववारं जपः, ततः प्रतिक्रमणं आलोचनं दोषगर्हण:निंदनं च कुर्यात् ॥ ओं हां णमो अरहताणं हां स्वाहा हृदये। ओं ह्रीं णमो
सिद्धाणं ह्रीं स्वाहा ललाटे । ओ हणमो आइरीयाणं ह. स्वाहा शिरसि दक्षिणे। ओं ह्रौं णपो उवज्झायाणं ह्रीं स्वाहा शिरसि पश्चिमे। काओं हः णमो लोए सव्वसाहणं ह्रः स्वाहा शिरसि वापे । पुनस्तानेव मंत्रान् शिरसः प्राग्भागे शिरसि दक्षिण पश्चिमे उत्तरे च क्रमेण विन्यसेत् ॥
ओं नमोऽहते सर्व रक्ष रक्षा फट् स्वाहा ॥ अनेन पुष्पाक्षतं सप्तवारानभिमंत्र्य परिचारकानां शीर्षे परिक्षिपेत् ॥ों फट् किरिटि
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18| घातय घातय परिविघ्नान स्फोटय स्फोटय सहसखंडान् कुरु कुरु परमुद्रा छिंद छिंद परमंत्रान् भिंद भिंद क्षा संवः फट् स्वाहा ॥ अनन सिद्धा प्रतिष्ठान
नभिमंत्र्य सर्वविघ्नोपशमार्थ सर्वदितु क्षिपेत् ॥ । सो मंत्र ॐ हीं णमो अरहताणं' इसादि नव वार करै। पीऊँ प्रतिक्रमण चतुर्दिशा प्रति करि अपना दोषांनै चितारै अर दोषांकी गर्दा करै,
आगामी कालमैं निंदा करै, फिरि हृदय आदिमें शिरका वामभाग ताई विचारै। फिरि तिन मंत्रनने शिरका पूर्वभाग, दक्षिणभागमें, पश्चिमभागमैं , उत्तरभागमैं, अधोभागमै अर्थात् ग्रीवा उपरि थापै । बहुरि ॐ नमोऽर्हते सर्व रक्षेति' इस मंत्र करि पुष्प अक्षत मंत्र सप्त वार, परिचारक जे समीप रहनेवारे सामग्री संपादक आदि, तिनके मस्तकपरि क्षेपै । फिरि पुष्पाक्षत, ॐ ह फट किरिटी आदि मंत्र करि अभिमंत्रित करि सर्व विघ्ननका निवारणार्थ सर्व दिशामै छेपे ।
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अथ मातृकान्यासः। अकारादिक्षकारांता वर्णा प्रोक्तास्तु मातृकाः।
सृष्टिन्यासः स्थितिन्यासः संहतिन्यासतस्त्रिधा ॥ ३७६ ॥ मातृका नाम अकारादि क्षकारांत वर्णका है, ताका तीन क्रम है-सृष्टिक्रम, स्थितिक्रम, संहारक्रम ॥ ३५६ ॥
हलो वीजानि चोक्तानि स्वराः शक्तय ईरिताः ।
मूर्धादिपादपर्यंतन्यासान् मंत्राणि कारयेत् ॥ ३७७॥ तहां ककारादि हकारांतकू हल संज्ञा है, ते वीज हैं । अकारादि स्वर हैं, ते शक्तिरूप हैं, तिनकू मस्तकादि पाद पर्यन्त स्थापन करें। येह स्थापन ध्यानमात्र है, लिखना नहीं है। सो मूल पाठमें स्पष्ट है ॥ ३७७ ॥
तथाहि-ओं अं नमः ललाटे, ओं ां नमः मुखवृत्त, ओं इनमः दक्षनेत्रे, ओं ई नमः वामनेत्रे, ओं नपः दक्षकर्णे, ओं ऊं नमः वामकर्णे, ओं ऋनमः दक्षनसि, ओं नमः वामनसि, ओंलनमः दक्षगंडे, ओं लुनमः वामगंडे, ओं एं नमः अध ओष्ठ, ओं ऐं नमः
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बतिष्ठा
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ऊर्ध्वोष्ट, ओं ओं नया अधोदन्ते, जो औं नमः ऊर्ध्वदन्ते, ओं अं नमः मूर्ति, ओं अः नमः जिह्वाग्र, ओं कं नमः दक्षवाहुदंडे, ओं खं नमः दक्षवाहुमध्यसंधो, ओं गं नयः दक्षवाहुनाटोसंधी, ओं घं नमः दक्षकरांगुलिसंधौ, ओं ऊँ नमः दक्षकराग्रे, ओं चं नयः वापवाहुदंडे, ओं छ नमः वापवाहुपध्यसंधी, ओं जं नमः वामहस्तनाडोसंधी, ओं झं नमः वामहस्तांगुलिसंधौ, ओं अं नमः वामहस्ताग्रे, ओं टं नयः दक्षपादपध्य- || संधौ, ओं ठं नमः दक्षपादसंघो, ओं डं नमः दक्षपादगुल्फे, भोंढं नमः दक्षपादमूले, ओं णं नमः दक्षपादाय ॥ एवं वामपादे तवग न्यस्य पार्थादिकुक्ष्यंत पवर्ग न्यस्थ, हृदि यं, दतोसे रं, ककुदिलं, वापशि वं, हृदादिदक्षकरे शं, हृदादिवापकरे षं, हृदादिदतपादे सं, हृदादिवामपादे हैं, हृदादिजठरे लं, हृदादिवदने तं न्यसेत् । पिंडस्थधर्म्यध्यानमिद। आगें कहैं हैं कि येह न्यास कहां करना;
आचार्येण सदा कार्यः क्रियां पश्चात्समाचरेत् । श्रीमुखोद्धाटने नेलोन्मीलने कंकणोज्झने ॥३७८ ॥ सूरिमंत्रप्रयोगे चाधिवासने च मुख्यतः ।
कृत्वैव मातृकान्यासं विदध्याद्विधिमुत्तमं ॥ ३७६ ।। आचार्य जो हैं तानें येह न्यास सदा ही करने योग्य हैं। पश्चात् श्रीमुखोद्घाटनमै अरु कंकणमोचनमैं क्रिया करनी। तथा मूरिमंत्रका | प्रयोगमें अधिवासन विधिमै मुख्यता करि मातृकान्यासनै करि उत्तम विधि करै॥३७८-३७६ ॥
नांदी यस्मिन् दिने क्लुप्ता तदादि प्रत्यंहमनु ।
अनादिसिद्धं जपतां सिद्धिलक्ष्मीश्च वर्धते ॥ ३८०॥ बहुरि जा दिनमैं नांदी-विधान कल्पना किया, ता दिनसैं अनादिसिद्ध मंत्र प्रतिदिन जपनेवारेन लक्ष्मी अर सिद्धि-वृद्धि प्राप्त होय है॥३८॥
अथ मातृकामंत्रः। ओं नमोऽहं अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋल ल ए ऐ ओ औ अं अः क ख ग घ ङ च छ ज क ब. ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म य र ल व श ष स ह, क्लीं ह्रीं क्रौं स्वाहा ॥१०८॥ इति ॥
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प्रतिष्ठा
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अथ मातृका मंत्र — ॐ नमो अह अ आ इई उऊ ऋ ऌ ए ऐ ओ औ अंग्रः । क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म य र ल व श ष स ह क्लीं ह्रीं कौं स्वाहा ॥
अथानादि मंत्रः ।
नहीं णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं ॥ चचारिमंगलं, अरहंतमंगलं, सिद्धमंगलं, साहुमंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मोमंगलं, चत्तारि लोगुत्तमा, अरहंतलोगुत्तमा, सिद्धलोगुत्तमा, साहुलोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मोलोगुत्तमा, चत्तारि सरणं पव्वज्जामि, अरहंतसरणं पव्वज्जामि, सिद्धसरणं पव्वज्जामि, साहुसरणं पव्वज्जामि, केवलिपण्णत्तो धम्मोसरण पव्वज्जामि ॥ ओं ह्रीं स्वाहा ॥ १०८ जपः कार्यः ॥
व्यग्रतालस्यनिष्ठीवको धपादप्रसारणं ।
अन्यभाषान्त्यजेक्षे च जपकाले त्यजेत्सुधीः ॥ ३८१ ॥
अथ अनादिमन्त्र - ॐ ह्रीं णमो अरिहंताणं इत्यादि धम्मोसरणं पव्वज्जामि ॐ ह्रीं स्वाहा इत्यंत है, ताका जप करना । अर जप समय व्यग्रता, चंचलचित्तता अरु आलस्य अर थूकना श्रर क्रोध करना अरु पगका फैलवाना तथा अन्यसै भाषण अरु चांडालका देखना सो सुधी पुरुष छोढै ॥ ३८१ ॥
उक्तंच — स्त्रीशूद्रभाषणं निंदां तांबूलं शयनं दिवा |
प्रतिग्रहं नृत्यगीते कौटिल्यं वर्जयेत्सदा ॥ १ ॥ त्रिकालपूजां देवस्य स्तुतिं विश्वासमाश्रयेत् । प्रत्यहं प्रत्यहं तावन्नैव न्यूनाधिकं चरेत् ॥ २ ॥ तीर्थादौ निर्जन स्थाने भूमिग्रहणपूर्वकम् । नवधा तां धराङ्कृत्वा पूर्वादिषु समालिखेत् ॥ ३ ॥ कोष्ठेषु सप्तवर्गाश्च लक्षौ मध्ये तथा स्वरान् ।
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क्षेत्रनामादिमोवर्णा यत्र कोष्ठे भवेत्ततः ॥४॥ उपविश्य जपं कुर्यात् नान्यस्मिन् दुःखदेस्थले। आत्मध्यानं जपं कुर्य्यादुपांशुर्वाथमानसम् ॥ ५ ॥७
इति कूर्यचक्रशोधनविधिः। अब कूम का शोधन करि वहां बैठि जप करें सो ग्रंथांतरसें कहिये हैं। तोयकी भूमिका नव विभाग करि नव कोष्टम सप्त वर्गान लिखें अरु मध्यमं लक्ष अरु स्वरांने लिखै। तहां क्षेत्रको आदिको वर्ण जिस कोष्टमै होय, तहां बेठि जप कर। मध्याह पहलो जपका पारभ कर, स्पष्टोच्चारण अथवा मानस जप करे। ___ अन्य ग्रंथनमैं,-कहा भी है स्त्रीका शूद्रका स्पश अरु भाषण अरू निंदा करना अरुतांबूल चर्वण तथा शयन दिन अरु दानका लेना अरु नृत्य गान अरु कुटिलता इनकू सदा वर्जन करना । अरु देवताको त्रिकाल पूना स्तुति अरु विश्वासका रखना। ऐसे प्रतिदिन करि न्यूनाधिकता दोषकू परिहार करें।
अथ यंत्रः।
लक्ष
क ख ग घ ङ
च छ ज झब
अं अः अ भा
इई
शप सह
ओ औ उऊ ट ठ ड ढ ण । ए ऐ लल ऋ ऋ
य रलव
- पफवभय
त थ द धन
*इन श्लोकोंकी भाषा मूलप्रति में नहीं मिली।
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अथ यंत्रमंत्राधिकारः॥१॥ अब यंत्र मंत्रनिका अधिकार कहिये हैं-पूर्व विनायकं विघ्नापहरापरनामकं उद्धार्यते ॥१॥
मध्ये तेजस्ततः स्याद् वलयमयधनुः संख्यकोष्ठेषु पंच
पूज्याद्यान् स्थाप्य वृत्त तत उपरितने द्वादशांभोरुहाणि । तत्र स्युमंगलान्युत्तमशरणपदान्याद्यसिद्धा महर्षि
धर्मप्रख्यातभांजि त्रिभुवनपतिना वेष्टयेदंकुशाढ्यं ॥ ३८२ ॥ तहां प्रथय विनायक यंत्र सो ही शांति-यंत्र है अरु सो ही विघ्नहर-यंत्र है, कि मध्याम ॐकार बाके वलय कोष्ठ पांच करना, ताप । 'असि आउ सा' लिख । पीछे तृतीय वनय, तामें द्वादश कोठा, तिनम अरहंत मंगनादि द्वादश मंत्र लिखै। पोछ होकार वेष्टन क्रों' करिव रोकन कर ॥ ३२॥ अब याका फल कहें हैं
यंत्रं विनायकपदं विनयार्थमूलं सर्वेषु मंगलविधिष्वनुयोज्यमानं ।
प्रत्यूहजालमपहाय समाप्तिमेति शास्त्रेप्रतिष्ठितविधौ च विवाहकार्ये ॥ ३८३॥ यह विनायक नामक यंत्र विनयकरि सिद्ध होय है। मुख्यता करिशास्त्र की रचनाका आदिमैं अरु प्रतिष्ठा-विधानमैं अरु विवाह-कायमै कहा है॥३३॥
(विनायक यंत्रका आकार पृथक् दिया है )
- अथ शांतियंत्रोद्धारः ॥२॥ अब शांतिदायक यंत्रकों कहें हैं
स्थाप्यं ब्रह्मपदं ततोऽपि वलयेऽनादि प्रसिद्धाक्षरं
तस्मादूर्ध्ववृते चतुर्युतसुविंशास्तीर्थनाथास्ततः।
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ऊर्ध्वे ऋद्धिधरा विनेयमुखनुत्यंताचतुः षष्टिकाः
ह्रीं वेष्टयगजशस्त्रकृद्रुधिहरं यं तं सुशांतिप्रदं ॥ ३८४ ॥
मध्य कणिका 'हे' ऐसा पंच परमेष्ठीका बीज है, ताके ऊपरि वलयमै अनादि मंत्र १ लिखना, ता ऊपरि वलयमै चतुर्विंशति तीर्थंकरका नाम अरु ता ऊपरि वलयमै चौंसठ ऋद्धि के धारक मुनीनका मंत्र अर 'ही' कार वेष्टित क्रौंकार' रुद्ध करना ॥ ३८४॥ अव फल कहैं हैं:घोरारिदुःखजनितामपराधजातां लूताज्वरत्रणभगंदरकासपीडां ।
वाधां व्यपोहति समर्चितमेतदाशु शांतिप्रदं परममंत्रनिरूपणेन ॥ ३८५ ॥
घोर वैरीके दुःख र अपराधसें उत्पन्न वाधा, लूता कहिये मकड़ी आदिका विष, ज्वर, व्रण, भगंदर, काश इत्यादिकी पीडानें दूरि करे है, अर पूजन किया परम मंत्र जो णमोकार मंत्र करि शांतिनै देवै है ॥ ३८५ ॥
(श्रीशांतियंत्रका श्राकार पृथक दिया गया है)
अथ पूजायंत्रोद्धारः ॥ ३॥
अब पूजा-यंत्र कहै हैं—
विघ्नहर यंत्रक ताम्रपत्र पर लिख वेदी में अन्य प्रतिष्ठ य मूर्तिनिके समीप स्थापित करें। अन्य यंत्र भी जिन जिन कल्याण विधिनिमें उपयुक्त होगे उनको आगे स्पष्ट लिखेंगे।
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मध्येनाहतलोकभर्तृजठरेऽर्हद्भ्यो नमस्तधृते
कोष्टानां नवके प्रपूज्य विततिः स्याच्चैत्यचैत्यालयाः । वाणी धर्मविधी चतुर्थविभजा भक्त्यादिनुत्यंतकाः ऋद्धमिदं महाकृतौ यंत्रं विमुक्तिप्रदं ॥ ३८६ ॥
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अनाहत स्वरूपमें ‘अर्हदद्भ्यो नमः' ऐसा लिख; पाछें ह्रींकार वलय, पीछें नव कोठामें पंचपरमेष्ठी पद अरु चैस चखालय श्रागम धर्म स्थापन करि, ॐ ह्रीं आदि चतुर्थ्यंत पद अग्रमें नमः अंतमें मंत्र स्थापन करें। ह्रीं वेष्टित क्रौं रुद्ध करें ॥ ३८६ ॥ याका फल, -
यः पूजयेदतुलभक्तिभरेण पूजायंत्रं त्रिकालजपयुगविधिना मनुष्यः । तस्यार्थसिद्धिपरिवृद्धिरनर्थहानिर्नित्यं करामलतले लुठति प्रसह्य ॥ ३८७ ॥
जो प्राणी अतुल भक्ति करि त्रिकाल इस यंत्र पूजै उस मनुष्य के मनोरथकी सिद्धि अरु अनर्थकी हानि स्वतः ही करतल में बलात्कारतें ठै (आय प्राप्त होय ) है ॥ ३८७ ॥
विघ्नहरं यत्रं ताम्रपत्रे लिखित्वा वेद्यां प्रतिष्ठ यसंनिधाने स्थाप्य अन्यानि यंत्राणि तत्तत्कल्याणविधिषूपयुक्तानि भविष्यन्तीति स्पष्टमग्रे लिखिष्यामीति दिक् ॥
अब कल्याण-यंत्र कहै हैं:
( इसका आकार पृथक दिया गया है )
अथ श्रीकल्याणयंत्रोद्धारः ॥ ४ ॥
मध्येऽहं प्रणवोत्पुटं त्रिभुवनक्लींकारवेष्टयं ततः
पार्श्वे पंचशरद्वयं वहिरिते वृत्तेऽष्टकोष्ठान्विते । संपुटितानि मन्मथमहालक्ष्मीश्रुतानि क्रमात् विश्वेशांकुशयोः स्मृतिरिदं त्रैलोक्यसाराभिधं ॥ ३८८ ॥
मध्यवृत्त ॐकारका पुटमें है ऐसा जिन बीज, फिर वलय देय ह्रींकार क्लींकारका वलय है; पीछे वलय में पंचवाण ह्रां ह्रीं क्लीं ब्लू सः, तथा ह्रां ह्रीं ह्रीं ह्रः, अरु बाह्य वलय में आठ कोटा हैं तिनमें ॐ ह्रीं करि संपुटित क्लींकार ऐंकार अग्र गर्भ जन्म-तप- ज्ञान - निर्वाण पद चतुथ्यत मोत ऐसा पीछे ह्रीं ष्टित क्रौंकार रुद्ध, यह त्रैलोक्यसार यंत्र है ॥ ३८८ ॥ याका फल कहैं हैं:
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गर्भादिपंचभविकेषु त्रिलोकसारं पूर्व समय॑ विधिना तत उत्तराणि ।
कर्माणि संवितनुते परमार्थमार्गे नो प्रच्यवो भवति पूजयतो नरस्य ॥ ३८६ ॥ प्रतिष्ठा-विधान में पंचकल्याण होय हैं, तिनमें त्रैलोक्यसार यंत्रका प्रथम पूजन करि पीछे उत्तम कर्यका कार्य करे, ताके कोई प्रकार क्षति नहीं होय है ॥३८॥
(इस यंत्रका आकार पृथक् दिया गया है )
अथ यंतेशयंत्रोद्धारः॥५॥ अब यंत्रेश नाम यंत्र कहिये हैं:
अंतोऽर्हत्गजरुद्रमात्रिभुवन क्लीं शांतिपुष्टिंकुरु
द्विः स्वाहा परितोऽब्जषोडशदले पंचेद्यहोमामृतैः। क्ष्वी वं हं ह्यमृतेनवेष्टयममुना विश्वक् रमाञ्यंगयो
ही वेष्टया कलशेन च क्षितिभुजा यंत्रेशमेवंविधं ॥ ३६॥ मध्य कर्णिकामै ॐ हैं गज रुद्र कहिये क्रौं रमा श्रीं त्रिभुवन ही अरु क्लीं अग्रे शांति पुष्टिं कुरु कुरु स्वाहा, ऐसे लिखें। फिर वलयमैं | है षोडश बलयमै असि आ उ सा स्वाहा, ह्रीं वीं वं मंतं पंद्रां द्रीं क्लीं ब्लू ऐसे लिखै अरु पीछे वलयमैं जलमंडलमैं पार्थ मैं वं, अधः | ऊर्द्ध मैं पं पं मध्यमैं ह्रीं श्रीं ह्रीं लिखे, पृथ्वीमंडल ऐसा यंत्रेश नामक यंत्र है॥ ३६॥ याका फल ऐसा है कि
विद्याः प्रसाधयतुमर्हति योऽत्र धीमान् यतेशमुत्तममिदं प्रथमं समय॑ । ___ एतन्मनुं जपति शास्त्रगमित्ववाग्मित्वाद्यबुधिं तरति तर्कवितर्कणोद्धः॥ ३६१ ॥ जो बुद्धिमान् पुरुष कोई उत्तम विद्यानै सिद्धि करै सो प्रथम इस यंत्रेशक पूजि अरु कर्णिकागत मंत्रजपे, सो शास्त्रित्व वाणीकी चतुराई आदि श्रु तांबुधिर्ने तर्क संयुक्त करै॥३१॥
(इस यंत्रका आकार पृथक् दिया गया है)
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प्रतिष्ठा १२४
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अथ सिद्धयंत्रोद्धारः ॥ ६ ॥
ऊर्ध्वाधरयुतं सविंदु परं ब्रह्मस्वरावेष्टितं वर्गापूरितदिग्गताम्बुजतटं तत्संधितत्त्वान्वितं । अंतः पल तटेष्वनाहतयुतं ह्रींकार संवेष्टितं
अब सिद्धयंत्र कहैं हैं:
देवं ध्यायति यः स मुक्तिसुभगो वैरीभकंठीरवः ॥ ३६२ ॥
ऊपरि नीचें रकार-युक्त हकार बिंदु सहित हूँ" ताकों ब्रह्म जो ॐकार अरु स्वरकरि वेष्टित करै, पीछें वलय में आठ कोष्ठक तिनमें अनासंयुक्त लिखै; ताके पार्श्व में रामो अरहंताणं लिखै अरु ह्रीं वेष्टित क्रौंकार रुद्ध करि ऐसा यंत्रात्मक देव घ्याव; सो वैरी रूप हस्तीन में शार्दूल सिह समान होय ॥ ३८२ ॥ दूसरा फल इह है कि
यः सिद्धचक्रनिरतोऽर्हणमा करोति वैरित्रजं दहति कर्मसमूहसार्थं ।
श्रन्या च का बहुकथा शिवसौख्यलक्ष्मीः स्वैरं पदाब्जयुगले भ्रमरायतिद्राक् ॥३६३॥ विशेष अन्य कहा कहना, मोक्षलक्ष्मी स्वतः ही
जो सिद्धचक्रकी नित्य पूजा करे है सो कर्मगणके सहित बैरी समूहनै भस्म करै है । ताका चरणारविंदमें भ्रमरसमान होय है ॥ ३८३ ॥ (इसका आकार पृथक् दिया गया है )
अथ बृहत्सिद्धचक्रयंत्रोद्धारः ॥ ७ ॥
अब बड़ा सिद्धचक्र महाफलदायक ताहि कहैं हैं
ऊर्ध्वं रेफयुतं सर्विदुसरं मायावृतं पंचभिगुर्वाद्यक्षरकैः सहोमनिधनै र्वेदादिकैर्वेष्टितं ।
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-SARSONALESALCURRBARUSHISHASHA
ही वेष्टय सपरं स्वरैरविमिते युक्तं ततोऽनाहतं
युक्तं पंचपदैरनुप्रणवग्बोधेन वृत्तेन च ॥ ३६४ ॥ सम्यग्यूक्तपसा च होमनिधनेनास्यं ठकारावृतं
वाह्ये षोडशभिः स्वरैः परिवृतं तेभ्योऽनुपत्राष्टकं । ओं ही अहंमनाहताक्षरमुखं वर्गाष्टकं होमयुक्
यंत्रांतः प्रथमं च मंत्रमथ तत् पत्राग्रतोऽनाहतं ॥ ३६५ ॥ मायावेष्टितमंकुशेन नमितं पश्चात् ठकारावृतं
ओं ह्रीं अर्हमनाहतादिगुरुभिः सर्वैर्नमोऽन्तैर्युतं । स्वाहांताय सुसिद्धचक्रपतये युक्तं ततोभः पुरं
क्षोणीमंडलगं जगत्पतिशयं श्रीसिद्धचक्रं महत् ॥ ३६६ ॥ है वीज मध्य अरु असि आउ सा स्वाहा युक्त ह्रींकार ता करि आवृत, पुनः ह्रींकार तन्मध्य हकार चौदा खरनि करि युक्त, ताके बलय तामें पाठ कोठा तिनमें अनाहत युक्त णमो अरहंताणं तथा ये णमोकारका पंच पद अरु सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यकचारित्र चतुभ्यत नयो, ताके अग्र वलय ठकारको, ताके अग्र वलय स्वरांको, फिरि ताके अग्र वलय तामें षोडश कोठा तिनमें अष्ट वगै संयुक्त णपो अरिहंताणं अरु मध्य मध्यमें अनाहत विद्या, तदनंतर वलय तामें ठकार तदनंतर वलय तामैं अनाहत मत्रत्रय, फिरि ह्रींकार-चेष्टित क्रौं करि रोकना। पृथ्वीमंडल है सो वृहवसिद्धचक्र है॥३४-३६॥ अब याका फल कहिये हैं कि
यः सिद्धचक्रमलघु प्रतिणौति रोगान् दुष्टान् निहंति शिवसौख्यरसायनानि । लब्ध्वोर्जयंतशिखरे तदनंतवीर्य स्वामीव वाक्प्रगुणतामनणु विभर्ति ॥ ३६७ ॥
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भतिष्ठा
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जो बडा सिद्धचक्र नमस्कार करै है, सो पुरुष सर्वरोगानें हनै है अरु सिद्ध रसायनादि गुटिकाने प्राप्त होय है। जैसे श्रोगिरनारि पर्वतहैं। का शिखरमें अनंतवीर्य स्वामीकी ज्यों पांडित्यगुणनैं बहु प्रकार धारण करै है ॥३७॥
इति श्रीहसिद्धचक्रोद्धारः।
(इसका आकार पृथक् दिया गया है) राज्यं देयं शिरो देयं सर्वसंपत्तिरुत्तमा । चक्रवर्तिपदस्थापि न देयं सिद्धचकूकं ॥ ३६८ ॥ विनीताय सुशांताय ब्रह्मचर्ययुताय च । निजशिष्यविशिष्टाय देयं तदपि चावृतं ॥ ३६६ ॥ यदि निःशीलताभाजे ह्यविनीताय दीयते ।
तदाऽपमृत्युमाप्नोति निरये घोरवेदनाम् ॥ ४०॥ तथा राज्य तो दे देना अरु मस्तक भी दे देनो अर चक्रवर्तिपद संपदा हू दे देनो, परंतु वहत्सिद्धचक्रयंत्र यंत्र नहीं देना। अरू देना तौजो || अपना निज शिष्य है अर विनयवान है अर शांतपरिणामो है घोर ब्रह्मचय-संयुक्त है, ताके अर्थि प्रतिज्ञा-पूर्वक देना। जा कदाचित अविनोत कुशीलवानकदे देवे, नौ आपकी अपमृत्यु होय, नरकमें घोर वेदना पावं ॥३५-४००॥
अथ गणाधरवलययंत्रोद्धारः ॥८॥ अब गणपरवलययंत्र कहें हैं,
षट्कोणे प्रणवादिमर्हमभितः कोष्ठे वहिःसंधिषु
द्वादश्यप्रतिचक्रफड्गमनुना क्लुप्तासुलेख्या ततः ।
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प्रतिष्ठा १२७
PRERNAGARISHNASALARISH
वृत्तेऽष्टावितरे तु षोडश ततो वृत्ते चतुर्विंशतिः
___ ऋद्धीनामुदयाद गणेशगदितं यंत्रं गणेशाभिधं ॥ ४०१॥ पध्यमैं षट्कोण यंत्र करे, ताके मध्य ॐ अहते नमः' लिखे, ता चक्रके वहिर्भागमैं 'अप्रतिचक्रे विचक्राय फट् स्वाहा' ऐसा लिखै, ताके अग्र तीन वलय, तहां ॐ ह्रीं णमो जिणाणं इत्यादि पाठ तथा ॐ हीं है भिन्नतोदराणां इत्यादि तथा ॐ हों उग्गतवाणं इत्यादि वीर बड्दवाणं इत्यंत अठतालीस ऋद्धि क्रमतें लिखै । पीर्छ ह्री-वेष्ठित क्रौं निरुद्ध करै। येह गणेश-यंत्र है॥ ४.१॥
यः प्रांशुधीः प्रतिदिनं जिनविंबसंस्थाऽभ्यर्णेऽर्चयन् जपति गाणममुं त्रिकालं।
देवेंद्रद्वंदरचितांजलिकुड़मलश्रीपूज्यांहिपद्मयुगलाः शिवमावृणीते ॥ ४०२॥ जो प्राणी जिनविच आगें प्रति दिन गणेशमंत्र जप-पूर्वक येह यंत्र पूज, ताके सकल दुरित दूर होंय अर निश्चयस लक्ष्मी पावै है ॥४०२॥
(इस यंत्रका आकार पृथक् दिया गया है)
- अथ वर्धमानयंत्राधिकारः॥६॥ अब बयान-यंत्र कहैं हैं,
भक्त्यंतोऽर्हमनास्त्रिलोकजिनभूस्वाम्युत्पुटस्थस्वरे
रावृत्योर्ध्वपुटे रविप्रमगृहे वर्गाष्टकावर्जितं । सिद्धाचार्यगुरूपदेष्टपदकं दत्वा चतुर्थ्यन्तकं
स्वाहान्वीतमिदं नमामि महितं श्रीवर्धमानाख्यया ।। ४०३ ॥ ॐकारके मध्य है बीज ताकू हीं वेष्टित करै, ताकू है वेष्टित करै, फिर हों-वेष्टित करै, ताक् खरन करि वेष्टित करै पीछे वलयमें द्वादश | कोष्टक, तहां ॐ हीं है वर्द्ध मानाय' लिखि अष्ठवर्ग लिखे । अवशिष्टम सिद्ध आचार्य उपाध्याय साधु-मंत्र लिखै। पीछे वलय देय वद्ध मानमंत्रकों चेष्टन करै, फिरि ह्रीं क्रौं निरोधन करै॥ ४०३ ॥
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मंत्रेण यः सह यजेद् गुरुभक्तिशीलः श्रीवर्धमानमुखपद्मविनिर्गतांकं ।
तस्याशु बुद्धिमुपयाति नरेंद्रचकस्तुत्या विनष्टदुरिता शिवसौख्यलक्ष्मीः॥ ४०४ ॥ जो गुरुभक्त शीलवान् वद्ध पानमंत्र पूजे, ताके दुष्ट ग्रह व्याधि पिशाच सब दूर होंय अरु पोचलपीका पात्र होय ॥४०॥ यो मंत्र अधिवासना कार्यकारि होय है।
अथ मन्त्रः । उपरि मन्त्रप्रकरणे वक्ष्यते । तस्माद्विज्ञायजपकाले उन्नयः उद्धारस्वयम् इदं वर्दमानयन्त्रपधिवासनायां काष्ठतिपादिकायामुपरि यन्त्रे तो/सौषधिजलेन वर्द्ध मानपन्त्रोच्चारकविंशतिवारं यावद्विम्बप्लावनं उपयोगीतिदिक्॥
(इसका आकार पृथक् दिया गया है)
अथ बोधिसमाधियंत्रोद्धारः ॥१०॥ अब बोधिसपाधियंत्र कहिये हैं,
गर्भभक्तिजिनेशपञ्चमनवः श्रीहममेष्टं शुभं।
द्विः कुर्वाग्निवधूयुजस्तदभितोवृत्तेष्टवर्गा यथा ॥ पूर्वोक्ता जलभूमिमंडलगता ज्ञानार्कसंपत्करा--
श्चकं बोधिसमाधिनाम जिनपैः स्पष्टीकृतं सिद्धये ॥४.५॥ कर्णिकाके गर्भय ॐकार अरु पंच परमेष्टी वीज अर असि आ उ सा लिखै । पोछ श्रीकार है, पोछ पम इष्ट शुभं कुरु कुरु स्वाहा ऐसा रा लिखि करि वलय तामें पाठ कोष्टक तिनम ॐस्वाहा युक्त अष्ट वर्गलिखै। सोही-वेष्टित क्रों रुद्ध करि जलमंडल अरू पृथ्वोपंडल लिखे । येह जिनराज. ज्ञानकल्याणकी संपत्ति अर्थि बोधिसमाधि नामक कहयो है ॥४०५॥
सव्ये स्वरे समुदयत्यहनिप्रभाते सूर्योदये च सति साष्टसहससंख्यं । यो मंत्रयेदखिलपापविमुक्तदेहस्तत्त्वस्य शुद्धिमुपयातिसमाधियंत्रात् ॥ ४.६ ॥
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इस यंत्रकों बाम नाडीका उदयमै प्रभात सूर्योदयमै एक हजार आठ बार जप तौ देशकी शुद्धि प्राप्त होय ज्ञानशुद्धि पावे ॥ ४०६ ॥ इदं बोधिसमाधियन्त्रं तपःकल्याणे उपयोगि भवति । येह यंत्र तपकल्याणमें उपयोगी होय है। (इसका आकार पृथक् दिया है ) अथ मोक्षमार्गयंत्रोद्धारः ॥ ११ ॥
अब मोक्षमार्ग-यंत्र कहें हैं:
यंवं मोक्षपथप्रदं समवस्सृत्याप्तौ तु पूज्यं श्रये ॥ ४०७ ॥
कणिका के मध्य पंच णमोकार ॐ ह्रीं स्वाहा संयुक्त लिखै; तदनंतर वलय में आठ कोष्टकमै ॐ अ सिआउ सा नमः ऐसा लिख, ताके पीछे बलय में चार कोठामै सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र तप लिखै तथा ॐ वेष्टित क्रौं रुद्ध करि भूमंडल लिखै ॥ ऐसें मोक्षमार्गयंत्र समबसरन पुण्य कहिये है ।। ४०७ ॥
नो केवलं यजनसृष्टिषु पूज्यमेव कामप्रदायिमनसोऽर्थसमापने च ।
मध्ये पंचमनून स्वपल्लवयुतान् तद्वृत्तकोष्ठाष्टके
तान्येवाक्षरसंमितानि परितो वृत्ते चतुः कोष्टके । सम्यग्दर्शनज्ञानतत्स्थितितपांस्येवंविधान्यर्जयद्
इत्यामनंति मुनयो गतरागभावा बंदीच्युतावपि रुषाभिभवं करोति ॥ ४०८ ॥
यह यंत्र पूजाविधानही मैं पूज्य नहीं है, किन्तु मनोरथ सिद्धिनें भी अभीष्ट है । अरु मुनीश्वर जैसें भ्रष्टकर्मका क्षय इस यंत्र प्रसिद्ध हैं हैं तसें बंदी जो कारागृह में पतित पुरुषनका दुःख नाशमें तथा राजाका रोष निवारणमें भी मुख्य कहिये हैं ॥ ४०८ ॥ मोक्षमार्गचक्रयंत्रं समवसरणे गंधकुटया अधोभागे स्थाप्य पूजनीयं भवति ॥
इस मोक्षमार्गचक्रयंत्रकौं समवशरणमें गंधकुटीके नीचे भागमें स्थापित कर पूजना चाहिये ।
(इस यंत्र का आकार पृथक दिया है)
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अथ निर्वाणसंपत्करयंत्रोद्धारः॥१२॥ अब निर्वाणसंपत्कर नामक यंत्र कहैं हैं
मध्येनाहतसंपुटे मनसिजोद्वीजं रमाभिर्वृतं
तद्वाह्येऽष्टदलेषु पंचजिनराट् वर्णा यथा न्यासतः। तद्वाह्ये दलसीम्नि तन्मनुपुरः शांतिं च पुष्टिं कुरु
द्विः स्वाहेति परं तदेव मनभृन्निर्वाणसंपत्करं ॥४०६॥ मध्य कर्णिकामैं अनाहतका संपुटमैं है वीज सो क्लींकार मध्यगत, तदनंतर वलयमैं श्रींकार मंडल, तदनंतर बलव अष्ट कोठा सिनम 18 असि पा उ सा ह्रीं क्ष्वी हः पः हः ॐ उपं क्रम करि अमृतवर्ण, फिर वलयमैं अमृतवर्णोके अग्र शांति पुष्टिं कुरु कुरु स्वाहा येह यंत्र, पीछे | ह्रीं वेष्टित क्रौं रुद्ध, येह निर्वाणसंपत्करयंत्र है ॥ ४०६॥ .
निर्वाणपूजनविधौ महनीयमेवं काम्येऽपि हेमरजतप्रतिलब्धिहेतोः।
प्रोक्तं पुरातनमुनींद्रगणेन तद्वन्मोक्षार्थिभिर्गतविभावविभासनैश्च ॥४१॥ येह यंत्र निर्वाणकल्याण-विधिमै पूजने योग्य है अरु कामनाकार्य सुवर्ण रुपैयाका लाभ नियित याकी पूजा पुराव मुनीचरनने अर मोक्षार्थी रागद्वेष-रहितननें कही है ॥ १०॥ (इस यंत्रका आकार पृथक् दिया गया है)
अथ सुरेंद्रयंत्रोद्धारः ।। १३॥ अब सुरेंद्रयंत्र कहैं हैं-मध्ये भक्तित्रिलोक्यां प्रथमपुरुपदं पूर्वमाद्वाननांगे
तत्राद्ये मातृकाया न्यसनमिह वृते रत्नपंचप्रणामः । पात्राः क्रौं ह्रीं नमः स्यादिति मदभुवने तोयपृथ्वीनिबंध
एवं देवेंद्रनकं स्मरति नमति यो देवकांतामनोज्ञः॥ ४११ ॥
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प्रतिष्ठा
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ॐकारके मध्य ‘ॐ वषट् ह्रीं णमो अरहंताणं वौषट्' ऐसा लिखै, ताकू ह्रींकार-वेष्टित करै, ताके वलय आठ पावडीका कमल क, ताम 'क्रौं ह्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं ब्लू ं सः' लिखे ॐ नमः सहित ; पीछे ह्रीं वेष्टन क्रौं रुद्ध करि जलमंडल अरु पृथ्वीमंडल मातृका संयुक्त लिखे । गेह देवेंद्रयंत्र है सो देवांगना भी मोहित करै ॥ ४११ ॥
सुरेंद्रच विधिना प्रयुक्तं सुरासुराराधितपादपद्मं
बिभर्ति कंठे रतिलेादेहो नैरोग्यकारी जलपानकर्तुः ॥ ४१२ ॥
इस सुरेन्द्रयंत्र जो विधि पूर्वक जपें पूजै, सो देव विद्याधरन करि पूजित होय है अरु कामदेव समान रूप होय है । अरु केसरिसें लिख कंठमें धार तथा याकी प्रक्षाल करि पीवै तौ नीरोग देह होय ॥। ४१२ ॥ उद्धारः सुरेन्द्रस्य ।
(इस यंत्र का आकार पृथक दिया गया है)
अथ मातृकायंत्रोद्धारः ॥ १४ ॥
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अब भगवान्की मूर्ति स्थापन उपयोगी मातृकायंत्र कहिये हैं
मध्येऽहं विलिखेत् तदभितो वृत्तेऽष्टकूटाक्षरं
रेखानां च चतुष्टयेषु कुलिशामेषु स्थिता मातृकाः । षट्त्रिंशद्भवनेषु च द्विरसगेष्वगेस्मरो भक्तिग
चक्रेऽस्मिन् जिनसंस्थितिं विरचयेत् श्रीसूरिमंत्रक्षणे ॥ ४१३ ॥
कणिकाके मध्यमैं हैं लिखे अरु ताके आठ कोठा करै, तिनमें ह म म र ड स ख क इनका कूटअक्षर क्रमसें लिख, जैसे इल्यू" है त, तदनंतर प्यार रेखा चतुष्कोण करै अरु वज्र रुद्ध करें। तिनम प्रदक्षण क्रमतें मातृका स्थापन करै, बजाज में ॐ ह्रीं लिख, छत्तीस स्थान बादकाका अरु बज्रा में चौईस क्लींकार ऐसा यंत्र में मूर्ति स्थापन करि आचार्य सूरिमंत्र देव हैं ॥ ४१३ ॥
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आचाल्यविंबेऽगनिवासभूमौ विलेखनीयं पटुनविकेन ।
सुवर्णलेखिन्यजयंत्रधार्या श्लाघ्या रहस्येव मनःप्रसत्तौ ॥ ४१४॥ अरु अचाल्य मूर्ति होय तौ ताकी अनभूमिमें चतुर आचार्यनै सुवर्णकी लेखनी करि मूल मंत्र संयुक्त एकांत पनकी प्रसन्नता-पूर्वक लिखना॥४१४॥
(इस यंत्रका आकार पृथक् दिया गया है)
अथ नयनोन्मीलनयंत्रम् ॥१५॥ अब नयनोन्मीलन यंत्र कहिये हैं
अनाहतं समावेष्टय ठकारैश्च स्वरैः कूमात् ।
क्लीं झ्वी क्ष्वी हंसः सद्वीजै रंभोमंडलमध्यतः ॥ ४१५ ॥ मध्य कर्णिकामैं अनाहत लिखे, फिरि वलय देय ठकारन करि वेष्टित करै, पीछे चलयमै स्वर लिदै, पीछे बलयमैं अमृताहरनि करि ६ बेहै, पीठे मलमंडल लिखे ॥ ४१५॥
कुंकुमाथै लिखेद् यंत्रं पाले स्वर्णादिनिर्मिते। लवंगादिभवैः पुष्पैः पद्मरागसमप्रभः ॥ ४५६ ।। ओं ह्रीं श्रीं अहँ नमो मंत्र जपेदष्टोत्तरं शतं । तद्रौप्यपानविन्यस्त सिताक्षीराज्यसंयुता ॥ ४१७॥ विदध्यात्तेन गंधेन चामीकरशलाकया। चक्षुरुन्मीलनं शकूः पूरकेन शुभोदये ॥४८॥
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प्रतिष्ठा
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सुवर्ण-शलाका करि कुंकुम करि लिख, लवंग अररक्तपुष्पनि करि ॐहों श्री अहनमः' ऐसा मंत्र एकसा पाठ वार जपि चांदोका पात्रय मिश्री द्ध घृत स्थापन करि तिहगंध करि सुवण-शालाका करि मूर्तिका नेत्र फेरि इंद्र है सो पूरक नाडो बहता नेत्रोद्घाटन करै ४१६-४१८॥
मृलविंबस्य चान्येषां यथायोग्यं समाचरत् ।
श्राचार्यशक्रयष्ट्रणां मध्ये एकेन सत्कियात् ॥ ४१६ ॥ 3. मूल विंबकी यह विधि है, अन्य विंबनम यथायोग्य कर। इनमें आचार्य १ यजमान १ इंद्रको प्रधानता है, इन बिना अन्य प्राणी नहीं करै! ॥१६॥ये ही केवल ज्ञान प्रप्ति जाननी॥
अथ मन्त्राधिकारः। ___ अथ प्रतिष्ठायामुपयोगिन एव मंत्रा उपोयिन्ते नान्ये, तेषापत्र प्रयोजनाभावः । तत्र पन्ध्यन्ते गु भाष्यन्ते उपासकैरिति मन्त्राः। उक्तञ्च-अनधोत गुरुद्दिष्ट मनुपावदे त्तदा हीनशक्ति भवेत्तस्पा नाचार्य मंत्रिणा सदा ॥२॥... ... ...२... ३ .:.४ .
अथ मंत्राधिकार लिखिये है कि-शांत्यादि कर्मके कर्ता यद्यपि यंत्र अनेक हैं, तथापि इहां प्रतिष्ठाके उपयोगी हो यंत्रन उद्दार करिये हैं; अन्य नहीं कहिये हैं क्यूकि अन्यका इहां प्रयोजनका अभाव है। तहां गुप्त भाषिये साधकोंने तातें मंत्र नाम सर्थिक है। ___उक्तंच-नहीं प्राप्त भया है गुरूपदिष्ट मंत्र जानै ऐसा पुरुषके समीप यंत्र पदै तौ वह यंत्र शक्तिहीन हो जाय तात मंत्रधारी पुरुष बहुत बार अथवा उच्च कर करि नहीं उच्चारण करिये सदा ॥१॥... ... ... ... ........३ ... ...४
(इस यंत्रका आकार पृथक् दिया है)
अथ मंत्राणि। अब साधारण मंत्र कहैं है,भों ही णयो अरहताणं इत्यादि केवलिपगणतो धम्पोसरणं पन्बजामि क्रौं ह्रीं स्वाहा ॥१॥ ओं ही नयः ॥२॥ ओं द्रीं श्री नमः॥३॥
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ों ही ऋषभाजितसंभवाभिनंदनसुपतिपद्मप्रभसुपार्श्व चंद्रप्रभपुष्पदंतशीतलश्रेयोवासुपूज्यविमलानंतधशांतिकुवरपल्लिमुनिसुव्रतनमिनेमिपाश्चवर्धमानांतेभ्यो ह्रीं नमः॥४॥
ओं ही ऋषभादिवर्धपानांतभ्यो नमः॥५॥ ओं हों चतुःषष्टि ऋद्धिसमृद्धिगणघरेभ्यो नमः ॥६॥ ओं ह्रीं असि आ उ सा जिन चैत्यालयागधर्मेभ्यो ह्रीं नमः॥७॥ ओं ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अहं नमः ॥८॥ ओं ह्रीं है क्रौं श्रीं ह्रीं क्लीं शांति पुष्टि तुष्टिं कुरु कुरु असि आ उ सा झ्वों की हंसतं पंद्रां द्रों द्रावय द्रावय श्रओं द्रों स्वाहा ६ ओं हां ह्रीं ह्र हौं : पंचपरमेष्टिभ्यो नमः ॥१०॥ ओं ही अप्रतिचक्र फट विचक्राय झौं झों स्वाहा ॥११॥ ओं हाँ हों ह ह्रौं हः श्रोसिद्धचक्राधिपतये अष्टगुणसमृद्धाय फट् स्वाहा ॥१२॥ ओं नमोऽ प्राइ ई उ ऊ इत्यादि श ष स ह क्लीं ह्रीं क्रौं स्वाहा ॥१३॥ मातृकायंत्रः। ओं दांतों तं नौं तः॥१४॥ शुद्धिमंत्रः। ओं ह्रीं हां ही इ हौं हः अहं नमो अरहताणं निःसहीए स्वाहा ॥२५॥ जिन मुखावलोकनमंत्रः। ओं नमो अरहंताणं ह्रौं स्वाहा ॥ १६ ॥ मूलमंत्रः । ओं अर्हत सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यो नमः ॥ १७ ॥ ओं अह अहत्सिद्धसयोगकेवलिभ्यः स्वाहा ॥१८॥ केवलिमत्रः । ओं ही अहं नंद्यावर्तवलयाय स्वाहा ॥१६॥ नंद्यावर्तपत्रः। ओं अहं य व व ल याय ॥२०॥ यववलय मंत्रः
ओं ही अमृते अमृतोद्भवे अमृतवर्षिणि अमतं श्रावय श्रावय सं सं क्लीं की ब्लून्द्रां द्रीं द्रीं द्रावय द्रावय हं संभवी दी हंसः स्वाहा ॥ ॥२१॥ अमृतमंत्रः।
ओंक्षांची ते क्षों क्षौं क्षः नमोऽहते सर्व रक्ष रक्ष हूं फट् स्वाहा ॥२२॥ रक्षामंत्रः।
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+KALASHREGUAGHASANUARLS
ओंह फट किरिटिनु घातय घातय परविघ्नान स्फोट्य स्फोटय सहस्रखंडान कुरु कुरु परमुद्रां छिंद छिंद परमंत्रान् भिंद भिंद तक्षा हूं फट् स्वाहा ॥ २३ ॥ सर्वरक्षा मंत्रः।
ओं सर्वजनानंदकारिणि सौभाग्यवति तिष्ठ तिष्ठ स्वाहा ॥२४॥ शिलामंत्रः। ____ों णमो अरहताणं गयो सिद्धाणं णमो आगासगापिणं णमो विज्जाहराणं णमो सवोसहिपत्ताणं णमो सयंबुदाणं णमो केवलि स्वाहा ॥२५॥ विद्यामंत्रः।
ओं अहन्मुखकमलनिवासिनि पापात्मक्षयंकरि श्रुतज्वालासहस्रपज्वलिते सरस्वति मम पापं इन इन दह दह पच पच चांदी तूंौं क्षः क्षीरवरधवले अमृतसंभवे बं बं हूँह स्वाहा ॥ २६ ॥ पवित्रसरखतिमंत्रः।
ओं उसहाइ जिणं पणमामि सया अमलो विमलो विरजो वरया। कप्पतरू सबकापदुहा मम रक्ख सहा पुरुविज्जणि ही।
ओं अट्ट वय अठसया अट्ठसहस्साय अट्ठकोडीओ। रक्खं तुम्म सरीरं देवासुर पणमिया सिद्धा। वाहा ॥२७॥ विघ्न विनाशनमंत्रः । ओं धनाधिपे अहै मतिसौधे रत्नदृष्टिं मुच मुंच स्वाहा ॥२८॥ कुवेरमंत्रः ।
ओं ऋषभाय दिव्यदेहाय सद्योजाताय महाप्रज्ञाय अनंतचतुष्टयाय परमसुख प्रतिष्ठिताय निमलाय स्वयंभुवे अजरामरपदभाप्ताय चतुर्मुख परमेष्टिनेऽहते त्रैलोक्यनाथाय त्रैलोक्यपूजिताय अष्टदिव्यनागपूजिताय देवाधिदेवाय वरदाय परमायसंनिहितोऽसि स्वाहा ॥२६॥ अंकमत्रः । ___ओं अई भ्यो नमः ॥३०॥
नवकेवलिलब्धिभ्यो नमः, क्षीरस्वादुलब्धिभ्यो नमः, मधुरस्वादुलब्धिभ्यो नमः, संभिन्न श्रोतृभ्यो नमः, पादानुसारिभ्यो नमः, कोष्टबुद्धिभ्यो नमः, वीजबुद्धिभ्यो नमः, सर्वावधिभ्यो नमः, परमावधिभ्यो नमः॥३१॥ ___ओं ह्रौं वल्गु वल्गु सुश्रवणे महाश्रवणे ओं ऋषभादि वर्धमानांतेभ्यो वषट् वौषट् स्वाहा ॥३२॥ अयं जिनयंत्रः।
__ओं णमो भयवदो वढमाणः स्सरिसहस्स जस्स चक्कं जलं तं गच्छइ आयासं पायालं भूयलं जूए वा विवादे वारणंगणे वा थंभोवा है मोडणे वा सबजीवसत्ताणं अपराजिदो भवदु मे रक्ख रक्ख स्वाहा ॥३३॥ इति वर्धमान मंत्रः जन्मकल्याण समये ।
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पोऽते केवलिने परमयोगिने अनंतविशुद्धिपरिणामपरिस्फुरच्छुकुध्यानाग्निनिदग्ध कप बीजाय प्राशानंत चतुष्टयाय सोम्यान शांताय मंगलाय वरदाय अष्टादशदोषरहिताय स्वाहा ॥ ३४ ॥ इति प्रतिमाया भद्रासने स्थापनमंत्रः ।
नमो
भगवते सद्यः सामायिकप्रपन्नाय कंकणमपनयामि स्वाहा ॥ ३५ ॥ दीक्षास्थापनमंत्रः ।
ह्रीं श्रीं अप्रसिआ उ सा सिद्धाधिपतये नमः। ओं नमो अरहंतायां अई स्वाहा ॥ ३६-३७ ॥ तिलकमंत्रौ । कम्मको तिलोयपुज्जो य संयुवो भयवं ।
अमरण रामहिय अगणाहि हिणासि बंदिसयो । खाहा ॥ ३८ ॥ इति श्रीमुखोद्घाटनमंत्रः ।
ओं णमो अरिहंताणं णाणदंसया चक्खुमयाणं अमियरसायां विमल नेयाणं संति तुटिन पुट्ठि वरद सम्पादिट्ठोखं वं मं अमर वरसों स्वाहा ॥ ३८ ॥ इति नेत्रोन्मीलनमंत्रः । अथ सूरिमंत्रः ।
ॐ ह्रीं णमो अरिहंताणं इसकूं आदि देव केवल पण तो बम्म सरणं पव्यजामि इहां ताई पाठके अग्र कों ह्रीं स्वाहा येह-पल्लव संयुक्त एक मंत्र है ॥ १ ॥
ॐ ह्रीं श्रहं नमः ये षङअत्तर मंत्र है ॥ २ ॥
३ ॥
हो नमः । येह तोर्यकरमंत्र है । इत्यादि मूतने नयोजन मंत्र पर्यंत अपनो अपनो क्रियाके योग्य मंत्र हैं । अव पूजा मंत्र गद्यात्मक मंत्र हैं। मंत्र का अर्थ लिखना आवश्यगण निवेत्र किया है, ता जय मात्र हो प्रशस्त है।
ॐ ह्रीं श्री नमः येह पंचाक्षर मंत्र है ॥ ॐ ह्री ऋषभाजितादि वर्द्धमानांतेभ्यो
अथ पूजामंत्राः ।
नीरजसे नमः ॥ १ ॥ दर्पमथनाय नमः ॥ २ ॥ शील गंवाय नमः ॥ ३ ॥ अक्षताय नमः ॥ ४ ॥ विपलाय नमः ॥ ५ ॥ श्रुतधूपाय नमः ॥६॥ ज्ञानोद्योताय नमः ॥ ७ ॥ परमसिद्वाय नमः ॥ ८ ॥ सयजाताय नमः ॥ ६ ॥ अज्जाताय नमः ||१०|| परम जाताय नमः || ११|| अनुपमजाताय नमः || १२ || स्वपधानाय नमः || १३|| अचलाय नमः | १४ | अक्षयाय नमः ।। १५ ।। अव्यावाधाय नमः || १६ || अनंतज्ञानाय नमः॥१७॥ अनंतदर्शनाय नमः ॥ १८ ॥ अनंतवीर्याय नमः ॥ १६ ॥ अनंतसुखाय नमः ॥ २० ॥ नोरजसे नमः ॥२१॥ निर्मलाय नमः ॥ २२ ॥ श्रच्छेद्यान नमः ॥ २३ ॥ प्रभेयाय नमः ॥ २४ ॥ अजरामराय नमः ॥ २५ ॥ अमराय नमः || २६ ।। अप्रमेयाय नमः ॥ २७ ॥ अगर्भवासाय नमः ॥ २८ ॥
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प्रतिष्ठा
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GURKHESARLAURESCHIMACISIS
प्रक्षोश्याय नमः॥ ॥अविलीनाय नमः ॥ ३०॥ परमद्यनाथाय नमः ॥ ३१ ॥ परमकाष्ठयोगरूपाय नमः ॥ ३२॥ लोकारवासिने नषो नमः ।। ३३॥ परमसिदभ्यो नमो नमः ॥ ३४ ॥ अर्हत्सिद्धेभ्यो नमो नमः ॥३॥ केवलिसिद्धेभ्यो नमो नमः ॥३६॥ अंतकृत्सिद्ध भ्यो नमो 5) नमः॥३७॥ परसिद्ध भ्यो नमो नमः॥३८॥अनादिपरमसिद्ध भ्यो नमो नमः ॥३६॥ अनाउनुपमसिद्ध भ्यो नमो नमः ॥ ४०॥ सम्बग्दृष्टे आसन्नभव्यनिर्वाणपूजाई अग्नींद्र स्वाहा सेवाफलं षट् परपस्थानं भवतु अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु ।
इति सर्वत्र कार्येषु पीठिकामंत्रः ॥१॥ सत्यजन्मनः शरणं प्रपद्यामि। अर्हज्जन्मनः शरणं प्रपद्यामि । अर्हन्यातुः शरणं प्रपद्यायि । अर्हत्सुतस्य शरणं प्रपद्यापि । अर्हत्सुताक्षर-5 शरणाप्रपद्यामि । अनादिगमनस्य शरणं प्रपद्यामि । अनुपजन्मनः शरणं प्रपद्यामि । रवत्रयस्य शरणं प्रपद्यामि। सम्यग्दृष्ट ज्ञानदृष्ट ज्ञानमूर्त सरस्वति स्वाहा । सेवाफलंषट्परमस्थानं भवतु । अपमृत्युविनाशनं भवतु । समाधिमरण भवतु स्वाहा ॥ अयं जातिमंत्रः ॥२॥
सत्यजाताय स्वाहा । अर्हज्जावाय स्वाहा । षट्कर्मणे स्वाहा। ग्रामपतये स्वाहा। अनादिश्रोत्रियाय स्वाहा । स्नातकाय खाहा । श्रावकाय स्वाहा । देवव्राह्मणाय स्वाहा । सुब्रह्मणाय स्वाहा । अनुपमाय स्वाहा । सम्यग्दृष्ट निधिपते चैश्रवाय खाहा। सेवाफलं पट परमस्थान अपमृत्युविनाशनं भवतु समाधिमरण भवतु स्वाहा । अयं निस्तारकम त्रः॥३॥
सत्यजाताय नमः । अर्हज्जाताय नमः । निग्रंथाय नमः । वीतरागाय नमः । महाव्रताय नमः । त्रिगुप्ताय नमः । महायोमाय नमः । विविधयोगाय नमः । विविधर्द्धये नमः । अंगधराय नमः। पूर्वधराय नमः । गणधराय नमः । परमर्षिभ्यो नमो नमः । अनुपमजाताय नमो नमः । सम्यग्दृष्ट भूपते नगरपते कालश्रवणाय स्वाहा । सेवाफलं पट परमस्थानं अपमृत्युविनाशनं समाधिपरणं भवतु स्वाहा । अयं ऋषिमंत्रः
सखजाताय स्वाहा। महज्जाताय स्वाहा। अनुपमेंद्राय स्वाहा। विजयाप्रजाताय स्वाहा । नेमिनाथाय स्वाहा। परमजाताय स्वाहा । परमाईजाताय स्वाहा । अनुपमाय स्वाहा । सम्यग्दृष्टं उग्रतेजदिशां जयनेपिविजय स्वाहा । सेवाफलं पट परमस्थान अपमृत्युविनाशन भवतु समाधिमरण भवतु स्वाहा । अयं परमराजमत्रः ॥५॥राज्यदीक्षायामुपयोगी। ___ सत्यजाताय स्वाहा । अर्हज्जाताय स्वाहा। दिव्यजाताय स्वाहा। दिव्यार्चजाताय स्वाहा । नेमिनाथाय स्वाहा । सौधर्याय स्वाहा । कल्पाधिपतये स्वाहा। अनुचराय स्वाहा । परंपरें'द्राय स्वाहा । अहमिद्राय स्वाहा। परमाईजाताय स्वाहा। अनुपमाय स्वाहा। सम्यग्दृष्ट कल्पपते दिव्यमूर्ते वज्रनाम स्वाहा । सेवाफलं षः परमस्थानं अपमृत्युविनाशनं समाधिमरणं भवतु स्वाहा । अयं सुरेंद्रमंत्रः॥६॥ जन्मकल्याणे उपयोगी। ससजाताय नमः। अहज्जाताय नमः। परमजाताय नमः। परमाईजाताय नमः । परमरूपाय नमः । परयतेजसे नमः। परमगुस्साब नमः।
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FRUIREMOCOLLEGESSACROSSASSROOM
परमस्थानाय नमः । परमयोगिने नमः । परमभाग्यायमहद्ध ये नमः। परमप्रसादाय नमः। परमकांक्षिताय नमः। परयविनवाय नमः । परमविज्ञानाय नमः । परयदर्शनाय नमः। परमवीर्याय नमः। परमसुखाय नमः । सर्वज्ञाय नमः। अहंते नमः । परमेष्ठिने नबो नयः। सम्यग्दृष्ट त्रिलोकविजयधर्म मूर्त स्वाहा । सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु अपमृत्यु विनाशनं भवतु समाधिमरणं भवतु भवतु स्वाहा । अयं परमेष्ठिमंत्रः ॥७॥
इमे मंत्रा अधिवासनायां सर्वे उपयोगिनो भवति । अब श्लोकार्थ लिखिये हैं।
एवंविधान मंत्रवराननेकान् गुरूपदेशाद्विधिवद् प्रगृह्य ।
नितांतरम्यस्थलवेदिकायां जिनागतःप्राक् परिसाधयंतु ॥ ४२०॥ यज्ञका कर्ता पुरुष या प्रकार अनेक मंत्रवर जे हैं, तिन. गुरुका उपदेशः विधिपूर्वक ग्रहण करिके अत्यंत रमणीक स्थल युक्त वेदीमैं | जिनेंद्रके अग्र सिद्ध करो॥४२०॥ .
सहस्रमष्टोत्तरमत्र मुख्यो जपस्तदाराधकृता दशांशः।
होमो विधेयः पुनरिष्टकाले मंत्रण कार्यो विधिरर्ण्यमानः ॥ ४२१ ।। अरु इहां एक हजार आठ जप है सो मुख्य है। अरु ताका आराधन करनेहारा पुरुषले दशांश होम करने योग्य है। फिर इष्ट कालमैं जो है। विधि मनोभिलषित है सो मंत्र-पूर्वक करे॥२१॥
अथ यज्ञदीक्षाचिन्होहहनं। धृत्वागतो मंगलयंत्रधाम्नि प्रसाधना न्याहत यज्ञपीठे।।
अनादिसिद्धादभिमंत्र्य पूतान्यंगेषु धार्याणि यथाप्रशादं ॥ २२ ॥ अब यज्ञमैं अधिकारी पुरुषनका चिल ये हैं, सो कहिये है-यज्ञका चिह प्रथम मंगल-यंत्रका ग्रहमैं अहत संबंधी यज्ञ पीठमैं अबभाग प्रलं| कार धरि करि अनादि सिद्ध मंत्र मंत्रित करि पवित्र भये तिनकू अपनी इच्छानुकूल अंग विर्ष धारण करना ॥ ४२२ ॥
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प्रविष्ठा |
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पात्रेऽर्पितं चंदनमौषधीशं शुभ्रं सुगंधाहृतचंचरीकं ।
स्थाने नवांके तिलकाय चच्र्यं न केवलं देहविकारहेतोः ॥ ४२३ ॥
प्रथम चंदनतें पात्र
स्थापित करि चंद्रमा समान श्वेत अरु सुगंधत आये हैं भ्रमर जा त्रिषै ऐसा चंदनकू नव स्थानमें— ललाट १, मस्तक १, ग्रीवा १, ह्रदय १, बाहु २, प्रकोष्ठ १, नाभि १, पृष्ठभाग १ - तिलक निमित्त चर्चेन करनों; येह चर्चन देहका हेतु नहीं है ॥ ४२३ ॥ ओहां ह्रीं ह्रीं हः मम सर्वांग शुद्धिं कुरु कुरु स्वाहा। श्री चंदनानुलेपः ।
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मंत्र :- ॐ ह्रां श्रादि चंदनका लेप करै ।
जिनांघ्रिभूमिस्फुरितां त्रजं मे स्वयंवरं यज्ञविधानपत्नी ।
करोतु यत्नादचलत्वहेतो रितीव मालामुररीकरोमि ॥ ४२४ ॥ इति मालाधारणं ।
यज्ञका विधानकी लक्ष्मी है सो जिनपाद भूमिकामैं स्फुरायमान मालानें 'मुझकू स्वयंवर करो' यही अचलपणाके निमित्त मालानें वक्षः स्थलमें धारण करू हूँ, ऐसें मंत्र करि माला धारण करै ॥ ४२४ ॥
धौतांतरीयं विधुकांतिसुत्रैः सद्गूंथितं धौतनवीनशुद्धं ।
नग्नलब्धिर्न भवेच्च यावत् संधार्यते भूषणमूरुभूम्याः ॥ ४२५ ॥ इसधोवस्त्रधारणं ।
फिरि चंद्रमा की कांतियुक्त सूत्रन करि गूंथ्यो ऐसो घोयो अधोवस्त्र (धोवती ) सोध्यो नबीजो है ताहि यावत् मेरें नग्नपरपाकी प्राप्ति नहीं होय तावत् जंघा भूमिमं भूषण रूप धारण करू हू ॥ ऐसें धोवती पहरना ॥ ४२५ ॥
संव्यानमंचद्दशया विभांतमखंडधौताभिनवं मृदुत्वं ।
संधार्यते पीतसितांशुवर्णमंशोपरिष्टाद् धृतभूषणांकं ॥ ४२६ ॥ इति दुकूलधारस्य ।
बहुरि मैं सुदर भांचल युक्त शोभायमान अरू अखंड धोत अरु नवीन अरू पीतव तथा श्वेतवर्ण दुपट्टानें भूषण मानि करि काँधा ऊपरि धारण करूहूं' ॥ ऐसें दुपट्टा पहरना ॥ ४२६ ॥
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शीर्षण्यशुंभन्मुकुटं त्रिलोकी हर्षाप्तराज्यस्य च पट्टबंधं ।
दधामि पापोर्मिकुलप्रहंत रत्नाढ्यमालाभिरुदंचितांगं ॥ ४२७ ॥ इति मुकुटधारणं । तीन लोकको हर्षतें प्राप्त भया राज्यका पट्टबंध समान अर रत्ननिकी माला करि व्याप्त भयौ है अंग जाकौ ऐसा शीर्षमैं सुन्दर मुकुट में पाप समूह. दूरि करिवेकूधारण करूंह॥ऐसे मुकुट धारना ॥ ४२७॥
गैवेयकं मौक्तिकदामधामविराजितं स्वर्णनिबद्धमुक्तं।
दधेऽध्वरापर्ण विसर्पणेच्छुर्महाधनाभोगनिरूपणांकं ॥१२८ ॥ इति ग्रैवेयकधारणं । ___ बहुरि मोतीनकी मालाका समूह करि विराजित सुवर्णमैं बंध्या है मोती जामैं ऐसा अवेयक जो कंठभूषण ताहि यज्ञमैं अर्पण किया सामग्रीके इच्छक मैं धारण करूहूं। और येह महाधनवानोंका भोगका दिखावनेहारो है। ऐसे कंठाभरण पहरना ॥ ४२८॥
मुक्तावलीगोस्तनचंद्रमाला विभूषणान्युत्तमनाकभाजां।
यथार्हसंसर्गगतानि यज्ञलक्ष्मी समालिंगनकृद् दधेऽहं ॥ १२६ ॥ इति हारधारणं। | बहुरि यज्ञकी शोभानें प्राप्त होनेवारो मैं मुक्तावली हार अरु गोस्तनहार अरु चंद्रपालाहार आदि भूषणर्ने देवोंका यथायोग्य संसर्ग प्राप्त भये तिनकूधारूहूँ॥ ऐसें हार पहरना ॥ ४२६॥
एकत्र भास्वानपरत्र सोमः सेवां विधातुं जिनपस्य भक्त्या ।
रूपं परावृत्य च कुंडलस्य मियादवाप्ते इव कुंडले है॥ ४३० ॥ इति कुंडलधारां। बहुरि श्रीजिनेंद्रकी सेवा भक्तिपूर्वक करनेकू एक तरफ मूर्य अरु द्वितीय तरफ चंद्र है सो दोऊ कुंडलका मिषत अपना रूपका परावर्तन करिही या कुंडल हैं ते धारण करूं हूँ॥ऐसे कुण्डल धारण करना ॥ ४३०॥
भुजासु केयूरमपास्तदुष्टवीर्यस्य सम्यक् जयकृत् ध्वजांकं । दधे निधीनां नवकैश्च रत्नैर्विमंडितं सदग्रथितं सुवर्णे ॥४३॥ इति केयूरधारणं ।
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प्रा. बहुरि मैं भुजा विष रि किया है दुष्ट बरोको पराक्रम जान अरु सुन्दर सम्पग्दशन को चिट्ठ ऐसों अनवरल ही नवनिधि करि सुवर्ण - || मैं मंडित अरु गूथ्यो ऐसा केयूर बाहुबंध. धारूहूँ ॥ ऐसें भुजबंध पहरना ॥ ४३१॥
यज्ञार्थमेवं सृजतादिचक्रेश्वरेण चिन्हं विधिभूषणानां ।
यज्ञोपवीतं विततं हि रत्नत्रयस्य मार्ग विदधाम्यतोऽहं ॥ ४३२ ॥ इति यज्ञोपवीतधारणं। बहुरि मैं यज्ञादि विधानके अर्थ रचनाकर्ता आदि चक्रवर्तीन विधिवेत्ता पुरुषनका चिद्रूप ऐसा अरु वितत अर रत्नत्रयका मार्गरूप ऐसा ५|यज्ञोपवीत धारण करूं हूँ। ऐसें जनेऊ धारना॥ ४३२॥
अन्यैश्च दीक्षां यजनस्य गाढं कुर्वद्भिरिष्टैः कटिसूत्रमुख्यैः ।
संभूषणे झ्षयतां शरीरं जिनेंद्रपूजा सुखदा घटेत ॥ ४३३ ॥ इति कटिभूषादिधारणं।। बहुरि और भी जिनयज्ञकी दीक्षाने गाढी करनेवारे इष्ट कटिमेखला आदि भूषण करि शरीरकू आभूषित करनेवारेनकै जिनेंद्रकी पूजा सुखदायक होय है।ऐसें कहि कटिसूत्रकूधारण करना ॥ ४३३ ॥ अब यज्ञका प्रारंभ कर है:
विधेर्विधातुर्यजनोत्सवेऽहं गेहादिमूर्छामपनोदयामि ।
अनन्यचेताः कृतिमादधामि स्वादिलक्ष्मामपि हापयामि ॥ ५३॥ तहां संकल्प नियम यह है कि मैं सकल विधिका विधान करनेहारा जिनंद्रका यज्ञात्सवमै गृहवस्तु आदिकी मूळ. दूरि करूं । मरू एकाग्रचित्त करि ये काय करूंगा। अरु स्वगकी संपदा भी इस कालमै तुच्छ जानि छोडूहूँ॥ ऐसें नियप है॥ ४३४॥
इति यजननियमांगीकारः।
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भतिष्ठा
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अथ यागमंडल प्रयोगः ।
अचित्यचिंतामणिकल्पवृक्षरसायनाधीश्वरमादिदेवं ।
दाम सृष्टिविधानमृढप्राणिप्रणेतारमबाध्यवाक्यं ॥ ४३५ ।।
प्रथम नमस्कार है, हम अचिस चिंतामणि- रूप अर कल्पटन-रूप अर रसायनका स्वामी ऐसा अरु सृष्टिका विधानमै मूखं प्राणीनकू यथाथ उपदेशकर्त्ता अरु अरोक है वचन जाका ऐसा आदि जिनेश्वरनें बंद है ।। ४३५ ॥
स्याद्वादविद्यामृततर्पणेन सुप्तं जगद्बोधयितारमर्च्य ।
अब यागमंडलका प्रयोग कहिये हैं:
श्रीकुंदकुंदादिमुनिं प्रणम्य श्रीमूलसंघे प्रणयामि यज्ञं ॥ ४३६ ॥
मोह-निद्रा करि सूता जगत्नैं स्याद्वाद - विद्याका पान कराय बोधन करनेवारा ग्रह पूज्य ऐसा कुंदकुद स्वामीनें नमस्कार करि श्रीमूलसंमैं प्रतिष्ठा विधान जो है ताहि रचूं हूं ॥ ४३६ ॥ ऐसें निष्ठापण करि ।
एवं समासादितवेदिकादिप्रतिष्ठयोपक्रियया दृढार्थः ।
पुष्पांजलि क्षेपममलसार्थे वितीर्य यागोद्धरणेयतेऽहं ॥। ४३७ ॥
वेदिकादिक प्रतिष्ठा रूप सामिग्री करि दृढ़ प्रयोजन जाकैं ऐसी मैं समस्त पात्रनमै पुष्पांजलिनें तेपि करि यागमंडल के अर्थ यत्न करू हूं ॥ ४३० ॥
अथ यागमंडलोद्धारः ।
अब यागमंलडका उद्धार कहें हैं
जय जय जय नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु नंद नंद नंद पुनीहि पुनीहि पुनीहि । ओं णमो अरहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरीणमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं ।
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भतिष्ठा
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अपंचपरमेष्ठीजयवंते हो, जयवंते हो,जयवंते हो नमस्कार हो, नमस्कार हो, नमस्कार हो; आनंद हो, आनंद हो, आनंद हो, पवित्रह, पवित्र हूं, पवित्र है ऐसे पढ़ि णमोकार मंत्र बोले । सो यागमंडलका उद्धार कहिये है।
मध्येतेजस्तदंगे वलयितसरणौ पंच पूज्योत्तमादि
द्वादश्यर्चा द्वितीये चतुरधिकसुविंशा जिना भूतकालाः। अग्रेष्ट्योर्वर्तमाना अवतरणकृतोऽगे विदेहस्थपूज्या
___प्राचार्याः पाठकाः स्यु मुनिवरसुगुणा वन्हिवृत्ते निवेश्याः॥४३८ ॥ मध्यमै ॐकार पीछे वलयमागमैं पंच परमेष्ठी अरु मंगलादिक द्वादश पूना अरु द्वितीय वलयमैं चोईस तीर्थंकर भूत हैं ते अग्रप दोय वल-| यमै वर्तमान अरु भावी तीर्थकर क्रमत अरु अग्र वलयमै विदेहके जिन बोस, पीछे वलयमै आचार्य, पोके वलयमै उपाध्याय, पीछे क्लयमै साधु परमेष्ठी ऐसे तीन वृत्तमै अनुक्रमकरि निवेशन करना ॥ ४३८ ॥
तेषामगिमवृत्तके गणधरा ऋद्धिप्रशस्ताश्चतु
दिक्षु स्युः क्षितिमंडले जिनगृहं चैत्यागमौ सद्वृषाः। एवं स्युनिधयो नवापरविधैर्युक्ता इहाभ्युद्धृते
सद्यागार्चनमंडले विलिखिताः पूज्याः स्वमत्रैः सदा ॥ ४३६ ॥ अरु तिनके अग्र ऋद्धिधारी गणधर अरु चतुर्दिशामैं पृथ्वीमंडलमैं चैत्य चैत्यालय जिनागम जिनधर्म ऐसें नव वृत्तमैं नवनिधि जो अपर विधि-युक्तमै उद्धार किया इस यागमंडलमैं लिख्या हुवा अपने अपने मंत्रनि करि सदा पूज्य होय हैं। ४३॥
प्रथमे १७, द्वितीये २४, तृतीये २४, चतुर्थे २४, पंवमे २०, षष्ठ ३६, सप्तमे २५, अष्टमे २८, नवये ४८, कोणचतुष्के ४ एवं कोष्ठकपः । प्रथम वलयमै १७ सतरा, दजामै २४ चौईस इसादि जानना । ये पूजाका कोठा हैं।
द्विशतोत्तरतः पंचाशत्स्थानं सुपूजयति यो धीमान् ।
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प्रतिष्ठा १४४
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निर्धूतकलुषनिकरो जिनविंबस्थापको भवति ॥ ४४० ॥
ऐसें जो सुबुद्धि प्राणी होय सो दोसौ पचास स्थानानैं पूजे है, सो सर्व पापमल घोय करि जिनविंत्रकों स्थापन करनेवारो होय है ||४४० ॥ एतेषां निधिसंज्ञायागेशसर्गपतिमंडलाधीशाः ।
कथ्यते विधिविज्ञैः संकेतितमिदं ग्रंथसंबद्धं ॥ ४४१ ॥
विधिन जाननहारे इनकी निधि संज्ञा, यज्ञपति संज्ञा, संपत्ति संज्ञा, मंडलाधीश संज्ञा कहें हैं। येह ग्रंथका संकेत है ।। ४४१ ॥
अथ स्थापना
अब स्थापना कह द
प्रत्यर्थिवजनिर्जयान्निजगुणप्राप्तावनंताक्रमदृष्टिज्ञानचरित्रवीर्य सुखचित्संज्ञास्त्रभावाः परं । आगत्यात्रनिवेशितांकितपदैः संवौषडा द्विष्ठतो
मुद्रारोपणसत्कृतैश्च वषडा गृहणीध्वमचविधिम् ॥ ४४२ ॥
शत्रूना समूह अर्थाभ्यंतर वरीन का समूहका अत्यंत जयतें निज गुण की प्रति होता संवा अनंत अरु क्रप-रहित दर्शन, ज्ञान, चारित्र, वीर्य, सुख, चैतन्यसत्ता-रूप है स्वभाव जिनका ऐसे सर्व जिन-पुनि हैं ते इहां आय संवशेष मंत्र निवेशन किया अरु द्विवार ठः ठः मंत्र करि स्थापन किया अरु मुद्रका आरोपण सत्कार करि तथा वक्टू पद करि संनिहित किया संता पूजा की विधि ग्रहण करो। ऐसे तीन बार पढ़े ॥ ४४२ ॥
ह्रीं अत्र जिनप्रतिष्ठाविधाने सर्वयागमंडलोक्ता जिनमुनय अत्रावतरत अवतरत तिष्ठत विद्युत ठः ठः मपात्रसंनिहितो भवत भवत वषट् इत्यादि त्रिवारं कुर्यात् ।
मंडलमध्ये सुप्रतीकपीठे स्वस्तिकोपरि स्थापयेत् ।
मंडल मध्य करिकामै पीठमै स्वस्तिक ऊपरि स्थापना करनी ।
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प्रांशुस्वर्णमाशिप्रभाततिभृता,गारनालोच्छलद्
गंगासिंधुसरिन्मुखोपचितसत्पाथो भरेण विधा। जन्मारातिविभंजनौषधिमितेनोद्धृतगंधालिना
चाये यागनिधीश्वरानद्यहृते निःश्रेयसः प्राप्तये ॥४४३॥ ऊंचा जो सुवर्ण मणिकी कांतिनं धारण करने वारा अरु झारीका नालासे उछलता गंगा सिंधु आदि नदी मुखमैं संचित सुंदर जलका ||3|| समूह करि मन-वचन-काय करि जन्मरूप बैरीका नाशकी औषधि समान अरु उठा है गंध करि भ्रमर जामै ऐसा जल करि मैं मेरा पापका हरणे ताई अर मोक्षसुखकी प्राप्तिके अर्थि योगमै आहूत पंच परमेष्ठीकू जूहूँ॥ ऐसें जलधारा देना ॥४४३ ॥
___ों ही अस्मिन् प्रतिष्ठोत्सवे सर्वयज्ञेश्वर जिनमुनिभ्यो जलं । घुसृणमलयजातैश्चंदनैः शीतगंधे, भवजलनिधिमध्ये दुःखदोवाडवाग्निः।
तदुपशमनिमित्तं बद्धकःनिमज्जद्-भ्रमरयुवभिरीडत् सांद्रसार्द्रप्रवाहैः ॥४४॥ येह संसार-समुद्र में दुःखको देनेवारो वड़वाग्नि समान ताप है ताका उपशम निमित्त बद्धपरिकर, अरु बलात्कार डूबते हैंभ्रपर युवान जाम, अरु श्लाघा योग्य है सघन प्रवाह जिनमैं ऐसे मृदु चंदनसँ उत्पन्न शीतल गंधन करि पूजू हूँ॥ ऐसें चंदन चढ़ावना ॥४४॥
ओं ही अस्मिन् प्रतिष्ठोत्सवे सर्वयज्ञेश्वर जिनमुनिभ्यश्चंदनं । शशांकस्पद्भिः कमलजननैरक्षतपदा
धिरूढेः श्रामण्यं शुचिसरलताद्यैर्गुणवरैः। हसद्भिः साम्राज्याधिपतिचमनाः सुरभिभि
जिना!हिषांची विपुलतरपुंजैः परियजे॥४५॥ चंद्रमा स्पर्द्ध ना क अरु अक्षयपदक प्राप्त ऐसे शुचिता सरलतादि गुण करि युक्त मुनिजनकू हँसनेवारे अरु चक्रवर्ती योग्य भोजन
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प्रतिष्ठा
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मैं for ऐसे अरु सुगंधित अर सुंदर पुज जिनके ऐसे तंडुलन करि जिनेंद्र-चरण पूर्व दिशाकू पूजू हूं ॥ ऐसें अक्षत पूजा करनी ||४४५॥ ओं ह्रीं अस्मिन् प्रतिष्ठोत्सवे सर्वयज्ञेश्वर जिनमुनिभ्योऽक्षतम् । दुरंतमोहानलदीप्यदंशु कामन नष्टीकृतमाशुविश्वं ।
तद्वाणराजीशमनाय पुष्पैर्यजामि कल्पद्रुमसंगतै र्वा ॥ ४४६ ॥
मैं दुरंत जो मोहाग्नि ता करि प्रज्वल्यमान येह कामदेवनैं शीघ्र ही विश्व संसार नष्ट किया ताका वाणराशिका शांति श्रर्थि पुष्पन करि अथवा कल्पवृक्षन के पुष्पन करि पूजू हूं ॥ ऐसें पुष्प पूजा करनी ॥ ४४६ ॥
ह्रीं अस्मिन् प्रतिष्ठोत्सवे सर्वयज्ञेश्वरजिनमुनिभ्यः पुष्पाणि ।
पीयूषपिंड निर्धृतशर्करान्नयोगोद्भवैर्नयनचित्तविलासदक्षैः ।
चामीकरादिशुचिभाजनसंस्थितै व संपूजयाम्यशनबाधनबाधनाय ॥ ४४७ ॥
बहुरि घृत करा अरु अन इनका योग उत्पन्न अरु नेत्र अर हृदयकू' प्रिय अरु सुवर्णके पात्रमै स्थापित पीयूष -पिंड जो नैवेद्य ताकरि क्षुधावाधा-रोगकी शांति अर्थि जूहू ॥ ऐसें नैवेद्य पूजा करनी ॥ ४४७ ॥
अस्मिन् प्रतिष्ठोत्सवे सर्वयज्ञं श्वर जिनमुनिभ्यश्चरुं ।
अमित मोहतमोविनिवृत्तये घटिरत्नमणिप्रभवात्मभिः । श्रयमहं खलुदीपकनामकै जिनपदाप्रभुवं परिदीपये ॥ ४४८ ॥
बहुरि यो मैं निश्चय करि सुघट रत्ननिकी मणिकी उत्पत्ति-स्वरूप ऐसे दीपकन करि अप्रमाण मोहधिकारकी निष्टत्ति हेतु जिनेंद्र पदाग्र पृथ्वीनें प्रकाशित करू हू अर्थात् पूज' हू ॥ ऐसें दीपक पूजा करनी ॥ ४४८८ ॥
ह्रीं अस्मिन् प्रतिष्ठोत्सवे सर्वयज्ञेश्वर जिनमुनिभ्यो दीपं । धूपोछ्रायजनविधिषु प्रीणीताशेषदिकै
रुद्यद्वन्हावगुरुमलयापीडकान् संदहद्भिः ॥
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अर्चे कर्मक्षषणकरणे कारणैराप्तवाक्यै
र्यज्ञाधीशामिव बहुविधैधूपदानप्रशस्तैः॥४४९॥ बहुरि यज्ञ विधानमैं प्रसन्न किया है समस्त दिशा जाने अरु दीप्त अग्निमै अगुरु चंदन आदिका समूहने दहन कर, ऐसी भूप सुगंधि करि कर-क्षय करनमै कारणभूत ऐसे प्राप्तवचन हैं तिन करि यज्ञके स्वामीमने पूजू हूँ॥ ऐसें धूप-पूजा करनी॥४४॥
ओं ही अस्मिन प्रतिष्ठोत्सवे सर्वमज्ञ श्वरजिनमुनिभ्यो धूपं । निःश्रेयसपदलब्ध्यै कृतावतारैः प्रमाणपटुभिरिव ।
स्याद्वारभंगनिकरै र्यजामि सर्वज्ञमनिशममरफलैः ॥४५.॥ बहुरि मोक्षपदकी लब्धि अर्थि किया है अवतार जिननें ऐसे प्रमाणपटु स्याद्वाद वाक्यन करि ही में निरंतर सर्वज्ञर्ने देवोपुनीत फलनि करि पूज हूं।ऐसे फल-पूजा करनी॥ ४५०॥
ओं ही अस्मिन् पतिष्ठोत्सवे सवयज्ञ श्वर जिनमुनिभ्यः फलं । पात्रे सौवर्णे कृतमानंदजयषक् पूजाहतं विस्फुरितानां हृदयेऽत्र ।
तोयाद्यष्टद्रव्यसमेतैर्भूतमर्घ शास्तृणामग्रे विनयेन प्रणिदध्मः । ४५१॥ बहुरि हम सुवर्ण-पात्रमैं रचित अरु पूजक पुरुषनका हृदयमै पूजा योग्य ऐसे जलादि अष्ट द्रव्य करि भरया ऐसा अघनै शासन करने वारेनके अग्र विनय करि समर्पण करूंहूँ॥ऐसे अर्घ देना ॥ ४५१॥
ओं ही अस्मिन् प्रविष्ठोत्सवे सर्वयज्ञश्वरजिनेभ्योऽध ।
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पार
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PEECRECRe5A4G-NESRECECE
अथ प्रत्येका_णि। अब प्रत्येक अघ कहिये हैअनंतकालसंपद्भवभ्रमणभीतितो निर्वार्य संदधन् स्वयं शिवोत्तमार्यसद्मनि ।
जिनेशविश्वदर्शिविश्वनाथमुख्यनामभिः स्तुतं जिनं महामि नीरचंदनैः फलैरहं ॥४५२॥ अनंतकालते प्राप्त भया संसार-भ्रमणका भयतें इस प्राणोकू निवारण करि स्वयं शिवरूप उत्तम श्रेष्ठ गृहमें धारण कर अरु जिनेश विश्वदर्शी अरु विश्वनाथ आदि नाम करि विख्यात ऐसा जिनेंद्रनै नीर चंदन करि फल करि मैं पूजू हूँ॥ ४५२॥ ऐसें अनंत भवरूप समुद्रका भयनें दूरि करता अरु अनंत गुणन करि पूजित अहंतके अर्थि अर्घ देना
ओं हों अनंतभवार्णवभयनिवारकानंतगुणस्तुतायाहतेऽयम् । कर्मकाष्ठहुतभुक् स्वशक्तितः संप्रकाश्यमहनीयभानुभिः।
लोकतत्त्वमचले निजात्मनि संस्थित शिवमहीपतिं यजे ॥ ४५३॥ बहुरि मैं कर्म-रूप काष्ठ ताई अग्निरूपस्वशक्तिमैं ज्ञान-रूप किरणन करि लोकतत्त्व. प्रकाश करि अचल निज प्रात्मामैं स्थित ऐसा मोक्षरूप पृथ्वीका स्वामी सिद्ध परमेष्ठीनें पूजू हूं ॥४५॥ ऐसें अष्ट कर्म विनाशन-कर्ता निज आत्मतत्त्वका प्रकाशक सिद्ध परमेष्ठीके अथि अर्थ देना
ओं ही अष्टकर्यविनाशकनिजात्मतत्त्वविभासकसिद्धपरमेष्ठिनेऽय। सार्थवाहमनवद्यविद्यया शिक्षणान्मुनिमहात्मनां वरं ।
मोक्षमार्गमलघुप्रकाशकं संयजेगुरुपरंपरेश्वरम् ॥ १५॥ बहुरि मैं निर्दोष स्याद्वादविद्याकरि मुनि महापुरुषनका शिक्षा करने उत्कृष्ट मोक्ष-मार्गर्ने शीघ्र प्रकाश करनेवारा ऐसा गुरुपरंपराका खामी प्राचाय परमेष्ठीनें पूजू हूँ॥ ४५४ ॥ ऐसें निर्मल विद्याका प्रकाश आचार्य परमेष्टीके अर्थि अर्घ देना
ओं ह्रीं अनवद्यविद्याविद्योतनायाचार्यपरमेष्टिनेऽर्यम् ।
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FASABSAHASRAEECHESENTEASERIES
द्वादशांगपरिपूर्णसच्छ्रतं यः परानुपदिशेत पाठतः।
बोधयत्यभिहितार्थसिद्धये तानुपास्ययजयामि पाठकान् ॥ ४५५॥ जो द्वादशांग वाणी करि पूर्ण श्रुतनैं पूरनपढ़ा अरु आप पढ़े वांछितार्थ सिद्धिके अर्थि, ते पाठक परमेष्ठी जे हैं दिन. उपासन करि पूजू हूँ॥ ४५५॥ ऐसें द्वादशांग परिपूर्ण श्रुतका धारो उपाध्याय परमेष्ठोकू अर्घ देना।
ओं ह्रीं द्वादशांगपरिपूर्णश्रुतपाठनोचतबुद्धिविभवोपाध्याय परमेष्ठिभ्योऽयं । उग्रमय॑तपसाभिसंस्कृति ध्यानभानविनिवेशितात्मकं ।
साधकं शिवरमासुखामृते साधुमीड्यपदलब्धयेऽचये ॥ ४५६ ॥ बहरि मैं उग्र अरु सार्थक तप करि संस्कारमाप्त भया अरु ध्यान ज्ञानमैं स्थापन किया है प्रात्मा जाने ऐसा अरु मोक्षपाग लक्ष्मी सुखका अमृतमैं कारणरूप ऐसा परपेष्ठोनें पूज्यपदको प्राप्तके अर्थि पूजू हूं ॥ ४५६ ॥ ऐस घार तर करि संस्कार पाया ध्यान स्वाध्यायमैं सावधान साधु परमेष्ठोकू अर्घ देना।
ओं ह्रीं घोरतपोऽभिसंस्कृतध्यानस्वाध्यायनिरतसाधुपरमेष्ठिभ्योऽयम् । अर्हन्नेव त्रिभुवनजनानंदनान्मंडलायो
विघ्नध्वंस निजमतिकृतादस्त्रसंघोपनोदात् । संकुषस्तत्प्रकृतिरपि स्पष्टमानंददायि
न्येवं स्मृत्वा जलचरुफलैरर्चयामि लिवारं ॥४५७॥ बहुरि यहां अहंत हैं सो हो तोन जगतका प्राणोनन आनंद दने परम मंगल हैं अरु अपना ज्ञानशक्तिकृत अस्त्र संघका पतनत विघ्नका वसन करता अरु ताको मूर्ति भी स्पष्ट आनंदको देनहारो है ऐसा स्मरण करि मैं जल नवेद्य फलादि करि तीन वार अधै उतारू ४५७॥ ऐस अहंत परमेष्ठी मंगलका अघ देना
ओं ही अहल्परपेष्टिमंगलायाम् ।
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भविष्ठा
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Jain Education
स्मारं स्मारं गुणगणमणिस्फारसामर्थ्यमुच्चै
प्राप्त्यर्थं प्रयतति जनो मोक्षतत्वेऽनवद्ये । न्तं भवभवगतानां प्रघातप्रकुलृप्त्यै
सिद्धानेव श्रुतिमतिबला दर्चये संविचार्य ॥ ४५८ ॥
येह स सारी जन जिनका गुणका समूह रत्ननकी प्रचुर सामर्थ्यनें स्मरण कर उनकी प्राप्तिके अर्थि उच्चरूप निर्मल मोचतत्वमै प्रयत्न करें है, अर संसारगत विघ्ननकी निवृत्ति अर्थ मैं शास्त्र बल सम्यक् विवारि सिद्ध-मंगल पूजू हूं ॥ ४५८ ॥ ऐसें सिद्ध-मंगलकू अ देनाह्रीं सिद्धमंगलेभ्योऽर्घम् ।
रागद्वेषोरगपरिशमे मंत्ररूपस्वभावा
मिले शat समकृतहृदानंदमांगल्यरूपाः ।
येषां नामस्मरणमा सन्मंगलं मुक्तिदायी
त् यज्ञे वसुविधविधिप्रीणनैः प्राणिपूज्यं ॥ ४५६ ॥
बहुरी मैं रागद्वेषरूप सर्पका उपराम करने मैं सिद्धमंत्र स्वभावी अरु शत्रु र मित्रमैं सपान किया हृदय जिनने आनंद अरु मांगल्य रूप अरु तिनका नामका स्मरण ही सुन्दर मंगलको देनेवारो है, येही जान ऋ प्रकार सामग्रो करि सर्वपात्र प्राणो करि पूज्य साधुमंगलनें इस यज्ञमैं पूजू हूं ॥ ४५६ ॥ ऐसे साधुमंगलकू अर्घ देना ।
नहीं साधुमंगलायाम् ।
मूर्च्छा मूर्च्छा गुरुलघुभिदा द्वैधवर्त्मप्रदिष्टो
जैनो धर्मः सुरशिवगृहद्वारदर्शी नितातं ।
सेव्यो विघ्नग्रहणनविधावुचमार्थेः प्रशस्तः
संपूजेऽहं यजनमननोद्दामसिद्ध्यर्थमह्यम् ॥ ४६० ॥
पाठ
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प्रतिष्ठा
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मूर्छा परिग्रह अरु मूर्छा अपरिग्रहरू गुरु लघु मे द्विनकार दिखायो जिनसंबंधी मार्ग स्वर्ग मोदका गृहका द्वारने दिखावेवारो अतिशय करि सेवन योग्य है । अरु ये ही उत्तम अथवारेनन विघ्नका हनवेको विधिमैं प्रशस्त कथा, सो मैं पूज्य तिस धर्म यज्ञका विधानसिद्धअपू हूं ॥ ४६० ॥ ऐसें केवली प्रणीत धर्मकू अर्ध देना ।
केवलज्ञ मंगलायाघम् । येषां पादस्मृतिसुखसुधायोगतस्त
प्रापुः पुण्यं यदवनतिना जन्मसार्थ लभंते । लोकाधात्र्यां वनगिरिभुवश्चोत्तमत्वं जिनेंद्रा
यज्ञप्रसवावधिषु व्यक्तये मुक्तिलक्ष्म्याः ॥ ४६१ ॥
बहुरि जिनका चरण स्पर्शन सुखरूप अमृतका योगत पृथ्वी विषे वन पर्वत की पृथ्वी है ते तीथ नाम पुण्यरूपो प्राप्त भये अरू लोक जिनका नमस्कार दर्शनादि कर अपना जन्म सार्थक माने है अरु उत्तमपणाने माने है, ऐसी मानलक्ष्मीको प्रगटता के अर्थ इस विधि अतलोकोहूं ॥ ४६ ॥ श्रहतलोकोत्तमके अर्थ अ देनालोकोत्तमेभ्योऽर्घम् । दृष्टिज्ञानप्रतिभतया कर्ममीमांसाऽन्यान्
श्व संपादयति विविधा वेदनाः संकरोति ।
तेषां मूलं निविडपरमज्ञानखड्गे नहत्त्वा
निःकर्मत्वं समधिगतवानर्च्यते सिद्धनाथः ॥ ४६२ ॥
बहुरि येह कर्म सम्यग्दशन सम्यग्ज्ञानका वैरी है, तार्तं विचारि विचारि तोत्र मंदादि अध्यवसायके भेद अन्य प्राणोननं नरकमै पटक है। अरु तीव्र नानाप्रकार वेदनानें करें है। अर सिद्ध परमेष्ठी हैं सो सवन ज्ञानरूप खड्ग करि तिनि कर्मनिका मूल रागद्वेषनै हनि करि निःकर्म अवस्था प्राप्त भया, यातँ मैं नें पूजिये है । । ४६२ ॥ ऐस सिद्धलोकोचपनें अर्घ देना ॥ ह्रीं सिद्धलोकोत्तमायाम् ।
पाठ
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प्रतिष्ठा
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सूर्याचंद्रौ मरुदधिपतिभूमिनाथोऽसुरेंद्रो
यस्यां यब्जे प्रणतशिरसा लोलुठीति त्रिशुद्धया । सोऽयं लोके प्रवरगणनापूजितः किं न वा स्याद्
यस्माद मुनिपरिवृढं स्वानुभावप्रसत्त्या ॥ ४६३ ॥ साधुलोको ऐसा है कि सूर्य अरु चंद्र तथा देवेंद्र चक्रवर्ती असुरेंद्र हैं, ते जाका पादपद्ममैं नम्र मस्तक करि मन-वचन-काय शुद्धि करि ठे हैं; सो अन्य प्राणी के पूजित क्यों न होय ? तातैं अपना कल्याणकी प्राप्ति अर्थ मुनि मान्यनैं पूजू हूं ॥ ४६३ ॥ ऐसें साधुलोको चमकू अर्थ देना
ह्रीं साधुलोको मेभ्योऽर्धम् ।
aa प्राणिप्रवरकरुणा यल मिथ्यात्वनाशो ravina समान्वेषणां कामनष्टिः । यत्र प्रोक्ता दुरितविरतिः सोयमग्र्यः कथं न
यस्माद्धर्मो निखिल हितकृत् पूज्यतेऽसौमपाऽपि ॥ ४६२ ॥
बहुरि जहां प्राणिनकी उत्तम दया है अरु जहां मिध्यात्वका नाश है अरु अंतमैं मोक्षमार्ग को वो अरु कायका नाश है, अरु जहां पापस विरति पूर्ण कही है सो धर्म समस्तनिकों हितकर्ता है, सो मैं करि भी पूजित है ॥ ४३४ ॥ ऐस लोकोत्तम धर्मकू श्रघ देनाह्रीं केव लिमज्ञप्तधर्मलोकोत्तमायार्धम् । जीवाजीवद्विविधशरणान्वेषणे स्थैर्यभगं
ज्ञात्वा त्यक्त्वाऽन्यतरशरण नश्वरं मद्विधानां ।
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इंद्रादीनामितिपरिचयादात्मरत्नोपलब्धि
मिष्टैः प्राप्तुं निचितमनसा पूज्यतेऽर्हन् शरण्यः ॥ ४६५ ॥
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प्रतिष्ठा
पाठ
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बहुरि जीव अरु अजीव-रूप द्विप्रकार शरणका अन्वेषणमैं सर्वत्र अस्थिरता जानि अब मैं सारिखा इंद्रादिकका विनाशीक अन्य शरणनें छोडि करि अरु याही परिचयत आत्मरत्नकी प्राप्ति है, ऐसे इष्टकी प्राप्ति होयवेका इच्छावान् पुरुषले अरहंतशरण है सो दृढ़ मनसा करि पूजिये है॥ ४६॥ ऐसें अहंतशरणकू अर्घ देना
ओ हीं अईच्छरणेभ्योऽयम्। याबदेहे स्थितिरुपचयः कर्मणायात्रवेण __तावत्सौख्यं कुत उपलभेऽतस्ततस्त्रोटनेच्छुः । एतत्कृत्यं न भवति विना सिद्धभक्ति यतो मे
___ पूर्णा?घप्रयजनविधावाश्रितोऽहं शरण्यम् ॥१६६॥ बहुरि यावत इस देहमैं स्थिति है अरु प्राय द्वार कारि कानको आस्रव है, तावत पर्यंत मैं सुखभावकू कैसे प्राप्त होवू १ अरु मैं इस कर्म-सतानकू तोड़नेकौं इच्छक हूँ, परंतु यो कार्य सिद्धकी भक्ति विना नहीं होय, ता कारण पूर्ण अर्घका पूजन-विधिमैं जो असल शरण है ताहि पाश्रित भयो हूँ॥४६६॥ ऐस सिद्धशरणकू अर्घ देना
ओं ही सिद्धशरणायाघम्। रागद्वेषव्यपगमनतो निःस्पृहा धीरवीराः
संसाराब्धौ विषमगहने मज्जतां निर्निमित्तं । दत्त्वा धर्मोद्धरणतरणिं पारयंतो मुनीशा
स्तानघेण स्थिरगुणधिया प्रांचयामि त्रिगुप्त्या ॥ ४६७॥ बहरि रागद्वेषका नहीं होवात धीर वीर अरु निस्पृह ऐसे हैं, ते विषम गंभीर संसार-समुद्र में डूबतेन धर्म-रूप उदार जिहाजनँ देय करि पार करें हैं, तिन मुनीशनकू स्थिर गुणबुद्धिः तीन गुप्ति करि पूज हूं ॥४६७॥ ऐसे साधुसरणकू अर्घ देना
ओं ह्रीं साधुशरणेभ्योऽयम् ।
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PACLAHA
IBPLECRPURBIKHABAROKAR
मित्रं सम्यक परभवयथाचक्रमे सार्थदायि ___ नान्यो धर्माद्दुरितदहन प्लोषणेऽबुप्रवाहः । जानंतं मां समदृशिधियां संनिधानाच्छरण्य
त्रायस्व त्वं त्वयि धृतिगतिं पूजनार्पण युक्तं ॥१६॥ ये धर्म परभवका गमनमैं भला मित्र है अरु साथ देनेवारा है, अरु यात अन्य कोई भी पापरूप दावानलका बुझावाने जलका प्रवाह नहीं है | ऐसा जान, मो. सम्यग्दर्शनज्ञानवानोंका समीप वासस है शरणागत वत्सल तू, तिहारी भक्तिमै धारण किई, गतियुक्त अरु पजाका अधैं | संयुक्त मोकू रक्षा कर ॥४६॥ ऐस धर्मशरणने अर्घ देना
ों ही धर्मशरणायाम् । सर्वा ते तान् तत्त्वचंद्रप्रमाणान् जापध्यानस्तोत्रमं रुदय॑ ।
द्रव्यक्षेत्रस्फूर्तिसजावकाशं नत्वार्पण प्रांशुना संस्मरामि ॥ १६॥ ये सर्व सप्तदश अहतमंगलादि जप ध्यान स्तोत्र मंत्रन करि पूजि द्रव्य-क्षेत्रकी प्रकटताका अवकाश नमस्कार करि विस्तीर्ण अघकरिस्परम करूंह, अर्थात पूजू हूँ॥४६॥ ऐस प्रथम वलयदेवनिपूर्णा देना
नों ही महत्परमेष्ठिमभृतिधर्मशरणांतप्रथमवलयस्थितिसप्तदशजिनाधीशयज्ञदेवताभ्योऽयम् ।
अथ द्वितीय वलये चतुर्विंशतिभूतजिनपूजा। प्रत्येकाओः। तथा हि-अब द्वितीय वलय स्थापित भूत जिनका प्रत्येक अर्घ सो ऐस है कि
निर्वाणदेवं श्रितभव्यलोक निर्वाणदातारमनंतसौख्यं ।
संपूजयेऽहं मखसिद्धिहेतो रधीश्वरं प्राथमिकं जिनेंद्रं ॥४७॥ में यज्ञकी सिद्धिके हेतु आश्रित जो भव्य लोक तिन निर्वाणका दाता अरु अनंत सुखका धाम ईश्वर ऐसा प्रथय निर्वाण जिनद् जो ताहि सम्यक् पूजू हूँ॥४७॥
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AILABISAPURCHASSAGAR
ओं ही निर्वाणजिनायाघम्। श्रीसागरं वीतममत्वरागद्वेष कृताशेषजनप्रसादं ।
समर्चये नीरचरुप्रदीप रुद्दीपिताशेषपदार्थमालं ॥ ४७१॥ बहुरि गयो है ममत्त्व रागद्वेष जिनके अरु कियो है समस्त जनके अर्थि प्रसन्नता जानें ऐसा, अरु प्रकट किया है समस्त पदाथ जानें ऐसा श्रीमान् सागर नापक श्रीजिनेंद्रने जल चंदन चरु प्रदीपनि करि पूजू हूँ॥४७१ ॥
___ों ही सागरजिनायार्घम। श्रीमन्महासाधुजिनं प्रमाणनयप्रमाणीकृतजीवतत्त्वं ।
स्याद्वादभंगप्रणिधानहेतुं समर्चये यज्ञविधानसिद्ध्यै ॥ ४७२॥ बहरि प्रमाण नय करि निश्चित किया है जीवतत्त्व जाने अरु स्याद्वादभंगका प्रणयनका कारण पेसा श्रीमान् महासाधु नायक जिनेंद्रने यज्ञविधानकी सिद्धिके अर्थि पूजू हूँ॥४७२॥
ओ हो महासाधुजिनायाघम् । यस्यातिसाज्ज्ञानविशालदीपे प्रभासमानं जगदल्पसारं ।
विलोक्यते सर्षपवत्कराग्रे समर्चयेऽहं विमलप्रभाख्यं ॥७३॥ बहुरि या विमलप्रभ तीर्थकरका समीचीन ज्ञानमय विशाल दीपकमैं येह जगत कराग्रमै सरस्यू'की नाइ प्रभासन करता अल्पसार दीखिये || है ता विमलप्रभ जिनेंद्र. मैं पूजू हूँ॥ ४७३॥
ओं ही विमलप्रभायार्घम् । समाश्रितानां मनसो विशुद्ध्यै कृतावतारं मुनिगीतकीर्तिम् । प्रणम्य यज्ञेऽहमुदंचयामि शुद्धाभदेवं चरुभिः प्रदीपैः ॥ ४७४ ॥
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ASSRUSHMARAKSHASHREE
आश्रित भव्यनका मनकी विशुद्धिके अर्थि किया है अवतरण जानें, मुनिन करि गायी है कीर्ति जाकी ऐसा शुद्धाभदेवनै चरू अर दीपक इन करि यज्ञमैं नमस्कार-पूर्वक पूजू हूँ॥४७४॥
ओं ह्रीं शुद्धाभदेवायाघम् । लक्ष्मीद्वयं वाह्यगतांतरंगभेदात्पदाने विलुलोठ यस्य।।
यस्मात्सदा श्रीधरकीर्तिमापत्तमर्चयेद्याश्रितभव्यसार्थम् ॥ ४७५॥ जाका चरणाग्रमैं वाह्य अरु अंतरंग भेदते दोउ तरफकी लक्ष्मी लोटै है याहीत सदा ही श्रीधर नाय प्राप्त होत भयो, ता श्रीधर देवर्ने आश्रय किया है भव्य समूह जान, तार्ने पूजू हूँ॥४७५॥
ओं ह्रीं श्रीधराय अर्घम् । श्रियं ददातीह सुभक्तिभाजां वृंदाय यस्मादिह नाम जातं ।
श्रीदत्तदेवं भवभीतिमुक्त्यै यजामि नित्याद्भुतधामलक्ष्म्यै ॥ १७६ ॥ इस संसारमें सुंदर भक्तित भजनेवारेका समूहके अर्थि श्री जो आत्मा लक्ष्मीकूदेव है, ता कारण श्रीदत्त ऐसा नाप भया ताक मैं संसारका भय नित्यर्थ अरु निख अद्भुत गृह मोक्षकी लक्ष्मीके निमित्त पूजू हूँ॥ ४७६ ॥
ओं ह्रीं श्रीदत्तजिनायार्यम्। सिद्धाप्रभांगस्य विसर्पिणी तन्मध्येजनुः सप्तकदर्शनेन ।
सम्यग्विशुद्धिर्मनसो यतस्त्वां सिद्धाभ ! यज्ञेऽर्चयितुं समीहे ॥ ४७७॥ जाका अंगकी फैलावती प्रभा प्रसिद्ध है, तामैं पाणीका सातभव देखिवाने मनकी सम्यक विशुद्धि होय है, ता कारण हे सिद्धाभदेव ! इस । यज्ञमैं तूने पूजवेकू वांछु हूं ॥४७७॥
ओं ही सिद्धाभजिनायाघम्। प्रभामतिः शक्तिरनेकधा सध्यानलक्ष्म्या यत उत्तमाथैः ।
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EASEKISTRUCARECASHTREASEARCHESSAR
संगीयते त्वं ह्यमलां विभर्षि यतोऽये त्वाममलप्रभाख्यं ॥१७॥ अरु प्रभा बुद्धि शक्ति ये अनेक नाम सध्यान लक्ष्मीका है, यात उत्तमार्थ पुरुषनित तू गान करिये है अरु निर्मल प्रभान पार है, यात अमलपम नापक तुम पूजू हूँ॥४७८॥
ओं ह्रीं अपलप्रभजिनायाघम् ।। अनेकसंसारगतं भ्रमेभ्य उद्धारकर्तेति बुधैरवादि ।
यतो मम भ्रांतिमपाकुरु त्वमुद्धारदेव प्रयजे भवंतं ॥१७॥ पंडित जनन ऐसा कहा है कि.तुम अनेक संसारका भ्रमतै उद्धार करनेवारा है, याते त मेरी भ्रांत दशा जो है ताहि दरि करि हे उद्धार जिन ! तोहि पूजू हूँ॥ ४७६॥
ओं ही उद्धारजिनाय अघम् ।। दुष्टाष्टकर्मेधनदाहकर्ता यतोऽग्निनामाभ्युदितं यथार्थम्।।
ततो ममासाततृणव्रजेऽपि तिष्ठार्चये त्वां किमु पौनरुक्ते ॥१८॥ हे जिनेंद्र ! तुम दुष्ट अष्टकर्म-रूप काष्ठका दाह करनेवारे हो, यात सायक अग्नि नाप प्राप्त भया, ताते पेरा. असाता-रूप तृख समूहमैं भी तिष्ठ, अर्थात् अग्निरूप होय तिष्ठ। इस कारण तून पूजू हूँ, पुनरुक्त वचनन करि कहा ? ॥४८॥
ओं ही अग्निदेवजिनाय अघम् । ' प्राणेंद्रियद्वैधसुसंयमस्य दातारमुच्चैः कथयामि सार्व।
मदत्तम जिन संग्रहाण सुसंयम स्वीयगुणं प्रदेहि ॥४८१ ॥ बहुरि हे साव ! प्राण-संयम अरु इंद्रिय-संयम ई प्रकार द्विविध संयमकू भले प्रकार देवो, यात उच्चवर करि मैं तुम प्रति कहह, बात मेरा दिया अर्थकू ग्रहण करि अरु अपना गुण संयपकूदेहि ॥४८॥
ओं हो संयपजिनायाघम् ।
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HEREUREAUCURESHANKARISRO
स्वयं शिवः शाश्वतसौख्यदायि स्वायंप्रभुः स्वात्मगुणप्रपन्नः।
तस्मात्तदर्थप्रतिपन्नकामस्त्वामर्चये प्रांजलिना नतोऽस्मि ॥ ४८२॥ अरु आप स्वयं शिव-रूप निरंतर सुखका देनेवारा हो, आत्मीक गुणका प्रपलवान् अाप प्रभु हो, तातै ता अर्थको प्राप्तिका वांछक मैं अंजुलो जोड़ि नमस्कार करूअर तो पूजूंह ॥४२॥
__ों ही शिवजिनाय अर्घम् । सत्कुंदमल्लीजलजादिपुष्पै रभ्यर्च्यमानः श्रियमादधाति ।
नाम्नाऽप्यसौ तादृश एव यस्मात् पुष्पांजलिं त्वां प्रतिपूजयामि ॥ ४८३॥ अरु कुंदपालती कपल आदि पुष्पनि करि पूजित भया संता लक्ष्पोर्न देखें है अहनाप करि भी वैसा हो, यात हे देव पुष्पांजलि नायक ! तुपर्ने पूजू हूं ॥४८३॥
__ओं हो पुष्पांजलिजिनायाघम् । उत्साहयन् ज्ञानधनेश्वराणां शाम्याम्बुधिं संयमचंद्रकीर्तेः ।
उत्साहनाथो यजनोत्सवेऽस्मिन् संपूजितो मे स्वगुणं ददातु ॥ १८॥ अरु ज्ञानरूप धनके स्वामी जे हैं तिनके संयपरूप चंद्रपाकी कातित समभाव-रूप समुद्रक् उत्साह वधातो उत्साह नाय जिन! यजन5|| उत्सवमैं पूजित भयो अपना गुण देवो ॥४८४॥
____ओं ह्रीं उत्साहजिनाय अघम्।। नमोऽस्तु नित्यं परमेश्वराय कृपा यदीयाक्षणसंनिधानात् ।
करोति चिंतामणिरीप्सितार्थमिवांचये तं परमेश्वराख्यं ॥ ४८५॥ अरु नित तुम परमेश्वरके अर्थि नपस्कार होउ जाको कृपा क्षणमात्र संनिधानते चिंतापणि वांछितन करता सपान कर है ऐसा परमेश्वर नाय जिनेंद्रनें पूजू हूं ॥४ ॥
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ARRELAABHANSARKARICKETER
प्रों ही परमेश्वरजिनायाघम्। यज्ज्ञानरत्नाकरमध्यवर्ती जगत्त्रयं विंदुसमं विभाति।
तं ज्ञानसाम्राज्यपतिं जिनेंद्रं ज्ञानेश्वरं संप्रति पूजयामि ॥ ९८६॥ पर जाका ज्ञानरूप समुद्रमैं तोन जगत बिंदु समान शोभित होय है ऐसा ज्ञानरूप साम्राज्यको लक्ष्मीकापति ज्ञानेश्वर नापक जिने । बर्तमानमैं पूजू हूँ॥४८६॥
ओं ही ज्ञानेश्वरजिनाय अर्घम् । तपोवृहद्भानुसमृढतापकृतात्मनैर्मल्यमनिर्मलानाम् ।
अस्मादृशां तद्गुणमाददानं संपूजयामो विमलेश्वरं तं ॥४८॥ तपरूपी अग्निका वधा हुवा ताप करि कियो है आत्पान निपल जाने पर मो सारिखे अनिर्मलता धारण करनेवारेननमल्य गुणन देनेवारो, ऐसो विपलेश्वर नापक जिनेंद्र जो हैं ताहि हम पूजे हैं॥४८७॥
___ओं ही विमलेश्वरजिनाय अघम् । यशः प्रसार सति यस्य विश्वं सुधामयं चंद्रकलावदातं ।
अनेकरूपं विकृतैकरूपं जातं समवेहि यशोधरेशं ॥ ५८८ ॥ अरू जाका यशका फैलावमैं समस्त विश्व अमृतपय अरु चंद्रमा को कत्रा समान निपल अरु अनेकरूप भी सुऊतरूप होतो भयो, वा यशोधर देवनै पूजू हूँ॥४८॥
____ओं ही यशोधरजिनेशाय अर्घम् । क्रोधस्मराशातविघातनाय संजाततीवक्रुधिवात्मनाम । प्राप्तं तु कृष्णेति नु शुद्धियोगात् तं कृष्णमर्चे शुचिताप्रपन्न ॥ ५८९॥
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प्रतिष्ठा १६०
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क्रोध अरु कामरूपी वरीका विद्यात अर्थ उत्पन्न दुवो है क्रोध जाके तातै कृष्ण ऐसा नाम हुवा अरु शुद्धिके योगते शुचिता मात ऐसा कृष्णमति जिनकू पूजू हूं ॥ ४८६ ॥
ह्रीं कृष्णमतये जिनाय अर्धम् ।
ज्ञानं मतिर्भाव' उपाश्रयादिरे कार्यएवप्रणिधानयोगात् ।
ज्ञानेमतिर्यस्य समासजाते र्यथार्थनामानमहं यजामि ॥ ४६० ॥
ज्ञान अरु मति अरु भाव अरु उपाय आदि प्रणिधान के योग एकार्थक है बातें ज्ञान विवै है पति जाको सो सपास के योग ज्ञानमति नामक जिनेंद्रनें पूजू हूं ॥ ४६० ॥
ह्रीं ज्ञानमतये जिनाय अर्घम् ।
समस्यमानान्यपदार्थजातं धुरंधरं धर्मरथांगनेमिः ।
जिनेश्वरं शुद्धमतिं यजेत प्राप्नोति शुद्धां मतिमेव ना सः ॥ ४६१ ॥
एक किया है समस्त अन्य पदार्थसमूह जानै अरु धर्मचक्रका नेविका बुरंबर ऐसा शुद्धिरति नामक जितेंद्रने जो पुरुष पूजे है, सो शुद्धिमति ही पावे है ॥ ४६१ ॥ हों शुद्धमतये जिनायार्घम् ।
संसारलक्ष्म्या अतिनश्वरायै जन्ममुद्रामिव कुत्सयन्वा ।
भद्रा शिवश्रीरिति योगयुक्त्या श्रीभद्रमीशं रभसाचयामि ॥ ४६२ ॥
अति विनाशीक संसारलक्ष्मीकी जन्मनक्षत्र मुद्रानै निंदन करतो अमोलनको प्रशंसा करतो ऐसा योग की युक्तितै सार्थक श्रीभद्र तिननै वेग करि पूजू हूं ॥ ४६२ ॥
श्रीं ह्रीं श्रीभद्रजिनाय अर्धम् ।
अनंतवीर्यादिगुणप्रसन्नमात्मप्रभावानुभवैकगम्यं ।
अनंतवीर्यं जिन स्वीमि यज्ञार्थ भागैरुपलाल्यमानं ॥ ४६३ ॥
पाठ
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प्रतिष्ठा
अनंतवीर्य आदि गुणसंयुक्त अरु आत्माका प्रभावरूप अनुभवहीके अद्वितीय गम्य अरु यज्ञनिमित्तकृत भागत सेवा-रूप भयो अनंतवीर्य जिनन स्तुति करूंहूँ॥४६३॥
ओं हों अनंतवीर्यजिनाय अर्धम्। पूर्व विसर्पिण्यथ कालमध्ये संजातकल्याणपरंपराणाम् ।
संस्मृत्य सार्थ प्रगुण जिनानां यज्ञेसमाहूय यो समस्तान् ॥४९॥ ऐसें पूर्व विसर्पिणी काल मध्ये हुवा है कल्याण परंपरा जिनके ऐसे जिनेंद्रनका गुण-युक्त समूहन स्मरण करि अरु इस यज्ञमैं तिन | समस्तनने बुलाय पूजू ह॥४६४॥ पों हीं अस्मिन् प्रतिष्ठामहोत्सवे याज्ञमंडलेश्वरद्वितीयवलयोन्मुद्रितनिर्वाणाधनंतवीर्यान्तेभ्यो भूतजिनेभ्योऽर्घम् ॥
इस प्रतिष्ठा-उत्सवमै यागमंडलका द्वितीय वलयमै स्थापित भूतजिनेन्द्र अर्घ देना।
UCERSINHATECECARRIER
ASARACTECEMARA
अथ तृतीयवलयस्थापितवर्तमानजिनपूजा। अब तीसरा वलयमै स्थापित वर्तमान जिनपूजा कहिये हैं:
मनुनाभिमहीधरजात्मभुवं मरुदेव्युदरावतरंतमहं ।
प्रणिपत्य शिरोभ्युदयाय यजे कृतमुख्यजिनं वृषभं वृषभं ॥ ४६५॥ बहरि नाभि कुलकर पृथ्वीपतिका पुत्र अर मरुदेवी राणीका उदरमै अवतार लियौ, अर यज्ञविधानमैं मुख्य, अर धर्म करि शोभायमान ऐसा वृषभनाथस्वामीन मस्तक नपाय पूजू हूँ। ४६५॥
ओं ही ऋषभजिनायाघम्। जितशत्रुगृहं परिभूषयितुं व्यवहारदिशा तनुभूप्रभवं ।
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प्रतिष्ठा
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नयनिश्चयतः स्वयमेवभुवमजितं जिनमर्चतु यज्ञधर ॥ ४९६ ॥ जितशत्रु नामका राजाका गृहन भूषित करिवेकू व्यवहारनय करि पुत्र अर निश्चयनयत स्वयं आप ही उत्पन्न भयो, ऐसा अजितनाथखामीन यज्ञको कर्ता पूजो॥४६६॥
_ओं ही अजितजिनाय अर्थम् । दृढराजसुवंशनभोमिहिरं त्रिजगत्रयभूषणमभ्युदयं ।
जिनसंभवमूर्ध्वगतिप्रदमर्चनया प्रणमामि पुरस्कृतया ॥ ४९७ ॥ दृढ़रथ राजाका वंशरूप प्राकाशमैं सूर्य समान अरु तीन जगतका भूषण अरु उदय-रूप अरु उर्ध्वगतिका दायक, ऐसा संभवनाथ जिननं आग किई ऐसी पूजा करि प्रणाम कम हूं ॥४६७॥
ओं ही संभवजिनाय अयम् । कपिकेतनमीश्वरमर्थयतो मृतिजन्मजरापदनोदयतः।
भविकस्य महोत्सवसिद्धिनियादत एव यजे ह्यभिनंदनकं ॥१८॥ कपिका है चिह्न जाकै ऐसा ईश्वरन प्रार्थनावारा अरु मृत्यु-जन्म-जराते दरि होवाहारा भव्यके महान उत्सवकी सिद्धि होय है यात अभिनंदनस्वामीन मैं पूजू हूँ॥४८॥
ओं ही अभिनंदनजिनाय अर्ध। सुमतिं श्रितमर्त्यमतिप्रकरार्पणतोऽर्थकराख्यमवाप्तशिवं ।
महयामि पितामहमेतदधिजगतीवयमूर्जितभक्तिनुतः॥ ४६६ ॥ आश्रित पाणीकू बुद्धि प्रकर्षका देवात अर्थको करनेवारो अवाप्त हुवो है कल्याण जाकै ऐसा सुपतिनाथ इस जगदत्रयका प्रति पितापहरूपन भक्तिभावतें पूजू हूं ॥ ४६॥
ओं हो सुमतिनाथजिनेंद्राय अघम् ।
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प्रतिष्ठा
AGAROSAROLCASIAS
धरणेशभवं भवभावमितं जलजप्रभमीश्वरमानमताम् ।
सुरसंपदियति न केति यजे चरुदीपफलैः सुरवासभवैः॥ ५..॥ धरणेश नाम राजाका पुत्र अरु संसार-भावन प्राप्त अर रक्तकमल चिह्नका धारक ऐसा पद्मप्रभ जिनने पूजन करता पुरुषनकै देवनकी हैं| संपदा कहा प्राप्त नहीं होय ? याते स्वर्गके चरु दीपक फलादि करि पूजू हूँ॥५०॥
__ओं हो पामभजिनेंद्रायाघम् । शुभपार्श्वजिनेश्वरपादभुवां रजसां श्रयतः कमलाततयः।
कति नाम भवंति न यज्ञभुवि नयितुं महयामि महध्वनिभिः॥५०१॥ इहां सुपाश्च नाथ जिनका चरणसे उत्पन्न रजनको आश्रय करनेवारेनकै कौनसी लक्ष्मीकी संतान नहीं होय है? ताते इस यज्ञ पृथ्वी मैं उत्सव शब्द करि प्राप्त होवेकू पूजू हूं ॥५०१॥
___ ओं ह्रीं सुपार्थ नाथजिनेंद्रायाघम् । मनसा परिचिंत्य विधुः स्वरसात् मम कांतिहतिर्जिनदेहघृणेः ।
इति पादभुवं श्रितवानिव तं जिनचंद्रपदांबुजमाश्रयत ॥५०२॥ चंद्र है सो निश्चयतें अपना मन करि चिंतन करि कि म्हारा कांतिको हरण जिनेंद्रका देहकी किरणत है, याहीत ही चरण पीठमैं प्राश्रित होतो भयो ऐसा चंद्रप्रभजिनका चरणारविंदकू आश्रय करो ॥५०२॥
___ों ही चंद्रप्रभजिनाय अर्घम् । सुमदंतजिनं नवमं सुविधीतिपराहमखंडमनंगहरं। शुचिदेहततिप्रसरं प्रणुतात् सलिलादिगणैर्यजतां विधिना ॥ १०३॥
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भविष्ठा
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अखंड जैसे होय तसे अनंग कामका हरणेवारा अरु सुविधिये है दूसरा नाम जाका ऐसा पुष्पदंत नवया जिनेंद्रन, सुंदर देहकी कांतिको मसार-वाराने नमस्कार होहु । अर जलादि द्रव्यन करि विधिसंयुक्त यजन करो॥५०३ ॥
ओं ह्रीं पुष्पदंतजिनाय अर्घम् । .... .... .... .... .... ....
.... .... .... .... .... ..... .... ॥५०४॥ अरु दशमा शीतलनाथ जिन पूजन करता प्राणीके धनधान्यकी समृद्धि है सो विस्तीगांतर होय है अरु हस्तगत होय लोटती फिरै है, यह मैंनें विचार करि यज्ञमैं वेदमंत्रोच्चारण-पूर्वक पूजिये है ॥ ५०४ ॥
प्रों हो शीतलजिनाय अर्घम् । श्रेयोजिनस्य चरणौ परिधार्य चित्ते संसारपंचतयदुर्भमणव्यपायः।
श्रेयोऽर्थिनां भवति तत्कृतये मयाऽपि संपूज्यते यजनसद्विधिषु प्रशस्य ॥ ५०५॥ श्रेयांसनाथका चरण चित्तमै विचारि करि कल्याणके अनिकै पंच प्रकार परावर्तनको दुर्धपणको नाश होय है, ता कार्यके अर्थि मैं | भी यज्ञविधि मैं प्रशंसा करि पूजूहूं ॥५॥
. ओं ह्रीं अयोजिनाय अघम् । इक्ष्वाकुवंशतिलको वसुपूज्यराजा यजन्मजातकविधौ हरिणार्चितोऽभूत् ।
तवासुपूज्यजिनपार्चनया पुनीतः स्यामद्य तत्प्रतिकृतिं चरुभिर्यजामि ॥ ५०६॥ जाका जन्म होता ही इक्ष्वाकुवंशको तिलक वसुज्य नाम राजा इंद्र करि पूजित होत भयो अरु मैं वासुपूज्य जिनकी पूजा करि पवित्र होत हूं, अब याकी प्रतियाने चरु प्रादिसे पूजू हूँ॥५०६॥
ओं ही वासुपूज्यजिनायाम् ।
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कोपिल्यनाथकृतवर्मगृहावतारं श्यामाजयाहजननीसुखदं नमामि ।
पाठ कोलध्वजं विमलमीश्वरमध्वरेऽस्मिन्नर्चे द्विरुक्तमलहापनकर्मसिद्धये ॥ ५०७॥ कंपिलानगरीका नाथ कृतवर्मा नापक राजाक कियो है अवतार जाने अरु श्यामा नाम माता तानं सुखनं देवावारो, कोल कहिये शूकर चिह-युक्त ऐसा विमल जिनेंद्रने या यज्ञमैं द्विपकार करि द्रव्यपल अह भावमल कर्म ताका दुरि करवावारान कार्यकी सिद्धि अर्थि पूज हूँ॥५०७॥
ओ ही विमलनाथजिनयाघम् । साकेतनायकनृपस्य च सिंहसेननाम्नस्तनूजममरार्चितपादपदमं ।
संपूजयामि विविधाहणवा ह्यनंतनाथं चतुर्दशजिनं सलिलाक्षतौवैः ॥ ५.८ ॥ अयोध्या नगरीका नायक सिंहलेन नाम राजाका पुत्र अरु देवन करि पूजित चरण कमल जाका, ऐसा अनंतनाथ चतुर्दशप जिनेंद्रनें जल AR चंदनादि नाना विध पूजन करि सम्यक् पूजू हूं ॥५०८॥
ओं ही अनंतजिनायार्घ म्। धर्म द्विधोपदिशता सदसींद्रधार्ये किं किं न नाम जनताहितमन्वदर्शि ।
श्रीधर्मनाथ ! भवतेति सदर्थनाम प्राप्तयेऽर्वनविधि पुरतः करोनि ॥ ५०६ ॥ दोय प्रकार श्रावक अर मुनिधर्म समवशरण सभामै उपदेश करता जिननें कहा कहा प्राणीनका निश्चय करि नहीं दिखायो ? सो हे धर्म5|| नाथ जिनेंद्र ! तुप सार्थकनाप हो अरु याही अर्थकी प्राप्तिके अर्थि तेरे अग्र पूजा विधिनैं करूं हूँ॥५०६॥
ों ही धर्म नाथजिनायाम् । श्रीहस्तिनागपुरपालकविश्वसेनः स्वांके निवेश्य तनयामृतपुष्टितुष्टः ऐराऽपि सा सुकुरुवंशनिधानभूमिर्यस्माद् बभूव जिनशांतिमिहाश्रयामि ॥ ५१०॥
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प्रतिष्ठा १६६
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श्रीमान हस्तिनापुरको स्वामी विश्वसेन राजा अपना गोदमैं' स्थापन करि पुत्रका अमृत पुष्टि करि तुष्ट हुवो अरु पेरा नाम राखी भी कुरुवंशका निधानकी भूमि जातें होती भई, ता शांतिनाथनें मैं इहां आश्रित करू हूँ ॥ ५१० ॥ ओं हों शांतिजिनाय प्रघम् ।
श्रीकुंथुनाथजिनजन्मनिषटूनिकायजीवाः सुखं निरुपमं बुभुजुर्विशंकं ।
किं नाम तत्स्मृतिनिराकुलमानसोऽहं दवे न सत्त्वरमतोऽचैनमारभेय ॥ ५११ ॥
श्रीमान् कुंथुनाथ जिनेंद्रका जन्म मैं छहकायके सर्वजीव सर्व ही सुखनें निःशंक प्राप्त हुये तो ताका स्मरण करि निराकुलचिचवारो मैं हूँ सो क्यूं नहीं सुखभोगू गो यात शीघ्र ही पूजन आरंभ करू हू ॥ ५५१ ॥
ह्रीं कुंथुनाथजिनायार्घम् ।
सद्दर्शनप्लुतसुदर्शनभूपपुत्रं त्रैलोक्यजीत्रवररक्षणहेतुमित्रम् ।
श्री मित्रसेनजननीखनिरत्नमचे श्रीपुष्प चिह्नमरनाथजिनेंद्रमर्थ्यम् ॥ ५१२ ॥
क्षायिक सम्यक्त्व करि पवित्र सुदर्शन राजाका पुत्र अरू तीनलोकका जीवांकी रक्षाका कारणभूत मित्र अरु मित्रसेना माता रूप खानि को रत्नभूत अरु पुष्पको है चिह्न जाऊँ अरु प्रार्थनीक अरनाथ जिनेंद्र ने पूजूं हूं ॥ ५१२ ॥
नों ह्रीं अरनाथजिनेंद्राय अर्धम् ।
कुंभोद्भवं धरणिदुःखहरं प्रजावत्यानंदकारकमतंद्रमुनींद्रसेव्यं ।
श्रीमल्लिनाथविभुमध्वरविघ्नशांत्यै संपूजये जलसुचंदनपुष्पदीपैः ॥ ५१३ ॥
कुंभराजासे उत्पन्न धरणिनाम माता तथा पृथ्वीका दुख हरवावारो तथा प्रजावतीकू' आनंदकरता अरु निरालस्य मुनींद्रकरि सेवनीक ऐसा मल्लिनाथ जिनने इस यज्ञका विघ्नकी शांति अर्थ जल चंदन पुष्प दीपनिकरि पूजू हू ॥ ५१३ ॥
ओं ह्रीं मल्लिजिनायार्धम् ।
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पाग
अतिष्ठा
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ORS-CIRCKN5
राजत्सुराजहरिवंशनभोविभास्वान् वप्रांबिकाप्रियसुतो मुनिसुव्रताख्यः। ___ संपूज्यते शिवपथप्रतिपत्यहेतुर्यज्ञे मया विविधवस्तुभिरर्हणेऽस्मिन् ॥ ५१४॥ सुंदर है राजा जामै ऐसा हरिवंश रूप आकाशमें सूर्य समान अरु वभानाम माताका प्यारा पुत्र ऐसा मुनिसुव्रत जिनेंद्रने मोक्षपार्गकी का प्राप्तिका कारण जानि मैने इस यज्ञमें नाना वस्तुनि करि संपूजिये है ॥ १४ ॥
ओं ही मुनिसुव्रतजिनाय अर्घम् । सन्मैथिलेशविजयाह्वगृहेऽवतीर्ण कल्याणपंचकसमर्चितपादपद्म ।
धर्माबुवाहपरिपोषितभव्यशस्यं नित्यं नर्मि जिनवरं महसार्चयामि ॥५१५॥ ला पिथिला नगरीका विजय नाम राजाका गृहमैं अवतार पायो अरु पंचकल्याणकरि पूजित है चरण जाका अरु धरूपी मेघ करि पुष्ट । किया है भव्यरूप धान्य जाने ऐसा नमिनाथ स्वामीने निय उत्साह करि पूजू हूँ॥५१५॥
ओं ही नमिनाथजिनेंद्रायाघम् । द्वारावतीपतिसमुद्रजयेशमान्यं श्रीयादवेशवलकेशवपूजितांहिम् ।
शंखांकमबुधरमेचकदेहमर्चे सद्ब्रह्मचारिमाणनमिजिनं जलाथैः॥ १६ ॥ द्वारावती नगरीका पति समुद्रविजय राजा करि पान्या श्रीमान् यादववंशका स्वामी बल अरु नारायण करि पूजित है चरण जाका अरु शंख है चिन्ह जाकै अरु मेघ समान श्याम है देह जाका अरु महान् ब्रह्मचयधारीनमें प्रधान ऐसा नेमि जिनेंद्रन जलादि द्रव्यकरि पूजू हूँ॥१६॥
ओं ही नेमिनाथजिनायाघम् । काशीपुरीशनृपभूषणविश्वसेननेत्रप्रियं कमठशाव्यविखंडनेनं । पद्माहिराजविबुधवजपूजनांकं वंदेऽर्चयामि शिरसा नतमौलिनीतः॥५१७॥
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काशीदेशमें वाराणसी नाम नगरीको स्वामी राजानिने भूपण ऐसा विश्वसेन राजाको नेत्रपिय पुत्र अरु कपठ नाप वैरीको शठपणो कि मूद पणो ताका खंडन करनेवारो अरु पद्मावतो अर धरणद्र आदि देवनि करि पूजनका चिह प्राप्त ऐसा पाच नाथ जिनेंद्रनै शिर करि बंद। पूजू हूं ॥१७॥
ओं ही पार्श्व जिनायाघम् । सिद्धार्थभूपतिगणेन पुरस्क्रियायामानंदतांडवविधौ स्वजनुः शशंसे ।
श्रीश्रेणिकेन सदसि ध्रुवभूपदाप्त्यै यज्ञेऽर्चयामि वरवीरजिनेंद्रमस्मिन् ॥ ५१८॥ सिद्धार्थ नामा राजा प्रमुखनै अपनी सस्क्रियामै आनंद तांडव विष अपना जन्म प्रशंसित किया अरु राजा श्रेणिकने समवसरण सभाम है| निश्चल पदकी प्राप्ति अर्थि, वीर जिनेंद्रनै इस यज्ञमें पूजू हूँ॥ ५१८॥
ओं ह्रीं वधमानजिनेंद्राया निवपायीति स्वाहा । अत्राहूतसुपर्वपर्वनिकरे विंबप्रतिष्ठोत्सवे
संपूज्याश्चतुरुत्तरा जिनवरा विंशप्रमाः संप्रति । संजाग्रत्समयादयैकसुकृतानुद्धार्य मोक्षं गता
स्तेऽत्रागत्य समस्तमध्वरकृतं गृह्णतु पूजाविधिं ॥ ५१६ ॥ इहा आह्वान किये देवनिका निकाय विषे ऐसा विवपतिष्ठाका उत्सवमै संजित चोवीस वर्तमान तीर्थंकर प्रगट है समय जिनका ऐसा दयाभावबारे सुकृत पुरुषनिफू उद्घारि मोक्षमाप्त भये ते सर्व इहां यज्ञकन समस्त पूजाको विधिने ग्रहण करो॥१६॥ ओं ह्रीं यागमंडलमें मुख्य तोसरा वलय स्थापित चतुर्वंशति वर्तमान जिनके अथि पूजाका अर्घ देना।
ओं ह्रीं अस्मिन् यागमंडले पख मुख्यार्चिततृतीयालयोन्मुद्रितवर्तमानवशतिजिनेभ्यः पूर्णाघम् ॥
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अथ चतुर्थवलयस्थापितभविष्यजिनपूजा। अब चौथा वलयस्थापित भविष्यज्जिन
पद्मा चलेत्यंकनलुप्तिकामा जिनस्य पादावचलौ विचार्य ।
यत्पादपद्मे वसतिं चकार सोऽयं महापद्मजिनोऽर्च्यतेऽर्धेः ॥ ५२०॥ बहुरि या लक्ष्मी चंचल है इस दोष लुप्तकरनेकी वांछावारी जिनेंद्रका चरणाने अचल विचारि जिनका चरणारविंदामें निवास करती। भई सो ये महापद्म जिनेंद्र मैं करि अनकरि पूजिये है ॥ ५२०॥
ओं ह्रीं महापद्मजिनायाम्। देवाश्चतुर्भेदनिकायभिन्नास्तेषां पदौ मूर्धनि संदधानः ।
तेनैव जातं सुरदेवनाम तमर्चये यज्ञविधौ जलाद्यैः॥ ५२१॥ बहुरि देव च्यार निकाय करि भेद प्राप्त भये हैं तिनके मस्तकमैं अपना चरणारविंदाने धारण करतो अर याही हेतुतं सुरदेव ऐसा नाम हुआ ताकू मैं यज्ञविधिमं जलादिकरि पूजू हूँ॥ ५२१ ॥
- ओं ही सुरप्रभजिनायाघम् । सेवार्थमुत्प्रेक्ष्य न भूतिदाता कारुण्यबुद्धयैव ददाति लक्ष्मीम्।।
यतो जिनः सुप्रभुरायसार्थं नामार्चयेऽहं विधिनाध्वरीयैः ।। ५२२॥ अरु जो प्राणीनिकी सेवामात्र प्रयोजन देखि करि संपदाको दाता नहीं है किंतु करुणाबुद्धि करि ही लक्ष्मीने देवै है। याही हेतु सुप्रभु &ा ऐसा सार्थक नाम प्राप्त भया ताकू यज्ञसंबंधी द्रव्यनिकरि मैं पूजू हूँ॥ ५२२ ॥
ओं ही सुमभुजिनायाघम् ।
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न केनचित्पविधायि मोक्षसाम्राज्यलक्ष्म्याः स्वयमेव लब्धं । स्वयंप्रभवं स्वयमेव जातं यस्यार्च्यते पादसरोजयुग्मं ॥ ५२३ ॥
अरु किसीने ही या मोक्षसाम्राज्य लक्ष्मीको पट्ट नहीं बांध्यो, किंतु आपही लब्ध भयो हैं, याही हेतु स्वयंप्रभपणो स्वतः ही जाकै भयो ताका चरणकमलको युग्म पूजिये है ॥ ५२३ ॥
नहीं स्वयंप्रभदेवायार्धम् ।
सर्वं मनः कायवचः प्रहारे कर्मागसां शस्त्रमभूद् यतो यः ।
सर्वायुधाख्यामगमन्मयाद्य संपूज्यतेऽसौ कृतुभागभाज्यैः ॥ ५२४ ॥
अरु जाका मनवचनकाय जो है ते कर्मरूप पापनका घातमें सर्वशस्त्र होतो भयो सो सर्वायुध नामने प्राप्त भयो जो यो सर्वायुध जिनेंद्र इस यज्ञमें यज्ञका भागनिकरि मैंने पूजिये है ॥ ५२४ ॥
ह्रीं सर्वायुधदेवायाम् ।
कर्मद्विषां मूलमपास्य लब्धो जयोऽन्यमत्यैरपि योऽनवाप्यः ।
ततो जयाख्यामुपलभ्यमानो मयार्हणाभिः परिपूज्यतेऽसौ ॥ ५१५ ॥
नहीं प्राप्त भयो ऐसो कर्मरूप बैरीनको मूलने दूर करि जयकू' प्राप्त भयो अरु तातें ही जयनामने प्राप्यमान पूजिये है ।। ५२५ ।।
ओं ह्रीं जयदेवायार्धम् ।
अरु जो अन्यमाणी निकर वो सो पूज्य सामिग्री करि मैं
आत्मप्रभावोदयनान्नितांतं लब्धोदयत्वादुदयप्रभाख्यां ।
समापयस्मादपि सार्थकत्वात् कृतार्चनं तस्य कृती भवामि ॥ ५२६ ॥
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अरु आत्माका प्रभावका उदयत निरंतर लब्धोदयपणात उदयप्रभ नाम पायो याहीत सार्थकपणात ताको पूजनकरि मैं पुण्यभागी हो ॥५२६॥
ओं ही उदयप्रभजिनायाघम्। प्रभा मनीषा प्रकृतिर्मतिप्रिभृत्युदीर्णेकफलेति मत्वा।।
जाता प्रभादेव इति प्रशस्तिस्ततोऽर्चनातोहमपि प्रयामि ॥ ५७॥ इहां प्रभा मनीषा प्रकृति मति अरु ज्ञा आदि शब्द एक उत्कृष्ट फल अर्थमें हैं। ऐसा मानि प्रभादेव ऐसी प्रशस्त ख्याति हुई जातें मैं भी | पूजन विधिकार प्राप्त हूँ॥५२७॥
___ओं ही प्रभादेवजिनायाघम्। उदंकदेव त्वयि भक्तिभोग्या घटी घटी सा न तदुच्यते हा।
त्वामेव लब्ध्वा जननं प्रयातं वरं यतस्त्वामहं महामि ॥ ५२८॥ दे उदंकदेव ! तिहारेवि भक्तिकरि भोगवे योग्य घटी है कहिये घडी है सो घटी नहीं अर्थात् निरर्थक नहीं, हा बडा खेद है कि कहिये || है अरु तोने प्राप्त होय जो जन्म पायो सो वर है यात मैं तो पूजित करू हूँ॥५२८॥
ओं ह्रीं उदंकदेवजिनाय अर्घम् । सुरासुरस्वांतगतभ्रमैकविध्वंसने प्रश्नकृतोपपत्त्या।
कीर्ति ययौ प्रोष्ठिलमुख्यनामस्तवैर्निरुक्तोऽहमुदंचयामि ॥ ५२६ ॥ अरु प्रश्नकी उपपत्ति कहिये प्राप्ति करि सुरविद्याधरनिका मनमें प्राप्त भया भ्रमका विध्वंसमें कीर्तिने प्राप्त होत भयो अरु दूसरो पोष्ठिल नाम पायो आदि नामकी स्तुति करि निरुक्त कियो मैं पूजू हूँ॥५२६॥
ओं ही प्रश्नकीर्तिजिनायार्घम् । पापाश्रवाणां दलनाद् यशोभिर्व्यक्तंर्जयात् कीर्तिसमागमेन ।
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प्रतिष्ठा
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निरुक्तलक्ष्म्यै जयकीर्तिदेवं स्तवस्रजा नित्यमुपाचरामि ॥५३०॥ पापाश्रवनका दलनते, यशका प्रगट होनातें, जयतें कीर्तिका समागमन करि निरुक्ति और लक्षण करि जयदेवकीति नाम प्राप्त भया ता जिनेंद्रने निस स्तुतिपालाकरि सेवा करूंहूँ॥५३०॥
ओं ह्रीं जयकीर्तिदेवायाम् । कैवल्यभानातिशये समग्रा बुद्धिप्रवृत्तिर्यत उत्तमार्था ।
तत्पूर्णबुद्धेश्चरणौ पवित्रावयेन यायज्मि भवप्रणष्टयै ॥ ५३१॥ __ जिस समय केवलज्ञान हुआ उस अतिशयमें समग्र बुद्धिको प्रवृत्ति उत्तम प्रयोजनवारी होय है तातें पूणबुद्धि नामक जिनेंद्रका पवित्र चरणनिकू अर्घपाद्य करि संसारका नाश होने कूपूजू हूँ ॥५३१ ॥
___ओं ह्रीं पूर्ण बुद्दिजिनायाघम् । क्रोधादयश्चात्मसपत्नभावं स्वधर्मनाशान्न जहत्युदीर्ण ।
तेषां हतिर्येन कृता स्वशक्तस्तं निःकषायं प्रयजामि नित्यं ॥ ५३२॥ येह क्रोधादिकपाय आत्मीक धर्मका नाशते वैरीपणाने उत्कट नहीं छोडे है अरु याने अपनी शक्तित तिन कषायनिका हनन किया सो निःकषाय नामक जिनने मैं पूजू हूं ॥५२॥
ओं ही निकषायजिनायार्यम् । मलव्यपायान्मननात्मलाभाद् यथार्थशब्दं विमलप्रभेति ।
लब्धं कृतौ स्वीयविशुद्धिकामाः संपूजयामस्तमनय॑जातं ॥ ५३३॥ की रूप मलका नाशत अरु मननकरि आत्मविशुद्धिका लाभते यथार्थ विमलप्रभ नाय लब्ध हुवा ताकू इस यज्ञमें अपनी विशुद्धताके वांछक हम हे ते अनय जन्म ऐसा विमलप्रभने पूजे हैं॥५३३॥
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पाठ
MADHURRASSORREFRESH
ओं ही विमलप्रभदेवायाम्। भास्वद्गुणग्रामविभासनेन पौरस्त्यसंप्राप्तविभावितानं ।
संस्मृत्य काम बहुलप्रभं तं समर्चये तद्गुणलुब्धिलुब्धः ॥ ५३४॥ देदीप्यमान गुणका प्रकाश करि अग्र प्राप्त भई प्रभाकी संतान जाकै ऐसा बहुलपम नाम जिनेंद्रने अतिशय करि ताका गुणकी प्राप्तिमें लुब्ध हवो मैं पूज हूँ॥५३४॥
___ओं ही बहुलप्रभदेवायाघम् । नीराभ्ररत्नानि सुनिर्मलानि प्रवाद एषोऽनृतवादिनां वै।
येन द्विधा कर्ममलो निरस्तः स निर्मलः पातु सदर्चितो माम् ॥५३५॥ जल आकाश रत्न ये निर्मल हैं, यो झूठो असय बोलने वारेनको प्रवाद है। अरू जाने दोय प्रकार कर्मपत्त दर किया सो निषेत्र है। सो || निर्मल जिन पूजन प्राप्त हुवो थको मेरी रक्षा करो॥५३५॥
____ओं ही निमलजिनायाघम् । मनोवचःकायनियंत्रगेन चिताऽस्ति गुतिर्यदवाप्तिपूर्तेः ।
तं चित्रगुप्ताद्वयमर्चयामि गुप्तिप्रशंसातिरिय मम स्यात् ॥ ५३६ ॥ मन वचन काय इनका वश करिवा करि जाके गुप्ति पूर्ण होवात चित्रगुप्ति नाम पाया ताहि मैं पूजू हूँ। यातें गुतिको प्रशंसा प्राप्ति मेरे भी होउ॥५६॥
ओं ही चित्रगुप्तिजिनायाघम् । अपारसंसारगतौ समाधिलब्धो न यस्माद् विहितः स येन । समाधिगुप्तिर्जिनमर्चयित्वा लभे समाधिं त्विति पूजयामि ॥ ५३७ ॥
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प्रतिष्ठा
पाठ
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PANCHA
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या अपार संसारकी गतिमें समाधिमरण नहीं पाया अरु जानै सो समाधि पाया ता समाधिगुप्त जिनेंद्रने पूजिकरि मैं भी समाधि पाऊं यानै मैं पूज हूँ॥५३७॥
ओं ही समाधिगुप्तिजिनायाघम् । स्वयं विनाऽन्यस्य सुयोगमात्मस्वशक्तिमुद्भाव्य निजस्वरूपे।
व्यक्तो बभूवेति जिनः स्वयंभूर्दध्यात् शिवं पूजनयानयाज़ः ॥ ५३८ ॥ अरु जो अन्यका योग विना आपही अपनी शक्तिने प्रगट करि आपका स्वरूपमें प्रगट होतो भयो सो स्वयंभू जिन इस पूजाकरि पूजित र भयो संतो मोक्षने देवो ॥५३८॥
ओं ही स्वयंभूजिनायाघम् । कंदर्पनाम स्मरसद्भटस्य मुधैव नामेति तदर्दनोद्घः ।
प्रशस्तकंदर्प इयाय शक्तिं यतोऽर्चयेऽहं तदयोगबुद्धयै ॥ ५३९ ॥ कामरूप सुभटका कंदर्प नाम वृथा ही है क्यूंकि येह जिन ताका पीडनमें समर्थ प्रशस्त कदप होय आत्मशक्तिने मास होतो भयो ताकू मैं कंदपको प्रयोग हो ऐसी बुद्धि अथि पूजू हूँ॥५३६॥
ओं हों कंदपजिनायाघम् । अनेकनामानि गुणैरनंतैर्जिनस्य वोध्यानि विचारवद्भिः।
जयं तथा न्यासमथैकविंशमनागतं संप्रति पूजयामि ॥ ५४॥ जिनद्रका अनंत गुणनिकरि अनेक नाम ज्ञानी पुरुषने जानवे योग्य हैं, तातें जयनाथ तथा न्यास नामक इकवोसमां अनागत जिनेंद्रने अबार पूज हूँ॥५४०॥
ओं ह्रीं जयनाथजिनायाघम् ।
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पाठ
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अभ्यर्हितात्मप्रगुणस्वभावं मलापहं श्रीविमलेशमीशं ।
पाले निधायाय॑मफल्गुशीलोद्धरप्रशक्त्यै जिनमर्चयामि ॥५४१॥ पूज्य आत्मगुणका स्वभावरूप अरु मलका दरि करनेवारा अरु पूज्य ऐसा विमलेश जिनेद्र. महान शीलका उद्धारको शक्ति निमित्त अपने पात्रमैं स्थापि मैं पूजू हूँ ॥५४१ ।।
ओं ही विमलजिनायाघम्। अनेकभाषा जगती प्रसिद्धा परंतु दिव्या ध्वनिरर्हतो वै।
एवं निरूप्यात्मनि तत्त्वबुद्धिमभ्यर्चयामा जिनदिव्यवादं ॥५५२।। इस जगतमं प्रसिद्ध अनेक भाषा है परंतु दिव्यभाषा अहंतकी ही है। ऐस निरूपण करि आत्मामै तत्वबुद्धि ऐसा दिव्यवाद जिनेंद्रन हप पूजे हैं ॥ ५४२॥
__ओं ह्रीं दिव्यवादजिनायाघम् ।। शक्तरपारश्चित एव गीतस्तथापि तद्व्यक्तिमिति लब्ध्या।
अनंतवीर्यंत्वमगाः सुयोगात्त्वामर्चये त्वत्पदघृष्टमूर्ना ॥ ५५३ ॥ चैतन्यकी शक्ति पार रहित ही गाई हैं तथापि लब्धिकरिता शक्तिकी ब्यक्तिने प्राप्ति होय है। याकारण तू सुन्दर योगत अनंत शक्तिले प्राप्त भयो यात तेरा चरणमें धरचो मस्तक जाने ऐसो में पूजू हूँ॥ ५४३ ॥
ओं ह्रीं अनंतवीर्यजिनाया निर्वपामोति स्वाहा । काले भाविनि ये मुतीर्थधरणात् पूर्वं प्ररूप्यागमे
विख्याता निजकर्मसंततिमपाकृत्य स्फुरच्छक्तयः। तानत्र प्रतिकृत्यपावृतमव संपूजिता भक्तितः
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प्रतिष्ठा
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प्राप्ताशेषगुणास्तदीप्सितपदावाप्त्यै तु संतु श्रिये ॥५४॥ ये भावी समयमै तीर्थंकर गोत्रका धरिवात पूर्व भागममै विख्यात हैं, अरु निजामका संतानने दूरकरि प्रगट भई है शक्ति जिनकी | ऐसे ते इहां विवका शुचियज्ञमें भक्तिकरि पजित भया अरु प्राप्त भया है समग्र गुण जिनकै ऐसा जिनेंद्र अपना पद ह देवा वस्तै मोत लक्ष्मीकी प्राप्ति अर्थ होऊ॥५४॥
ओं ही विवातिष्ठोद्यापने मुख्यपूजार्हचतुर्थवजयोन्मुद्रितानागतचतुवेशतिमहापद्माद्यनंतवीर्या तेभ्यो जिनेभ्यः पूर्णाघम् ।। ओं ह्रीं विवप्रतिष्ठा उत्सवमें मुख्य पूजा योग्य अरु चतुथै बलयमें स्थापित अनागत चौबीस जिनेंद्र अघ-देना ॥
अथ पंचमवलयस्थापितविदेहजिनपूजा। अब पंचम बलयकी पूजा कहैं हैं
सीमंधरं मोक्षमहीनगर्याः श्रीहंसचित्तोदयभानुमंत।
यत्पुंडरीकाख्यपुरस्वजात्या पूतीकृतं तं महसार्चयामि ॥ ५५५॥ पोक्षपृथ्वीरूप नगरीका सोपाने धरणेवारो श्रीपन हंसनाम राजाका चित्तम उदयाचन तामैं सूर्यसपान अरु जो अमान मह जो अपना जन्मत पुंडरीक पुरन पवित्र करनेवारो ऐसा श्रीमंधर जिनेंद्रने पूजू हूँ॥५४५॥
ओं ह्रीं सीमंधरजिनायाघम् । युग्मंधरं धर्मनयप्रमाणवस्तुव्यवस्थादिषु युग्मवृत्तेः ।
संधारणात् श्रीरुहभूपजातं प्रणम्य पुष्पांजलिनार्चयामि ॥ ५५६ ॥ धर्म अरु नय अरु प्रमाण आदि वस्तुको व्यास्थादिमें युग्मताको प्रत्ति है, अर्थात् धर्म मुनि श्रावक भेदत, नय द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक भेदते, प्रमाण प्रसत परोक्ष भेदत, वस्तु व्यवस्था स्वपर निपित्त भेदत, दोय दोय रूप वृत्तिका संधारणत युग्मंधर हुमा अरु श्रीरुद्द नाम राजात उत्पन्न हुवा ताकूनमस्कार करि पुष्पांजलि करि पूजू हूँ॥५४६ ॥
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पाठ
ओं ही युग्मंधरजिनायाम् । सुग्रीवराजोद्भवमेणचिन्हं सुसीमपुर्या विजयाप्रसूतं ।
बाहुं त्रिलोकोद्धरणाय बाहुं मखे पवित्रेऽर्चितमर्पयामि ॥५४७॥ • अरु सुग्रीव नाम राजातें उत्पन्न अरु हरिणका चिह्नयुक्त अरु सुसीमा नगरीमें विजयानाम रानीका पुत्र अरु तीन लोकका उद्धार करनेमें | वाहु समान ऐसा बाहु नामक तीर्थकरने इस पवित्र यज्ञमैं अर्चितकूअर्घ देवू हूँ॥५४७॥
ओं ही बाहुजिनाया। निःशल्यवंशाभ्रगभस्तिमंतं सुनंदया लालितमुगूकीर्ति ।
अबंध्यदेशाधिपतिं सुबाहुं तोयादिभिः पूजितुमुत्सहेऽहं ॥ ५४८॥ अरु निःशल्य वंशरूप आकाशमें सूर्य सपान, सुनंदामाता करि लडायो अरु प्रचंड कीर्तिधारी अरु प्रबंध्य नाम देशका स्वामी, ऐसा । सुबाहु नाम तीर्थकरकूजलादि द्रव्यनिकरि पूजिवेकू उत्साह करू ॥५४८॥
ओं ही सुबाहुजिनायाघम् । श्रीदेवसेनात्मजमर्यमांकं विदेहवर्षेप्यलकापुरिस्थं ।
संजातकं पुण्यजनुर्धरत्वात् साख्यिमर्चेऽत्रमखे जलायैः॥ ५९॥ श्रीमान देवसेनराजाका पुत्र अर सूर्यका चिह्नवारा विदेह क्षेत्रमें भी अलका पुरीको स्वामी अर पुण्य जन्मका धारणपनाते सार्थक नामका धारक ऐसा सजातक खामीनें जलादिक करि पूजू हूँ॥ ५४६॥
ओं ह्रीं संजातकजिनायाघम् । स्वयंकृतात्मप्रभवत्वहेतोः स्वयंप्रभुं सद्धृदयखभूतं । सन्मंगलापूःस्थमनुष्णकांतिचिन्हं यजामोऽत्र महोत्सवेषु ॥५५॥
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अपना ही किया प्रात्ममभाव हेतु स्वयंप्रभु कहिये स्वतंत्र प्रभु अर सत्पुरुषनका हृदयमें प्रगट अरु मंगला नगरीका पति अरु चंद्रपा है | प्रतिष्ठा || चिह्न जाके ऐसा स्वयंप्रभ तीर्थकरने दम इहां महोत्सवमें पूजे हैं॥५५०॥ १७८
ओं ही स्वयंप्रभजिनायाघम् । श्रीवीरसेनाप्रसवं सुसीमाधीशं सुराणामृषभाननं तं।
ईशं सुसौभाग्यभुवं महेशमचे विशालैश्चाभनवीनैः ॥ ५५१ ॥ श्रीमान् वीरसेना नामक मातात उत्पन्न अर सुसीमा नगरीका स्वामी अर देवनिमें ईश्वर अर सौभाग्यकी खानि ऐसा ऋषभानन नामक मद्देशने मैं नवीन पर विशाल नैवेद्यनिकरि अचू हूँ॥५५१॥
ओं ही ऋषभाननदेवायार्यम् । यस्यास्ति वीर्यस्य न पारमन्त्रे तारागणस्येव नितांतरम्यं ।
अनंतवीर्यप्रभुमर्चयित्वा कृतीभवाम्यत्र मखे पवित्रे ॥ ५५२॥ अर जाका पायको जैसे आकाशमें तारागणको पार नहीं है अर अतिशयकरि रमणीक ऐसा अनन्तवीर्य स्वामीने पूजिकरि इस पवित्र यज्ञमें कृतकृस होहूं ॥५५२ ॥
ओं ह्रीं अनंतवीर्यजिनायाम् । वृषांकमुच्चैश्चरणे विभाति यस्यापरस्ताद् वृषभूतिहेतुः।
सूरिप्रभु तं विधिना महामि वार्मुख्यतत्त्वैः शिवतत्त्वलब्ध्यै ॥ ५५३॥ जाका चरणमैं बैलका चिन्ह उच्च प्रकार शोभित है, अग्रकालको धर्मकी विभूतिको कारण असा मूरिमभ जिनेंद्रनें जलादि द्रव्यनि है करि मोक्ष तत्त्वकी पाप्यर्थ पूजू हूँ॥५५३ ॥
ओं ही मूरिमभजिनायाघम् ।
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वीर्येशभूमीरुहपुष्पमिंद्रसल्लांछनं पुंडरपृस्तिरीटं ।
विशालमीशं विजयाप्रसूतमर्चामि तद्ध्यानपरायणोऽहं ॥ ५५ ॥ वीर्य नाम राजाका पुत्र अरु द्रको है चिद जाकै अरु पुंडरीकिणी नगरीका मुकुट अरु विशाल ईश अर विजयायाताका पुत्र असा विशालप्रभ तीर्थ करनै ताका ध्यानमै तत्पर हुआ मैं पूजू हूँ॥५५४॥
__ओं ही विशालमभजिनायाघम् । सरस्वतीपद्मरथांगजातं शंखांकमुच्चैः श्रियमीशितारं ।
संमान्य तं वजधरं जिनेंद्रं जलाक्षतैरर्चितमुत्करोमि ॥ ५५५॥ बहुरि सरस्वती नाम राणी अरु पद्मरथ नामक राजाका पुत्र अरु शंखका है चिन्ह जाकै अरु उच्च लक्ष्मीका स्वामी असा वज्रधर जिनेंद्रने सन्मानकरि जल अक्षतनिकरि पूजित करू हूँ॥५५५॥
ओं हीं वज्रधरजिनायाघम् । वाल्मीकवंशांबुधिशीतरश्मि दयावतीमातृकमक्यगावं ।
सत्पुंडरीकिण्यवनं जिनेंद्र चंद्राननं पूजयताजलाद्यैः ॥ ५५६॥ वाल्पीकवंशरूपी समुद्रका वर्धनहेतु चंद्रमासमान अरु दयावती माताका पुत्र अरु गोका है अंक जाके अरु पुंडरीकिनी नगराका पालक, असा चंद्रानन जिनेंद्रने जलादिकरि पूजो॥५५६ ॥
ओं ही चंद्राननजिनायाघम् । श्रीरेणुकामातृकमजचिह्न देवेशमुस्पुत्रमुदारभाव । श्रीचंद्रबाहुं जिनमर्चयामि कृतुप्रयोगे विधिना प्रणम्य ॥ ५५७ ॥
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श्रीमती रेणुका है माता जाकी अरु कमलको है चिह्न जाके अरु उदारभाव युक्त सुंदर पुत्रवान् चंद्रबाहु देवेश जिने दुनैं नमस्कारकरि विधिव यज्ञका प्रयोगमें पूज़ हूं ।। ५५७ ।।
श्रीं हीं चंद्रबाहुजिनायार्घम् ।
भुजंगमं स्वीयभुजेन मोक्षपंथावरोहाद धृतनामकीर्तिम् ।
महाबलक्ष्मापतिपुत्रमर्चे चंद्रांकयुक्तं महिमाविशालं ॥ ५५८ ॥
अपना भुज पराक्रमकरि मोक्ष्यार्गका अवरोह धारण कियो सार्थक नाम जाने, अरु महाबल राजाको पुत्र, अरु चंद्रमाको है अंक जाके महिमावान भुजंगमनाथ तीर्थंकर नें पूज् हूं ॥ ५५८ ॥
ह्रीं भुजंगमजिनायार्घम् ।
ज्वालाप्रसूर्येन सुशांतिमाप्ता कृतार्थतां वा गलसेनभूपः ।
सोऽयं सुसीमापतिरीश्वरो मे बोधिं ददातु विजगद्विलासां ॥ ५५६ ॥
ज्वाला नाम माता याकरि शांतिने प्राप्त भई संती कृतार्थताने प्राप्त हुई अथवा गलसेन राजा कृतार्थ हुवो सो यो सुसीमा नगरीको स्वामी ईश्वर नामक तीर्थंकर तीन जगतमें विस्तीर्ण सी ज्ञान लक्ष्मीकू देवो ॥ ५५६ ॥
ओं ह्रीं ईश्वरजिनायार्धम् ।
नेमिप्रभं धर्मरथांगवाहे नेमिस्वरूपं तपनांकमीडे ।
वाश्चंदनैः शालिमप्रदीपैः धूपैः फलैश्चारुचरुप्रतानैः ॥ ५६० ॥
अरु धर्मरूप रथका चलावामें नेमिस्वरूप अरू सूर्यका चिह्नवान् भैसा नेमिप्रभ तीर्थंकरनें जल चंदन तंदुल पुष्प दीप धूप फलनिकरि अरु सुंदर नैवेद्यकरि पूजू हूं ॥ ५६० ॥
ह्रीं नेमिप्रभजिनायार्धम् ।
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प्रतिष्ठा
१८१
श्रीवीरसेनाप्रभवं प्रदुष्टकर्मारिसेनाकरिणे मृगेंद्रः।
यः पुंडरीशं जिनवीरसेनं सद्भुमिपालात्मजमर्चयामि ॥ ५६१ ॥ श्रीमती वीरसेनाते उत्पन्न अरु दुष्ट कमरूप वैरीकी सेनारूप हाथीवास्तै मृगेंद्र समान अरु पुंडरीक नगरीको स्वामी अरु समोचीन भूमिपाल राजाको पुत्र असा वीरसेन जिनेंद्रनै पूजू हूँ ॥५६॥
_ओं ही वीरसेनजिनायाघम् । यो देवराजक्षितिपालवंशदिवामणिः पूर्विजयेश्वरोऽभूत् ।
उमाप्रसूनो व्यवहारयुक्त्या श्रीमन्महाभद्र उदय॑तेऽसौ ॥ ५६२॥ जो देवराज राजाका वंशमें सूर्य समान अरु विजया नगरको स्वामी अरु उन नाय माताले उत्सन व्यबहार नरकरि अप्ता यो श्रीमान् महाभद्र मैं करि पूजिये है ॥ ५६२॥
___ों ह्रीं महाभद्रजिनायाघम् । गंगाखनिस्फारमणिं सुसीमापुरीश्वरं वै स्तवभूतिपुत्र ।
स्वस्तिप्रदं देवयशोजिनेंद्रमर्चामि सत्स्वस्तिकलांछनीयं ॥ ५६३ ॥ गंगानाम मातारूप खानिको स्फुरायमान रत्नरूप अरु सुप्सीपा नागीको ई वा ग्रह स्तवभूति राजाको पुत्र अरु कल्याण देनेवारो अरू समीचीन साथियाको चिढवारो असा देवयशा नामक जिनेंद्रने मैं हूँ ॥५६३ ।।
ओं ही देवयशोजिनायाघम् । कनकभूपतितोकमकोपकं कृततपश्चरणार्दितमोहकं ।
अजितवीर्यजिनं सरसीरुहविशदचिन्हमहं परिपूजये ॥ ५६४॥ कनक राजाका पुत्र अरु नहीं है कोप जाकै अरु तपश्चरण करि पोडित किया है मोह जानै अरु कपत्रका है निर्मल चिढ़ जाकै असा अजितवीर्य जिनेंद्रने मैं पूजू हूँ ॥५६४ ॥
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भतिष्ठा
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ओं ही अजितवीर्यजिनायाघम् । एवं पंचमकोष्ठपूजितजिनाः सर्वे विदेहोद्भवा
नित्यं ये स्थितिमादधुः प्रतिपतत्तन्नाममंत्रोत्तमाः। कस्मिंश्चित्समयेऽभ्रषट्विधुमितं पूर्ण जिनानां मतं
ते कुर्वतु शिवात्मलाभमनिशं पूर्णाघसंमानिताः ॥ ५६५ ॥ असे पंचम वलयमें पूजित जिन हैं ते सर्व हो विदेह क्षेत्रमें उत्पन्न हैं अह प्राप्त हुआ नाम सोही उत्तम मंत्ररूप पर कोई समयके विष अन कहिये शून्य, षट् कहिये छ अर विधु कहिये एक ऐसे १६० एक सौ साठि होय हैं अर नियकालकी अपेक्षा वीस हो स्थिति धारण करै हैं ऐसे ते शिवस्वरूप. निरंतर पूर्णार्घकरि मान्या हुवा करो॥५६५ ॥ ओं ह्रीं विवप्रतिष्ठाध्वरोधापने मुख्यपूजाहपंचमवलयोन्मुद्रितविदेहक्षेत्र सुषष्टिसहितकशतजिनेशसंयुक्तनित्यविहरमाण
विंशतिजिनेभ्यः पूर्णा ॥ ओं ही विवप्रतिष्ठाका उत्सव में पंचम वलयमें स्थापित विदेह क्षेत्रमें अवतार लेनेवाले जिनेंद्रनिको स्मरणकरि पूर्णाघ देना।
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अथ षष्ठवलयस्थापिताचार्यगुणपूजा। अब पष्ठ क्लयमें स्थापित प्राचार्य परमेष्ठीका छह त्रिंशत् गुण अपेक्षा अर्घ छत्तीस हैं सो ही कहिये है
मोहात्ययादाप्तदृशोः स पंचविंशातिचारत्यजनादवाप्तां ।
सम्यक्त्वशुद्धिं प्रतिरक्षतोऽर्चे प्राचार्यवर्यान् निजभावशुद्धान् ॥५६६ ॥ बहुरि मोहका नाशते प्राप्त भया सम्यग्दर्शनके पचीस अतीचारका त्यागते प्राप्त भई सम्पावकी शुदि ताहि रक्षा करनारे पर नि:- II प्रभावकरि शुद्ध असे प्राचार्य परमेष्ठीनि मैं पूजू हूँ॥५६६॥
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प्रतिष्ठा
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ओं ही दर्शनाचारसयुक्ताचार्य परमेष्टिभ्योऽर्घ । विपर्ययादिप्रहृतेः पदार्थज्ञानं समासाद्य परात्मनिष्ठं ।
दृढ़प्रतीतिं दधतो मुनींद्रानचे स्पृहाध्वंसनपूर्णहर्षान् ॥ ५६७॥ संशय विपर्यय अनध्यवसायका नाशतें आत्म अर परपदार्थमें स्थित असा पदार्थज्ञान. माप्त होय प्राप्तागप पदार्थनिको दृढ़ प्रतोतिBI ने धारते अर वांछाका अभावकरि पूर्णमुक्त असा आचार्य मुनींद्रने मैं पूजू हूँ॥५६७ ॥
ओं ही ज्ञानाचारसयुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽघ । आत्मस्वभावे स्थितिमादधानांश्चारित्रचारून
द्विधा चरित्रादचलत्वमाप्तानार्यान् यजे सद्गुणरत्नभूषान् ॥ ५६८॥ अर प्रात्मीक स्वभावमें तिष्ठनवारे अर चारित्रकरि सुदर महाव्रतके धारी पर दोय प्रकार चारित्र अवल अर सुंदर गुणके भूषण का असे आचार्यनै मैं पूजू हूं ॥५६८ ॥
ओं हो चारित्राचारसयुक्ताचार्यपरमेष्टिभ्योऽर्घम् । वाह्यांतरद्वैधतपोऽभियुक्तान् सुदर्शनाद्रिं हसतोऽचलत्वात् ।
गाढावरोहात्मसुखस्वभावान् यजामि भक्त्या मुनिसंघपूज्यान् ॥ ५६९ । अर वाब अर अभ्यंतर द्विपकार तपका योगमैं सुमेरु पर्वतनै अचलपणामै हराते अर अवगाढ सम्यक्त्वरूप सुखस्वभावका धारी असे मुनिसमूहमें पूज्य आचार्य परमेष्ठीकू मैं पूजू हूँ॥५६॥
ओं ही तपआचारसयुक्ताचायपरमेष्टिभ्योऽय। स्वात्मानुभावोद्भटवीर्यशक्तिदृढाभियोगावनतः प्रशक्तान् । परीषहापीडनदुष्टदोषागतौ स्ववीर्यप्रवणान् यजेऽहं ॥ ५७० ॥
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BASIROER:CAREGAORE
अपना पाल्पाका प्रभाव करि उद्भट जो वीय शक्ति ताका योगका रक्षणमैं सावधान अर परिषदनिके पापोडन पर दृष्ट कहिये खोटे प्राणी नर तिय च देव इनिका आगमनमें अपना पराक्रममें प्रवीण असे आचार्यनिनै मैं पूजू हूँ॥५७०॥
ओं ह्रीं वीर्याचारसयुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय। चतुर्विधाहारविमोचनेन द्विव्यादिघस्रेषु तृषाक्षुधादेः ।
अम्लानभावं दधतस्तपस्थानामि यज्ञे प्रवरावतारान् ॥ ५७१॥ खाद्य स्वाध लेख पेय च्यार प्रकार आहारका छोडवा करि दोय तीन चार पत पास आदि दिनमें तृवा तुधादिकत नहीं पसीनताकू काधारते अर तप तिष्ठते अर उत्कृष्ट जन्मयुक्त असे आचार्यनिन मैं पूजू हूँ॥५७१॥
ओं ही अनशनतपोयुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽय। विभागभोज्ये क्षितिवेदवनिगासाशने तुष्टिमतो मुनींद्वान् ।
ध्यानावधानाधभिवृद्धिपुष्टान् निद्रालसौ जतुमितान् यजामि ॥ ५७२॥ अर तीनभागमात्र भोजनमें भी एक च्यारि तीन आदि ग्रासमात्र भोजनमें अपना संतोष धारते पर ध्यानकी सावधानी आदिको वृद्धिकार पुष्ट अर निद्रा अर पालस्याजीतवेकू समर्थ असे मुनींद्र आचार्य तिनने में पूजू हूं ॥५७२ ॥
ओं ही अवयोदर्यतपोऽभियुक्ताचार्यपरमेष्टिभ्योऽर्घम् । शृंगागंलग्नं वसनं नवीनं रक्तं निरीक्ष्यैव भुजिं करिष्ये ।
इत्यादिवृत्तौ निरतानलक्ष्यभावान् मुनींद्रानहमर्चयामि ॥ ५७३॥ गौका श्रृंगामें लगा लाल वस्त्रन देखू तब भोजन करू इत्यादि अटपटी वृत्तिम प्रवीण अर अलक्षित है अभिनाय जिनका असा मुनींद्रनै मैं पूजू हूं ॥५७३ ॥
भों ही वृत्तिपरिसंख्यातपोभियुक्ताचायपरमेष्ठिभ्योऽर्घम् ।
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UNREGISREPOARD
मिष्टाज्यदुग्धादिरसापवृत्तः परस्य लक्ष्येऽप्यवभासनेन ।
त्यागे मुदं चेष्टितमत्ययोगाद् धर्तृन् गणेशाधिपतीन् यजामि॥१७॥ पिष्ट लवण दुग्ध घृत आदि रसका निस पलटावकरि वर्तनेते अरु परका लक्ष्यमें भी नहीं भासवनेत सागभागमें आनंद जो है वारि चेष्टा करि भी नहीं जतावनेतें धारण करते असा आचार्यनिनें पूजू हूँ॥५७४॥
ओं ही रसपरित्यागतपोऽभियुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽयं । दरीषु भूधोपरिषु श्मशाने दुर्गे स्थले शून्यगृहावलीषु ।
शय्यासने योग्यदृढासनेन संधार्यमाणान् परिपूजयामि ॥ ५७५॥ अर पर्वतनिके दराडनिमें तथा पर्वतका मस्तकनिमें तथा श्मशानमैं तथा अन्य विकटस्थलमैं तथा शून्य गृहपंक्तिमें योग्य गाढा आसन करि शय्या प्रासन जो है तिनने धारण करते आचार्य परमेष्ठीनिने मैं पूज़ हूँ॥५७५॥
नों ही विविक्तशय्यासनतपोभियुक्ताचायपरमेष्ठिनेऽयं । ग्रीष्मे महीधे सरितां तटेषु शरत्सु वर्षासु चतुष्पथेषु ।
योगं दधानान् तनुकष्टदाने प्रीतान् मुनींद्रान् चरुभिः पृणामि ॥१७६ ॥ ग्रीष्मऋतुमे पर्वतनिका उपरिम भागमें अर शरत कालमें नदोनका तटमें अरु वर्षामें चौहटा योगर्ने धारण करता असे शरीरका कष्टका देनेमें प्रसन्न मुनींद्र आचार्यनिन नवेद्यनि करि तर्पण करू हूँ॥५७६ ॥
ओं ही कायले शतपोभियुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽयं । संभाव्य दोषानुनयं गुरुभ्य आलोचनापूर्वमहर्निशं ये। तच्छुद्धिमात्रे निपुणा यतीशा संवर्घदानेन मुदंचितारः॥५७७॥
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दोष लाग्या होय ताके समान ही यथावत् मालोचना पूर्व गुरुनते संभावना करिक रात्रि दिन जे वां दोपाकी यदि करे हैं वे पतीश || प्राचार्य अर्घका देवा करि मेरे अथि प्रसाब होहु ॥ ५७७॥
____ों ही प्रायश्चित्ततपोऽभियुक्ताचार्यपरमेष्टिभ्योऽयं । सदर्शनज्ञानचरितरूपप्रभेदतश्वात्मगुणेषु पंच
पूज्येष्वशल्यं विनयं दधानाः मां पातु यज्ञेऽर्चनया पटिष्ठाः ॥ ५७८ ॥ दर्शन ज्ञान चारित्र प्ररूपित भेदतें आत्म गुणनिविष पंचपरमेष्ठोनिमें निःकपट विनय धारते अर प्रवीण भाचार्य हैं ते इस यहमें पूजनक्रिया करि मोनै रक्षा करो।५७८॥
____ों ही बिनयतपोऽभियुक्ताचायपरमेष्ठिनेऽर्यम् । दिसंख्यसंघे खलु वातपित्तकफादिरोगकुमजातिसंधौ।
दयार्द्रचित्तान्मुनियेगितज्ञांस्तदुःखहंतृनहमाश्रयामि ॥ ५७६ ॥ दश प्रकार संघमें आचार्य उपाध्याय तपस्वी शक्ष्य म्लालादि मुनीनमें वात पित्त कफ आदिरोग तथा खेदसे उत्पन्न पोडाका संबंधने होता संता दया करि भीने हे चित्त जिनका अरु मुनीका मनोनिवासी दुःखने जाननेवारे अर तिनका यथोपचार दुःखने दूरि करवेवारे प्राचार्य परमेष्ठीने में आश्रय करू हूँ॥५७६ ॥
___ओं ही वैयावृत्त्यतपोभियुक्ताचार्यपरपेष्ठिनेऽघ। श्रुतस्य बोधं खपरार्थयोर्वा स्वाध्याययोगादवभासमानान् ।
आम्नायपृच्छादिषु दत्तचित्तान् संपूजयामोऽर्घविधानमुख्यैः ॥ ५८०॥ शास्त्रका अर्थकू आप वा परके अर्थि स्वाध्यायका योगते प्रकाशमान करते अर आम्नाय प्रश्न आदिमें दियो है चित्त जिनने, असे भाचार्यनिनै हम अर्घ आदि विधान करि पूजै हैं॥५८०॥
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ओं ही स्वाध्यायतपोभियुक्ताचार्यपरमेष्ठिनेऽर्घम् । विनश्वरे देहकृते ममत्वत्यागेन कायोत्सृजतोपि पद्मा
सनादियोगानवधार्य चात्मसंपत्सु संस्थानहमंचयामि ॥ ५८१॥ देहकृत विनश्वर भावमें ममताका सागते कायाका छोडवावारे भी पद्मासन आदि योगर्ने अवधारित करि प्रात्मखरूप संपदा तिष्ठने वारे आचायनिन मैं पूजू हूँ॥५१॥
प्रों ही व्युत्सर्गतपोऽभियुक्ताचार्यपरमेष्टिनेऽयं । येषां मनोऽहर्निशमार्तगैद्रभूमेरनंगीकरणाद्धि धये ।
शुक्लोपकंठे परिवर्त्तमानं तानाश्रये विंबविधानयज्ञे ॥५८२॥ अर जिनको मन रात्रिदिन आत्त ध्यान तथा रौद्रध्यानरूप भूमिकाका नहीं अंगोकार करनेते धर्म्यध्यान तथा शुक्लध्यानका दोन्यू पाद वत है तिन प्राचार्यनि. विंबप्रतिष्ठाका यज्ञमें प्राश्रय करू हूँ॥५२॥
_ों ही ध्यानावल वननिरताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽर्घम् । येषां भ्रवः क्षेपणमाततोऽपि शक्रस्य शकत्वविघातनं स्यात् ।
एवंविधा अप्युदितकुधार्ती क्षमां भजते ननु तान् महामि ॥ ५८३ ॥ बहुरि जिनका भंवराका पटकवा मात्र ही इंद्रका इंद्रपणा बिगड़ जाय ऐसे शक्तिसंपन्न भी प्राप्त भई क्रोधरूप आर्वि मैं क्षमाभार हैं तिनने मैं पूजू हं।
नों ही उत्तपक्षमापरमधर्मधारकाचार्यपरमेष्ठिनध्य । न जातिलाभैश्यविदंगरूपमदाः कदाचिजननं प्रयांति। येषां मृदिम्ना गुरुणाईचित्तास्ते दद्युरीशाः स्तवनाच्छिवं मे ॥ ५८४॥
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प्रतिष्ठा १८८
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जिनके जातिलाभ ऐश्वर्य विद्या शरीर रूप आदिका मद कदाचित् भी उत्पन्न नहीं होय है अर बहुत सदुभावने श्राले हैं चित्त जिनके ते ईश समर्थ आचार्य हैं ते स्तवनतें कल्याण मेरे अर्थि देवो ॥ ५८४ ॥
नहीं उत्तममार्दवधर्मधुरंधराचार्य परमेष्ठिनेऽर्यं ।
सर्वव निश्छद्मदशासु वल्लीप्रतानमारोहति चित्तभूमौ । तपोयमोद्भूतफलैरबंध्या शाम्यांबुसिक्ता तु नमोऽस्तु तेभ्यः ॥ ५८५ ॥
सर्वत्र अवस्थामै धर्म रूपी बेल निःकपट दशामै चित्तरूप भूमिमै विस्तारने प्राप्त होय है अरु तप संयमतें उत्पन्न स्वर्गमोचफलनिकरि बंध्य कहिये सफल अरु शमभावरूपी जलकारि सीची गई तिन आचार्य निके अर्थ नमस्कार होहु ॥ ५८५ ॥ ह्रीं उत्तमार्जवधर्मपरिपुष्टाचार्य परमेष्ठिनेऽर्घम् ।
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भाषा समित्या भयलोभमोह मूलं कषत्वादनुभूतया च ।
हितं मितं भाषयतां मुनीनां पादारविंदद्वयमर्चयामि ॥ ५८६ ॥
अरु भय लोभ मोहका मूल विघाततैं अनुभव प्राप्त भई भाषासमिति करि हित मित भाषण करनेवारे मुनीनका चरणाविंदका द्वय मंजू हूं ॥ ५८६ ॥
ह्रीं उत्तमससधर्मप्रतिष्ठिताचार्यपरमेष्ठिनेऽर्घम् ।
न लोभरक्षोऽभ्युदयो न तृष्णागृद्धी पिशाच्यौ सविधं सदेतः ।
तस्मात् शुचित्वात्मविभा चकास्ति येषां तु पादस्थलमर्चयेऽहं ॥ ५८७ ॥
रु जिनके लोभरूपी राक्षसको उदय नहीं है, श्ररु सदा तृष्णा अर गृद्धिरूपी पिशाची समीप नहीं प्राप्त होय है ता शुचित्वपणाकी श्रात्मकांति शोभित होय है तिनका पादस्थलन मैं पूजू हूं ॥ ५८७ ॥
ह्रीं उत्तमशौचत्रधारकाचार्य परमेष्ठिनेऽर्धम् ।
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प्रतिष्ठा
१८६
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मनोवचःकायभिदानुमोदादिभंगतश्चेंद्रियजंतुरक्षा।
वर्वति सत्संयमबुद्धिधीरास्तेषां सपर्याविधिमाचरामि ॥ ५८८॥ ___ अर जिनके मन वचन कायाका भेदतें तथा अनुमोदनादि भंगते इंद्रियरक्षा अरु प्राणिरक्षा वत है अरु समीचीन संयम बुदिनै धोर हैं | तिनकी पूजाकी विधिने मैं आचरू हूँ॥५ ॥
___ओं ही उत्तमद्विविधसंयमपात्राचार्य परमेष्ठिनेऽर्घम् । तपोविभूषा हृदयं बिभर्ति येषां महाघोरतपोगुणाय्याः।
इंद्रादिधैर्यच्यवनं स्वतस्त्यं तया युता एव शिवैषिणः स्युः ॥ ५८६ ॥ अरु जिनकै तपरूपी भूषण है सो हृदयनै पुष्टकर है पर जे महान घोर तप गुणमें अग्रगण्य हैं, अर जिनके तपविभूषणकरि इंद्रादिके धैर्यच्युति खते ही होय ताकरि युक्त आचार्य ही मोक्ष मार्गके अभिलाषी होय हैं ॥ ५८६॥
___ओं ही उत्तमतपोऽतिशयधर्मसंयुक्ताचार्यपरमेष्ठिनेऽर्घम् । समस्तजंतुष्वभयं परार्थसंपत्करी ज्ञानसुदत्तिरिष्टा ।
धर्मौषधीशा अपि ते मुनीशास्त्यागेश्वरा द्रांतु मनोमलानि ॥ ५६०॥ अरु समस्त प्राणीमात्रमें अभयदान है, अरु ज्ञानदान भी परका अथि संपत्ति करनेवारा होय है, अरु धर्म रूप औषधका स्वामी ऐसे प्राचार्य हैं ते त्यागभावनाके स्वामी मेरा मनका मलकूदरिकरो॥५६॥
ओं हों उत्तमत्यागधर्मप्रवीणाचार्यपरमेष्टिनेऽर्घम् । आत्मस्वभावादपरे पदार्था न मेऽथवाऽहं न परस्य बुद्धिः। येषामिति प्राणयति प्रमाणं तेषां पदार्ची करवाणि नित्यं ॥ १९१ ॥
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अरमात्मगुणत अन्य पदार्थ हैं ते मेरे नाही अथवा मैं उनका नाहीं, ऐसी बुद्धि जिनकी प्रयाणनै प्रतीति करैं है तिनका चरणारविंदकी पूजा मैं करूह ॥५१॥
भों ही उत्तपाकिचन्यधर्मसंयुक्ताचार्यपरमेष्ठिनेऽर्यम् । रंभोवशी यन्मनसोविकारं कर्तुं न शक्ताऽत्मगुणानुभावान् ।
शीलेशतामादधुरुत्तमार्थी यजामि तानार्यवरान् मुनींद्रान् ॥ १२॥ अर रंभा तथा उर्वशी देवनिकी नृत्यकारिणी जिनका मनका विकार करने आत्मगुणका प्रभावते सपर्य नाहीं है ते शीलका ला स्वामीपणाने धारण करे हैं तिन उत्तमार्य प्राचार्य मुनींद्रने मैं पूजू हूँ॥५२॥
__ओं ही उत्तमब्रह्मचर्यपहानुभावधर्ममहनीयाचार्यपरमेष्ठिनेऽर्घम् । संरोधनान्मानसभंगवृत्तः विकल्पसंकल्पपरिक्षयाच्च ।
शुद्धोपयोगं भजतां मुनीनां गुप्तिं प्रशंस्यात यजामहे तान् ॥ ५९३ ॥ मनसंबंधी विभंगवृत्तिका संरोधनकरि संकल्प विकल्पका क्षयते शुद्धोपयोगने भजनेवारे मुनीनिकी मनोगुप्तिकी प्रशंसा करि तिनि प्राचार्यनिनै मैं पूज हूं ॥५॥
ओं ही मनोगुप्तिसपन्नाचार्यपरयेष्ठिनेऽर्घम् । धर्मोपदेशात्तदृते कथाया भाषणात् संभ्रमतादिदोषैः ।
वियोजनाद् ध्यानसुधैकपानाद् गुप्तिं वचोगामटितान् यजामि ॥ ५६५॥ धर्मोपदेश विना अन्य कथामात्रका अभाषणर्ते तथा भ्रमादिता आदि दोषनिकरि वियुक्त होनेते ध्यानरूपी अमृतपानका होवात वचन गुप्तिने प्राप्त भये तिने में पूज हूँ॥५६॥
, ओं ही वचनगुप्तिधारकाचायपरपेष्ठिनेऽर्य
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प्रतिष्ठा
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वन्याः समिद्भीरचितां दृषत्सूत्कीर्णामिवांगप्रतिमां निरीक्ष्य ।।
कडूतिनांगानि लिहंति येषां धाराप्रमर्पण यजामि सम्यक् ॥ ५६५॥ वनमें भये पशु हरिणादिक जे हैं ते काष्ठकरि रचित तथा पाषाणमैं उकीरी ही है ऐसी जिनकी पद्मासनादि प्रतिमानै देखि खुजावने | सहित अंगनिकूचाट हैं, तिन आचायनिकी अग्रभूमिनै मैं भय करि पूजू हूँ॥५५॥
भों ही कायगुप्तिसंयुक्ताचार्यपरमेष्ठिनेऽर्घम् । सामायिक जाहति नोपदिष्टं त्रिकालजातं ननु सर्वकाले ।
रागक्रुधोर्मूलनिवारणेन यजामि चावश्यककर्मधातून् ॥ ५६६ ॥ जो गरु परपरा उपदिष्ट सामायिक पाठनै त्रिकाल सर्वकालमैं नहीं छोडे है। अरु रागद्वेषको मूलका निवारण पूर्वक प्रावश्यक कर्मने धारण करते आचानिने मैं पूजू हूं ॥५६॥
ओं ही सामायिकावश्यककर्यवारिभ्य प्राचार्यपरमेष्टिभ्योऽयम् । सिद्धश्रुतिं देवगुरुश्रुतानां स्मृति विधायापि परोक्षजातं ।
सबंदनं नित्यमपार्थहानं कुर्वति तेषां चरणौ यजामि ॥५९७॥ अरु सिद्धनिको स्मरण तथा देव गुरु शास्त्रनिको स्मरण करिके परोक्ष बंदना नित्य करै है गुणसयुक्त तिनका चरणनिने मैं पूजू ॥५७॥
ओं ही बंदनावश्यकनिरताचायपरयेष्टिभ्योऽय।। तेषां गुणानां स्तवनं मुनींद्रा वचोभिरुधूतमनोमलांकैः । कुर्वति चावश्यकमेव यस्मात् पुष्पांजलिं तत्पुरतः क्षिपामि ॥ ५९८॥
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मुनींद्र हैं ते तिन सिद्धदेवादिकनिका गुणांकी स्तुति निर्मल वचननिकरि करै हैं, ता आवश्यकनै धारै हैं तिनके अग्र पुष्पांजलिनै मैं ते
प्रतिष्ठा
SAGARALSORICAL
___ों ही स्तवनावश्यकसयुक्ताचार्यपरमेष्टिभ्योऽयम् । मलोत्सृजादौ वचनाप्तदोषं प्रतिक्रमेणापनुदंति वृद्धं ।
साधु समुद्दिश्य निशादिवीयदोषान् जहत्यर्चनया धिनामि ॥ ५९९ ॥ मलेत्सर्गादिकमैं कोई समय प्राप्त भया दोषने पतिक्रमण करि दुरि करै हैं, अर वृद्ध साधुनै उद्देश करि रात्रि दिन संबंधी दोषने त्यागे हैं तिनकू पूजन विधि करि प्रसन्न करू हूं ॥५६॥
___ओं ही प्रतिक्रमणावश्यकनिरताचार्य परयेष्टिभ्योऽर्घम् । स्वो नाम चात्माऽध्ययते यदर्थः स्वाध्याययुक्तो निजभानुबुद्धः ।
श्रुतस्य चिंताऽपि तदर्थबुद्धिस्तामाश्रये स्वाभिमतार्थसिद्धयै ।। ६०० ॥ स्व नाम आत्माका है सो ध्याइये जामें सोखाध्याय है ऐसा निजज्ञान बुद्ध सर्वज्ञनै निरुक्त किया है, अर शास्त्रका चितवन भी ताके अर्थि है या स्वाध्यायबुद्दिवारनिनै अपना हितकी सिद्धिके अर्थिं प्राश्रय करू हूँ ॥६००॥
ओं ही स्वाध्यायावश्यककर्मनिरताचार्य परमेष्टिभ्योऽर्घम् । भुजप्रलंबादिविधिज्ञतायाः पौरस्त्यमाप्याधिगमं वहंतः ।
व्युत्सर्गमात्रा वशिनः कृतार्था अस्मिन् मखे यांतु विधिज्ञपूजां ॥६०१॥ भुजप्रलंबन आदि विधिका जाननका अग्रेसरतानै प्राप्त होय ज्ञाननै धारते अरु कायोत्सर्गपात्रके वशीभूत अरु कृतार्थ ऐसे भाचार्य इस यज्ञमैं विधिज्ञ पूजानै प्राप्त होउ ॥६०१॥
ओं ह्रीं व्युत्सर्गावश्यकनिस्ताचार्यपरमेष्टिभ्योऽयम् ।
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प्रतिष्ठा
१६३
गुणोद्देशादेषा प्रणिधिवशतोऽनंतगुणिनां
___कृता ह्याचार्याणामपचितिरियं भावबहुला । समस्तान् संस्मृत्य श्रमणमुकुटानर्घमलघु
प्रपूर्त संदृब्धं मम मखविधि पूरयतु वै ॥६०२ ।। सर्व गुणनिका उद्देश अरु अध्यवसायके वशते या अनंत गुणयुक्त आचार्यनिकी किई पूजा है सो बहुभाव संयुक्त हुई सती समस्त मुनिनिमै मुकुट समान आचार्यनि स्मरण करि यो परिपूर्ण अघ रच्यो संतो मेरा यज्ञकी विधिनै पूर्ण करो॥६०२॥
ओं ह्रीं अस्मिन् प्रतिष्ठोद्यापने पूजाहमुख्यषष्ठवलयोन्मुद्रित आचार्यपरमेष्ठिभ्यस्तदगुणेभ्यश्च पूर्णाम् । ओं ह्रीं ऐस प्रतिष्ठाके उत्सवमै छट्ठा वलयमें स्थापित आचार्य परमेष्ठीकूअर उनके गुण अर्घ देना।
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अथ सप्तमवलयस्थापितोपाध्यायगुणपूजाप्रारंभः ।
कोष्ठाः पंचविंशतिः २५ । तथाहिअब सप्तम वलयमें स्थापित उपाध्याय परमेष्ठी तिनका श्रुताश्रित अर्घ २५ पच्चीस है सो ऐसे
श्राचारांगं प्रथमं सागारमुनीशचरणभेदकथं ।
अष्टादशसहस्रपदं यजामि सर्वोपकारसिद्धयर्थं ॥ ६०३ ॥ प्रथम श्रावकनिका आचरणका भेदन कहनेवारो अरु अट ठारह हजार पदयुक्त आचारांगने सर्व उपकारको सिद्धि अर्थ मैं पूज ह ॥६॥
ओं ह्रीं अष्टादशसहस्रपदकाचारांगाय अर्घम् । सूतकृतांगं द्वितयं षट्त्रिंशत्सहस्रपदकृतमहितं ।
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प्रतिष्ठा
पाठ
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स्वपरसमयविधानं पाठकपठितं यजामि पूजाहं ॥ ६० ।। तीस हजार पदमंयुक्त अरु स्वसमय परसमयका भेदवारा उपाध्यायनि करि पठित अरु पूजाके योग्य ऐसा दूसरा सूत्रकृत नाम अंग जो है ताहि मैं पूजू हूं ॥६०४॥
ओं हों षटत्रिंशत्सहस्रपदसंयुक्तसूत्रकृतांगायाघम् । स्थानांगं द्विकचत्वारिंशत्पदकं पडर्थदशसरणेः ।
एकादिसुभेदयुजः कथक परिपूजये वसुभिः ॥ ६.५ ॥ वियालीस हजार पदयुक्त छ पदार्थनिका एकादि भेद संयुक्त दशमार्गका कहनेवारा स्थानांगर्न अष्ट द्रव्यनिकरि पुज हूँ॥६०५॥
___ों ही द्विचत्वारिंशतपदसंयुक्तस्थानांगायाघम् । समवायांगं लक्षकं चतुरितषष्टीसहस्रपदविशदं ।
द्रव्यादिचतुष्टयेन तु साम्योक्तिर्यत्र पूजये विधिना ॥ ६०६॥ एक लाख चौसठ हजार पद करि विशद अरु जामै द्रव्य क्षेत्र काल भावनिकरि साम्यता बताई असा समवायांगनै मैं पूज़ हूँ ॥६०६॥
ओं ह्रीं एकलक्षपष्टिसहस्रपदन्यासाय समवायांगायार्घम् । व्याख्याप्रज्ञप्त्यंग द्विलक्षसहिताष्टविंशतिसहस्रपदं ।
गणधरकृतषष्टिसहस्रप्रश्नोक्तिर्यत पूज्यते महसा ॥ ६०७॥ ___ अरु दोय लाख अट्ठाईस हजार पदयुक्त अरु गणधरका किया साठि हजार प्रश्नकी है कथा जामै ऐसा व्याख्यामज्ञप्ति नाम अंगर्ने दि बड़ा उत्सवकरि पूजू हूँ ॥६०७॥
ओं ही द्विलक्षाष्टविंशतिसहस्रपदरंजिताय व्याख्याप्रज्ञप्तयेऽर्थे। ज्ञातृधर्मकथांगं शरलक्षसषट्कपंचाशत् ।
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पाठ
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पदमहितं वृषचर्चाप्रश्नोत्तरपूजितं महये ॥ ६०८ ॥ अरु पांच लक्ष छप्पन हजार पदसहित धर्मचर्चा प्रश्नोत्तर युक्त ज्ञातृधर्मकथा नाय अंगने पूजू हूँ॥६०८॥
___ओं ही पंचलक्षषट्पंचाशतसहस्रपदसंगताय ज्ञातृधमकथांगाया। उपासकपाठकशिवलक्षससप्ततिसहस्रपदभंगं । (?)
व्रतशीलाधानादिक्रियाप्रवीण यजामि सलिलाद्यैः॥६.९॥ अर ग्यारह लाख सतत्तर हजार पदयुक्त अरु व्रत शील आधानादि क्रियाका है प्रवीणपणा जाम ऐसा उपासकाध्ययनांगनं मैं जलादि द्रव्यनिकरि पूजू हूँ॥६०६॥
- ओं ह्रीं एकादशलक्षसप्ततिसहस्रपदशोभितोपासकाध्ययनाया। अंतकृदंगं दश दश साधुजनोपसर्गकथकमधितीर्थम् ।
तेषां निःश्रेयसलंभनमपि गणधरपठितं यजामि मुदा ॥ ६१० ॥ ___ अर दश दश मुनिनिकों एक एक तीर्थकर समयमै घोर उपसर्ग होय तिनकू निर्वाणका लंभन कहिये पाप्ति होती है ऐसा गणधरपठित | अंतकृदशांग नामकू प्रयोदकरि पूजू हूँ॥६१०॥
ओं ह्रीं अंतकृद्दशांगायाघम् । उपपादानुत्तरकं द्विचत्वारिंशल्लक्षसहस्रपदं । (?)
विजयादिषु नियमेन मुनिगतिकथकं यजामि महनीयं ॥ ६११॥ अरु दोय लाख केई हजार (1) पदसंयुक्त अरु दशमुनिही घोरोपसर्ग सहि विजयादि विमाननिमैं उपजें हैं तिनकू कहनेमैं तत्पर ऐसा पूज्य उपपादांगर्ने मैं पूजू हूं ॥११॥
ओं ह्रीं अनुत्तरोपपादिकांगायाघम् ।
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प्रतिष्ठा
प्रश्नव्याकरणांगं त्रिणवतिलक्षाधिषोडशसहस्रपदं ।
नष्टोदिष्टं सुखलाभगतिभाविकथं पूजये चरुफलाद्यैः ॥ ६१२ ॥ तिराणवे लाख सोलह हजार पदसंयुक्त अरु नष्ट उद्दिष्टादि सुख दुःखादिका है प्रश्न जामैं ऐसा प्रश्नव्याकरण अंगन नैवेद्य फलादिक करि पूज़ हूँ॥६१२॥
ओं ही प्रश्नव्याकरणांगायाघम् । अंगं विपाकसूत्र कोट्येकचतुरशीतिसहस्रपदं ।
कर्मोदयसत्त्वानानोदीर्णादिकथं यजनभागतोऽर्चामि (?)॥६१३॥ एक कोटि चौरासी हजार पदयुक्त अरु कर्मनिका उदय उदीर्णादिककी कथासहित विपाकसूत्र नाम अंगन यज्ञ भागकरि मैं पूजू
ओं ह्रीं विपाकसूत्रांगायाघम् । · उत्पादपूर्वकोटीपदपद्धतिजीवमुखषट्कं ।
निजनिजस्वभावघटितं कथयत्नांचामि भक्तिभरः॥ ६.४ ॥ अरु कोटिपदकी पद्धति मुख्य जीवादिषट् निज निज स्वभावघटित उत्पादपूर्व अंगनै भक्तियुक्त मैं पूजू हूँ॥६१४ ॥
ओं ह्रीं उत्पादपूर्वा गायाघम् । अग्रायणीयपूर्वषण्णवतिकोटिपदं तु यत्र तत्त्वकथा ।
सुनयदुर्णयतत्वप्रामाण्यप्ररूपकं प्रयजे ॥ ६१५॥ अरु छिन कोटि पदस्युक्त अरु जहां सुनय दुर्नय अरु प्रमाण आदिकी कथा है सो अग्रायणीयपूर्व अंगनै मैं पूजू हूँ ॥ ६१५॥
ओं ह्रीं अग्रायणीयपूर्वा गायाघम् ।
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प्रतिष्ठा
१६७
वीर्यानुवादमधिसततिलक्षपादं द्रव्यस्वतत्त्वगुणपर्ययवावमयं ।
तत्तत्स्वभावगतिवीर्यविधानदक्षं संपूजये निजगुणाप्रतिपत्तिहेतोः ॥ ६१६ ॥ अरु सत्तर लाख पदसंयुक्त अरु द्रव्यका गुण पर्यायका कथनवारो अरु सार्थक अरु ताका स्वभाव गतिवीर्यका विधानमै प्रवीण ऐसा वीर्यानुवादपूवनै निज गुणको प्राप्तिके अर्थि मैं पूजू हूँ॥६६॥
____ओं ही वीर्यानुवादांगायाघम्। नास्त्यस्तिवादमधिषष्टिसुलक्षपादं सप्तोद्धभंगरचनाप्रतिपत्तिमूलं ।
स्याद्वादनीतिभिरुदस्तविरोधमात्रं संपूजये जिनमतप्रसवैकहेतुम् ॥ ६१७ ॥ अरु साठ लक्ष पदयुक्त अरु सात प्रकार श्लाघ्य भंगनिको रचनाकी प्राप्तिका मूलभूत अरु स्याद्वाद नयनिकरि दूर किया है विरोधमात्र जामै अरु जिनमतका प्रकारका अद्वितीय कारण ऐसा अस्तिनास्तिप्रवादपूर्वनै मैं संपूजित करु हूँ॥१७॥
ओं ह्रीं अस्तिनास्तिप्रवादांगायाघम् । ज्ञानप्रवादमभिकोटिपदं तु हीनमेकेन वाणमितभानविवर्णनांक ।
कुज्ञानरूपतिमिरौघहरं समर्चे यत्पाठकैः क्षणमिते समये विचार्यम् ।। ६१८ ॥ एक घाटि कोटि पदवारा अरु पांच प्रकार ज्ञानका निरूपणका चिद अरु कुज्ञानरूपो तिमिर समूहनै हरनेवारा जो उपाध्याय स्वामी है तिनिनै क्षणमात्र कालमै विचारनेके योग्य ऐसा ज्ञानभवादने मैं पूजू हूँ॥१८॥
ों ही ज्ञानमवादांगायाघम् । . सत्यप्रवादमधिकं रसपादजातैः कोटीपदं निखिलसत्यविचारदक्षं । श्रोतृप्रवक्तृगुणभेदकथापि यत्र तं पूर्वमुख्यमभिवादय उक्तमवैः ॥ ६१६ ॥
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पाठ
अरु छ लक्षपद जात युक्त अरु समस्त सत्यका भेदका विचारमें निपुण अरु जहां श्रोता वक्ताका गुणनिको कथा है ऐसा सस प्रवाद भतिष्ठा || अंगनै आर्ष मंत्रनिकरि अभिवादन करू हूँ कि स्तुति करू हूं ॥१६॥ १९८
ओं ह्रीं सत्यपवादायार्घम् । श्रात्मप्रवादरसविंशतिकोटिपादान् जीवस्य कर्तृगुणभोक्तृगुणादिवादान् ।
शुद्धतरप्रणयतत्कथनं तु येषु बंदामहे तदभिलाप्यगुणप्रवृत्त्यै ॥ ६२०॥ आत्मपवादके छव्वीस कोटिपद जे हैं तिननै अरु ते जीवका कतृ गुण भोक्तृगुण आदिका कथन करनेवारे हैं अरु जिनमें शुद्धनय और व्यवहारनयाश्रित कथन है तिनकूहम तामै कहे गुणनिकी प्रवृत्त्यर्थ पूज हैं। ६२०॥
ओं ह्रीं आत्मप्रवादायार्घम् । कर्मप्रवादसमये विधुसंख्यकोटीसंख्यानशीतिलयुतान् वसुकर्मणां च ।
सत्त्वापकर्षणनिधत्तिमुखानुवादे पद्यान् स्थितानमितपूजनया धिनोमि ॥२१॥ एक कोटि अस्सीलाख पदसंयुक्त अरु अष्ट प्रकार कर्मनिके सत्त्व अपकर्षण निधत्ति आदि कथनमें स्थित कर्मभवाद श्रुतनै संपूर्ण पूजन | करि प्रसन्न करू हूँ॥६२१॥
ओं हो कर्मप्रवादायार्यम्। प्रत्याहृतेश्चतुरशीतिसुलक्षपद्यान् निक्षेपसंस्थितिविधानकथप्रसिद्धान् ।
न्यासप्रमाणनयलक्षणसंयुजोऽर्चे यागार्चने श्रुतधरस्तवनोपयुक्तान् ॥ ६२२ ॥ प्रत्याहार पूर्वका चौरासी लाख पदनिने निक्षेपका संस्थान विधान आदि कथामै प्रसिद्धनिनै अरु न्यास प्रमाण और नयनिका लक्षक णकू योजनवारे अरु श्रुतके पारगामीनिका स्तवनमें उपयुक्त जो है तिनने इस यागमंडलमें मैं पूजू हूँ॥२२॥
ओं ह्रीं प्रत्याहारपूर्वाया।
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प्रतिष्ठा
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विद्यानुवादभुवि चंद्रसुकोटिकाष्ठालक्षाः पदा यदधिमंत्रविधिप्रकारः ।
संरोहिणीप्रभृतिदीर्घविदां प्रसंगस्तं पूजये गुरुमुखांबुजकोशजातं ।। ६२३ ॥ अरु विद्यानुवाद रूप भूमीमैं एक कोटि दशलक्ष पद हैं अह जामै सर्वमंत्रनिका प्रकार है अरु रोहिणी आदि महाविद्यानका सिद्धि होनेका प्रसंग है ऐसा गुरुमुखकमलकर्णिकासे है उत्पत्ति जाकी ताकू मैं पूजू हूँ॥६२३ ॥
ओं ह्रीं विद्यानुवादपूर्वायाघम् । कल्याणवादमननश्रुतमंगमुख्यं षड्विंशतिप्रमितकोटिपदं समर्चे ।
यत्रास्ति तीर्थकरकामबलविखंडिजन्मोत्सवाप्तिविधिरुत्तमभावना च ॥ ६२४ ॥ अरु कल्याणवादका मननरूप श्रुत है सो अंगनिमें मुख्य है अरु छ्व्वीस कोटिपदयुक्त अरु जहां तीर्थंकर कामदेव बलदेव नारायणनिका जन्म उत्सव आदि उपजनेका वृत्त तप विधान अरु भावना-वर्णन है ताकू मैं पूजू हूँ॥६२४॥
_ओं ह्रीं कल्याणवादपूर्वायाघम् । प्राणप्रवादमभिवादयतां नराणां विश्वप्रमाणमितकोटिपदाभियुक्तं ।
काऽऽर्तिभवेन्निरयघोरभवस्य चायुर्वेदादिसुस्वरभृतं परिपूजयामि ।। ६२५ ॥ आयुर्वेद ज्यों वैद्यक तथा स्वरनिका वाम दक्षिण वाहनमैं शुभाशुभका कथनयुक्त अरु चौदह कोटिपद वारो ऐसो प्राणवाद अंगन । पूजन करते मनुष्यनिके नरकादि घोर दुःखनिकी कहा पीडा होय ? यातें मैं पूजू हूं ॥६२५॥
ओं हो प्राणप्रवादपूर्वायाम् । क्रियाविशालं नवकोटिपधैर्युक्तं सुसंगीतकलाविशिष्टं । छंदोगणाद्याननुभावयतमध्यापकानन विधौ यजामि ॥ ३२६ ॥
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अरु नवकोटि पदनिकरि युक्त व्यरु संगीत कलाकरि विशिष्ट अरु छंदगण आदिने प्रकाश करतो क्रियाविशाल अंगने तथा अध्यापक परमेष्ठीनिन मैं पूजू हूं ॥ ६२६ ॥
न ह्रीं क्रियाविशालपूर्वायार्धम् ।
त्रैलोक्यविंदौ शिवतत्त्वचिंता सार्द्धा सुकोटी द्विदशप्रमाणाः ।
पदास्त्रिलोकी स्थितिसद्विधानमवाचये भ्रांतिविनाशनाय ॥ ६२७ ॥
अरु साढ़ा दोय कोटि अरु दश कोटि प्रमाणपद में मोक्षतस्त्रको चिंतन है अरू तीन लोककी स्थिति विधान है ऐसा त्रैलोक्यविंदु नाम पूर्वनै भ्रांतिका नाश अर्थ मैं पूजू हूं ॥ ६२७ ॥
ह्रीं त्रैलोक्यविदुपूर्वायार्घम् ।
इत्थं श्रीश्रुतदेवतां जिनवरांभोध्युद्गतामृद्धिभृन्मुख्यैग्रंथनिबंधनाक्षरकृतामालोकयंतीं वयं । . लोकानां तदवाप्तिपाठनधियोपाध्यायशुद्धात्मनः
कृत्वाराधनसद्विधिं धृतमहार्घेणार्चये भक्तितः ॥ ६८ ॥
ऐसे मैं जनवर समुद्र उत्पन्न अरु ऋद्धिके धारीनिकरि ग्रंथरूप कियो अरू तीन लोकनै देखनेवारी ऐसी श्रुत देवताने तथा ताकी अवाप्ति पठनवारे उपाध्याय शुद्धात्मा जे हैं तिनने आराधनविधिपूर्वक भक्तिकरि अर्ध पूजू हू' ॥ ६२८ ॥
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अस्मिन् विमतिष्ठोत्सवसद्वियाने मुख्य पूजार्ह सप्तमवलयोन्मुद्रितद्वादशांगश्रुतदेवताभ्यस्तदाराध कोपाध्यायपरमेष्ठिभ्यश्च पूर्णार्थं निर्वपामीति स्वाहा ।
ह्रीं इस विप्रतिष्ठा मुख्य पूंजाके योग्य समय में स्थापित आचार्यपरमे हो तथा द्वादशांग श्रुतदेवताके अर्थ देना ।
पाठ
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RAMORELALAGHAAKASHALAKAAS
अथाष्टमवलयस्थापतसाधुपरमोष्ठगुणपूजाप्रारंभः ।
अत्र कोष्ठाः अष्टाविंशतिः २८ । तथाहिअब अष्टमवलयये साधुपरमेष्ठीका अट्ठाईस कोष्ठ पूजा कहिये है। सो ऐसे हैं
जीवाजीवद्विरधिकरणव्याप्तदोषव्युदासात्
___ सूक्ष्मस्थूलव्यवहृतिहतेः सर्वथात्यागभावात् । मूर्धन्यासं सकलविरतिं संदधानान्मुनींद्रा
नाहिंसाख्यत्रतपरिवृतान् पूजये भावशुद्धया ।। ६२९ ॥ जीव अजीव दोय प्रकार अधिकरणमें व्याप्त भये दोषनिका नाशते अरु स्थूल सूक्ष्मरूप व्यवहार हिंसाका सर्वथा प्रकार त्यागभावते PI सकल शिरोमणि ऐसी सकल हिंसाकी विरतिने धारते अरु याहीत अहिंसापरिणमन वृत्तिवारे मुनींद्रनिने मैं भावथुद्धिसे पूज हूं ॥६ ॥
ओं हो अहिंसामहाव्रतधारकसाधुपरपेष्टिभ्योऽधम् । मिथ्याभाषासकलविगमात् प्राप्तवाक्शुद्धयुपेतान्
स्याद्वादेशान् विविधसनयैर्धर्ममार्गप्रकाशम् । संकुर्वाणानतिचरणधीदूरगानात्मसंवित्
सम्राजस्तांश्चरुफलगणैः पूजयाम्यध्वरेऽस्मिन् ॥ ६३०॥ अरु मिथ्यावचनका समस्तपणा विगमत अर्थात खागत प्राप्त जो वचनकी शुद्धि ताकरि संयुक्त अरु स्याहादविद्याका स्वामी अस नाना
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प्रतिष्ठा
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AURANGARMAEXPRECORRECSIR-150
से प्रकारको सुनयनिकरि धर्ममार्गका प्रकाशने करते अरु अतीचारकी बुद्धितें दूरवतते अरु प्रात्पविद्याके चक्रवर्ती ऐसे साधुपरमेष्ठीने या ना यज्ञमैं पूजू हूं ॥६३०॥
ओं ही अनृतपरियागमहाव्रतधारकायार्घम् । आकर्तव्ये (ध्वनि?) शिवपदगृहे रंतुकामाः पृथक्त्वं
देहात्मीयं करगतमिवाध्यक्षमादर्शयतः । । प्राणग्राहं तृणमपि परैरप्रदत्तं त्यजंत
‘स्तापंतां मां चरणवरिवस्याप्रशक्तं मुनींद्राः ६३१ ॥ कृतकृत्यरूप पोक्षमागगृहमें क्रीडा वांछक अर देह अर आत्मानै जुदा करणेवाले प्रत्यक्ष हस्ततलगत वस्तु समान देखनेवाले अर प्राणनिग्रहण होता भी अन्यकरि नहीं दिया तृणमात्रने भी त्यागते मुनींद्र सेवासशक्त मोने रक्षा करो॥६३१ ।।
ओं ह्रीं अचौर्यपहाव्रतधारकायार्यम् । तिर्यग्मामरगतिगता याः स्त्रियः काष्ठचित्रा
लेप्याश्मान्याश्चिदचिदुदधिस्थास्तवस्तास्त्रियोग। स्वप्ने जाग्रदिशि कतिचिदप्यर्तिमुद्राः स्मरंतो (?)
ये वै शीलं परिदृढमगुस्तान्यजेऽहं त्रिशुद्धया ॥ ६३२ ॥ चेतनमें तिर्यचिणी मनुष्यणी देवांगना गतिमें प्राप्त स्त्री तथा काष्ठ चित्राम लेप पाषाणकी स्त्री अचेतन ऐसे चेतन अचेतन समुद्रमैं। तिष्ठनेवारी जो हैं तिनने मन वचन कायतें स्वप्नमें तथा जाग्रतदशामैं कोई दशामें नहीं स्मरण करते गाढा शीलव्रतने प्राप्त मुनोंद्रनने मैं. त्रिशुद्धिकरि पूजू हूँ॥६३२॥
ों ही ब्रह्मचर्यव्रतधारकायाम् ।
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SURESPECHARACHARGES
रागद्वेषाद्यभिकृतपरावृत्तदोषांतरंगा
ये वाह्या अप्युदितदशधा ते ह्यकिंचन्यभावात् । नापि स्थैर्य दधुरुरुगुणाग्राहिणि स्वांतमध्ये
' ग्रंथा येषां चरणधरणिं पूजयाम्यादरेण ॥ ६३३ ॥ रागद्वेष आदि करि पैदा किये स्वतंत्र दोष जिनि ऐसे अंतरंग परिग्रह अरु दशप्रकार वाव परिग्रहर्ते जिनके अकिंचनभावत स्थिरपणो नहीं धारै अर प्रचुर गुणवाला अंतरंग हृदयमै न प्राप्त भए तिनका चरण भूमिने मैं आदरतें पूजू हूँ॥६३३ ॥
ओं ह्रीं आकिंचन्यभावधारकायार्यम् । ईर्यापंथास्तिमितचकितस्तब्धदृष्टिप्रयोगा
. भावाच्छुद्धो युगमितधरालोकनेनापि येषां । वर्षाकालावनियवसभूजंतुजातिं विहाय
तीर्थश्रेयोगुरुनतिवशाद गच्छतोऽर्चे यतींद्रान् ॥ ६३४ ॥ अरु जिनके ईर्या मार्ग है सो स्थगित भर चकित अर पन दृष्टि प्रयोगका अभावतें अर युगमात्र अवलोकनतें भी शुद्ध है, अरु वर्षा ऋतुमै हुवे यव अंकुर हरितकाय प्रायो जातिकू छोडि तीर्थकल्याण तथा गुरुनिका नमस्कारके वशते गमन कर तिनि मुनींद्रनिकू पून हूँ॥६३४॥
ओं ही ईर्यासमितिधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽप॑म् । लोभक्रोधाद्यरिगणजयाद् भीतिमोहापमर्दा· निःशल्याद्यान् जिनवचिसुधाकंठपानप्रपुष्टान् ।
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प्रतिष्ठा
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AARAKERAKHABARABENER
याथातथ्यं श्रुतनिगमयोर्जानतः प्रश्नकर्तु
भिप्रायं वचनसमितीर्धारकान् पूजयामि ॥ ६३५ ॥ लोभ क्रोध आदि वैरीनिका समूहके जयतें अर भयमोहका नाशते निःशल्ययुक्त अरु जिनवचन रूप अमृतका कंठमें पान ताकरि पुष्ट । अरु शास्त्र सिद्धांतके यथार्थ स्वरूपने जानते तथा प्रश्नकर्ताका अभिप्रायकू भी जानते ऐसे वचनसमितिने प्राप्त मुनींद्रनिने मैं पूजू । हूँ॥६३५॥
ओं ही भाषासमितिधारकसाधुपरमेष्टिनेऽर्घम् । षट्चत्वारिंशदतिचरणामेडितत्यागयोगात्
दोनां चातुर्दशमलभुवां हापनात् कायहानि । अय्यासीनाममृतधिषणांभ्यासतोऽग्रे कृतार्थी (?)
मन्वानास्तेऽशनविरतयः पातु पादाश्रितं मां ॥ ६३६ ॥ छियालीस अतीचारका वारंवार साग करनेते अरु चोदह मलतें उत्पन्न दोषनिका सागते कायका नाशकू अमृत बुद्धिवत् कृतार्थ मानते अशन जो च्यार प्रकार भोजन ताके त्यागमें मुनींद्र हैं ते चरणारविंदने आश्रित कियों मैं जो है ताहि रक्षा करो॥६६॥
ओं ही एषणासपितिधारकसाधुपरमेष्टिभ्योऽर्य । वस्तुगाहं त्व परिणामादाननिक्षेपयोगा (?)
भावः पूर्वं दृढ़परिचयाद्विद्यते शुद्ध एव । पिच्छाकुंडीगृहणमपि ये रक्षणाचारहेतोः
कुर्वतोऽप्यन निहितदृशस्तान्यजे सत्समित्यै ॥ ६३७ ॥ वस्तुका ग्रहण मात्र नहीं परिणमपना करि दान कहिये आदान और निक्षेप इनका योगको अभाव पहिली ही गाढा परिचयतें जिनके
-RESMOLCAS EARCCXEKAURENCES
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प्रतिष्ठा
पाठ
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INSIDHADIRAKAAMSUNDARRIERRORIES
शुद्ध ही विद्यमान है, पर कमंडलु पीछिकाको ग्रहण भी जोवरक्षा पर मुनिधर्मका चारित्र शुदित करें है तथापि तहां नेत्र इंद्रिय करि शोध है ऐसे मुनींद्रनिने में समितिकी.मात्यार्थ पूज़ हूँ ॥६३७॥
ओं ही आदाननिवेपणसमितिधारकसाधुपरमेष्टिभ्योऽघ । व्युत्सर्गाख्यां समितिमघृणां नासिकानेलपायू
पस्थस्थानान् मलहृतिविधौ सूत्रमार्गानुकूलं । रक्षतोऽन्यानपि सदयतां पोषयंतोप्युदगां
धन्या दांतेंद्रियपरिकरा आददंत्वर्चनां मे ॥ ६३८ ॥ अरु जे नासिका नेत्र गुदा लिंग आदि स्थानत पलका निष्कासनविधिमें सूत्रमार्गके अनुकूल अन्य प्राणी मात्रने रक्षा करते अर नहीं है घृणा जामें ऐसो उत्कट व्युत्सर्ग नामक समितिने अरु सदयपणाने पोपते धन्य गुरु जे हैं ते पेरो कियो पूजानै ग्रहण करो॥६३८॥
ओं ही व्युत्सर्गसमितिपालकसाधुपरमेष्टिभ्योऽय। उष्णः शीतो मृदुलकठिनौ स्निग्धरूक्षौ गुरुर्वा
__ स्तोकः स्पर्शोष्टतय उदितस्पर्शनात् सप्रमादं । रागद्वेषावपि न दधतश्चेतनाचेतनेषु
किंच स्त्रीणां वपुषि विषये तान्यजेऽहं मुनींद्रान् ॥ ६३९ ॥ स्पर्श उष्ण शीत कोपल कठिन सचिक्कण रूक्ष वा भारो हलको इनि भेदनितें आठ प्रकारको है तात स्पर्शने द्रियका प्रमादनै तथा चेतन अचेतन विषयमैं रागद्वषनिन नहीं धारण करते अर स्त्री विषय शरीरमैं तो कदाचित रागद्वेष नहीं करते मुनोंद्रने मैं पूजू
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भतिष्ठा
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ओं ही स्पशेंद्रियविकारविरतसाधुपरमेष्टिभ्योऽर्घम् । मिष्टस्तिक्तो लवणकटकामम्ल एवं रसज्ञा
. गाही प्रोक्तो रसनविषयस्तत्र रागकुधोर्वा । त्यागात्सर्वप्रकृतिनियतेः पुद्गलस्य स्वभावं
संजानंतो मुनिपरिवृढाः पातु मार्चितास्ते ॥ ६४.॥ अरु मीठो तीखो लवण कडवो खट्टो रसना इंद्रियको विषय है तहां रागद्वेषका त्यागते अरु सर्ववस्तुको प्रकृतिका नियमवाला पुद्गलका स्वभावनै जानता मुनींद्र है ते मेरी रक्षा करो॥ ६४०॥
ओं ही रसनेंद्रियविकारविरतसाधुपरयेष्ठिभ्योऽर्घम् । वातद्वेषस्तुहिनविकृतेरुष्णताद्वेष ऊष्म्य.
व्याप्तांगस्य प्रकृतिनियमात् सुप्रसिद्धोऽप्रतर्व्यः । साम्यस्वामी ह्यशुभसुभगद्वैधगंधौ विजानन्
वस्तुगाहं भजति समतां तं यतींद्रं यजेऽहं ॥ ६४१॥ अरु शीत प्रकृतिवालाके वातसे द्वेष है, अरु उष्ण प्रकृतिवालाके उष्णतासे द्वेष है, यो नियम सर्वत्र नाहीं तर्कन मैं आवै ऐसौ प्रसिद्ध ही है अरु साम्यस्वभावका स्वामो अशुभ गध अरु शुभ गंध दोऊ वस्तुमात्रमैं जान है तात सपताने ग्रहण कर है अरू ऐसे ते मुनीदने मैं पूजू हूं ॥६४१॥
ओं ह्रीं घ्राणेंद्रियविकारविरतसाधुपरमेष्टिभ्योऽयम् । यद्यदृश्यं नयनविषये तेषु तेष्वात्मना वै
जन्मागाहि त्रिजगदभितश्चक्रमावर्तपातात् ।
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SHAKAKASH
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अतिष्ठा २०७
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कृष्णे पीते हरिदरुणयोरर्जुने पौद्गलेक्ष्णो
ापारोऽसन्निति परिणतः पूज्यतेऽसौ मयान ॥ ६४२॥ अरु जो नेत्र-इंद्रियकरि देखनेमैं आवै तिनि विषयनिमै आत्मा तोन जगतका परावर्तनरूप चंक्रमणतं जन्म ग्रहण किया तात काला पोला हऱ्या लाल सफेद पुद्गलमें नेत्रनिको विकार करना असत् है असा परिणयाननै प्राप्त हवो मुनोंद्र मैं करि पूजिये है॥४२॥
ों ही चतुरिद्रियविकारविरतसाधुपरपेष्ठिभ्योऽघम् । एकः स्तोत्रं रचयितु मुदा गद्यपद्यानवद्यै
क्यैरन्यः श्वपच जननी तेऽद्य भार्या ममेति । श्रुत्वा शब्दं श्रवसि जडतामेत्य तोषं न कोपं
धत्ते शक्तोऽप्यमरमहितस्तस्य पूजां विदध्मः ।। ६४३ ॥ एक प्राणी तो हर्ष करि अनवद्य गद्यनिके वाक्यनिकरि स्तोत्र रचै है, अरु अन्य दुष्ट कहै है कि चांडाल ! तेरो माता मेरो खो है असा | शब्दनै सुणि करि करणेमें जडपडानै प्राप्त होय ताप वा रोषक् सपथ होय भो नहाँ धारण कर सो देवनिकरि पूज्य है, ताकी हम पूजा कर
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भों ह्रीं श्रोत्रंद्रियविकारविरतसाधुपरमेष्ठिभ्योऽधैम् । साम्यं यस्य स्फुरति हृदये निळलीकं कदाचि
दायातेऽपि ध्रुवमशुभसमयावद्धपाकावतारे (?) घोरापीडासदसि वपुंषि स्पृड्मृति संदधानो
_ 'बाहुभ्यामंबुधिमिव तरत्येष साधुर्मयार्थ्यः ॥ ६४५॥ जाका हृदयमैं निःकपट साम्यभाव स्फुरायमान है, अरु निश्चय अशुभ समयावद कर्मनिका उदयका आमपनते आवता भी कदाचित
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घोर पीड़ाका गृहरूप शरीरमैं वांछा तथा मरणनै संधारण करतो जैसे भुजनिकरि समुद्रन तिर तसे तिर सो यो साधु योकरि पूजिये
प्रतिष्ठः २०८
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'ओं ही सापायिकावश्यकगुणधारकसाधुपरमेष्टिभ्योऽर्घम् । स्मारं स्मारं प्रकृतिमहिमानं तु पंचेश्वराणां
प्रत्यक्ष वा मननविषयं बंदमानस्त्रिकालं । कर्मव्यूहक्षपणमसमं चर्करीत्यात्मवंत
शुद्धस्फारं गमयति शिवं तं महांतं यजामि ॥ ६४५ ॥ अर पंच परमेष्ठीनिका निजमहिमानै स्मरणकरि अरु प्रत्यक्षवत् आपका मनन विषय त्रिकाल बंदतो अरु अतुल कर्मका समूहका नाशनै वारंवार कर है अरु आत्मानै शुद्ध विशद करि शिवमागमैं प्रवेश करसवै है सो महान् साधुनै पूजू हूँ॥६५॥
ओं ही बंदनावश्यगुणधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽयम् । चेतोरक्षःप्रसरणनिराकर्मणो तीर्थनाथ
पादाब्जेषु प्रतिगुणगणे दत्तचित्तो मुनींद्रः। तेषां स्तोत्रं पठति परमानंदमात्मानुभावं
किं वा शुद्धं सृजति स मया पूज्यते तद्गुणाप्त्यै ॥ ६७६ ॥ जो मुनींद्र चित्तरूप राक्षसका फैलाव निराकरणके अर्थि तोयकरादिका चरणकमलमैं तथा तिनका गुणमैं दिया है चित्त जाने असा होय है अरु तिनका स्तोत्र पर है, यदा आत्माका अनुमानै परमानंद शुद्ररूप रचे है सो साधुका गुणको प्राप्ति अर्थि मैं करि पूजिये
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२.
ओं ह्रीं स्तवनावश्यकगणधारकसाधपरमेष्ठिभ्योऽयम् ।
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ॐ
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दोषाभावेऽप्यथ निशिदिवाहारनीहारकृत्ये
ज्ञाताज्ञातप्रमदवशतो जंतुरभ्यर्दितः स्यात् । नित्यं तस्य प्रतिभयलवं व्युत्सृजानः स्वयं यो
दोषवातैनहि जुडति तं धीरवीरं यजामि ॥ ६४७॥ कदाचित् दोषका प्रभावन होता संता भी रात्रि वा दिनमैं आहार नीहार कार्य मैं ज्ञात अज्ञातभावते प्रमादका वशते प्राणो पीडित हुवा होय ताकू नित्य भय लवमात्र आप ही यादि करि आलोचना करै सो साधु दोपनिका समूह करि नहीं जुड़े अर्थात् युक्त नहीं होय तिस धीर वीर साधुने मैं पूज हूँ॥६४७॥
ओं ही प्रतिक्रमणावश्यकगुणधारकसाधुपरयेष्टिभ्योऽयं । नित्यं चेतःकपिरचलतां नैति तयंत्रणार्थं
स्वाध्यायाख्यैः प्रगुणनिगडैबंधमानीय भद्रे। मार्गे युंज्याच्छ्रतपरिणतात्मीयमोदावधानो
वृत्तिं शुद्धां श्रयति स महानर्थ्यतेऽनर्ध्यबुद्धिः ॥ ६४८॥ नित्य यह चित्तरूपी मर्कट अचलतानै नहीं प्राप्त होय है ताका वश करनेके अर्थि स्वाध्याय नाम सांकलनि करि बंधनने प्राप्त करि | सुंदर मार्गमें युक्त करै है अरु श्रुतरूप परिणग्या आत्माका आनंदमैं सावधान हुवो संतो शुद्ध दृचिनै आश्रय करें है सो अनर्थ्यबुद्धि साधु मैं करि पूजिये है ॥६४८॥
ओं ह्रीं स्वाध्यायावश्यकगुणधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽय । श्रामे भांडे कुथितकुणपे यादृशी नश्यहेय
बुद्धिः काये सततनियता वीतरागेश्वराणां ।
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प्रतिष्ठा
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व्यक्तीकर्तुं शिखरिविपिनांतस्तनोर्निर्ममत्वे
कायोत्सर्ग रचयति मुनिः सोऽवपूजां प्रयातु ॥ ६४६ ॥
भया है राग जिनके पैसे ईश्वरनिकेँ कच्च भांडमै अरु सिड्या मृतकमें जैसी नश्य हेयबुद्धि होय है तैसी कायमै नश्य हेयबुद्धि है । ताकू प्रकट करनेकू पर्वत वन मध्ये निर्ममत्व दशामै कायोत्सर्ग रचै है सो मुनि इहां मैं करि पूजित हो ॥ ६४६ ॥
ह्रीं व्युत्सर्गावश्यक गुणधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽर्यं । पूर्व मणिगण चितानेकपर्यंकशायी
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सोऽयं घोरस्वनमृगपतिल स्तनागेंद्रकारे । भूग्रावोपरितनभुवि स्वप्नवत्किंचिदात्त-
faat यस्य स्मरणमपि संहति पापं स मेऽर्च्यः ॥ ६५० ॥
जो पूर्व राज्यावस्थामै मणिरत्न करि खचित अनेक पल्यंकमै शयन करें था सोही यो अवार घोर वीर शब्दवारा मृगेंद्रनिकरिकंपित हैं। हाथी जसा अंधकार मैं पर्वतनिका पाषाण ऊपरि पृथ्वीमै किंचित् स्वप्नाके समान ग्रहण कियी है निद्रा जानै भैसे हुवो संतो तिष्ठ है ताको स्मरण भी पापनै संहार करै है सो साधु मेरे पूज्य हैं ॥ ६५० ॥
श्रीं ह्रीं भूशयननियमधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽर्घम् । ग्रीष्मे रेणूत्करविकरणव्यग्रवातप्रसर्पद्
धूलिपुंजे मलिनवपुषि त्यक्तसंस्कारवांछः । अस्नानत्वं विजनसरसीसंनिधानेऽपि येषां
i पादांबुजयुगमहं पारिजातैरुदर्चे ॥ ६५१ ॥
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अरु ग्रीष्मऋतुमें धूलिका समूहकरि विखरचा कजोडा करि व्यग्र पवन करि फैलता है धूलिको पुंज जाक ऐसा मलिन शरीरमें त्यागी है संस्कार स्नान आदिकी वांछा जानै अरु निर्जनस्थान जगता सरोवरका निकटपणाने होता भी अस्नानपणो है तिनका चरणारविंद युगलनै देवोपनीत पुष्पनि करि मैं पू जू हूँ॥६५॥
ओं हों अस्नाननियमधारकसाधुपरमेष्टिभ्योऽयम् । वाल्कं फालं वसनमुपसंव्यानकोपीनखंड
कादाचित्केऽप्युपधिसमये नैव वांछस्तपस्वी । दैगंबर्यं परमकुशलं जातरूपप्रबुद्धं
___ संधार्येवं नयति परमानंदधातीं तमर्चे ॥ ६५२ ॥ अर वृक्षांका वल्कल संबंधी तथा फल संबंधी धोवती दुपट्टो कोपीन खंड आदि वस्त्रनै कदाचित् भी दुःख समयमैं भी नही वांछ तपस्वी परम दिगंबर जातरूप मुद्राने धारि परमानंदरूपी भूमिने प्राप्त होय है वे साधुने पूजू हूँ॥६५२॥
ओं ही सर्वथावस्त्रपरित्यागनियमधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽर्घ । क्षौरं शस्त्रोजनिपराधीनतापात्रमेव (?)
__ जूडा मूर्धन्यतुल कृमिदा भूतशीर्षाकृतिस्था। दोषायैवेति विहितकचोत्पाटनो मुष्टिमात्रात्
साक्षान्मोक्षाध्वनिधृतिपदः पूज्यते श्रौतकर्मा ॥ ६५३ ॥ क्षौर कराना है सो शस्त्रका यौजदगी होना रूप पराधीनताका पात्र ही है, अरु जूडा कहिये जटा यस्तक परि राखी हुई अनेक नँवा आदिकी देनेवारी है तथा भूतके मस्तककी आकृति देनेवारी है। सो हृ दोषके वास्तै ही है। ई वास्ते मुष्ठीपात्रकरि कियो है कचनको उत्पाटन जानै अरु साक्षात् मोक्षका मार्गमें धारण कियो है पद जाने ऐसो श्रुतसंबंधी कर्मधारी साधु है सो मैं करि पूजिये है॥६५॥
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प्रतिष्ठा
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ओं ही कृतकेशलोचनियमधारकसाधुपरमेष्टिभ्योऽयं । एकद्विलिप्रभृतिदिवसप्रोषधादिप्रकर्तु
रास्यम्लानिर्भवति नितरां दंतशुद्धिं विनाऽत्र । दौगंध्याधुं वपुषमकृतस्थैर्यमापन्निदानं
जानन् योगं मलिनयति नो तं समर्चे मुनींद्रम् ॥ ६५४ ॥ एक दोय तीन आदि दिवसमैं प्रोषधोपवास करनेवालाके निरंतर मुखकी मलिनता दंतशुद्धि विना होय है। अरु दोगध्यको कूप अरु नहीं है स्थिरता जामै अरु आपदाको स्थान असा शरीरने जानतो योग जो अपना ध्यान ताने नहीं मलिन करै है ता मुनींद्रन पूजू |
ओं ही दंतधावनवर्जननियमधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽर्घम् । यांचादैन्योदरविघटनादींगितादीनि येषां
निर्मूलंतो मनसि चमनालाभलाभांतराये । (?) तुल्या दृष्टिस्तदपि सकृदेकादिभुक्तिप्रमाण
तेषां धावगमसुगमत्वाय पादौ यजामि ॥ ६५५ ॥ अरु जिनकै याचना अर दीनता अर उदरका लिपिसना आदि चेष्टित निर्मूल है अरु मनमैं भोजनका अलाभ तथा अंतरायमै तुल्य 2 दृष्टि है सो भी एक दिनमें एक वार भोजनको प्रमाण धर्मध्यानका सुगमपणाकी प्राप्ति अर्थि है तिन साधूनिका चरणने मैं पूजू
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ओं ही एकभक्तनियमधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽघ । यावद्देहं स्थितिधृतिधराशक्तिमंगीकरोति
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प्रतिष्ठा
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यावज्जंघावलमचलतां नोज्जिहीते मुनित्वे । यावत्स्थाप्ये तदपगमने भोजनत्याग एवं
संन्यासस्य ग्रहणमिति यद् यस्य नीतिस्तमर्चे ॥ ६५६॥ यावत् काल यह देह है सो स्थिति पर धैर्यता और गमन शक्तिनै अंगीकार करै है अरु यावत्काल जंघाको बल अचलताने नहो छोडे | है अरु यावत्काल ही मुनिपणामें तिष्ठू हूं अरु ता पूर्वोक्त प्रकारका साग होय तो भोजनको हो साग है अरू संन्यासको ग्रहण है ऐस याकी| नीति कहिये नय है ता मुनिकू मैं पूजू हूँ। ६५६ ॥
ओं ही आस्थितभोजननियमधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽय। अष्टाविंशतिसद्गुणगथितसदरत्नत्रयाभूषणं
शीलेशित्वतनुत्ररक्षितवपुः कामेषुभिर्नाहतं । पाहत्यादिपदस्य वीजमनघं येषां परं पावनं
साधूनां समुदायमुत्तमकुलालंकारमाशाश्महे ॥ ६५७ ॥ अट्ठाईस मूल गुणनिकरि ग्रंथित रलत्रयको भूषणरूप अरु शोलका स्वामीपणारूप कवचकरि रक्षित शरीर कापवाणनिकरि नहीं हरायो गयो अरु अहंत आदि पदवीको वीज अरु निर्मल परम पवित्र उत्तम कुलको भूषणरूप साधुनिका समुदायने हप वांछ हैं॥६५७॥
ओं ही अस्मिन् विवप्रतिष्ठोत्सवे मुख्यपूजार्ह अष्टपवलयोन्मुद्रितसाधुपरमेष्ठिभ्यस्तन्मूलगुणग्रापेभ्यश्च पूर्णापैं। ओं ह्रीं इस विंब प्रतिष्ठाका उत्सवमें मुख्य पूजाके योग्य आठवां वलय स्थापित साधुपरमेष्टोन तथा तिनके गुणनि अथि पूर्णाघ॥
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प्रतिष्ठा
२१४
Jain Education In
अथ नवमवलयस्थापिताष्टचत्वारिंशदऋद्धिधारक पूजाप्रारंभः । to कोष्ठाः श्रष्टचत्वारिंशत् ४८ । तथाहि
अथ नवम वलयमें स्थापित अडतालीस ऋद्धिधारक मुनिका पूजन करिये है। तहां कोठा ४८ हैं । सो ऐसें है— त्रैलोक्यवर्तिसकलं गुणपर्ययाढ्यं यस्मिन्करामलकवत् प्रतिवस्तुजातं । भासते विसमयप्रतिबद्धमर्चे कैवल्यभानुमधिपं प्रणिपत्य मूर्ध्ना ॥ ६५८ ॥
बहुरि तीन लोकवर्ती समस्त गुण पर्यायसहित वस्तुमात्र है सो जाका करतलमें आंवला समान त्रिकालसंबंधी भार्से है ऐसा केवलज्ञान सूर्यरूपी स्वामीने मस्तक करि नमस्कारकरि मैं पूजू हूं ॥ ६५८ ॥
ह्रीं सकललोकालोकप्रकाशक निरावरणकैवल्यलब्धिधारकेभ्योऽर्यं ।
ओं ह्रीं सकल लोकालोकप्रकाशनसमर्थ केवलज्ञान धारकनिके अर्थ अर्धम् ।
वक्रर्जुभावघटितापरचित्तवर्तिभावावभासनपरं विपुलर्जुभेदात् ।
ज्ञानं मनोऽधिगतपर्ययमस्य जातं तं पूजयामि जलचंदनपुष्पदीपैः ॥ ६५६ ॥
अरुका वा सरल भावनिकरि घटित परका चित्तमैं वर्ते सा भावनिका प्रकाशमें तत्पर अह विपुलमति ऋजुमति भेदते मनःपर्ययज्ञान के हुवा है ता मैं जल चंदन पुष्प दीपनिकरि पूजू हूँ ॥ ६५६ ॥
ओं ह्रीं ऋजुमतिविपुलमतिमनःपर्ययधारकेभ्योऽर्घम् ।
देशावधिं च परमावधिमेव सर्वावध्यादिभेदमतुलावमदेशपृक्तं ।
ज्ञानं निरूप्य तदवाप्तियुतं मुनींद्रं संपूज्य चित्तभवसंशयमाहरामि ॥ ६६० ॥
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प्रतिष्ठा २१५
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देशावधि र परमावधि अर सर्वावधि आदि भेदयुक्त अतुल न्यून मर्यादा क्षेत्र करि भिन्न औसा ज्ञानतें निरूपण करि ताकी प्राप्तिवाला मुनींद्रने पूजि चित्तमें! हुवा संदेह हरू हूं ॥ ६६० ॥
ह्रीं अवधिज्ञानधारकेभ्योऽघम् ।
★
अन्योपदेशमनपेक्ष्य यथा सुकोष्ठे वीजानि तद्गृहपतिर्विनियुज्यमानः ।
ग्रंथार्थवी जबहुलान्यनतिक्रमाणि संधारयन्नृषिवरोऽर्च्छत उवस्थमंत्र : (१) ॥ ६६१ ॥
अर दूसरेका उपदेश नहीं अपेक्षित कर जैसे सुंदर कोठामें वीज जे है गृहको स्वामी विनियोग करतो संतो ग्रंथका अर्थ प्रतिक्रमरहित धार है ता मुनिवरने मैं प्रार्षोक्त मंत्रनिकरि एज हू ॥ ६६१ ॥ ह्रीं कोष्ठबुद्धयर्धप्राप्तभ्योऽघम् ।
एकं पदार्थमुपगृह्य मुखांतमध्यस्थानेषु तच्छ्रुतसमस्तपदग्रहोक्तिम् ।
पादानुसारिधिषणाद्यभियोगभाजां संपूज्य तन्मतिधरं तु समर्चयामि ॥ ६६२ ॥
अरु पदानुसारी बुद्धि ऋद्धि आदि के योग' भजनेवानिकों एक पद वा अर्थ आदि मध्य अंतमें ग्रहण कर विस श्रुतका समस्व पदनिका ग्रहण वा उक्ति होय ताहि पूजि करि तिस बुद्धिका धारी साधुने मैं पूजू हू ं ॥ ६६२ ॥
नहीं पादानुसारिबुद्धिऋद्धिप्राप्तं भ्योऽर्घम् ।
कालादियोगमनुसृत्य यथाप्तमल कोटिप्रदं भवति वीजमनिंद्रियादि । वीतरायशमनक्षयहेत्वनेकपादावधारणमतीन् परिपूजयामि ॥ ६६३ ॥
जैसे देश काल क्षेत्र आदिका योगनै अनुसरण करि जो वीज बोया होय सो कोटि वीज देनेवाला होय तैसें मन इंद्रिय वीर्या वरायका प्रशम तथा क्षय आदि हेतु करि अनेक पदका धारण ग्रहण बुद्धिमाप्त साधु होय तिनने मैं पूजू हूं ॥ ६६३ ॥
ह्रीं बीजबुद्धिऋद्धिप्राप्तं भ्योऽर्घन् ।
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प्रतिष्ठा
पाठ
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ये चक्रिसैन्यगजवाजिखरोष्ट्रमर्त्यनानाविधस्वनगणं युगपत् पृथक्त्वात् ।
गृह्णति कर्णपरिणामवशान्मुनींद्रास्तानर्पयामि कृतुभागसमर्पणेन ॥६६॥ ___ अरु जे चक्रवर्तीको सैनामै खर गज घोड़ा ऊंट मनुष्य आदिका स्वर शब्दका समुहने एके काल न्यारा न्यारा कण इंद्रियका परिणाम| वश ग्रहण करै हैं तिनि मुनोंद्रनिनै यज्ञभागका समर्पण करि मैं पूजू हूं अर्णोद्धार करू हूँ॥६॥
ओं ही संभिन्नश्रोत्रऋद्धिमाप्त भ्योऽर्घम् । दूरस्थितान्यपि सुमेरुविधुप्रभास्वत्सन्मंडलानि करपादनखांगुलीभिः ।
संस्पर्शशक्तिसहितर्द्धिवशात् स्पृशंतस्तान् शक्तियुक्तपरिणामगतान् यजामि ॥ ६६५॥ | अरु दूर प्रदेशमें स्थित भो मेरु चंद्रमा सूर्यका मंडल जे हैं तिनिने स्पर्शन शक्ति सहित ऋद्धिका वशतं हाथ पाद नख अंगुलीनिकरि स्पश 5 करते अरु तिस शक्ति परिणये साधुने मैं पूजू हूँ ६६५॥
ओं ह्रीं दूरस्पर्शशक्तिऋद्धिमाप्त भ्योऽर्थे । नास्वादयंति न च तत्सदने समीहा तत्रापि शक्तिरमितेति रसग्रहादौ।
ऋद्धिप्रवृद्धिसहितात्मगुणान् सुदूरस्वादावभासनपरान् गणपान् यजामि॥६६६ ॥ अरु जो मुनींद्र नहीं तो आप स्वाद लेवे है अरु नहीं तिनका स्वादमें वांछा है तथापि तिसका ग्रहणमें शक्ति प्रवल होय तिस ऋद्धिकी वृद्धि सहित प्रात्मगुणयुक्त दुरास्वादनमें समर्थ ऐसे मुनिनिने मैं पूजू हूँ॥६६॥
__ओं ही दूरावादनशक्तिऋद्धिप्राप्त भ्योऽयं । उत्कृष्टनासिकहृषीकगतिं विहाय तत्स्थोर्ध्वगंधसमवायनशक्तियुक्तान् । उत्कृष्टभागपरिणामविधौ सुदूरगंधावभासनमतौ नियतान् प्रजामि ॥ ६६७॥
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अरु जे नासिका इंद्रियकी उत्कृष्ट गति है ताकू भी छोड़ि अधिक स्थानमें गंधका ग्रहणकी शक्तियुक्त जे हैं तिनने अरु उत्कृष्ट मंधका AII अनुभागका प्रकाशमें अरू निश्चयरूप असे मुनींद्रनिन मैं पूजू हूँ॥६६७॥
ओं ह्रीं दूरघाणविषयग्राहकशक्तिऋद्धिप्राप्त भ्योऽधम् । निर्णीतपूर्णनयनोत्थहृषीकवार्ता चक्रेश्वरस्य नियता तदधिक्यभावात् ।
दूरावलोकनजशक्तियुतान् यजामि देवेंद्रचक्रधरणींद्रसमर्चितांहिं ॥ ६६८॥ अरु जो निर्णय किया परिपूर्ण नेत्र इंद्रियका विषयकी वार्ता चक्रवर्तीके नियत है अरु तासे अधिक भावतें दर देखनेकी शक्तिसंयुक्त अरू देवेंद्र चंद्र धरणीधरनितें पूजित चरण जिनके असे मुनींद्रने मैं पूजू हूँ॥६६॥
ओं ह्रीं दुरावलोकनशक्तिऋद्धिप्राप्त भ्योऽयम् । श्रोसेंद्रियस्य नवयोजनशक्तिरिष्टा नातः परं तदधिकावनिसंस्थशब्दान् ।
श्रोतुं प्रशक्तिरुदयत्यतिशायिनी च येषां तु पादजलजाश्रयणं करोमि ॥ ६६६ ॥ अरु कर्ण इंद्रियकी उत्कृष्ट नवयोजन प्रमाण शक्ति इष्ट है अरु अधिक पृथ्वीमें रहते शब्दनिनै सुणवेकी अतिशय शक्ति जिनके उदयमें होय तिन साधुनिका पद कमलका आश्रय करू हूँ॥६६॥
____ओं ही दूरश्रवणशक्तिऋद्धिमाप्तेभ्योऽर्थे। अभ्यासयोगविहृतावपि यन्मुहूर्तमालेण पाठयति दिग्प्रमपूर्वसाथ।
शब्देन चार्थपरिभावनया श्रुतं तच्छक्तिप्रभूनधियजामि मखस्य सिद्धथै ॥ ६७०॥ अरु जे अभ्यासकिये बिना ही मुहूत्त मात्रकरि दश पूर्वनै पढे हैं शब्द अरु अर्थको भावनाकरिता श्रुतकी शक्तिसंयुक्त प्रभूनिने यानी र ४ सिद्धि अर्थि पूजू हूँ॥६७०॥
प्रों ही दशपूर्वित्वऋद्धिमाप्त भ्योऽय। २८
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प्रतिष्ठा
पाठ
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MIRRORECAS-
एवं चतुर्दशसुपूर्वगतश्रुतार्थ शब्देन ये ह्यमितशक्तिमुदाहरंति ।
तानत्र शास्त्रपरिलब्धिविधानभूतिसंपत्तयेऽहमधुनाहणया धिनोमि ॥ ६७१ ॥ असे ही चतुर्दश सुदर पूर्वगत श्रुतका अर्थने शब्द करि सहित उदाहरण करै तिनकू शास्त्रकी प्राप्तिका विधान संपदाके निमित्त मैं अव || भी पूजा करि प्रसन्न करू हूं ॥६७१॥
ओं ही चतुर्दशपूर्वित्वऋद्धिमाप्त भ्भोऽर्थे । अन्योपदेशविरहेऽपि सुसंयमस्य चारित्रकोटिविधयः स्वयमुद्भवति ।
प्रत्येकबुद्धमतयः खलु ते प्रशस्यास्तेषां मनाक स्मरणतो मम पापनाशः॥ ६७२॥ अरु अन्य गुरु जनका उपदेश विरहमें भी संयमकी चारित्र कोटि विधान जे हैं ते स्वतः ही प्रकट होय हैं ते प्रत्येकबुद्धिमति हैं तिनको प्रशंसा करि मेरा पापका नाश स्मरणते होय है ।।६७२।।
ओं ह्रीं प्रत्येकबुद्धत्वऋद्धिमाप्तभ्योऽयम् । न्यायागमस्मृतिपुराणपठित्यभावेऽप्याविर्भवंति परवादविदारणोद्धाः ।
वादित्वबुद्धय इति श्रमणाः स्वधर्म निर्वाहयंति समये खलु तान् यजामि ॥ ६७३ ॥ अरु जे न्याय बागम स्मृति पुराणनिके पठनका प्रभाव में भी परवादिनिके मान विदीर्ण करै हैं उन वादित्वबुद्धिसंयुक्त मुनिनकू मैं पूजू हूँ॥६७३॥
ओं हो वादित्वऋद्धिमाप्त भ्योऽर्थे। जंघाग्निहेतिकुसुमच्छदतंतुवीजश्रेणीसमाजगमना इति चारणांकाः । ऋद्धिक्रियापरिणता मुनयः स्वशक्तिसंभावितास्त इह पूजनमालभंतु ।। ६७४ ॥
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RECTREATMA%ECRECE%%ESCRICS
अरु जंघाचारण व्यग्निशिखाचारण पुष्पचारण पत्रचारण तंतुचारण वीजचारण श्रेणीचारण ये अपने अपने समाजकरि निमित्तपात्र | चारण अंकधारी हैं ते ये क्रिया परिणत ऋदिधारी अपनी शक्तिकरि संभावनायुक्त मुनींद्र यहां यज्ञमें पूजाने प्राप्त होउ ॥६७४ ॥
भों ही जलजंघातंतुपुष्पपत्रवीजश्रेणीवहन्यादिनिमित्ताश्रयचारणऋद्धिमाप्तभ्योऽयम् । श्राकाशयाननिपुणा जिनमंदिरेषु मेर्वायकृत्रिमधरामु जिनेशचैत्यान् ।
बंदत उत्तमजनानुपदेशयोगानुद्धारयति चरणौ तु नमामि तेषां ॥ ६७५ ॥ अरु जे आकाशगमनमें निपुण अरु जिनमंदिरनिमें मेरु आदि अकृत्रिम पृथ्वीमें जिनेंद्र चैत्य हैं तिनन बंदना करते अरु उपदेशके योगते उत्तम भव्यजननें उद्धारते हैं उनका चरणकूमैं नमू हूँ॥६७५॥
ओं ही आकाशगमनशक्तिचारणद्धिमाप्त भ्योऽर्घम् । ऋद्धिः सुविक्रियगता बहुलप्रकारा तत्र द्विधाविभजनेष्वणिमादिसिद्धिः।।
मुख्यास्ति तत्परिचयप्रतिपत्तिमंत्रान् यायज्मि तत्कृतविकारविवर्जितांश्च ॥ ६७६ ॥ का अरु विक्रियागत ऋद्धि बहोत प्रकार है तिनमें दोय प्रकार विभागमें अणिमादि शक्ति मुख्य है तिनका परिचयकी प्राप्तिके मंत्ररूप अरु ताका किया विकारकूनही च हते तिनिमुनींद्रनै पूजू हूं ॥६७६ ॥
ओं ही अणिमामहिमलघिमगरिममाप्तिमाकाम्यवशित्वेशित्वऋद्धिमाप्त भ्योऽर्ष। अंतर्दधिप्रसुखकामविकीर्णशक्तिर्येषां स्वयं तपस उद्भवति प्रकृष्टा ।
तद्विक्रियाद्वितयभेदमुपागतानां पादप्रधावनविधिर्मम पातु पाणिं ॥ ६७७॥ तघन आदि पर कामेच्छाचारी नाना शक्ति जिनके स्वतेही प्रकृष्ट तपका प्रभावतें प्रकट होय है सो विक्रियाका दसरा भेदनै प्राप्त भये ।। तिनका चरणपूजाविधि है सो मेरा इस्तने पवित्र करो॥६७७॥
ओं ही विक्रियायां अंतर्धानादिऋद्धिमाप्त भ्योऽयम् ।
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PERIENCERMERORECASKAR
षष्ठाष्टमद्विदशपक्षकमासमात्रानुष्ठेयभुक्तिपरिहारमुदीर्य योग ।
श्रामृत्युमुग्रतपसा ह्यनिवर्तकास्ते पांत्वर्चनाविधिमिमं परिलंभयंतु ॥ ६७८ ॥ अरु बेलो तेलो बारा तथा पक्ष महीना आदि अनुष्ठान योग्य आहारको खागनै ग्रहण करि मृत्युपर्यंत तिस योग नहीं निवर्जनकाते | उग्र तप ऋद्धिके धारी येह मेरी पूजाविधि दिईने प्राप्त होऊ ॥१८॥
ओं ही उग्रतपऋद्धिमाप्तभ्योऽर्घ। घोरोपवासकरणेऽपि बलिष्ठयोगान् दौगंध्यविच्युतमुखान् महदीप्तदेहान् ।
पद्मोत्पलादिसुरभिस्वसनान्मुनींद्रान् यायज्मि दीप्ततपसो हरिचंदनेन ॥ ६७६ ॥ ॥ घोर वीर उपवास किया भी बलवान है योग कहिये मन वचन काय जिनके अरु दुगंधतारहित मुख जिमको अरु कांतिकरि देदीप्यमान है देह जिनको अरु कमल अरु नील कमल चंदन आदिवत सुगंध श्वासोच्छ्वास जिनके असे मुनींद्र दीप्त तप ऋद्धिधारिनिनै मैं हरिचंदनकरि पूजू हूं ॥६६॥
ओं ही दोमतपऋद्धिप्राप्त भ्योऽय। वैश्वानरौघपतितांबुकणेन तुल्यमाहारमाशु विलयं ननु याति येषां ।
विण्मूत्रभावपरिणाममुदेति नो वा ते संतु तप्ततपसो मम सद्विभूत्यै ॥६८०॥ अरु जिनके आहार भोजनादि शीघ्र ही अग्निमें पड्या जल कण समान विलय होय अरु विष्ठा मूत्र कफ आदि रूप नहीं परिसमै वे सस तप मुनींद्र मेरे मोक्ष विभूति अर्थि होहु ॥६८०॥
ओं ही तप्ततपऋद्धिमाप्त भ्योऽर्थ। हारावलीप्रभृतिघोरतपोऽभियुक्ताः कर्मप्रमाथनधियो यत उत्सहंते । गामाटवीष्वशनमप्यतिपातयंति ते संतु कार्मणतृणाग्निचयाः प्रशांत्यै ॥ ६८१॥
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प्रतिष्ठा
२२१
RSARKESRCADREAM CARROREGARH
अरु जे मुक्तावली हारावली सिंहनिःक्रोडित आदि तपके धारीक निका नाशके अर्थि यात उत्साह स्वभाव होय ह अरु ग्राम वनी आदिमें भी भोजन नहीं ग्रहण करें ते कर्मनिका समूहरूप तृणमैं अग्निचय सपान मुनींद्र पेरे प्रशांतिभावके अर्थि होहु ॥६ ॥
ओं ह्रीं महातपऋद्धिप्राप्त भ्योऽयम्। कासज्वरादिविविधोगूरुजादिसत्त्वेष्वप्यच्युतानशनकायदमान श्मशाने ।
भीमादिगह्वरदरीतटिनीषु दुष्टसंक्लुप्तबाधनसहानहमर्चयामि ॥ ६८२ ॥ अरु जे काश ज्वर श्वास आदि नाना प्रकार रोग होत संते भी नहीं चुत किया उपवास और शरीरको दपन जिननै अरु स्मज्ञानमें तथा भयानक पवंतनिकी गुफा कंदरा नदीनिमें दुष्ट प्राणोकृत परीषहनिनै सहनेवारे मुनींद्रनने मैं पूजू हूँ॥६२॥
ओं ह्रीं घोरतपऋद्धिमाप्तभ्योऽयम् । पूर्वोदितासु विधियोगपरंपरासु स्फारीकृतोत्तरगुणेषु विकाशवत्सु ।
येषां पराक्रमहतिर्न भवेत्तमर्च पादस्थलीमिह सुघोरपराकमाणां ॥ ६८३॥ अरु पूर्व कहे सर्वयोग समूहनै होतां विशद किया है उत्तर गुणविकाश जिनम तिनकै कदाचित् भी पराक्रमको हानि नहीं होय विन घोर पराक्रमधारी मुनींद्रनिकी पादस्थलीनै पूजू हूँ॥६८३॥
' ओं ही घोरपराक्रमगुणऋद्धिमाप्त भ्योऽयम् । दुःस्वप्नदुर्गतिसुदुर्मतिदौर्मनस्त्वमुख्याः क्रिया व्रतविघातकृते प्रशस्ताः ।
तासां तपोविलसनेन समूलकाषंघातोऽस्ति ते सुरसमर्चितशीलपूज्याः ॥ ६८४॥ अरु जिनकै दुष्ट स्वप्न अरु दुर्गति अरु बुद्धि अरु पनका संकल्पको दुष्टपणो आदि व्रतका नाशमें प्रशस्त असी जे क्रिया हैं तिनको तपका प्रकाशकरि निर्मूल हुवा ते देवनिकरि पूजित शीलकरि पूज्य हैं।६८४॥
ओं ही घोरब्रह्मचर्यगुणऋद्धिमाप्तभ्योऽर्षम् ।
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प्रतिष्ठा
पाठ
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नोवली पेरा अंतरमन
ही मनोवलऋद्धिमाप्त
ये षु कृतश्रुताचा
KEERIORSARKARRESGRRECRPOSER
अंतर्मुहूर्तसमये सकलश्रुतार्थसंचितनेऽपि पुनरुद्भटसूत्रपाठाः ।
स्वच्छा मनोऽभिलषिता रुचिरस्ति येषां कुर्यान्मनोबलिन उत्तममांतरं मे ॥ ६८५॥ अरु जे अंतर्मुहूर्तमात्रकालमै संपूर्ण शास्त्रका संचितनमें भी पुन दणो भयो है शास्त्रको पाठ जिनकै अरू स्वच्छ मनको रुचि जिनकै | होय ते मनोवली मेरा अंतरंमने उत्तम करौ ॥६ ॥
ओं ही मनोबलऋद्धिमाप्ते भ्योऽर्यम् । जिह्वाश्रुतावरणवीर्यशमक्षयाप्तावंतर्मुहूर्त्तसमयेषु कृतश्रुतार्थाः।
प्रश्नोत्तरोत्तरचयैरपि शुद्धकंठदेशाः सुवाक्यवलिनो मम पांतु यज्ञं ॥ ६८६॥ अरु जे जिला इंद्रिय तथा श्रुतावरण अरु वोर्या तराय कर्मका क्षयोपशुपकी प्राप्ति अंतहत कालमैं समस्त शास्त्रका अर्थचिंतन करें अरु प्रश्नोत्तरनिका उत्तरसंचयनकरि शुद्ध कंठ प्रदेश है ते वचनवली मुनींद्र मेरा यज्ञकी रक्षा करो॥६६॥
__ओं ह्रीं वचनवलऋद्धिमाप्त भ्योऽयम् । मेर्वादिपर्वतगणोद्धरणेषु शक्ता रक्षःपिशाचशतकाटिवलाधिवीर्याः ।
मासनुवत्सरयुगाशनमोचनेऽपि हानिन कायवलिनः परिपूजयामि ।। ६८७ ॥ अरु मेरु आदि पवैतनिका गणका उठायनमै समर्थ अरु राक्षस भूत पिशाचनिका काटि से कडाका पराक्रम अधिक है वीर्य जिनका अरु महीना दोय महीना संवत् युग आदि पर्यंत भोजनका त्यागमैं भो जिनका शरीरवलको हानि नहीं होय ते कायवली मुनींद्र हैं तिनिनै पूजू हूं ॥६८७॥
ओं ही कायवलऋद्धिमाप्तेभ्योऽर्धम् । स्पर्शात्करांहिजनिताद् गदशांतनं स्यादामर्षजा यव इति प्रतिपत्तिमाप्तान् । (१) येषां च वायुरपि तत्स्पृशतां रुजार्तिनाशाय तन्मुनिवरागधरां यजामि ॥१८॥
सरकऊलखनऊछन्न
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Rela.RANSAMACHA
अरु जिनका हाथ अंगुलीनका स्पर्शत रोगको शांति होय तातें प्रापर्ष ही ओषधि है असा नाम पाया है और जिनका पवन भो स्पश करने वालोंकू रोगपीडाका नाशके अर्थि होय है तिनि मुनिवरनिको अग्रभूपिनै मैं पूजू हूँ ॥६ ॥
भों ही आमौषधिऋद्धिमाप्त भ्योऽयम् । निष्टीवनं हि मुखपद्मभवं रुजानां शांत्यर्थमुत्कटतपोविनियोगभाजां।
क्ष्वेलौषधास्त इह संजनितावताराः कुर्वतु विघ्ननिचयस्य हतिं जनानां ॥ ६८६ ॥ अरु जिनका मुखकमलतें उत्पन्न हुवा निष्ठीवण रोगनिकी शांतिके अर्थि होय है ते खेलौषध हैं, तिन उत्कष्ट तपका नियोग भजनेवारे अरु सफल है जन्म जिनका ते विघ्नसमूहका निवारण मनुष्यनिका करो॥ ६८६॥
ओं ही वेलौषधिऋद्धिमाप्त भ्योऽय। ___ स्वेदावलंबितरजोनिचयो हि येषामुक्षिप्य वायुविसरेण यदंगमेति ।
तस्याशु नाशमुपयाति रुजां समूहो जल्लौषधीशमुनयस्त इमे पुनंतु ।। ६६०॥ अरु जिनका प्रस्व दकरि संचित रजका समूह पवनका फैलावकरि उडिकरि जिनका शरीरनै स्पश है तिनका रोगनिका समूह है सो नाशने प्राप्त होय है ते जल्लौषधि ऋदिधारी मुनींद्र मोनै पवित्र करो॥६ ॥
प्रों हों जल्लौषधिऋद्धिमाप्त भ्योऽयम् । नासाक्षिकर्णरदनादिभवं मलं यन्नैरोग्यकारि वमनज्वरकासभाजां।
तेषां मलौषधसुकीर्तिजुषां मुनीनां पादार्चनेन भवरोगहतिनितांतं ॥ ६६१॥ अरु नासिका नेत्र कर्ण दांत प्रादिका मल रोगी ज्वर काश वमनवारेनिको नोरोगता करनेवारा है तिनि मलौषधि ऋद्धिको कीर्ति | भजनेवारे मुनोंद्रका पादारविंदका अर्चनकरि अतिशय रोगको हानि होय है ॥ ६॥
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प्रतिष्ठा
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Jain Education
श्रीं ह्रीं मलौषधिऋद्धिप्राप्तेभ्योऽघ ।
उच्चार एव तदुपाहितवायुरेणू अंगस्पृशौ च निहतः किल सर्वरोगान् । पादप्रधावनजलं मम मूर्ध्निपातं किं दोषशोषणाविधौ न समर्थमस्तु ॥ ६६२ ॥
अरु जिनका मलनिपात है सो ताको स्पर्शकिई पवनअररेणु हैं ते जाका अंगकू' स्पर्श करें तदि सर्व रोगनिने हते हैं तिनका चरणारविंदका घोयो जल मेरा मस्तकमै प्राप्त हूवो कहा दोषका शोषण विधिमें समर्थ नहीं होय, अपि तु होय ही होय ॥ ६६२ ॥ ह्रीं विडोषधिऋद्धिप्राप्तेभ्योऽर्घम् ।
प्रत्यंगदंतनखकेशमलादिरस्य सर्वो हि तन्मिलितवायुरपि ज्वरादि ।
कासापतानवमिशूल भगंदराणां नाशाय ते हि भविकेन नरेण पूज्याः || ६९३ ॥
अरु जाका अंग दंत नख केश मल आदि सर्व हो तथा तिनका स्पर्श कियो पवन है सो ज्वर आदि काश अरु अपतानं कहिये मृगी वमन शूल भगंदरनिका नाशके वास्तें होय ते मुनि कोन भव्य करि पूज्य नहीं होय अर्थात् होय ही होंय ॥ ६७३ ॥
ह्रीं सर्वौषधिऋद्धिमाप्तेभ्योऽयं ।
येषां विषाक्तमशनं मुखपद्मयातं स्यान्निर्विषं खलु तदंहिधरापि येन ।
स्पृष्टा सुधा भवति जन्मजरापमृत्युध्वंसा भवेत्किमु पदाश्रयणे न तेषाम् || ६६४ ॥
अरु जिनका विषमिलित अशन हूँ मुख कमल ने प्राप्त हूवा निर्विष होय तथा तिनको पादतल पृथ्वी भी अमृतरूप होय ताकरि तिनिका पादारविंदका श्राश्रयकरि जन्म जरा मृत्युको नाश होय है ॥ ६६४ ॥
ह्रीं आस्याविषऋद्धिप्राप्तेभ्योऽर्यं ।
"येषां सुदूरमपि दृष्टिसुधानिपाता यस्यापरिस्खलति तस्य विषं सुतीत्रं ।
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PISORR
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अप्याशु नाशमयते नयनाविषास्ते कुर्वत्वनुग्रहममी कृतुभागभाजः ॥ ६६५॥ २२५ जिनको दूर भी दृष्टिरूप अमृतवर्षण जाके ऊपर पडि जाय तो तीव्र भी विष शीघ्र ही नाशकू प्राप्त होय है ते नेत्राविष ऋद्धिधारी ये तयनका भागने भोगिवावाली मेरे ऊपरि कृपादृष्टि करो॥६५॥
ओं ही दृष्टयविषऋद्धिमाप्तेभ्योऽयम् । ये यं ब्रुवंति यतयोऽकृपया मियस्व सद्यो मृतिर्भवति तस्य च शक्तिभावात् ।
येषां कदापि न हि रोषजनिघंटेत व्यक्ता तथापि यजतास्यविषान् मुनींद्रान् ॥ ६६६॥ अरु जे साधु रोषकरि जिसपति कहैं कि तू परि तो तत्काल मरिजावै ये कथन शक्तिखभावमात्र है उनके कदापि रोषकी उत्पत्ति नहीं व्यक्ति अपेक्षा घड़े तथापि शक्ति अपेक्षा है, तिनि मुनींद्र आशीविष ऋद्विारीनिन पूजन करो॥६६॥
ओं ह्रीं आशीविषऋद्धिमाप्त भ्योऽर्घम् । येषामशातनिचयः स्वयमेव नष्टोऽन्येषां शिवोपचयनात्सुखमाददानाः ।
ते निग्रहाक्तमनसो यदि संभवेयुर्दृष्टयैव हंतुमनिशं प्रभवो यजे तान् ॥ ६९७॥ अरु जिनका असाताको समूह आप ही नष्ट हूवो अर अन्यनिक कल्याणके देने” सुखकू देनेवारे हैं अर निग्रहमें पन करें तो दृष्टि ४] क्रूर करि मारिवेकू समर्थ हैं तिनि मुनींद्रने पूजू हं॥६६७॥
__ों ही दृष्टिविषऋद्धिमाप्तभ्योऽयम् । क्षीराश्रवर्द्धिमुनिवर्यपदांबुजातद्वंद्वाश्रयाद् विरसभोजनमप्युद्गश्वित् । हस्तार्पितं भवति दुग्धरसाक्तवर्णस्वादं तदर्चनगुणामृतपानपुष्टाः ॥ ६६८ ॥
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प्रतिष्ठा २६६
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अर क्षीरस्रावी ऋद्धिधारी मुनिवरके चरणविंदयुगलका आश्रयत इस्तने प्राप्त विरस भोजन है सो दुधका रससंयुक्त वणवान् तथा स्वादवान् होय तिनि मुनींद्रका पूजन गुणरूप अमृतका पानकरि पुष्ट हम होहु ॥ ६८ ॥ भों ह्रीं सीरश्राविऋद्धिमाप्त भ्योऽघं ।
येषां वचांसि बहुलार्तिजुषां नराणां दुःखप्रघातनतयापि च पाणिसंस्था ।
भुक्तिर्मधुस्वदनवत् परिणामवीर्यास्तानर्चयामि मधुसंश्रविणो मुनींद्रान् ॥ ६६९ ॥
अरु नका वचन बहोत पीडायुक्त पुरुषनिका दुःखका घातनपणाकरि अरु जिनका हाथमें प्राप्त भोजन मधुर स्वादयुक्त होय. ते परिण मनमें पराक्रमधारी हैं तिनि मधुस्रावी मुनींद्रननिने मैं पूजू हूं ॥ ६६६ ॥
मधुश्राविऋद्धिप्राप्तभ्योऽर्घम् ।
रुक्षान्नमर्पितमथो करयोस्तु येषां सर्पिः स्ववीर्यरसपाकवदाविभाति ।
सर्पिराश्रविण उत्तमशक्तिभाजः पापाश्रवप्रमथनं रचयंतु पुंसाम् ॥ ७०० ॥
अरु जिनका हस्तमें अर्पित रुक्ष अन्न है सो घृतका रसरूप स्वपाकवान शोभित होय ते घृतश्रावी उत्तम शक्तिके धारी पुरुषनिका पापाश्रवकौं नाशनै रचौ ॥ ७०० ॥
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ह्रीं घृतश्राविऋद्धिप्राप्त भयोर्घम् ।
पीयूषमावति यत्करयोर्धृतं सद् रूक्षं तथा कटुकमम्लतरं कुभोज्यं ।
येषां वचोऽप्युमृतवत् श्रवसोर्निधत्तं संतर्पयत्यसुभृतामपि तान् यजामि ॥ ७०१ ॥
अरु जिनका हातमें घरो हुवो रूक्ष अन्न तथा कटुक खाटो भो कुभोजन अमृतने श्रवे श जिनको वचन कणनिमें धान्य संतो प्राणीनिकू अमृतसमान तर्पित कर तिनि मुनींद्रनिने मैं पूजू हूं ॥ ७०१ ॥
ओं ह्रीं अमृताविऋद्धिमाप्तभ्योऽर्घम् ।
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प्रतिष्ठा
२२७
यद्दत्तशेषमशनं यदि चक्रवर्तिसेनाऽपि भोजयति सा खलु तृप्तिमेति ।
क्षीणशक्तिललिता मुनयो दृगाध्वजाता ममाशु वसुकर्महरा भवंतु ॥ ७०२ ॥
अरु जाके अर्थ दियो भोजन कदाचित् चक्रवर्तीकी सेना भी भोजन करै सो भी तृप्तिनै प्राप्त होय ते अक्षीणमहानस ऋद्धिधारी मुनींद्र "मेरा नेत्रकमलका मार्ग प्राप्त हुवा संता आठ कर्मनिके हरनवारे होहु ॥ ७०२ ॥
नहीं अक्षीणमहानसर्द्धिप्राप्तभ्योऽर्घम् ।
यत्रोपदेशसरसि प्रसरच्युतेऽपि तिर्यग्मनुष्यविबुधाः शतकोटिसंख्याः ।
आगत्य तत्र निवसेयुरबाधमानास्तिष्टंति तान्मुनिवरानहमर्चयामि ॥ ७०३ ॥
अर जिनकी उपदेशसभा फैलावर हित होय तथापि तिसमैं कोटि सैकड्या मनुष्य अरु देव प्राय तहां सुखपूर्वक बाधारहित तिष्ठे तिनि मुर्नीनिने मैं पूज़ हूं ॥ ७०३ ॥
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ह्रीं क्षीणमहालय ऋद्धिधार केभ्योऽर्घम् । इत्थं सत्तपसः प्रभावजनिताः सिद्धवृद्धिसंपत्तयो
येषां ज्ञानसुधाप्रलीढ़ हृदयाः संसारहेतुंच्युताः ।
रोहिण्यादिविधाविदोदितचमत्कारेषु संनिःस्पृहा
नो वांछंति कदापि तत्कृतविधिं तानाश्रये सन्मुनीन् ॥ ७०४ ॥
ऐसें समीचीन तपका प्रभाव से उत्पन्न भई सिद्धिऋद्धि हैं ते ज्ञानामृत पुष्टहृदय भर संसारीक प्रयोजनरहित होय हैं ते रोहिणी आदि महाविद्याकृत प्रभाव चमत्कारमै निःस्पृह कदापि तिनिका आश्रयनै नही बांछे तिनि मुनींद्रने मैं पूजू हूं ॥ ७०४ ॥ ह्रीं सकलऋद्धिस पन्नसर्वमुनिभ्यः पूर्णाघ ।
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अलैव चतुर्विंशतितीर्थेशां चतुर्दशशतं मतं ।
सत्रिपंचाशता युक्तं गणिनां प्रयजाम्यहं ॥ ७०५ ।। चौईस तीर्थ करनिका चौदहस त्रेपन संख्यावाले गणधर महाराजनै पूज हूँ॥७०५॥
ओं ही चतुर्विंशतितीश्वराग्रिपसमावर्तिसत्रिपंचाशचतुर्दशशतगणधरमुनिभ्योऽयम् । मदवेदनिधिद्वयग्रखत्रयांकान्मुनीश्वरान् ।
सप्तसंघेश्वरांस्तीर्थकृत्सभानियतान्यजे ॥ ७०६ ॥ अरु सभानिवासी उनतीस लाख अडतालीस हजार नियत मुनीन मैं पूजू हूँ ॥७०६ ॥ ___ओं ह्रीं वर्तमानचतुर्विंशतितीर्थकरसभासंस्थायि एकोनत्रिशल्लक्षाष्टचत्वारिंशत्सहस्रपमितमुनींद्रभ्योऽर्घम् ।
अथ चतुर्दितु जिनचैत्यचैत्यालयागमधर्माणां चत्वार्य_णि देयानि तथाहिअथ च्यारू दिशा कौनमें च्यारि अर्घ सो असे हैं
अकृत्रिमाः श्रीजिनमूर्तयो नव सपंचविंशाः खलु कोटयस्तथा। लक्षास्त्रिपंचाशमितास्त्रिसगुणाः कृष्णाः सहस्राणि शतं नवानां ॥७.७॥
द्विहीनपंचाशदुपात्तसंख्यकाः प्रणम्य ताः पूजनया महाम्यहं । अकृत्रिय नौसै पचीस कोटि त्रेपन लक्ष सताईस हजार नौसै अडचालीस श्री जिनमूर्ति जे हैं तिनिन मैं नपस्कारकरि पूजू हूँ॥७०७॥ ओं ह्रीं नवशतपंचविंशतिकोटित्रिपंचाशल्लक्षसप्तविंशतिसहस्रनवशताष्टचत्वारिंशत्पमितप्रकृत्रिमजिनविंबेभ्योऽधर्म ।
अष्टौ कोट्यस्तथा लक्षाः षट्पंचाशमितास्तथा ।
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भतिष्ठा
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सहस्रं सप्तनवतेरेकाशीतिश्चतुःशतं ॥ ७०८ ॥ एतत्संख्यान् जिनेंद्राणामकृत्रिमजिनालयान् ।
अत्राहूय समाराध्य पूजयाम्यहमध्वरे ॥ ७०६ ॥ अरु आठकोडि छप्पन लाख सत्ताणवै हजार च्यारिस इक्यासो एतत्संख्यावारे जिनेंद्रके अकृत्रिम जिनालय जे हैं तिनिनै इस यज्ञमें द आह्वाननकरि अरु समाराधनकरि मैं पूज हूँ॥७५-७०६॥ ओं ह्रीं अष्टकोटिषट्पंचाशल्लतसप्तनवतिसहस्र वतुःशत एकाशीतिसंख्याकृत्रिमजिनालयेभ्योऽर्घम।
यो मिथ्यात्वमतंगजेषु तरुणान्नुन्नसिंहायते
एकांतातपतापितेषु समरुत्पीयूषमेघायते । श्वभ्रांधपहिसंपतत्सु सदयं हस्तावलंबायते
स्याद्वादध्वजमागमं तमभितः संपूजयामो वयं ॥ ७१० ॥ अरु जो मिथ्यात्वरूप हस्तीनमैं युवान अरु भूख करि पोडित दुष्ट सिंह के समान है अरु एकातरूप प्रातापकरि तलायमाननिमैं पवनसंयुक्त मेघके समान है अरु नरकरूप कुवामें डूबते प्राणीनिमैं सदय होय तसं हस्तका आतंबन देनेवारा है जैसा स्याद्वादरूप ध्वजायुक्त आगम जो है ताहि सर्वत्र हम पूजै हैं ॥७१०॥
ओं ह्रीं स्याद्वादमुद्रांकितपरमजिनागमायार्घम् । जिनेंद्रोक्तं धर्म सुदशयुतभेद त्रिविधया स्थितं सम्यक्ररत्नत्रयलतिकयाऽपि द्विविधया ।
प्रगीतं सागारेतरचरणतो ह्येकमनघं दयारूपं बंदे मखभुवि समास्थापितमिमं ॥७११॥ __ अरु दशभेद संयुक्त उत्तमक्षपादिरूप अरु सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र प्रकारतें तीन प्रकार अरु मुनि श्रावक भेदत दोय प्रकार अरु द्याला निःपापकरि एक ऐसा जिनधर्मनै यज्ञभूमिमै स्थापन प्राप्त हूवान मैं बंदू हूँ॥११॥
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SARAE%ACRECECA%C3SEASESS
ओं हो दशलक्षणोत्तमादित्रिलक्षणसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप तथा मुनिगृहस्थाचारभेदेन द्विविध तथा दयारूपत्वे नैकरूपजिनधर्माय अघम् ।
यागमंडलसमुद्धृता जिनाः सिद्धवीतमदनाः श्रुतानि च ।
चैत्यचैत्यगृहधर्ममागमं संयजामि सुविशुद्धिपूर्तये ॥ ७१२॥ इस यागमंडलमें उद्धार किया जिनेंद्रदेव हैं ते तथा सिद्धिरूप वीतराग गुरु जे हैं ते तथा चैत्य चैयालय आगम धम जे हैं विनिकों विशुद्धिकी परिपूर्णता निमित्त मैं पूजू हूँ॥७१२॥
ओं ही सर्वयागमंडलदेवताभ्यः पूर्णार्धम् । शांतिः पुष्टिरनाकुलत्वमुदितभ्राजिष्णुताविष्कृतिः
संसारार्णवदुःखदावशमनं निःश्रेयसोदभूतिता। सौराज्यं मुनिवर्यपादवरिवस्याप्रक्रमो नित्यशो
भूयादभ्रशराक्षिनायकमहापूजाप्रभावान्मम ॥ ७१३ ॥ यह दोयम पंचास महानायक पूजाका प्रभावतें भव्यनिकै शांति होय पुष्टि होय अनाकुलपना होय तेजखिताकी प्राप्ति होय अरु संसार समुद्रमै दुःखरूप दावानलको शमन होय अरु कल्याणको उत्पत्ति होय अरु सुंदर राज्य अरु मुनिवर चरण पूजाको अनुक्रय सदाकाल होय ॥७१३ ॥
इत्याशीर्वादं पठित्वा पुष्पांजलिं क्षिपेत् । ऐसें सर्ववलयकोणमैं पुष्पांजलिरूप आशीर्वाद देना।
ततोऽत्राचार्याहंदभक्तिसिद्धश्रुतचारित्रभक्तिपाठं कृत्वा महार्यं दद्यात् । अब इहां यजमान अरु आचार्य दोन्यूआचार्यभक्ति अहंभक्ति सिदभक्ति श्रतभक्ति चारित्रभक्ति पाठ करै मा अघ देव।
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थतिष्ठा
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अथ पंचकल्याणकारोपमनुक्रमिष्यामः। अथ पंच कल्याणनिका आरोपनै अनुक्रमकरि कहै हैं
कल्याणपंचकमनुकमतः सुरेंद्राः कृत्वा स्वजन्मवहनं सफलं गणतः ।
तत्पंचकावतरणे विधृतिक्रियार्था धन्या भवाम इति तान्यनुभावयामः ॥१४॥ सुरेंद्र हैं ते अपना जन्मनै सफल मानते जिनेंद्रका पंचकल्याण अनुक्रमतं करि पर तिसपंचल्याणका तरखने जो जो क्रिया अथ Pा धारण करें पर धन्य मान है तिनिनै हम भी अनुभवन करें हैं॥७१४॥
इत्युक्त्वा पुष्पांजलिक्षेपः। असे पढ़ि पुष्पांजलि क्षेपण करना।
मंत्र। यो अरहताणं णमो-सिद्धाणं णमो पाइरियाणं णमो उवउमायाणं णमों लोए सबसाहणं। ओं जय जय जय नमोऽस्तु नमोऽस्तु || नंद नंद नंद अनुसाधि अनुसाधि पुनीहि पुनोहि पुनोहि मांगल्यं मांगल्यं मागल्यं शांतिरस्तु ।
मंगलं जिननामानि मंगलं मुनिसेवनं ।
मंगलं श्रुतमध्येयं मंगलं विंबनिर्मितिः ॥७१५॥ . जिनेंद्रके जितने नाम हैं, ते सर्व मंगल हैं, अर वीतराग मुनिनिको सेवन है सों मंगल है अर अध्ययनयोग्य) श्रत कहिये अमाप्तवाक्य ते || मंगल हैं अर भगवानका विंबकी प्रतिष्ठा है सो मंगलरूप है ॥७१५॥
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भतिष्ठा
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CERICASSORDP
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तावदत्र शचीकल्पनं । प्रथम इंद्राणोका स्थापन कहिये हैसौभ्याग्यामलचारुभूषणचरिखालंकृतां पावनी
कल्पवासवभामिनी व्रतगुणैः शीलैर्महाशोभनां । अन्यां वा कृतिकर्मसंग्रहकरी योग्यामुदीक्ष्य ध्रुवं
संदीक्षाप्रतशुद्धये वितनुतामाचार्यवर्यः स्वयं ॥ ७१६ ॥ प्राचार्य प्राप दीक्षा जो प्रतिष्ठारूप वृत्तको शुद्धि अर्थि सौभाग्य ही अमल सुदर भूषण अर चरित्र ताकरि मालंकृत सुंदर भूषण अरू चारित्र ताकरि अलंकृत अर पवित्र अर वृत्त गुणनिकरि और शीलनिकरि महा शोभायमान ऐसी कल्पना किया इंद्रको पलो जो है ताहि तथा अन्य सर्व कार्यने सावधानीकरि करनेवारी योग्यने देखि निश्चय करै कि स्थापन करे॥७१६ ॥
अस्मिन् कर्मणि मात्रुपासनविधावेषाप्रशस्ता भव
- त्वेवं सभ्यजनाः प्रमाणयत सद्धर्मत्वबुद्धयेति तां। मांगल्यादिविभूषणैः कृतमहोत्संहामिमां रक्षय
मंत्रोपास्तितया नियोज्य कुसुमक्षेपं विदध्योत्सवे ।। ७१७॥ अर सकल सभाजन प्रमाण करें कि या इंद्राणो माताकी उपासना विधिमें तथा वस्त्रालंकार देने की विधि प्रशस्त होहू धर्मबुद्धि करि या प्रकार मांगल्य आभूषणनिकरि किया उत्सववाली इसने मंत्रको उपासनाकरि रक्षाबंधन सहित नियोजित करि इस उत्सवमें पुष्पांजलि क्षेपण करें॥७१७॥
इति शचीदेवीप्रतिज्ञानाय पुष्पांजलिः । ऐसें शची देवीकी स्थापना करनी।
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प्रतिष्ठा
पाठ
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POLICARRIERROR
अंबाः सर्वाः सवित्र्यस्त्रिजगदधिपतिप्राप्तपूजाधिकारा
___ अत्रागत्याध्वरोया यजनकृतमिह स्वादरेण वृणंतु । अवयूपत्निका वा धृततनुकुलयोर्दोषहीनां प्रकल्प्य
वादित्रोद्घोषपूर्व विहितयमदमां भूषयेत्पुण्यमूर्तिम् ॥ ७१८ ॥ कदाचिदेषा न भवेद्गुणाढ्या मंजूषिकां कल्पतु मातृकार्ये ।
एवं चतुर्विशतिजिनप्रसूनां नामानि पुण्यानि कृती वहेत ।। ७१६ ॥ तीन जगतके स्वामी इंद्र धरणे द्रादिकरि प्राप्त है पूजाको अधिकार जिनि असो सर्व जननी अंबा जे हैं ते इहां यज्ञ भूमिमै आयकरि यज्ञका कृत्यने आदरकरि ग्रहण करो। काष्ठको मंजूषाने ही माताका कार्यमें कल्पना करो। ऐसें चौईस जिनराजकी माताका नाय पुण्यवान् यजमान स्थापन करै तथा स्मरण करे ॥ ७१८-७१६॥
____ओं ह्रीं मरुदेव्यादिजिनेद्रमातरोऽत्र सुप्रतिष्ठिता भवंतु स्वाहा। ओं ह्रीं मरुदेवो आदि जिनेंद्रमाता इहां तिष्ठो, अर्घ देणा। ऐसें भद्रपोठ कहिये वंदना काष्ठकृत पोढामें मातृमंडल प्रति पुष्पांजलि देनी।
इत्युक्त्वा .... .... .... .... ....।
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..... .... .... .... .... ॥ ७२०॥ छत्र रत्न दर्पण ध्वजा वस्त्र मंगलीक आभूषणनिका ग्रहण करि भूषित शुचिविधानसंयुक्त स्नान करावै अरु चंदनको चर्चन अरू पाला आदिनि करि पूजे ॥ ७२० ॥
असे पढ़ि माताके अग्र छत्र चापर भूषण आदि स्थापन करै।। अब दिक्क मारिका जो माताकी सेवामें इंद्रकरि नियोजित कीजिये है ताको कल्पन है
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मतिष्ठाः
पाठ
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.... ... .... ... ... ... ॥ ७२१ ॥ देवनिकरि मानी सुदर भूषण वस्त्रदान करि सन्मानित कियी ऐसो कुमार अवस्थाको धारण करनेवाली अरु नहीं प्राप्त है पतिसंभोग | विकार जिनि अरु जाति कुलमें उच्च छह संख्यावाली तथा छप्पन संख्यावाली कल्पनाकरि संनियोजित करनी ॥ ७२१ ॥
कुमारिकोपरिपुष्पांजलिक्षेपः। तदुत्तर यज्वा ताभ्यो नानावस्त्राभरणमुकुटादिदानं कुर्यात् । ____ों ही श्री ही धृति कीर्ति बुद्धि लक्ष्मी तुष्टि पुष्टि शांत्यादि दिक् कुमारिका देवी इहां प्राय जिन मातानै सेवो असा कहि कुमारिका ऊपरि 18| पुष्पांजलि क्षेप करना । अरु यज्वा प्रतिष्ठाको घणी इनिकू नाना प्रकारका वस्त्र प्राभरण प्रदान करे।।
इंद्रादिदिग्पतिनियोगकृतावनानि स्थानानि यस्य परितः सुपरिष्कृतानि ।
तद्राजसद्मनि पुरंदरदत्तशिष्टी रत्नानि वर्षयत गुह्यकराजराजः।। ७२०॥ बहुरि इंद्रनिकी आज्ञानुसार कुवेर है सो जाकी चौतरफा इंद्रादि देवनि करि नियोगसे किया है रक्षण जिनिका अर चौतरफ तिष्ठते ऐसे स्थान वेष्टित कर रख्या है ता राजमंदिरमें रत्ननिको वर्षा करो ॥ ७२२ ॥
ओं ह्रीं धनाधिपते अत्यतिसौधे रत्नदृष्टिं मुचतु मुचतु स्वाहा । इत्युक्त्वा सौधोपरि सर्वत्र रमष्टि तथा कुंकुमाक्तपुष्पोत्कर यजमानादयो विस्तृण्वतु। इति रत्नदृष्टिस्थापनं ।
ओं ह्रीं धनादिपति कुवेर अर्हतका महलमें रत्नदृष्टिने करो ऐसे कहि सर्व गृहमें ऊपरि रत्ननिको वर्षा तथा पंचवण तंदुलनिकी वर्षा करै। ऐसे रत्नदृष्टि स्थापन करनी।
सर्वर्तुजानि फलपुष्पविलेपनानि गंधासनोपकरणानि पविलितानि ।
संस्थापयत्वधिगृहं जिनमातृकाया भोगोपभोगरुचिराणि मनोहराणि ॥ ७२३ ॥ पर कुवेर है सो सर्वऋतुके उपजे फल पुष्प चंदनादिक तथा माला आसन आदि अनेक चित्र विचित्र ऐसे मनोहर भोगोपभोगसामिग्री जे हैं तिनि. जिनमाताके गृहमें स्थापन करो॥७२३ ॥
इति जिनमातृसौधे वस्त्रभूषणमंदनादिस्थापनं । ऐसैं जिनमाताका भवनमें अनेक शोभा करें।
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प्रतिष्ठा
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NAGAROLKAASHASIRRIGARHECEMBERex
अथ पंचकल्याणस्तोत्रम् । अब यहां पंचकल्याण स्तोत्र पाठ पढिये है सो ऐसा
यद्गर्भावतरात्पुरः सुरपतिः संतोषयन् भूतलं
दीनानाथजनांश्च दुःखदवतो निर्घाट्य हर्ष ददन् । षण्मासात्पुरतः परत्र नवसु स्वर्ण समावर्षयन्
श्रीह्रीमुख्यकुमारिकाः प्रणियुजन् यस्यास्ति सेवापरः ॥ ७२४ ॥ पर जिस जिनेश्वरके गर्भ में अवतारके पहिली ही सर्व भूतलने संतोषित करतो अर दुःखरूप दावानलसे दीन अनाथ जनने दूर करतो इंद्र है सो छह महोना पहिलो अर नवमास पीछे ताई रत्नवर्षाने त्रिकाल करतो अर श्रयादि कुमारिकान यथानियोग गर्भशोधनाथ योजन करतो इंद्र सेवामें तत्पर होतो भयो सो भगवान् जय ते रहो । ७२४ ॥
स्वर्गानेकपमाधिरोह्य सदनाद्राज्ञः सुमेरुस्थल
नीत्वा दुग्धपयोधिसंभृतनिपैः स्नानं चकारेंद्रराट् । यत्स्तोत्रं सुविधातुमास्यमकरोत्साहस्रसंख्यं तथा
नृत्यप्रांगणसंगतस्तु वपुषं स त्वं जिनेंद्रःप्रभः॥ ७२५॥ अरु इंद्र ही जाकूराजाका गृह प्रांगणसें ऐरावत हस्तीपर आरोहण कराय सुमेरु पर्वत पर ले जाय अर तहां तोरसमुद्रके जल भरे 8 कलशनि करि स्नान करातो भयो अर जाका स्तोत्र करवेकू इंद्र अपणा मुख हजार संख्यावाले करतो भयो पर नृत्य अंगणमें प्राप्त भयो इंद्र हजार शरीर रचतो भयो सो तू जिनेंद्र स्वामी जयवान हो ॥ ७२५॥
किंचिद्धेतुविलंभनादिह गतं साम्राज्यसौख्यं तृण
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प्रतिष्ठा
२३६।।
PROCEROSECURRECORAKHAND
प्रायं मोचितवान् लिलोकमाहितं राज्यं समासादितुं । कृत्वोग्रे तपसि स्थितोऽशुभविकृत्युत्पाटयन्मूलत
श्चारित्रैश्यमगात्प्रभुर्गुणनिधिः स त्वं विभास्येव नः ॥ ७२६॥ अर जो कछु हेतुमात्र वराग्यका प्राप्ति होने इस भगवान् चक्रवर्ती आदि राज्य सुखन तृण समान जानि अर तीन लोकपूजित सिदत्व राज्यन प्राप्त होवे छोडतो भयो सो उग्र तपमै आत्मनै करि स्थित हुवो अशुभ विक्रिया कर्मनै मूलसें उत्पाटन करतो चारित्र संपूर्णका खामीपणाने प्राप्त होतो भयो सो गुणांको निधि तू प्रभू हमारे मध्य शोभायमान हो ॥ ७२६॥
कैवल्यावगमाच्चराचरजगवस्तुस्वरूपं करे
___ कृत्वा श्रीसमवस्थितौ नरपशुस्वर्गिव बोधयन् । धर्माभो भवदुःखतप्तभविनो दत्वा सुखास्वादनं
नीताः सोऽस्त्वपुनर्भवाय भवतां कल्याणकल्पद्रुमः॥७२.।" अर केवल ज्ञानका प्राप्ति होनेते चर अचर जगत् पदार्थनिका स्वरूपने हाथमें करि श्रीमान् समवसरनमैं स्थिति करि मनुष्य और तियच और देव इनका समूहनै बोधित करतो धर्मरूप जलदान संसार दुःख करि तप्त संसारी जनोंकू देय सुखको आस्वादने प्राप्त कियो सो स्वामी संसार आवागमनका नहीं होनेके वास्ते कल्याणका कल्पवृक्ष होउ ॥७२७॥
आयुर्नामसुगोलशातनविधीनुक्त्वाल्पसर्वप्रक-(?)
त्युन्माथं सुविधाय चैकसमये लोकांतमाप्तः स्वभूः । किंचिन्न्यूननिजात्मदेशकलनः सिद्धः परंज्ञायक
श्चिद्ज्ञानांबकवीर्यताप्तिविमलः स त्वं महान् पूज्यते ॥ २८ ॥
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प्रतिष्ठा २३७
अर आयु नाम गोत्र अर साता वेदनीय कर्मानकू सम रूप उत्फाल करि सर्व प्रकृतिनिका नाशकरि फिरि एक समय में लोकांतकू प्राप्त भयो सो स्वयंभू किंचिन्न्यून चरम देहतें आत्मप्रदेश रचनावालो होय सिद्ध ज्ञायक चतन्य ज्ञान दर्शन वीर्यपनात निर्बल है, सो तू हम करि महान् पूजिये है ॥ ७२८ ॥
इति पठित्वा पंचकल्याणारोपणविधिप्रतिज्ञानाय मूलप्रतिकृत्यग्रे पुप्पांजलितेपः । ऐस' पढ़ि मूलमतिमा अग्र पंचकल्याणका आरोपण वास्तै पुष्पांजलि क्षेपणी ।
तां मूलप्रतियातनां सुरपतिर्गंधाक्तवर्ण्यप्रभां
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निहितां विधाय विनयान्मातुः प्रसूतिस्थले । श्रानीयापि निधापयेत् शुचितरैर्वस्लै रहस्ये रज
न्यर्धे चाल्पतनौ तु तव वसनाच्छन्नां क्रियान्मंत्रवित् ॥ ७२६ ॥
इंद्र राजा है सो उस मूल त्रिकू गंधयुक्त देह लिंपन करि मंजूषामें स्थापि विनयसेतो माताका प्रसूतिस्थानमें ल्याय करि सुंदर धौत वस्त्रनिकरि एकांतमें अरु अर्ध रात्रिमें आच्छादित करै अल्प शरीर नहीं होय तो वहां ही वस्त्र करि मंत्रशास्त्री आच्छादन करें ॥ ७२६ ॥ इति मूलविवाच्छादनं ।
मूलविंची क्रियाकरि अन्यविबनिनै केसरि चंदन करि लिंपन कर ।
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अथ मातुःस्वप्नारोपणं । तथाहिअब माताकू स्वप्न आधै ताका वर्णन कहिये है
सौधांतरुद्यन्मणिदीपकाद्युतिविद्योतिशय्याभवनाग्रभूमिषु ।
चित्राणि लेख्यानि पृथक् पृथक् स्थितान्यादृश्यमाना जननी स्वपां क्रियात् ॥ ७३०॥ महलमें देदीप्यमान रत्नके दीपकनिकी ध तिकरि प्रकाशित शय्यागृहनिकी अग्रभूमिमें न्यारे न्यारे चित्र स्वप्नके माता दीखते रखि माता शयन कर ॥७३०॥
तानि कानीत्यत आह
ते स्वप्न कौन कौन हैं सो कहिये है-- आपांडुरद्युतिमुदंचितपीवरोरुस्कंधं गवेंद्रमुरुमंजुलमंद्रघोष ।
ऐरावतं द्विपपतिं त्रिमदश्रवंतं मंद्रार्द्रगर्जितमुरुप्रबलांगयष्टिं ॥७३१॥ प्रथम ही पांडरकांति पर उन्नत पृष्ट स्कंधयुक्त पर दीर्घ मधुर शब्द करता पर नवीन शोभायमान ऐसा बैलने देखत भई तथा तीन * स्थानमें कपोल कुंभस्थल ग्रोवामें पद भरती अर मंद्र गर्जनायुक्त ऐसा ऐरावत नामक हाथोने देखत भई ॥ ७३१ ॥
पंचास्यमिदुनिभदेहसटावितानभास्वंतमुद्यदभिभासि विवश्वदंगे।
पद्मासनाश्रयहरिस्थितिदोलयंतीं पद्मां हिरण्मयनिपैः स्नपितामुदारां ॥७३२॥ चंद्रमासमान धवल स्कंधके केशराली समूहकरि भासमान पर उदयरूप कांतियुक्त शोभित शरीर ऐसा सिंहने देखत भई पर कपलका || सरोवरमें सिंहासन पर बैठी झलती सुवर्णके कलशनिकरि स्नान करती ऐसो युवान लक्ष्योने देखत भई ॥७३२ ॥
पुष्पस्रजौ कुसुमगंधविलुब्धभंगे उत्तानसंस्थितियुजौ नवसत्पुनीते।
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तारापतिं तरलभासुरशुक्लकांतिं संपूर्णविंबविगलत्सुधयातिरम्यं ॥ ७३३ ॥ अर पुष्पनिकी सुगंधमें मग्न है भ्रमर जिनमें अर लंबायमान स्थितियुक्त अर नवोन पवित्र मालाका युगलने देखत भई अर तरल दीप्तियुक्त श्वेतकांतिवारोअर संपूर्ण विवत झरतो अमृत करि रमणीक ऐसा चंद्रमाने देखत भई ॥७३३ ॥
दिग्सुंदरीवदनदर्शनदर्पणाभं ध्वांतछिंद रविमहर्मुखभासमानं ।
कभी स्वमंगलधियाग्रधरांगणस्थो पद्मच्छदावृतमखौ शचिनीरपर्णी ॥३४॥ अर दिशारूप नायकाका बदनका देखनेका दर्पण समान अर अंधकारने नाशनहारो अर प्रभातमें उदय होतो ऐसा सूर्यने देखत भई अर अपना मंगलकी बुद्धिकरि अग्र पृथ्वीका प्रांगणमें धरे अर कमलपत्रकरि ढके हैं मुख जिनके अर शुद्ध जलकरि भरे ऐसे कलशनिन देखत भई ॥७३४॥
मीनौ सरोवरजले जलजप्रसन्ने खेलाः कृतौ नयनयोरुपमानगम्यौ ।
रिंगत्तरंगततपद्मपरागगंधि दिव्यं सरोवरमदच्छुचिराजहंसं ॥ ७३५ ॥ __ अर कमलयुक्त सरोवरमें क्रीडा करते अर नेत्रको उपमायोग्य ऐसे मीन कहिये छोटे परसने देखत भई अर चंचल तरंगनिकरि विस्तृत कमलका पराग करि सुगंधित अर क्रीडा करता है राजहंस जामें ऐसो सरोवरने देखत भई ॥ ७३५॥
अक्षोभपूर्णसलिलप्लुतवाडवाग्नि रत्नाकर स्फटिकदर्पणवत्प्रभासं ।
सिंहासनं मणिखचद्वयपार्श्वकुड्यं सिंहैश्चतुर्भिरनुसंगतपादमूलं ॥ ७३६ ॥ अर अगाध परिपूर्ण जल करि डूबतो है बाडवानल जामै अर स्फटिकका दर्पण समान ऐसा समुद्ने देखत भई । अर मणिकरि खचित दोन्यू पखवाड़ा अरु भित्ति जाको अर च्यारि सिंहनिकरि च्यारि पाया धारण किया ऐसा सिंहासन देखत भई ॥ ७३६ ॥
नाकालयं मणिनिबद्धनभोऽवकाशं स्वर्गात्समागतमिव प्रभुसेवनार्थम् । नागेंद्रसद्मधरिणीहृदयाद् धेरैणं संदर्शनोत्सुकमिवोद्गतमंशुपिंडम् ॥७३॥
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भर मणि करि समस्त प्राकाशमें प्रकाशयुक्त अर प्रभुका सेवन वास्त हो स्वगसें मानू आया ऐसा खगका विपानने देखत भई। भर पृथ्वीका हृदयतें निकस्यो अर भुवनपति जिनेंद्रका दर्शनमें ही मानू उत्साहवान ऐसा धरणींद्रका भवनने देखत भई ॥७३७॥
दारिद्रदुःखविनिपातनहेतुभूतं राशिं सुरत्ननिचयस्य लसंतमुच्चैः।
निधूमतोज्ज्वलदमेयशिखं कृशानुं मूर्ते खकर्मदहनाय कृतावतारं ॥ ७३८ ॥ अर दारिद्रका अर दुःखका दूर करणेमें कारणभूत अर उच्च प्रकार देदोप्यमान ऐसो रत्ननिको राशिने देखत भई अर निधू मतायुक्त हूँ उज्ज्वल है अप्रमाण शिखा जाको अर अपना कर्मनिका दहन वास्ते ही किया है अवतार जाने ऐसा अग्निने देखत भई ॥ ७३८ ॥
दृष्ट्वा नितांतशुभदायतिगान् सुखोत्थान् स्वप्नान् प्रभातसमये प्रतिबुद्ध एव ।
मांगल्यतूर्यविनिबोधितयोग्यकाले तिष्ठेत्सखीजनविवृद्धसुखप्रचारा ॥ ७३६ ॥ ऐस या प्रकार पोडश स्वप्नने नितांत शुभ देने वारा है उत्तरकाल जिनका अर मुखकरि उठे तिनिदेखकरि प्रभात समयमें जागतो माता मंगलकारि वादित्रनिका शब्दकरि योग्य समयमें सखी जनादि परिचारिकानिकरि सुखकू फैलावतो संती उठती भई ॥३६॥
एवं विधातृकल्पोपक ठे आचार्ययज्ञानौ सपागत्य तदृष्यस्वप्नानां पृथक पृथक्तया फलानि निवेदयित्वा षोडशमात्रये उत्तरयेतां सापि तानि श्रुत्वाऽऽत्पान धन्यां मन्वाना श्रयादिषु दत्तादरा स्यात् । ___ या प्रकार माता समान कल्पित माता पास यजमान तथा प्राचार्य प्राय अनुक्रमरि स्वनका फल निवेदन करते षोडश फल माताके | अग्र उतारै तथा तो माता भी अपना आत्माने धन्य मानि श्री हो आदि कुमारिकाको तरफ आदरपूर्वक दृष्टि देव ।
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अथ यादीनां स्वरूपकृत्यवर्णनं । तथाहि
अब श्री आदि कुमारिका देवोनिका स्वरूप ऐसा सो कहिये है
चतुर्भुजा श्रीर्धृत पुष्पकुंभसच्चामरैर्मातरमुत्सहती | शोभां जगत्यामपुनर्भवतीं दधे चलत्कंकणचारुहस्तैः ॥ ७४ ॥
चारि हैं भुजा जाकै घर धारण किया है पुष्प अर कुंभ अर समीचीन चमर जानै अर माता उत्साहयुक्त करती अर जगतमें कदापि नहीं होनेवारी शोभाने चलायमान कंकणयुक्त सुंदर हस्तनिकरि धारण करती श्री नाम देवी होती भई ॥ ७४० ॥
३१.
लज्जाकुलोद्भूतनितंबिनीनामाभूषणं तां द्विगुणीचकार ।
मातुःपदां भोरुहसेवनानि इलेण चके वरिवस्यमाना ॥ ७४१ ॥
अर सुंदर कुल उपजी स्त्रोनिक लज्जा है सो भूषण है, सो येह ही देवी वा लज्जाने दूणी करतो भई अर छत्रकरि सेवा करती संती माताका चरणारविंदकी सेवाने करती भई ॥ ७४१ ॥
धैर्यं विदधे धृतिनामदेवी सिंहासनस्थार्पणतः सवित्र्याः ।
बैलोक्यनाथप्रसवेन लेोके मान्यत्वसंसूचनताकरस्य ॥ ७४२ ॥
अर धृतिनाम देवी सिहासनका अर्पण माता की सेवा में धैर्य धारण करावती भई । सिंहासन है सो त्रैलोक्यनाथका जन्म करि लोकमें मान्यपणाका देनेवारा है ॥ ७४२ ॥
विस्तारयामास यशोभिवृद्धि कीर्तिः समासादितपुण्यकार्या । जयस्तव मातुरुदीर्य यष्टिं द्वारोपकंठे स्थितिमादधौ सा ॥ ७४३ ॥
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अर संचयरूप किया है पुण्यकार्य जानै ऐसी कीर्तिदेवी माताकी यशकी वृद्धि विस्तारती भई अर जय जय शब्दकरि अर स्तुतिकरि || माताका द्वार पर स्थितिने ग्रहण करतो भई ॥७४३ ॥
स्वयंप्रबुद्धस्य जनुर्विधाच्या मातुः कुतश्चित्परिवृद्धबुद्धिः।
नेति स्वयं चास्ति दधार बुद्धिर्बुद्धिप्रकाशं जनतार्थनीयं ॥ ७४४ ।। अरु स्वयं प्रबुद्ध भगवानको जन्म देनेवारी माताकी बुद्धिकी वृद्धि कोई कारणत भी नहीं है किंतु स्वयमेव ही है या बुद्धि नाम देवी अनेक जन्मनिकरि प्रार्थनीय बुद्धिका प्रकाशने आप ही धारण करती भई ॥७४४ ॥
रत्नावली यस्य गृहे पपात त्रिकालमाशार्थिजनस्य पूर्णा।
योति लक्ष्मीः स्वयमागतानामभ्यर्थितार्थादधि ददेऽर्थं ।। ७१५॥ अर जाका गृहमें रत्नदृष्टि त्रिकाल याचक जनाकी पूर्णता करनेवाली होती भई ताकारण लक्ष्मी जहां स्वतः ही है सो स्वयं पाए यावक जनोंका मनोरथसे अधिक द्रव्यने देती भई॥ ७४५॥
यस्योद्भवे नारकसंगतानां मुहर्तमाना किल शांतिरासीत ।
तन्मातुरीशित्वविधाप्रपूर्ती शांतिः स्वयं शांतिततिं ततान ।। ७४६ ॥ अर जा जिनेंद्रका उत्पत्ति समय नरकके प्राणीनिक भी मुहूर्त मात्र शांति' हुई ता कारण शांति देवी माताका इष्ट विधानकी पूर्तिमें आप ही शांतिसमूहने विस्तरतो भई ॥७४६ ॥
सर्वत्र जीवाभयदानदत्तेः पुष्टिः स्वयं जीवगणस्य चासीत् ।
चित्रं यतोऽचेतनरत्नराशिः पुष्टीबभूवात्मगणेन सार्धम् ॥ ७४७॥ अर पुष्टिदेवी है सो सर्वस्थानमें प्राणीमात्रकू अभयदान देनेमें नियुक्त होती भई और येह आश्चर्य है कि अचेतन रत्नदृष्टि भी आपका गण जो नाना प्रकार मणिनिकरि पुष्ट होता भया ॥ ७४७॥
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रोगाः स्वपायामपि यत्र लोकान्न प्रापुरेवं स्वत एव तुष्टिः । परंतु तुष्टिः स्वनियोगसिद्ध्यै पादद्वयं नैव जहौ जनन्याः ॥ ७४८ ॥
अर संसारमें भव्यजन ता समय रागकू स्वप्न में भी नहीं प्राप्त भये या कारण स्वतः ही तुष्टि है परंतु नियोगमात्रको सिद्धि अर्थ तुष्टिदेवी माताका चरणारविंदद्रयने नहीं छोडती भई ॥ ७४८ ॥
एवं कुमार्योऽमरनाथशिष्टिं विनैव मातुश्चरणार्चनायां । शक्तिभाजो हि वभूवुरीशप्रभाव एव प्रतिपत्तिहेतुः ॥ ७४६ ॥
ऐसे देवकुमारिका इंद्रराजकी आज्ञा विना ही माताका चरणारविंदकी सेवा में मशक्त होती भई यह प्रभाव श्रीजिनेंद्रका सर्व प्राप्ति हेतुभूत है ॥ ७४ ॥
तांबूलदायिन्यपरांघ्रि सेवासंवाहने कापि सुमज्जनेऽन्या ।
महानसे कापि सुमंगलार्थगानेऽन्यका नृत्यविधौ नियुक्ता ॥ ७५० ॥
केई माताकू' तांबूल देने में युक्त भई केई पादमर्दन में निपुण होती भई, कोई स्नान कार्यमें, केई रसोईका परिपाकमें, कोई मंगलीक गान में अर अन्य नृसका विधानमें नियुक्त होती भई ॥ ७५० ॥
प्रसाधनानि व्यजनं सुवस्त्रं सौगंध्य मुर्वी प्रतिमार्जनं च ।
आदर्शपालाब्जविभूषणानि काप्यादधौ मातुरुदप्रभूम्यां ॥ ७५१ ॥
कोई अलंकार शृंगार पात्रने, कोई बींजना पवन पात्रने, कोई वस्त्रने, कोई सुगंध चंदनादिकने, कोई पृथ्वीका शोधनमें अर्थात् बुहारीमें, कोई दर्पण पात्र काच विभूषणादिक माताके अग्र धारण करती भई ॥ ७५१ ॥
छंदः कला गोष्ठिपुराणचर्चामनोहरा याभिरहर्निशं तु ।
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प्रवर्त्यते यत्र सरस्वती हि स्वयंप्रबुद्धा न जहाति पार्श्व ॥ ७५२ ॥ 8 . अर जिन करि रात्रिदिन छंद शास्त्र कला चातुर्य तथा गोष्ठी जो संसार सुख वार्ता तथा पुराण आदिकी चर्चा पनोहर प्रवचन करिये तहां स्वयं जागती सरस्वती है सो माताका नजदीकपणाने नहीं छोडै है ॥ ७५२॥
इत्यायुपाक्लृप्तकुमारिकाणां सार्थेन पूज्या जननी जिनेशः।
मासान्नवाथोपनिनाय यदवा यामान दिनानि व्यतिसंक्रमेण ॥ ७५३ ॥ __इन आदि कल्पना किई दिक्कुमारिका समूह करि सेवित श्रीजिनेशकी माता उत्कृष्ट नव महीना अथवा नवदिन तथा प्रहर पर्यंत ययाl योग्य गर्भवासको मंगल करै । ७५३ ॥
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अथ प्रभाते सौभाग्यसीमंतिनीकृतयात्राविधानं । तथाहिअथ प्रभात समय सौभाग्यवती स्त्रियां जलयात्रा करें अर्थात कलश भरि ल्याव सो ऐसे
पुरोपकंठे सरिदादिशुद्धनीराणि सौवर्णघटैगृहीतुं ।
वादिलमांगल्यनिनादपूर्वं गच्छेयुरभ्यर्थपुरंधिमुख्याः ॥७५४ ॥ सुवर्ण आदिके कलशनिकरि नगर समीप तिष्ठती नदी आदिका शुद्धनीर ग्रहण करिवेकूमनोज्ञ स्त्रियां वादिन नाद मंगलीकपूर्वक गमन करें ॥ ७५४॥
जलाशयस्थांश्च वितीर्य योग्यासनादिपानैर्वसनैमनोज्ञैः। संगृह्य शुद्धया कलशैः सृजाक्तवासाफलैर्वेदिमुपाचरेयुः ॥७५५॥
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अर वहां जलके स्थानके अधीशनिने योग्य आसन पान अहवख मनोज्ञनिकरि बितोर्ण करि माला गंधयुक्त वस्त्र तथा फलनिकरि द्विताय | है वेदीपति ल्याव ॥७५५॥
तं वारकं वासवपाणिनीतं स्वस्त्यादिमरुपचर्य यो।
श्रीशांतिके मंतकृता पुनीते संस्थाप्य यज्वाऽर्चनमाकरोतु ॥ ७५६ ॥ अर सौभाग्यवंतीनिकरि ल्यायो जो मंगल कलश तिसने इंद्र अपना हाथकरि ग्रहणकरि स्वस्तिवाचन मंत्रनिकरि पूजा कर अरु शांति यंत्रमें कि अनेक मंत्रनिकरि पवित्र कियो तीहमें स्थापन करि पूजन करो ॥ ७५६ ॥
ततः पुरस्कृत्य जिनेशपेटां श्रीमातरं वा कृतिकर्मपूर्व।
जिनद्रमात उपदिश्य गर्भकल्याणपूजां वितनोतु शक्रः ॥ ७५७ ।। तातं जिनेद्रमूर्तिक जिस पंजषामें रखी है उसफूअर श्रीमाता अग्रभाग स्थापि अर गर्भ कल्याण पूजा करो। ७५७॥
अत्र चतुर्विंशतिमातृणां नामोई शपूर्वकं गभतिथोनुद्दिश्य पृथकमंडले पूजा इष्टिः कतव्या। तदुत्तर सिद्धभक्त्यादिपाठे कायोत्सर्गः मंत्रजपश्च । ___ इहां चोईस तीर्थकरांकी माताका नामपूर्वक गर्भकल्याणको तिथिनिकू बोलि वेदोंमें मंडल मांडि जुदी पूजा करणो। पोक्के सिद्धभक्ति आदिका पाठ पढ़ि आचार्य तथा यनमान कायोत्सग करै अरु मंत्रको जप करें।
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अथ जन्मकल्याणं। ऐमैं गर्भकल्याणक विधि करि जन्मकल्याणविधिका प्रारंभ करे। सो ऐसे हैं
शुभे विलग्ने सुनवांशके वा जिनेंद्रजन्म प्रबभूव यद्वत् ।
मंजूषिकांतर्गतमाशु विंबं निःकाशयेदार्यवरः कराभ्यां ॥ १५८ ॥ शुभ लग्नमें अर शुभ नवांशकमें जैसे प्रथम साक्षात् जिनेद्रको जन्म होतो भयो तैसे मंजूषिकाके अंतर्गत मूर्तिनै प्राचाय दोऊ हाथासे | निकास॥७५८॥
वादिननादोल्वणनंदनंदजयेतिशब्दप्रभृतीनुदीर्य ।
भद्रासने स्थाप्य सुसिद्धमंतैः पुष्पप्रकीर्णावलिमुत्क्षिपेत ॥ ७५६ ॥ तब तहां वादिनिका नाद अर उच्च जय जय नंद नंद इत्यादि शब्दनिने उदीरण करि उस विवकू भद्रासनमैं स्थापन करें अर सिद्ध मंत्रनिकरि पुष्प आवलीकूक्षेप ॥७५६ ॥
__ओं ही त्रैलोक्योदरणधीर जिनेंद्र भद्रासने उपवेशयामि स्वाहा । इत्युक्त्वा पुष्पांजलिं क्षिपेत् । ताका मंत्र-ओं ह्रीं तीन लोकका उद्धारमें धोर ऐसा जिनेंद्रने भद्रासनमें उपवेशन करु हूं। इस मंत्रकरि पुष्पांजलि क्षेपणी।
तदैव घंटानकसिंहभेरीशब्दैश्चतुर्धा त्रिदिवालयानां ।
संघो नमन्मौलिरुपात्तहर्षोऽभ्युपाययौ वेति नमो जिनाय ॥६॥ तहां उसहो वखत घंटा शब्द अरु ढोल शब्द अर सिंहशब्द अर भेरी शब्द इन शब्दनिकरि च्यारि निकायके देवनिको संघामस्तक नयाय हर्षसंयुक्त नमो जिनेंद्र ऐसे आवतो भयो॥६॥
इंद्रः ससैन्यान्यसुरेशवर्यो निर्वर्त्य देवद्विपमुन्नतांगं । ऐरावतं स्वस्वनियोगशक्तान् कुर्वीत दंडातपवारणाद्यैः ॥ ७६१ ।।
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सेनायुक्त ईशानादि स्वर्गके इंद्र संयुक्त सौधर्मेद्र है सो उत्तम ऊंचो देवोपनीत ऐरावत हस्तीने रचि पर आप आपके नियोगानुसार इंद्रादिकनिने दंड छत्र आदि उपकरणकरि नियुक्त करावतो भयो । ७६१ ॥
शची समाहूय नमस्कृतांगीं शय्यागृहं त्वं प्रविशेति हर्षात् ।
विश्वांबिकाकुक्षिभवं गृहाण यथा न माता विरहं प्रयाति ॥७६२ ॥ अर बहुरि इंद्र नपस्कारयुक्त है मस्तक जाको ऐसी इंद्राणीने बुलाय करि कहै कि तू माताका प्रति शय्यागृह प्रवेश करि अर हषत जगन्माताका कुक्षित उत्पन्न हुवा बालकने ग्रहण करि परंतु माता वालकका वियोगने नहीं प्राप्त होय तैसें करि ॥ ७६२॥
हर्षोत्सुक्यात्पुलकिततनुः स्वं जनुः सत्कृतार्थ
मन्वाना सा चिरपरिचयाबद्धमोदां सवित्रीं। नाम नामं कपट विधिनाऽन्यं विधायाभकं तं
तेलोक्येशं विकसितमुखं मूनि कुर्वीत संस्थं ॥ ७६३ ॥ ऐस सो इंद्राणी हष अर उत्साह भावतें रोमांचित भया है शरीर जाका ऐसी अर अपना जन्मने धन्य धन्य मानतो संती चिरकाल परिचयतें वृद्धिने प्राप्त भयो है प्रमोद जाकै ऐसी माताने नमस्कार वारंवार करि दूसरा बालकने कपटसे मातापास मेलि विस बालक त्रैलोक्यनाथने प्रसन्नमुख करि मस्तकमें स्थापित करतो भई ॥ ७६३ ॥
अत्रवाचार्यो जिनर्विवानामन्येषां सर्वेषामुपरि पुष्पाणि विकीर्यात् । ऐसे उस समय प्राचार्य अन्य प्रतिविवनिपरि पुष्पक्षेप करें।
दीनानाथानधिपुरमितांस्तोषयन् वांछितार्थान्
___ यज्वा पूजाविरचनधिया जन्मकल्याणपंक्तेः । चातुविशं जिनपमनुभिमंडलं संलिखेत
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तज्ज्ञोऽष्टाभिः सलिलकुसुमाद्यैश्च पूजां दधातु ॥ ७६४ ॥
र यजमान उस समय जन्म कल्याण उत्सव में नगर में प्राप्त दोन अर अनाथ जनकू वांछित अर्थ युक्त करि तोषित करिअर पूजा अर पूजाकी रचनाकी बुद्धि करि जन्मकल्याण की परंपरातें चोईस जिनको मंडल समंत्र लिखें तहां जत्र पुष्प आदि अष्ट द्रव्यनिकरि जिनेंद्रकी पूजा करें ॥ ७६४ ॥
मेरावभिषवधिया दुग्धपाथोऽधिजातेर्नीींरैरष्टप्रगतशतकैः स्वर्णकुंभोद्धृतैर्वा । हस्त्यारूढं सुरपतिकृतोत्संगसंस्थानमन्यै
रिंदैर्देवैरपि सह हरिः स्नापयत्वीशमिष्टं ॥ ७६५ ॥
बहुरि उत्तर दिशामें पूर्व रचित मेरुमें अभिषेक बुद्धि करि चोर समुद्र के उत्पन्न जलकर एकसो आठ सुवर्ण कलशनि करि ऐरावत गजेंद्र पर आरूढ अर इंद्र को गोद में तिष्ठता प्रभूने सोधर्मेंद्र अन्य इंद्रनिकरि सहित होय स्नान करावो ॥ ७६५ ॥
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नृत्यारंभो जयजयरवो वाद्यनादः प्रमोदो
गानं शच्या स्त्रिदशवनितासंगतं चाटुवाक्यं । द्यावाभूमीमलविगमता स्नानपाथोधिलौल्यं
यादृग्जातं मम किमु धराधर्तुरेवाप्यवाच्यं ॥ ७६६ ॥
अर उस समयका नृत्यका आरंभ तथा जयध्वनि तथा साढ़ा वारा कोटी जातिका वादिनिका वजना तथा देवों का हर्ष तथा इंद्राणीका गीत ज्यों देवांगनासहित हाय है तथा परस्पर प्रमादका प्रवचन तथा आकाश ग्रह पृथ्वोको निर्मलता तथा स्नान समुद्रकी चंचलता जैसा हुआ सो मैं कहा कहिसकू, धरणें द्र भी हजार मुखसै नहीं कह सके है ॥ ७६६ ॥
पांडुशिला तदल पृथुले सिंहासने मध्यगे
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संस्थाप्याभिषवार्थमय॑मकरोत् क्षीराब्धितः संभृतैः । कुंभैरष्टचतुःक्षितिप्रमलसद्भिर्योजनैर्विस्तृतै
ध्ये चोदरवक्त्रयोः सुरगणानीतेभृशं मोदत ॥ ७६७ ॥ अर उस सुमेरु पर्वतमें ऊपरि पांडक नाम शिला है तामध्य तीन सिंहासन हैं तहां मध्य सिंहासनमें जिनेंद्र विराजमान करि क्षीर ॐ समुद्रते भरे आठ योजन लंबे च्यारि योजन मोटे अर एक योजन मुखवाले कलशनि करि देव परस्पर हर्ष भरेनिसहित अर्घपाद्य करि स्नान करावतो भयो॥७६७॥
दिग्पालाः स्वस्वदिक्षु स्थितिमधुरवनी द्यामधिव्याप्य भक्त्या
शक्राग्निश्राद्धदेवाशरवरुणमरुत्श्रीदश(दुनागाः। सर्वे सर्वज्ञभक्ता अधिकृतनियुताश्चापरे द्वादशेंद्राः ।
संख्यातीताः सुरा वै निजवपुषि परानंदमाजग्मुरिष्टौ ।। ७६८ ।। अर तहां दिक्पाल देव पृथ्वीने तथा प्राकाशने व्याप्त करि भक्तियुक्त होय इंद्र अग्नि यम नैऋत्य वरुण पवन कुवेर ईशान अर धरणेंद्र |चंद्र अपनी अपनी दिशामें स्थिति करते भये ते सर्व सर्वज्ञदेवके भक्त अर अनादिकालते अपना नियोगमें निपुण तथा अन्य भो द्वादश इंद्र । भर असंख्यात देव देवांगना उस उत्सवमें अपना शरीरमें परम आनंदने प्राप्त होते भये ॥७६८॥
अतिशयितशरीरे तीर्थभर्तुः पवित्रे जलकणलवलेशो नांगलग्नो बभूव ।
स्फटिक इव तथापि स्वामिसेवात्तचित्ता कृतुपतिललनांग मार्जयामास भर्तुः ॥ ७६६ ॥ पर श्रीतीर्थ करका पवित्र अतिशययुक्त शरीरमं जलकणनिका लवलेश किंचिन्यात्र भी स्फाटिकमें तैसें अंगमें लग्यो हो नहीं होतो भयो तथापि स्वायीकी भक्ति सेवामें मग्न है चित्त नाका ऐसी इंद्राणी भगवानका अंगनै मार्जन करती भई ।। ७६ ॥
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CR%A4पना
सद्गंधैरनुलिप्य मूर्ध्नि मुकुटं चूडामणि कौशिके
भाले सत्तिलकं श्रुतौ मणिचिते सत्कुंडले लंबिकां । मुक्तावल्यथ कंठिकां गलतटेष्वावापकंश्चागदः
C%EOCHOCOR
केयूरं भुजयोः पदोस्तु कटके मंजीरयुग्मादिका
श्राभूषाः परिधापने नवमहामूले सुरेंद्रालयात् । आनीतानि दधाति न क्षितिभवानींद्रप्रियेत्यादरा
दाविर्भूतमतिर्नतोत्तमतनुभूषां चकार स्वयं ॥ ७७१ ॥ बहुरि सो इंद्राणी भगवानका शरीरनै समीचीन चंदन करि लिंपन करि मस्तकमें तो मुकुटनै अर केशपाशमें चडामणि रत्नने र ललाटमें तिलकने अर कणेमें मणिजडित कुंडलने अर गलभागमें लंबिका नाम हारने योतीनिकी मालाने अर भुजमें बाज बंधने अंगद नाम भूषणने पर हस्तनिमें कंकणने अर कटिमें मेखलाने पर भुजनिमें केयूरने अर चरणनिमें कटकने पर मंजीरयुग्म भूषणने, भर पहरवा | वास्तै वस्त्र नवीन नवीन बहुमौल्य दुपट्टा धोवतो आदि देवोपनो ल्याये ही धारण करावती भई अरू पृथ्वीमें उत्पन्न भये तिनकू नहीं | करावती भई । वा इंद्राणी आदरयुक्त बुद्धिमती अर नम्र है मस्तक जाका ऐसो विभूषित करती भई ॥७०-७१ ॥
यस्यांगद्युतिभिः सुकोटिदिनकृद्भासापिंधानं धृतं
लावण्येन तु कोटिदर्पककथा वीर्येण विश्वांगिनां । सारं सौख्यभुवेंद्रकोटितुलनाधिक्कारमारोपिता
तद्रूपं मुहुरीक्षितः ऋतुभुजः किं किं न कृत्यं व्यभात् ॥ ७७२ ॥
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प्रतिष्ठा
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RANSPLIEREKA PRESIDOES
अर जाकी अंगकी कांतिकरि कोटि सूर्यको प्रभा आच्छादन कियो अरु लावण्य कहिये रूप संपदाकरि कोटि कामदेवकथा धिक्कार || प्राप्त भई तथा वीय पराक्रमकरि तीन लोकके प्राणीमात्रको बल धिक्कार प्राप्त हुवो पर सुखभूमिकरि कोटि इंद्रनिकी तुलना धिक्कार प्राप्त भई ऐसा श्री जगत्प्रभूका रूपने वारंवार देखतो इंद्रक कहा कहा कृत्य नहीं शोभायमान हवो ॥७२॥
प्रह्वन्मौलिरसौ प्रमत्तहृदयानंदोद्गमेन स्तवं
तत्रोद्भासिगुणौघकीर्तनविधावानंत्यभावं वहन् । स्तोकीकृत्य सहस्रनामखचितं स्पष्टीचकारामरा
धीशस्तेषु मनाग्मया कतिचिदाख्याः स्तूयते पावनाः ॥ ७७३ ॥ अर यो नम्र मुकुटयुक्त इंद्र है सो प्रमोदरूप हृदयका आनंदका होवात आप ही उस भगवानमें प्रगट भये गुण समूहके कीतनमें अनंत भावने धारतो संतो अनंत नामनिने सयेटि अर हजार नामकरि रचित स्तोत्रने प्रगट करतो भयो तिस अपराधीशका किया नामनिमेंसे मैं | किंचिन्मात्र नाम करि पवित्र स्तवन करिये है ॥ ७७३॥
त्वं देव ! वीतरागोऽसि नार्थः स्तवननिंदने।
तथापि भक्तिवशगः स्तवीमि कतिचित्पदैः॥ ७७४ ॥ | हे वीतरागदेव ! त वीतराग है, तेरे स्तुति पर निंदामें प्रयोजन कछू भी नहीं है। तथापि मैं भक्तिके अधीन हवो सतो कितनेक पदनिकरि स्तुति करूंहूँ॥७७४ ॥
मंगलं शरणं लोकोत्तमोऽर्हन् जिनराइ जिनः ।
सिद्ध आचार्यसंपूज्यः साधुः साधुपितामहः ॥ ७७५ ॥ हे भगवान ! तू मंगल है, पर शरणरूप है, अर लोकमें उत्तम है, अरहंत है, जिनराज है, जिन है, सिद्ध है, प्राचार्यनिकरि पूज्य है, साधु है, अर साधुनिका पितामह है ॥७७५॥
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प्राय्यः पापहरोऽधीशो निःकषायो गुणाग्रणीः। प्रतिष्ठा
पावनं परमज्योतिः परमेष्ठी सनातनः ॥ ७७६ ॥ २५२ __ अर प्रकर्षकरि अग्रगण्य है, अर पापहर्ता है, अधीश है, पर कषायनिकरि रहित है, भर गुणमें मुख्य है, पावन है, परमज्योति है, पर-16 मेष्टी है, सदाकाल स्थिर है ॥ ७७६ ॥
अव्यक्तो व्यक्तमूर्तिस्तमलक्ष्यो लक्षणातिगः ।
सुलक्ष्म्यो लक्षणज्ञेयः पापशत्रुरुदारधीः ॥ ७७७ ॥ अप्रगट है अर प्रगटरूप भी है, अर अलक्ष्य है, अरु लक्षणकरि रहित है, अरू सुलक्ष्य है, अर लक्षणनिकरि जानवे योग्य है, अर पापरूप वैरोका शत्रु है, अर उदारबुद्धि है।। ७७७॥
प्रणीतार्थः प्रमाणात्मा सुनयो नयतत्त्ववित् ।
प्रणधिः प्रणवो नायो ज्ञानदर्शननायकः ॥ ७७८ ॥ पर निश्चयरूप कियो है पदार्थ जानै सो है अर प्रमाण स्वरूप है, सुंदर नयवान है, अर नय नैगमादिकनिका तत्त्वने जानवावालो है | ध्यानरूप है अर ओंकारस्वरूप है अर अनादि है अर ज्ञानदर्शनको स्वामी है ॥ ७७८॥
पुराणपुरुषोऽहार्यरूपो रूपातिगो महान् ।
कामहा कमनो काम्यः कामगामी कलानिधिः ॥ ७७६ ॥ हे भगवन् ! तुम पुराण कहिये प्राचीन पुरुष हो, अर अनुपम रूपका धारी हो अर रूपकरि रहित हो अर पहंत पुरुष हो पर कामने इनि13/ वा वारा हो भर मनोहर हो अर कामनारहित हो अर कामगामी कहिये स्वतंत्र विहार करनेवाला हो पर कलाका निधि हो॥७७६ ॥
कम्रः कामयिता कांतः कामनातीतकामुकः। कालुष्यहंता कामारिः कोपावेशहरो हरः ॥ ७८०॥
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प्रतिष्ठा अर कमनीय हो पर अनेक जनों करि बांछा करनेवारा हो पर मनोहर हो अर संसारीक कामनारहित बडी कामनावारा हो पर पापका
। हंता हो अर कामका बरी हो अर शांतपुद्राकरि कायका प्रशने हरनेबारा हा पर हर कहिये दुःख का हर्ता हो ॥७८०॥ २५३
स्वयंभूविधिरुत्साहधीरः सुकृतभावनः।
स्रष्टा भूतपतिः साक्षी त्रैलोक्यपरमेश्वरः ॥ ७८१॥ अर स्वयमेव ज्ञानचारित्रकरि उत्पन्न हो ऐसा हो पर विधिरूप हो अर उत्साहमें धोरवोर हो अर पुण्यरूप है भावना जाकै ऐसा हो अर आदि ब्रह्मा हो भर प्राण मात्रनिका स्वामी हो, पर साक्षी (प्रत्यक्ष दृष्या) हो अर तीन लोकका परमेश्वर हो ॥७२॥
प्रभूष्णुरधिदेवात्मा विश्वराड् विश्वतोमुखः।
विश्वयोनिर्जिष्णारीशः संवदः पुण्यनायकः ॥ ७८२॥ __ अर समर्थ हा अर देवाधिदेव खत्म हो पर लोकका राजा हो, अर सर्वज्ञानरूपो सुखयुक्त हो पर संसारका स्वभावका उत्पचि करने || वारा हो अर जयशील हो पर समर्थ ईश हो पर सुखके करनेवारा हो पर पुण्य का प्रपतन करनेबारे हो ॥७२॥
धर्माबुवाहो धर्मज्ञो वेदविद् वदतांवरः।।
भव्यभानुर्मखज्येष्ठस्त्वं हि ब्रह्मपदेश्वरः ॥ ७८३॥ ट्रा अर धर्मका वर्षा करनेवारे हो अर धर्मका ज्ञाता हो पर वेद कहिये ज्ञान ताजाननेवारे हो अर पंडितनिमें मुख्य हो अर भव्यनिके वास्ते सूर्य हो अर यज्ञमें श्रेष्ठ हो अर तुमहो ब्रह्मपद आत्मस्वरूप ताका ईश्वर हो ॥७८३ ॥
भूष्णः स्थिरतरः स्थाष्णुरचलो विमला विभुः।
महीयान् जातिसंस्कारः कृतकृत्यो महस्पतिः ।। ७८४॥ अर स्वयं विना उपदेश भवनशील हो पर स्थिर हो पर अपना स्वरूपमें तिष्ठनेवारे हो पर अक्ल हो पा विपन हो पर व्यापक हो अर अतिशय करि बडे हो अर हुवा है संस्कार जाकै ऐसा हो अर कृतकृत्य हो अर उत्सबका स्वामी हो ॥७८४ ॥
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वाग्मी वाचस्पतिः प्राज्ञो गुणरत्नाकरो निधिः।
शास्ता सर्वज्ञ ईशानः प्राप्तः सर्वत्रलोचनः ।। ७८५ ॥ __ अतिशय वचनशील हो अर वाणोके स्वामी हो अर प्राज्ञ हो अर गुण रूप रत्ननिका भंडार हो पर शिक्षाका दाता हो अर सर्वज्ञ हो अर हैं। ईश्वर हो अर यथार्थ वक्ता हो अर सर्वत्र देखनेवाले हो ॥७८५॥
कटस्थो निर्विकारोऽस्तिनास्त्यवाच्यगिरांपतिः।
स्याद्वादनायका नेता मोक्षमार्गोपदेशकः ॥७८६॥ अर कूटस्थ कहिये तटस्थ हो अर निर्विकार हो अर अस्ति वा नास्ति वा अवाच्य भगनिका पति हो पर स्याद्वादके उपदेशक हो अर प्रणयनकर्ता हो अर मोक्षमार्गका उपदेशक हो ॥७८६ ॥
निरीहः सुगतो भास्वान् लोकालोकविभावसुः ।
अनंतगुणसंपूज्यो नित्ययज्ञोऽसि विश्वराड् ॥ ७८७ ॥ अर निर्वा छक हो अर सुगत कहिये सुदर ज्ञानवान हो अर कांतिमान हो अर लोकालोक का सूर्य हो पर अनंत गुणकरि पूज्य हो। नित्य यज्ञरूप हो अर विश्वका राजा हो ॥ ७८७ ॥
एवमष्टोत्तरशतां नाम्नां पातु बंधनात् । (?)
मोचय स्वात्मसंभूतिं देहि देहि महेश्वर ॥७८८॥ ऐसे नामनिका एक सौ आठ समुदाय मोनै रक्षा करो अर बंधनने छुडावो अर आत्माकी विभूतिने देवो हे परमेश्वर ॥७८८॥
निगलत्प्रेमधारांबुक्षालितांह्रिसरोरुहः । मांगल्यपावनत्वादिलुब्धो विधिनियामकः ।। ७८६ ॥
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ऐसी निसरती प्रेमको धाराको जल करि प्रक्षालित किया है भगवानका चरण कमल जाने अर्थात् नपस्कारका करवा करि मस्तक नयावता चरणनि परि नेत्र पढ़ें तब नेत्रनिका जलकरि पक्षाल होते ही ऐसा भाव जानना पर मंगल तथा पवित्रपणाका इक्कुक पर विधिको नियता ऐसो ॥८॥
क्रियाकलापसंवेत्तुरीश्वरस्येश्वरक्रियाः।
संस्कारयामास पुनर्मलप्रांशुभिरुत्तमैः ॥७६ ॥ तथाहिइंद्र महाराज है सो उत्तम उत्तम मंत्रनि करि सकल क्रियाका समूहने जाननवाला ईश्वर भगवानको संस्कार क्रिया जे हे तिनिने पुनरुक्त ही निवतन करतो भयो ॥७६०॥ __ ओं ह्रीं इक्षाकुकुले नाभिभूपतेमेरुदेव्यामुत्पन्नस्यादिदेवपुरुषस्य ऋषभदेवस्वामिनोत्र विंबे समांकितत्वात्तद्गुणस्थापनं तेजोमयं करोमि स्वाहा।
सो ऐसे-ओं ही इच्वाकुलमें नाभि राजा अरु मरुदेवीसे उत्पन्न प्रादिदेव श्री ऋषभदेव स्वामीका इस विवमें वृषभका चिन्ह वाका गुणोंको स्थापन तेज स्वरूप करू हूं। ____ओं ऋषभादिदिव्यदेहाय सयोजाताय महामज्ञाय अनन्त चतुष्टयाय परमसुखातिष्ठिताय निमंत्राय स्वयंभुवे अजरामरपदमाशाय चतुर्मुखपरमेष्ठिनेऽहते त्रैलोक्यनाथाय त्रैलोक्यपूज्याय अष्टदिव्यनागपूजिताय देवाधिदेवाय परमाथसंनिहितोऽसिः स्वाहा ।प्राभ्यां मातमाया अंगानि संस्पृशन गुणाधिरोपणं कुर्यात् ।
ओं अस्मिन् विवे निःस्वेदत्वगुणो विलसतु स्वाहा ॥१॥ नों अस्मिन् जिने मलरहितत्वगुणो विलसतु स्वाहा ॥२॥ ओं अस्मिन् जिने तोरवणेरुधिरत्वगुणो विलसतु स्वाहा ॥३॥ भों अस्मिन् जिने समचतुरस्त्रसंस्थानगुणो विलसनु स्वाहा ॥४॥ ओं अस्मिन् जिने ववषभनाराचसंहननगुणो विलसतु स्वाहा ॥५॥
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ओं अस्मिन् जिनेऽद्भ तरूपगुणो विलसतु स्वाहा ॥६॥ ओं अस्मिन् जिने सुगंधशरीरगुणो विलसतु ॥७॥ ओं अस्मिन् जिने अष्टोत्तरसहस्रलक्षणव्यंजनवत्वगुणो विलसतु स्वाहा ॥८॥ मों अतुलबलवीर्यस्वगुणो विलसतु स्वाहा ॥६॥: ओं हितमितप्रियवचनत्वगुणो विलसतु स्वाहा ॥१०॥ एवं दशातिशयान संस्थाप्य तदनंतरं
भों अहद्भ्यो नमः, ना केवल ब्धिभ्यो नमः, तोरवादलब्धियो नमः, परसादुलधियानमः, संभित्रोतृभ्या नमः, पादानुसा&ारिभ्यो नमः, कोष्ठबुदिभ्यो नमः, वीजबुद्धिभ्यो नमः, सर्वावधिभ्यो नमः, परपावधिभ्यो नमः। PL ओं ह्रौं वलावल्गुनिवप्रवणे। ओं ऋषभादिवमानांतेभ्यो वषट्वोषट् स्वाहा। इति मंत्राभ्यां अंगानि संस्पृशेत् ।
तथा-ओं णमोभयवदो बहुमाणस्स रिसहस्स जस्त चक्कं जलंतं गई प्रायासं पायालं लोयाणं भूयाणं जए वा विवाद वारयंगणे वा भणे वा मोहणे वा सजोषसत्ताणं अपराजिदा भादुकवाव स्वाहा। इति वधमानपत्रेण चांगानि संस्पृशे । इसाकारशुदि निष्पाद्य जयजयशब्दपुरस्सरं तथेवरावतोपरि जिनं संस्थाप्य राजगृह नयेत् ।
पुनमत्र-ओं ऋषभ आदि दिव्य देहका धारो सब उत्पन्न पहाबुदि अनन्त चतुष्पाक पर परमपुवा प्रतिष्ठिा निर्पल स्वयंभू अजर | अमर पदमाप्त चतुर्मुख परवेटो अरत्रलोक्यनाथ त्रलोक्यपूज्य अदिव्य नासनिकरि प्रपूजित देवादिदेव वरदके अर्यि परमार्थेमें युक होहु । इनि दोय मंत्रनि करि प्रतिमाका अंगनिने सर्शित करतो गुणाको अधिरोपण करे। इहां इंद्र अह आवाय इनिको हो कोव्यता कहो है सो गुणनिका रोपण ऐसा कि
इस विवमें निःस्वेदता आदि गुण प्रकाशमान हो हु । १ । मलरहितयाण प्रकाशमान हाहु ।रातोरगोर शोणित गुण प्रकाशमान होहु ॥३॥ समचतुरस्र गुण०। ४ । वषमनाराचगुण । ५। अग तरूप गुण।६। सुगंध शरीर गुणः।७। अष्टोत्तर सहस्रगुण । ८। अतुल | बलबीर्यत्व गुणा । हितमितप्रियवचनत्व गुण । १०॥ ऐसें दरा अतिशयरूप गुण ते स्थापन कर पोके मों अहंतनिकूनपः, नवकेवललब्धिनिकूनमः, क्षीरस्वादुलब्धिकूनमः, संभिम श्रोतृनिकूनमः, पादानुसारिकू नमः, काठबुद्धिनमः, वीज बुद्धिा नपः, सर्वाव
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धिनमः, परयावधिक नमः। ओं ह्रौं वल्गुवल्गुनिवल्गुसुश्रवणे ओं ऋषभादिवर्धपानांतेभ्यो वौषट् स्वाहा इनि मंत्रनिकरि भी प्रतिमा प्रतिष्ठा अंगनै स्पशैं। २५७
[४ तथा ओं णमो भयवदो बहुमाणस्स रिसहस्स.........आदि वर्धमान मंत्र है या करि भी अंग स्पर्शन करें। अन्य विवन पर भी स्पर्श ||| करै ऐसे आकार शुद्धिने करि जय जय शब्द उच्चारण करि ऐरावत पर प्रारूद करि सुपेरुते राजगृह प्रति भगवानने ल्यावै।
श्लोकास्तथाहिसर्वान् मुरानधिकृतव्यवहारनिष्ठानुद्दिश्य राजगृहमापयितुं सुरेशः।
श्राज्ञापयत्ववगतप्रमदाभिवृद्धिः स्वं स्वं नियोगमधिकृत्य कृतार्थभूतान् ।। ७६१ ॥ सुरेश इद्र है सो प्राप्त भया है प्रमोदको वृद्धि जाकै ऐसो हुवो संतो सर्व देवनिने अपने अपने अधिकारमें निपुणनिने उपदेश करि प्रभूने राजगृह प्रति ल्यावे आज्ञा करें पर अपना अपना नियोगने पाय सव देव कृतार्थ भये ॥७६१॥
गंधर्वकिंपुरुषगीतपुरस्सरेण नृत्यत्सुरेशललनागणविभ्रमेण ।
दौवारिकाद्यधिकृतेंद्रजयस्वनेन देवाधिदेवमनयत् पितृसद्मधाम ॥ ७६२॥ इंद्र है सो गंधर्व जाति तथा किंपुरुष जाति देवनिका गानयुक्त अर नृत्य करता इंद्रादि देवांगनाका समूहका विभ्रम करिअर द्वारमें अधिकृत आदि इंद्रनिका जय जय शब्द करि श्री देवादिदेवने पिताका गृह प्राप्त करतौ भयौ ॥ ७६२॥
तत्रागतौ प्रवरमौक्तिकचूर्णपूर्णरंगावलीलिखितपुष्पकमंडनानि ।
राजांगणप्रथमतोरणयोरधस्तात् शच्या पुरंधिषु पुरस्कृतया कृतानि ।। ७६३ ॥ तहां भगवानका आगमन समय राजांगणका तोरणद्वयके नीचा भागमें बहुत पोतीनका चर्ण करि पूर्ण रंगावलीके लिखित फूलनिके P मांडना इंद्राणी सौभाग्यवती स्त्रियोंके अग्रभूत जो है ताकरि किये ॥७६३ ॥
- बारार्तिकेषु मणिरत्नशिखोच्चयेषु पुष्पांजलिप्रकर इंद्रमखाधिराड्भ्यां ।
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निक्षिप्यमाण उदभात् कनकाचलेषु स्नानीयनीरनिकरो व जिनांगकांतौ ॥ ७६४ ॥
तब इंद्राणीका किया भारतीके रत्न शिलासमूहमें पुष्पांजलिका समूह इंद्र अर यजमान करि क्षेप्यो जैसे मेरुमें चेप्यो स्नानका जल भगवानका अंगकी कांतिमें शोभायमान हूवो तैसें शोभित होते भयो ॥ ७६४ ॥
श्रीमातरं लसितवक्त्रसरोरुहां च राजानमुद्भटमहासुकृतानुभावं ।
या शताध्वरपतिर्जिनराजमंके संस्थाप्य तांडवमकांडभवं ततान ॥ ७६५ ॥
बहुरि इंद्र महाराज श्रीमती विकसित मुखारविदयुक्त माताजीने अर प्रकट महापुण्यका अनुभाववाला राजाने नमस्कार करि अरु जिनराजने गोद में स्थापि आकस्मिक समय में भया तांडव नृत्य करतो भयो ॥ ७६५ ॥
संबुद्वहर्ष फलिताविव तौ स्ववंशमुच्चैर्धृतं यदधिजन्म जिनाधिभर्ता ।
भूपावृते सदसि तुष्टुवः प्रमोदः पूर्वं कृतार्चनविधिश्च ननर्त शक्रः ॥ ७६६ ॥
बहुरि माता पिता वढा हर्ष करि फलित हो है ऐसा अपना वंशमें या समय जिनराजने जन्म धारण किया ता समयमें अनेक राजानिका समूहयुक्त सभांगणमें तुष्टरूप करते भये अर प्रमोदपूर्वक पूजन सामिग्रीकरि इंद्र राजा नृत्य करतो भयौ ॥ ७६६ ॥
इति तांडवानंतर जिनं वेद्यामारोप्य जन्मकल्याणकचतुर्विंशतितिथी नुद्दिश्य सपर्या कर्तव्या ।
ऐसें महा तांडव नृत्यकार श्री जिनविबने वेदी में श्रारोपण करि चौईस जिनेंद्रनिका जन्मकल्याणकी तिथिकी उद्देश्य पूर्वक पूजन करणे
अंगुष्टयोरमृतदुग्धविधिं प्रक्लृप्य बालार्यमप्रतिभुवः सविधे कुमारान् ।
संयोज्य पंचशतकान् वसनान्नपानभूषाफलादिभिरुपास्य जगाम कामं ॥ ७६७ ॥
बहुरि इंद्र महाराज श्रीजिनराजका हस्त अंगुष्ठमैं अमृतरूप दुग्धविधिनै कल्पनाकरि जो बालक सूर्य समान श्रीजिनका निकट पंचशत
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BORRECORERALESEARRESTERESOURCHORS
प्रमाण देवकुमारनित संयोजित करि देवोपनीत ही वस्त्र भोजन पान भूषण फलादि सामग्रो करि उपासना करि यथेच्छ स्वगमें प्राप्त होतो भयो॥७१७॥
अत्र मातापित्रोर कनिवेशस्थानीयपूर्वप्रक्लुप्तमंडपोपस्कृतवेदिकायां भद्रासने मूलविवस्थापन विदध्यात् । इहां माता पिताका गोद स्थानापन्न पूर्वं जो मंडप भूषित वेदी थी उसमें भद्रासनमें मूलविवका स्थापन करें। दोलनारूढक्रीडां च विदध्युः पुरंध्रयस्तथात्र वान्या अपि प्रतिष्ठेयाः प्रतिकृतयः स्थाप्या इति दिक्।
अर इहां ही इंद्राणो आदि सौभाग्यवती स्त्री अन्य भी दोलना क्रीडा (पालनामें) करै अर विव भी उस ही वेदीमें स्थापन करना । ऐसे यथा योग्य विधि करनी।
यथा वा बालेंदुः प्रतिदिनमवद्धन्निजकरै
स्तथायं श्रीसार्वोवधिमननयुक् किं च युवतां । अवाप्तः पित्रादेर्नुपपदगसाम्राज्यकमलां
चापेषुद्रघणकरबालादिसहितः॥७६८॥ जैसे बालक चंद्रया अपने किरणनि करि प्रतिदिन वृद्धिने प्राप्त होय तैसें मानू येह सर्व हितकारी जिन अवधिज्ञानसंयुक्त युवा अवस्थाने | प्राप्त होतो भयो संतो पिताने दिया राज वा चक्रवर्ती पद लक्ष्मीने भोगतो भयो। तब राज्य अवस्थामें धनुष वाण मुगर तरवारि आदि शस्त्रयुक्त होतो भयो ॥७६८॥
___ इति राज्योपभोगचिन्हानि शस्त्राण्यस्त्राणि च पुरः स्थापयेत् । या प्रकार राज्यके भोगोपभोग चिन्ह शस्त्र तथा अन अग्रभागमै स्थापन करै व्यवहारमात्र ।
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ALKALAESARIWARIKGANGRERE
अथ निःक्रमणकल्याणारोपः । अब व्यवहारमात्र राज्य चिह दिखाय तपकल्याण प्रारंभ करिये है
पूर्व लोकांतिका देवा कल्प्या अष्टौ सुबुद्धयः।
श्रुतांबुनिधिपारज्ञाः धीराः सदुपदेशने ॥ ७६६ ।। इहां पूर्व आठ संख्यावाले सुबुद्धि अर शास्त्रसमुद्रके पारगामी अर समीचीन उपदेशमें धीरबीर ऐसे लौकान्तिक देव कल्पना करने योग्य हैं॥६॥
इत्युक्त्वा लौकांतिकदेवोपरि पुष्पांजलि क्षिपेत् ।
ऐस लोकांतिक देवोपरि पुष्पांजलि क्षेपनी। अब भगवानके वैराग्य भावना दिखावे हैं
अतिमृदुपरिपाकात् कर्मणां पूर्वजन्मावधृतजिनपतित्वोद्भावनानां प्रभवात् ।
किमपि लघुनिमित्तालंबनं प्राप्य धीमानुपधिनिगडबंधानुजहाति स्म बुद्धौ ॥ ५० ॥ कर्मनिका अत्यन्त कोमल विपाचनते तथा पूर्व जन्ममें धारण कियी तीर्थंकर प्रकृति पैदा करनेवारी भावनाका प्रभावत कछ विद्युत्पात ही शदि योरा भी निमित्तका आलंबन प्राप्त होय वह धीमान् उपाधि जे द्वि प्रकार परिग्रहरूप बेडीका बन्धन तिनै अपना भावमैं छोड़तो भयो ॥८ ॥
अहो संसाराब्धौ बहुगतिपरावर्तविकटे पतदुर्दुःखोर्मिप्रकरचलनभ्रांतिसतते।
परिश्च्योतद्धर्मप्रवहणतयागाधदुरितजले मज्जोन्मजाविव बहुकृतौ कर्मवशगैः ॥८०१॥ सो विचार ऐसा है कि अहो ! बडा आश्चर्य है इनि कर्मनिका वश भये संसाररूप समुद्र जो बहुगति चतुर्गतिमें परावर्तन करि विकट | अर पडती है खोटी दुःखरूप लहरका समूह तिनका चलना सोही भ्रांति तिनि करि भरथा पर अपार पापरूप जलयुक्त ऐसामें नष्ट भया धर्मरूप नौकापणा करि मज्जन उन्मज्जन बहु प्रकार किये ॥ ८०१॥
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अथ भावना नाटयंति। अब अनित्यादि भावनाने ग्रंथकर्ता नटावै है । सो ही लौकांतिक देवोंका स्तुति उपदेश है।
पर्यायबुद्धया खलु वस्तुजाते विनश्वरे मोहवशाद् विधत्ते।
रतिं कदाचिद्विरतिं मनुष्यो रागद्विषाभ्यां विपरीतबुद्धिः॥८.२॥ ऐह राग पनि विपरीत भई है बुद्धि जाकी ऐसा पाणी पर्याय अपेक्षा विनश्वर ऐसा सकल वस्तुपात्रमें मोहका उदयतें कदाचित् रति कदाचित् अरति भावने धारण कर है ॥८०२॥
अनादिमिथ्यात्ववशात्कषायपरीतचंता न वशः स्वकस्य ।
वांतात्मभानामृत एष जंतुः ऋषीकहालाहलमेव भुंक्ते ॥ ८०३ ॥ येह माणी अनादि प्राप्त भया मिथ्यात्वका वशते कषायनिकरिवेष्टित चित्तवाला भापके वश नहीं रहता है फिर वमन किया है पात्मज्ञान12रूप अमृत जाने ऐसा येह प्राणी इंद्रियनिका विषयरूप हालाहलने ही खावै है ॥८०३॥
श्रीदेहपुत्रैश्यकलवचिंतां पुनः पुनर्यत्र गतौ प्रचिंतन् ।
तदाप्त्यनाप्तिप्रतिबद्धचेताः स्वयं स्वभावे स्थितिमुजहाति ॥८०४॥ अर जिस गतिमें गया तहां लक्ष्मी देह पुत्र अपनी उच्चता अर स्त्री इनकी चिंता होने वारंवार चिंतन करता अर इनका वियोग संयोगमें ही थेंबा है चित्त जाका ऐसा हुवा संता व स्वभावकै स्थिरता छोड है ॥८०४॥
वपुःस्थितियत्र न तल कास्था भिन्नेषु पुत्रादिषु चेत्तथापि । . गृहं ममार्थो मम पुत्रमित्र इत्थं परस्वत्वधिया वृणोति ॥८०५।।
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र तहां अपना शरीरकी ही नियत स्थिति नहीं तहां भिन्न जे पुत्र मित्र इनमें कहा आस्था है ? तथापि येह मूख येह मेरा गृह है, भर मेह मेरा द्रव्य है, अर येह पुत्र मित्र है, ऐसें अपनी बुद्धि करि पर वस्तुमें ग्रहण करे है ॥ ८०५ ॥
शीर्णानि सर्वाणि पुनर्न तृष्णा ज्वरेपि दाहं द्विगुणीकरोति । मूढात्मना तव निमज्यते वा संक्षीयते जन्मपरंपरायां ॥ ८०६ ॥
अर या संसारमें सर्ववस्तु जीर्णे होय है, एक तृष्णा नहीं जीर्ण होय है, अर तृष्णा ज्वरतें भी अधिक दाहने द्विगुण करें है अर मूढ गाणी ई तृष्णामें अनेक जन्म संतानमें डूब है अर जन्ममरण करे है ॥ ८० ॥
चित्तरंगाः सरितां जलानि मेघस्य पृथ्व्यंतरितानि भूयः । पश्चान्निवर्तत इहोपभुक्ता नैका कला कालविडंबनस्य ॥ ८०७ ॥
र कोई समयमें नदीनिका जलतरंग तथा मेघ का पृथ्वी में गये भये भो जन पाछा फिरि निविर्त है भर इहां भोगी हुई एक कला कहिये घटी कालचक्रकी नहीं निमडे है ॥ ८०७ ॥
प्रतिक्षणं त्वायुरिदं क्षिणोति मृत्युः पुरस्तात्समुपैति नॄणां ।
जनुर्जरामृत्युपथिस्थितानां न चित्रमेतद् विषयांध्यभाजां ॥ ८०८ ॥
अर देखो इह आयु क्षण क्षणमात्रमें तो क्षीण होय है अर मृत्यु प्राणोनिकी अग्र प्राप्त होय है तो जन्म जरा मृत्युका मार्गेमें स्थित घर विषयनिरूप अंधकार के मध्य तिष्ठता प्राणीके येह आश्चयं नहीं है ॥ ८०८ ॥
पदार्थस्य समागमं ते वियोगभावः समुपैति तस्मिन् । विद्वेष्टि मूढस्तदपायचित बध्नाति कर्माण्यपुनर्भवंति ॥ ८०९ ॥
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अर निश्चय करि पदार्थका संयोगके अंत वियोगभाव प्राप्त होय ही है अरु मूढ़ पाणी तिसमें विद्वेष कर है अर ताका नाशहोते चिंतापतिष्ठा युक्त हुवो संतो नवीन कर्मने बांधै है ॥८६॥
दावप्रदग्धवपुषो विगलद्धितस्य स्फारीभवंति च कपेणकंडुरोगाः ।
दंतैर्विदारिततनोरिव यद्धृषीकभोगैस्तदायततृषा प्रतिजीवजाता ॥८१०॥ अर जैसें दावानल अग्निकरि दग्ध शरीरवाला अर भूलि गया है हित जानै ऐसा व्रतमें कंडुरोग कि खाजरोग दंतनिकरि विदीर्ण किया है शरीर जानै ऐसा कपिके जसै विस्तरै है तैसें इद्रियनिका भोगकरि ताका प्राप्तिकी वांछा जीवपात्रके विस्तृत होय है ॥२०॥
देवदानवसुधांशुभास्करा इंद्रनागपतियक्षराक्षसाः।
भारिशो नवनिधीश्वराः क्षणाद रक्षितं न मरणात प्रभष्णवः ॥११॥ अर देव दानव चंद्र मूर्थं तथा इंद्र धरणेद्र यत राक्षस जे हैं ते नवनिधिके स्वामी चक्रवर्ती आदि जे हैं ते बहुविध समय भी इस माणो |कूपरणत रक्षा करिवेकूसपर्थ नहीं है ॥८११॥
वित्तवीर्यमुकृतव्यपायिनो पुत्रदारसुहदोऽर्थकामुकाः।
नाल तस्कृतिमपास्य जंतवः स्थैर्यमाप्नुयुरहनिशं क्षणात् ॥ ८१२॥ अर पुत्र स्त्री मित्र जे हैं ते धन पराक्रम अर पुण्यके नाश करनेवारे हैं पर धनहीके लोलुपी हैं। अर प्राणी हैं ते पुत्र खो भादिका कृत्यनै का छोडिकरि रात्रिदिन क्षणमात्र भी स्थिरताने नहीं पावै हैं॥८१२॥
आहारभीतिमैथुनपरिग्रहग्रहचपेटया विकलाः।
कुत्रापि न संस्कृतिचक्र सुदृशात्मानं न पश्यति ॥ १३ ॥ देखिये येह प्राणी सर्वत्र पाहार भय पैथुन परिग्रह येह च्यारि संज्ञारूपी ग्रहनिको चपेटिकाकरि विकल भये संते कहा मो संसार परिभ्रः IMमण चक्रमें सुदृष्टि करि आत्माने नहीं देखे हैं ॥८१३॥
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से संबद्धा श्रणवो निष्पन्नं यैर्भवांतरे ऽप्यशुचि
देहं त एवाघचिताः शकलीक्रियतेऽद्य भावितैरंगं ॥ ८१४ ॥
जिन प्राणीनिने अपनी शरीरकी वृद्धिमें परमाणु संबंधरूप किये अर अपवित्र देह निष्पन्न किया वे ही इस भवमें संचयरूप भये।अर कमभावनानुसार तिनकरि ही देह खंडित करिये है ॥ ८१४ ॥
पश्यतु मम मूढत्वं जातावधिबोधलोचनसहस्रस्य । दृष्ट्वापि विश्वविकृतिं निमज्जनं तत्र निर्भयं कुर्वे ॥ ८१५ ॥
श्रीभगवान विचार है कि मेरा मुढपना देखो प्राप्त भया है अवधिज्ञानरूपी नेत्रनिका सहस्र जाकै ऐसा मेरे मी संसारका विकारने देख करि भी तहां ही अपना डूबना निःशंक करू हूं ॥ ८१५॥
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संख्यातिगा चरमजातिनिगोतवासान्निर्गत्य भूरिजननानि धरांबुजातौ ।
तेजोमरुत्सु च वनस्पतिषु द्विभित्सु क्षुद्रा भवाः कुमरणाद् भविना गृहीताः ॥ ८१६ ॥
अनंत वा असंख्यात जन्ममैं तो निगोदको वास करें है अर तातें कथंचित् निकसि पृथ्वीकाय जलकाय जाति तथा अग्निकाय पवनकायमै चकारतें वनस्पति प्रतिष्ठित अप्रतिष्ठित भेदरूप दोय प्रकारमें इस प्राणीने कुमरण क्षुद्र भव ग्रहण किये ॥ ८१६ ॥
द्वित्र्यादिकेंद्रियगणेषु च पंचकाक्षेऽसंज्ञित्वसंज्ञिविधया द्वितयप्रणीते ।
तिर्यग्मनुष्यसुरजातिषु जन्ममृत्युकष्टं प्रलब्धमसुभृद्भिरघोपयोगात् ॥ ८१७ ॥
फिर सकाय ते द्रियनिका गण में तथा पंचेद्रियनिमें संज्ञी असंज्ञी दोय प्रकार कथितमें अर तियंच मनुष्य देव जातिमें जन्म मरण का कष्टने पापका योगर्ते प्राणीने लब्ध किये श्रर्थात् पाये ॥ ८१७ ॥
स्वर्गस्थोऽत्यशुभोदयेन पतति श्वत्वे तथा श्वा सुरेडू
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संजायेत भवाववर्तसरणेः कुत्र स्थिरत्वं भवेत् । चदद्यापि भवांधकूपपतनादुद्धर्तये किं कृतं
त्रिज्ञानप्रवणेशतादिविधिषु प्राप्तेष्वपि प्रायशः ॥ ८१८॥ अर स्वर्गका देव भी अशुभकर्मका उदयकरि कुक्क र पर्यायमें पडै है। अर श्वान भी कारण पाय शुभोदयकरि देव हो जाय है इस भव. परावर्तनकी स्थिरता कहां भी नहीं होय है ऐसा होते अवै भो बहु प्रकार तीन ज्ञानका पावना ईश्वरताका पावना आदि विधि प्राप्त भया भी इस भवांध कूपपतनसें नहीं उद्धार करूं तो कहा किया ? अर्थात यो विधि प्राप्त भई तब भी कहा लाभ है ? ॥१८॥
द्रव्यक्षेत्रजकालभावभवतः पंचप्रपंचोच्छलत्.
संसारे कति नाम पंचतयतां प्राप्ताः न के प्राणिनः । धिग्मूढत्वमतंद्रित पितृसुतस्त्रीश्यादिपाशेषु वा ।
बद्ध्वा दुर्गतिषु प्रयांति भविनो दुःकर्मरजूद्धृताः ॥ १६ ॥ इस संसारमें कौन पाणी द्रव्य क्षेत्र काल भव भावरूप पंच प्रकार उछलता संसारनमैं कितने मरणने नहीं प्राप्त भये हा धिक है ! अर ऐ मूढपणाने पिता पुत्र स्त्री लक्ष्मी आदिकी पाशी वचन कायका योगनि करि तथा कर्मरूप जेबडी करि खेंच्या हुवा पाणी दुर्गेतिमें प्राप्त होय है॥१६॥
आकिंचन्यतपःशरण्यमभवद्येषां मनःकायकृद्
योगैस्ते खलु मोक्षवर्यललनास्वायंवरं लंभिताः। जन्मापत्पथविच्युताः शिवसुखे भग्नाः वयंभाविन
स्ते धन्यास्तदिहाशु मे समुदयो जागतु शुद्धात्मनः ॥ ८२०॥
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पर ये महात्माके मन वचन काय योगनिकरि आकिंचन्यभाव तप है सो शरण्य होतो भयो। तेही मुक्तिरूप उत्तम स्त्रीका स्वयंवरपणात प्राप्त भये पर जन्म मरण आपदाका मार्गसेंच्युत भये पर मोक्ष सुखमें मग्न, स्वयं होनेवारे ते ही धन्य हैं वा कारण अब मेरे शीघ्र ही शुद्धात्माको उदय जागो॥२०॥
इत्थं भावनया विशुद्धमनसस्त्रैलोक्यचूडामणि
- सिद्धत्वं कृतकृत्यतावगमनात् पूर्ण लभंते सुख । इत्येवं मनसि स्थितं प्रकटयंतः स्वं नियोगं पुर
स्कृत्यैवामरपूजिताः सुरवरा भाजग्मुरुद्धात्मनः ॥ ८२१॥ या प्रकार अनियादि भावनाकरि विशुद्ध भयो है मन जिनको ऐसे धन्य पुरुष कृतकृत्यताका लाभते तीन लोकमें चुडामणि समान सिद्ध पदने अर पूर्ण सुखने प्राप्त होय हैं। ऐसे श्रीभगवानका मनमें तिष्ठता भावने प्रकट करता अर अपना नियोगने अग्रकरि देवनिकरि पूजित लौकांतिकदेव ऋद्धिकरि प्रसन्न है आत्मा जिनको ऐसे हुवे संते आवते भये ॥२१॥
अथ लौकांतिकदेवागमनप्रतिज्ञानाय पुष्पांजलि क्षिपेत् ।
ऐसे लौकांतिक जातिका देव आगमनके अर्थि पुष्पांजलि क्षेपना। अब लौकांतिक देवनिका वर्णन करै हैंसारखतादिमदसंख्यकुलप्रसूता एकं भवं समधिगम्य शिवालयाप्याः।
स्यावादशांगविनिवेदितविश्वतत्त्वा आगत्य संस्तुतिमिषाद विहितोपदेशाः ॥ २॥ सारस्वत आदिस आदि आठ कुलमें उत्पन्न भये पर एक भव मनुष्यपनाको पाय मोक्षरूप 'स्थानमें प्राप्त होनेवारे द्वादशांगवाणीकरि संसारका समस्त तत्त्वने जाननेवारे ऐसे ये देव भगवानके समीप आय स्तुतिके मिषत कश्वो है उपदेश जिनि ऐसे होते भमे ॥ २२ ॥
स्वामिन्नद्य जगत्त्रये प्रसरतां मांगल्यमाला यतः
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सर्वेभ्यः सुकृतं भविष्यति भवत्तीर्थामृतांभोधरात् । घोरापज्ज्वलनापनोदनमितो भव्यात्मनां जायतां
वैराग्यावगमस्त्वया परिचितस्तस्मै नमस्ते पुनः ॥ ८२३ ॥ ॥ हे स्वामिन् ! यात अवार तीन जगतमें प्राप्त भये प्राणोनिकू मांगल्यको पाक्ति होय है अर सर्व प्राणीनिके अर्थिं आप तीर्थरूपी अमृतपेपत
कल्याण होसी अर यातें भव्यजीवनिके घोर आपदारूप अनिकी शांति उत्पन्न होय सो वैराग्य भावनाको अवगम तैने परिचय कियो ऐसो | तेरे वास्ते वारंवार नमस्कार होहु ॥८२३॥
संसारदुःखविनिवृत्तिपरायणः स्वयं बुद्ध्वा भवस्थितिमिमां स्वपरात्मनां शिवं ।
कर्तेत्यसावभिमतस्वनियोगभावुकानस्मान् प्रपंचयति निःक्रमणोत्सवस्तव ॥८२४॥ .. पर स्वामिन् ! या संसारकी स्थितिने जाणि इस संसारका दुःखको निवृत्तिमें सावधान आपही हो। अर स्वपरके कल्याणका कर्ता आप ही हो अर निःक्रमण कहिये दीक्षाको उत्सव तिहारो है सो अनादि वांछित नियोगके भजिवेवारे हम जे हैं तिनिने प्रेरित करै है॥२४॥
के वा वयं त्वदुपदेशविधानदक्षाः स्वायंभवस्य सकलागमपूतदृष्टेः !
आत्मैव केवलमथो प्रतिबुद्धमार्ग नीतः स्वयं न खलु भव्यगणोऽपि तात ।। ८२५॥ अथवा हम तेरे उपदेशके देनेवारे कौन हैं अर तुम स्वयंभू सकल आगमकरि शुद्ध है दृष्टि जिनकी ऐसा तेरा प्रात्मा ही हे तात ! केवल संबोधनका मार्ग नहीं प्राप्त कियो किंतु सकल भव्यगण ही संबोधन मार्ग प्राप्त कियो॥२५॥
अयं पितेयं जननी तवेति लोका मुधार्थ व्यवहारयति।
विश्वेशिता विश्वपितामहस्त्वं माताऽसि सर्वप्रतिपालनेच्छुः ॥८२६ ॥ अर लोक व्यवहारका झूठा मागने लेय यह तेरा पिता है अर यह तेरी माता है, ऐसा कहै हैं। तू ही विश्वको स्वामी है, अर विश्वको | पितामह है अर प्रमाणको कर्ता है अर सर्वका पालन उदारको इच्छुक है॥२६॥
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अवाप्तसंसारतटः स्वलब्ध्या निमित्तमन्यत्समुपस्थितोऽसि ।
स्वयंप्रबुद्धः प्रभविष्णुरीशः कदापि नास्मत्स्तवनेन बुद्धः ॥ ८२७ ॥ अर स्वामिन् ! तु अपनी लब्धिकरि संसार समुद्रका पार प्राप्त होनेवारो है अन्य तो निमित्तमात्र हैं, तुम स्वयंबुद्ध हो, समर्थ हो, खामी हो, हमारा स्तवनकरि कदापि नहीं बुद्ध हो ॥२७॥
प्रकाशितं सूर्यमुदीक्ष्य दीपः स्वयं स्वदीप्त्या किमु भासयेत् ।
गंगा स्वयं शीतलतोपदात्री किं पल्वलेन स्वतृषां भनक्ति ।। ८२८ ।। अर विश्वका प्रकाश करनेवारा सूर्यने देखि दीप कहा अपनी प्रभाकरि प्रकाश करै? तथा गंगा नाम नदी स्वयं शीतल जल देनेवारी है सो कहा छोटा सरोवरसें अपनी तृषा मैट तैसें आप जगत्पितामहने हम कहा उपदेश देय संवोध ? ॥२८॥
जय कल्याणपरंपर मदनमयंकर निजशक्तिपते।
जय शाश्वतसुखकर त्रिभुवनमहिधर जय जय जय गुणरत्नपते ॥८२६ ॥ हे कल्याण परंपरावारा जयवंत होहू, हे अविनाशी सुखका करनेवारा जयवंत होह, हे त्रिभुवनका पृथ्वीधर ! जयवंत होहू, अर हे गुणरनका पति-ईश्वर जयवंत होहु ॥२६॥
. इति स्तुत्वा जिनेशानां नतमस्तकमौलयः।
. मंदारकुसुमोदाममालया! व्यधुः सुराः ॥८३०॥ या प्रकार नम्रीभूत है मस्तक मकुट जिनका ऐसे लोकांतिकदेव श्री भगवानने स्तुतिकरि मंदार आदि कल्प वृक्षके पुष्पनिकी पंक्तिकरि । पूजाने रचते भये॥३०॥
इति विवोपरि लोकांतिकदेवर्षिकृतपुष्पांजलिः। ऐसें विंब ऊपरि लौकांतिक देवनिकरि पुष्पांजलि क्षेपनी।
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बुद्ध्वा स्वस्वनियोगेन तपःकल्याणमूर्जितं ।
चतुर्णिकाया देवेंद्रा बाजग्मुः कृतसंस्तवाः ॥८३१॥ अब चतुर्णिकायके देव जे हैं ते अपना अपना नियोगकरि प्रकट भया तपःकल्याणने जानिकरि स्तुति करते संते प्रावते भये ॥३१॥
संबोध्य पितृन् स्वकुटुंबलोकान् पौरांस्तथांतःपुरमाशु याने ।
विनिर्मित वा शिविकादिरूपे समारुरोह प्रतिपन्नमृतिः ॥८३२॥ अर भगवान अपना माता पिताने तथा अपना कुटुंबके लोकनिने तथा नगरनिवासो जनने तथा अपना अंतःपुरने संबोधि शोध शिवि|| कादिरूप देवनिकरि रचित यानमें प्रसन्नतापूर्वक आरोहण करतो भयो॥३२॥
अत्रैवान्यासां प्रतिमानामुपरि पुष्पांजलिः। ऐसे भगवानने पालिकी पर विराजमानकरि अन्य विवनिपरि पुष्पांजलि क्षेपणो ।
वादिलगंधर्वजयेतिशब्दैः स्तब्धीकृताशानिचये मुहर्ते ।
शुभे दिना|त्तरभाजि जिष्णो ग्रंथ्यकालः शुभदो विधेयः॥ ८३३ ॥ अब पालकी पर प्रारोहण समय अनेक वादित्रनिका शब्द तथा गंधर्व आदिका जय जय शब्दकरि व्याप्त भया है दिशांका समूह जाम || ऐसा दिनाधका अपर भाग शुभ मुहूर्तमें श्रीजिन जयनशीलका निग्रंथकाल शुभकू देनेवारा करना ॥८३३ ॥
त्रिसप्तपद्यां स्वकुटुंबिविद्याधरामरेरूढसुवंशदेशा।
अनेकभूपार्थिजनैरुपास्या जयत्वलभ्या शिविका जिनस्य ॥८३४ ॥ बहुरि शिविकारूढ़ भगवानकू निज कुटुबके जन अर विद्याधरनितें तीन सात पेड़ लेय अपर देवनिकरि धारण किया है वांस दंड जाका | अर अनेक राजारूप याचकनिकरि सेवनियोग्य ऐसी अलभ्य जिनेंद्रकी पालकी जयवंती रहो ॥३४॥
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अथ दीक्षाक्षावतारः। अब दोक्षा वृक्षनिका वर्णन कहै हैंन्यग्रोधो मदगंधि सर्जमशनं श्यामे शिरीषोर्हता.
मेते ते किल नागसर्जजटिनः श्रीस्तिदुकः पाटलाः। जंब्वश्वत्थकपित्थनंदिकविटाम्राजुलश्चंपको
जीयासुर्वकुलोऽत्र वांशिकधवौ शालश्च दीक्षाद्रुमाः ॥ ८३५ ॥ अहत तीर्थंकरोंका दीक्षा प्रधान वृक्ष प्रथम तो १ वट २ सप्तच्छद अर्थात् सत् नो ३ साल ४ साल ५ नियंगु नियंगु ७ श्रीखंड ८ नागर ६साल १० पलास ११ तींदू १२ पाटल १३ जंवू १४ पिप्पन १५ दधिपण १६ नंदिक्ष १७तिलक १८ अाम्र१६ अशाक २० चंपा २१ मोलसरो २२ वांस २३ धव २४ साल येह अनुक्रम चौईस जयवंते वर्ती ॥८५॥
ओं ह्रीं णपो अरहताण जिनदीक्षारता अत्रावतरंतु अवतरंतु स्वाहा ।
एतेषु मध्ये यन्नाम्नो जिनस्य वृक्षाभावेऽपि एषु मध्ये योऽन्यतमं भवेत् स एव ग्राह्यः । आगे कहिये है कि जिस जिनेश्वरको जो वृक्ष होय उस हो अधोभाग उस जिनेद्रका तप कल्याण करना। कदाचित् वसा वृक्ष नहीं मिले तो इनि चौईसमें मिल सो ही ग्रहण करना ॥
सहेतुकवने गत्वा मंडपांतरितांबरे ।
दरं सभानिवेशं च कुर्यादिंद्रो विधिप्रदः॥ ८३६॥ ऐसे पालकीमें आरूढ होय वनमें जाय जिस सहेतुक नाम सामान्य वनमें जहां मंडप निर्माण किया ह तहां सभाका निवेश किंचिन्मात्र || दूर, विधिको कर्ता इंद्र करे॥८३६ ॥
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जिनबिंबं समुत्तार्य पाषाणे वाथ पटके ।
दीक्षातरोरधोभागे प्राङ्मुखं चोत्तरोन्मुखं ॥ ८३७ ॥
तहां जिनविनै पापाण अथवा पट्टमें स्थापि दीक्षावृक्ष के अधाभागमें पूर्व दिशा सन्मुख तथा उत्तर दिशा सन्मुख स्थापै ॥ ८३७ ॥ केशलोचो भूषणानां गंधमाल्यादिवाससां ।
त्यागः सर्वसभासाक्षी कारयेन्मंत्रवित्तमः ॥ ८३८ ॥
तहां भूषण वस्त्रनिका तथा गंधमाल्यादिकका सागकरि कचलोच करै, सबै सभाको साक्षी पूर्वक इंद्र अरु आचार्य कराव ॥ ८३८ ॥ केशा वासांसि भूषाश्च पिटिकायां निधाय च ।
इंद्र: स्वस्वस्थापनादिक्षेत्रे योग्यं समर्पयेत् ॥ ८३९ ॥
तब इंद्र महाराज केशअर वस्तु अर भूषण एक पेटीमें स्थापि प्राप आप स्थानमें यथा योग्य भजै ॥ ८३ ॥
तत्रोपदेशविधिना तु सभासदः स्युराचार्यकृतश्रुतवराग्रिमवाक्यपुष्टाः ।
शीलं यमं शमदमेंद्रियशेधनानि गृह्णीयुरिंगितफलेषु यतो निपातः ॥ ८४० ॥
तहां श्राचार्यका श्रुतधरका वाक्य वैराग्यगर्भित उपदेश विधिकार सभा के जन परिपुष्ट हो अर शील पर पंचेंद्रिय दमन यम आदि नियम सभाके जन ग्रहण करें कारण येह कि अपनी चेष्टाका फलमें आपको निपात होय है ॥ ८४ ॥
एवं सभासद्द्भ्यो धर्मोपदेशं दत्वा तत्रापवरकेन जिनविंबं परीस केषुचिदेव जनेषु योग्येषु दीक्षाविधिं नियुज्यात् ।
तत्र 'नमः सिद्ध ेभ्यः' इति मंत्रेण केशोत्पाटनं । अत्र विवस्याचेतनत्वाज्जिनकार्यं केशलोचादि आचार्येणैव विधातव्यं । तथा च-ग्रहं सर्वसावद्यविरतोऽस्मीति प्रतिज्ञायाहेंद्र क्तिसिद्धभक्तिपाठो जिनोद शेनाचार्येण कार्यः । विधिमुद्दिश्य स्वाचार्यश्रुतभक्तिपाठः कर्तव्यः । अत्र कमंडलु पिच्छिकादानं तीर्थंकरस्य शौचक्रियाजोवघाताभावाच्च न कर्तुं प्रभवति, केवलं साबुत्वे उपयोगि न तु प्रतिमाया महंति च इत्याम्नायविदः ।
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. तत्र तावदंकन्यासविधिः। कपूरचंदनकाश्मीरादिसुगंधद्रव्यैः सुवर्णशलाकया प्रतिमाया अंगेऽङ्कन्यासो विधेयः । तत्र तावदाचायः स्वशरीरे मातृकामंत्र जपन् अंकानि संन्यस्य तदुत्तरं प्रतिपायां लेखनद्वारा कार्यो विधिः। तथाहि___ों अं नमः इति ललाटे, ओं मां नमः मुखवृत्त, इई नेत्रयोः, उ ऊ कर्णयोः, ऋ अनासिकयोः, लुलगण्डयोः, ए ऐ ओष्ठयोः, ओं
औं दंतयोः, अं अः मूर्थिन, कं खं दक्षिणबाहुदंडे, गं घं दक्षिणकरांगुलिषु, डंदक्षिणकराग्रे, चं छ वामबाहुदंडे, जं में वापहस्तांगुलिषु, || वामहस्ता, टं ठं दक्षिणपादमूले, डं ढं दक्षिणपादगुल्फे, णं दक्षिणपादाने, एवं तवगै वामपादे, पग पार्थादिकुक्ष्यंत, यं हृदि, रं दक्षिण
स्कंधे, लं ककुदि, वं वामस्कंधे, शं हृदादिदक्षिणकरे, षं हृदादिवामकरे, सं हृदादिदक्षिणपादे, हं हृदादिवामपादे, तं हृदादिजठरे, न्यसेव, स्थापयेच्च। - ततः अनादिसिद्धमंत्र जपेत-ओं णमो अरहंताणमित्यादि, धम्मो सरणं पयजामोत्यंत स्वाहा। इत्यष्टोत्तरशतं जपः, ततः पुष्पाणि सुवर्णलवंगजात्यादिभवानि संगृहर कैकसंस्कारमंत्रमुच्चार्य प्रतिमोपरि क्षेपः।
तथाहि-ओं ह्रीं इहाहेति सदशनसंस्कारः स्फुरतु स्वाहा ।१। ओं ह्रीं इह हति सज्ज्ञानसंस्कारः स्फुरतु स्वाहा । २। प्रों ही इहाहति सच्चारित्रसंस्कारः स्फुरतु स्वाहा ।३। एवं ओं ह्रीं इहाहति, इत्यादि संस्काराग्रं स्फुरवित्यंते वाहा। इति न्यसेत्सर्वत्र सत्तपःसंस्कारः। ४।
सदीय चतुष्टयसं०।५। अष्टप्रवचनमातृका।६। शुद्धयष्टकावष्टंभः।७। परोषहजयः ।८। त्रियोगेन संयमाच्युतिः ।। कृतकारितानुमोदनरनतिचारनिवृत्तिः।१०। शोलसप्तकं । ११ । दशासंयमोपरमः । १२ । पंचेंद्रियनिजेयं । १३ । संज्ञानचतुष्टयनिग्रहः ॥१४॥ दशविधिधर्मधारणं । १५। अष्टादशसहस्रशीलपरिशीलनं। १६ । चतुरशीतिलक्षोत्तरगुणसमाश्रयः । १७। अतिशयविशिष्टयम्यध्यानं । १८। अममत्तसंयमः । १६ । सुदृढ़श्रुततेजोवाप्ति । २० । अमकंपनपकश्रेण्यारोहणं । २१ । अनंतगुणशुद्धिः । २२। प्रथाप्रमत्तकरणमाप्तिः । २३ । पृथक्ववितर्कविचारपणिधिः ।२४। अपूर्वकरणप्राप्तिः ।२५। अनिवृत्तिकरणमाप्तिः । २६ । वादरकवायचूणानं । २७। सूक्ष्मकषायचूर्णेनं ।२८ । सूक्ष्मसांपररायचारित्रं । २६ । प्रक्षोणमोहः । ३० । यथाख्यातचारित्रावाप्तिः । ३१ । एकत्ववितर्कविचारध्यानाध्ययनावलंबनं । ३२।
घातिघातसमुदभूतकवल्यावगमः । ३३ । धर्मतीर्थप्रवृत्तिः । ३४ । सूक्ष्मक्रियशुक्लध्यानपरिणतत्वं । ३५ शैलेशीकरणं । ३६ । परमसंवरः।३७१ M योगचूर्ण कृतिः।३८। योगायुतिभाक्त्वं । ३६ । समुच्छिन्नक्रियावत्त्वं । ४० । निर्जरायाः परमकाष्ठारूढत्वं । ४१॥ सर्वकर्मक्षयावाप्तिः ॥४२॥
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अनादिभवपरावर्तनविनाशः । ४३ । द्रव्यक्षेत्र कालभावपरावर्तननिष्क्रांतिः । ४४ । चतुगतिपरावृत्तिः । ४५ । अनंतगुणसिद्धत्वप्राप्तिः । ४६ । ह्रीं अदेहसहजज्ञानोपयोगचारित्रसंस्कारः स्फुरतु स्वाहा । ४७ । प्रों ह्रीं अह इहार्हति विवे अदेहसहोत्यदर्शनोपयोगंश्वयंप्राप्तिसंस्कारः
स्फरतु स्वाहा । ४८ ।
एवमष्टचत्वारिंशत्संस्काराधारित्वं प्रतिपाद्य एतदर्थारोपणांतः करणेन श्राचार्येण सर्वप्रतिमासु पुष्पांजलिः क्षेप्यः । ततः सभाविसजनं वादित्राद्य पस्कर विसर्जनं च कृत्वा एकाकी आचार्यों वा इंद्रश्च प्रतिमां वेदिकायां नयेत् । तत्र चतुर्विंशतितपस्तिथानुद्दिश्य मंडले पृथगिष्टिः कर्तव्या ।
याका अर्थ |
ऐस सभाका मनुष्यों धर्मोपदेश देय वहां अपवरक कहिये पडदो लगाय जिनविंत्रके चौतरफ योग्य कितना ही मनुष्यांके सन्मुख दीक्षापाठ आचार्य पर अन्य जनाके समक्ष दीक्षापाठ वा दीक्षा नहीं करें। तहां 'नमः सिद्धभ्यः' येह मंत्र बोलि केशलोच विधि करें। इहां ऐसा जानना कि विव तो अचेतन है, स्वयं केशलोच कहा करें ? परंतु श्राचार्य ही करें अर जिनेंद्रकी एवज 'ग्रहं सर्वसावद्यविरतोऽस्मि'
- मैं हूँ' सो यावत् यावत् श्रायुष्य सर्वे सावद्य क्रिया हैं तिनका त्यागी हू' ऐसे प्रतिज्ञा करू र अर्हतभक्तिको पाठ तथा सिद्धभक्तिको 'पाठ करे और विधि करता आचायें है सो आप अपनी शुद्धि वास्तं प्रथम आचार्य अरु श्रुतभक्तिपाठ भी सिवाइ करै श्रर इहां कमंडलु काष्ठको मयूरपच्छिकाको ग्रहण साधुपणाको उपयोगी है तथापि तीर्थंकरकै नोहारकी क्रिया नहीं, तथा स्वशरीरसे जीवघात नहीं, तातै निमित्त उसी समय स्थापन करो पुनः उपयोगी नाहीं तातैं नहीं करावनी ऐसें आम्नायकू' जाननेवारे कहें हैं ॥
तहां प्रथम अंकस्थापन विधि कहिये है सो ऐसे हैं कि- एक मुख्य विवकू प्राचार्य अपने संमुख लेय कपूर चंदन केशर आदि सुगं"धित द्रव्यनिकू घसिकरि सुवर्ण शलाकाकार प्रतिमाका अंगोपांगनिपरि अंक स्थापन करै अर्थात लिखे । तहां प्रथम आचार्य भी अपना शरीर शुद्धि निमित्त मातृका मंत्र जो पूर्वै मंत्राधिकारमें कहा था सो अष्टोत्तर शत जपें अर अपना अंगमें भावमात्र संस्थापन कर पीछे प्रतिमामें लिखें।
ऐसा ललाटमें लिखे, प्रां मुखमें, इ दक्षिण नेत्रमें ई वाम नेत्रमें, उ ऊ कर्ण में, ऋ ॠ नासिकाद्वयमें, ऌ लु गंडस्थलनिमें, ए ऐ ओष्ठनिमें, ओ औ दंतनिमें, अं अः मस्तकमें, क ख दक्षिण भुजदंडमें, ग घ दक्षिण हातकी अंगुलिमें, ङ दक्षिण हातका अग्रभागमें, च छ वाम भुजदंडमें, ज भ वाम करकी अंगुलिमें, अ वाम हातका अग्रभागमें, ट ठ दक्षिण चरणका मूलमें, ड ढ दक्षिण पाद टिकून्यामें, ण दक्षिण पादका मूलमें, त थ द ध वामपादटिकून्यामें, न वामपादाग्रे, पफ दक्षिण पसवाडामें, ब भ वामपादका पसवाडामें, म उदरमें, य
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हृदयमें, र दक्षिण कांधायें, ल ग्रीवामें, व वामा कंधमें, श हृदय आदि दहणा हाथ पर्यंतमें, प हृदयादि वाम हात पर्यंतमें, स हृदयादि दहणा पादमें, ह हृदयादि वामपादमें, त हृदय आदि पेट पर्यंत लिखना - स्थापन करना ।
ऐसें अनादिसिद्ध मंत्र जपै सो ऐसा - गमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरीयाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सब्बसाहूणं । चचारि मंगलं - अरहंत मंगलं, सिद्धमंगलं, साहू मंगलं, केवल पराणत्तो धम्मो मंगलं । चत्तारि लोगुत्तमा- श्ररहंत लोगुत्तमा, सिद्ध लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा । चत्तारि सरणं पव्वज्जामि, अरहंत सरणं पव्वज्जामि, सिद्ध सरणं पव्वज्जामि, साहू सरणं पव्वज्जामि, केवलिपणत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि । झौं झौं स्वाहा । पढि एक सौ आठ बार जप करै, ता पीछे सुवण अरु लोंग तथा जाय आदि सुगंध हाथमें लेय जो संस्कार मंत्र है सो पढ़ि प्रतिमा ऊपर नाखें । सो येह है— श्रीं ह्रीं इह अर्हतविवमें सम्यग्दर्शन संस्कार स्फुरायमान होहु ॥ १ ॥ ओं हीं इस अर्हतवित्रमें सम्यग्ज्ञान संस्कार स्फुरायमान होहु ॥ २ ॥ यों हीं इस अर्हतवित्रमें सम्यक् चारित्र संस्कार स्फुरायमान होहु ॥ ३ ॥ ऐसें ग्रीं ह्रीं तो आदिमें घर संस्कार स्फुरायमान होहु अंतमें पढ़ि स्थापन करें, सब जगै । सो ही संतप संस्कार ४ सद्वी चतुष्टयसंस्कार ५ अष्टप्रवचनमातृका संस्कार ६ शुद्धयष्टकप्राप्ति ७ सकलपरीषहजय ८ त्रियोगपूर्वक संयमसे नहीं बिगडना कृतकारित अनुमोदनकरि अनविचार संस्कार १० शीलसप्तक संस्कार ११ दशअसंयमोपरम १२ पंचेंद्रियनिर्जय १३ संज्ञाचतुष्टयनिग्रह १४ दशविधघधारण १५ अठारा हजार शीलकी प्राप्ति १६ चौरासी लाख उत्तरगुण १७ अतिशययुक्तधर्मध्यान १८ श्रप्रमत्तसंयम १६ सुदृढ तेजकी प्राप्ति २० अप्रकंपक्षपकश्रेणी २१ अनंतगुणविशुद्धि २२ अथाममशकरणमाप्ति २३ पृथक्त्ववितकंवीचार प्रणधि २४ अपूर्वकरण प्राप्ति २४ अनिवृत्तिकरण प्राप्ति २६ वादरकषायचूर्णन २७ सूक्ष्मकषायचूर्णेन २८ सूपसांपरायचारित्र २९ पक्षीणमोह ३० यथाख्यातचारित्रमाप्ति ३१ एकत्ववितकेंवीचारध्यानावलंबन ३२ घातिघातसमुद्र तकेवलज्ञान ३३ धर्मतीर्थप्रवृत्ति ३४ सूक्ष्मक्रिय शुक्लध्यानं परिणतत्व ३५ शील ईशरत्व ३६ परमसंवर ३७ योगचूर्णकृति ३८ योगायुतिभागित्व ३६ समुच्छिनक्रियावस्त्र ४० निर्जरा के परमकाष्ठारूढ़ ४१ सर्व कर्मक्षय प्राप्ति ४२ अनादिभवराव नविनाश ४३ द्रव्यक्षेत्र कालभाव परावर्तन निःक्रमण ४४ चतुगतिपरावृत्ति ४५ अनंतगुणसिद्धत्व प्राप्ति ४६ मों ह्रीं प्रदेह सहज ज्ञानोपयोग चारित्र संस्कार स्फुरायमान होहु ४७ प्रों ह्रीं इस अरविंवमें प्रदेहस होत्थदर्शनोपयोगैश्वर्यप्राप्ति संस्कार स्फुरायमान
॥४८॥
ऐसे ये महा अडचालीस संस्कार धारण करावे घर अन्य विंवनि पर भी यथा योग्य धारण करावे अर पुष्पांजलि क्षेपं । पीछे सभाका विसर्जन कर वादित्र आदि सामिग्रीको विसर्जन करें अर आचार्य इद्र ऐसे दोऊ गुप्त रीतिसे वेदिका परि ल्यावै, स्थापन करै । इहां ही चौईस तीर्थकरों की तिथि तपकल्याणकी उद्दे शकरि पूजा करें।
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अथोत्तरक्रियाः। अब यहां उत्तर क्रिया कहिये हैतस्मिन् क्षणे त्वर्थविबोधमुद्गमन्निव स्मरप्राणहरो जिनाधिपः।
उत्तार्यते यज्वभिरूढदीपकज्योतिर्भिरारद्युगसंख्यसत्फलैः ॥८४१॥ अर ताही क्षणमे मनः पर्यय ज्ञानने प्रकट करतो ही मानू कामवासनाको प्राणवैरी जिनराज है सो यजनके कर्ता हैं (१) ॥८४१॥
तत्रोपवासं मघवा तथार्यो यज्ञा शची चान्यमहे नियुक्ताः।
विदध्युरूचे विधिना हि मध्यंदिने जिनाग्रे चरुपूजनानि ॥ ८४२ ॥ अर तिस इंद्र अथवा प्राचार्य अर यजमान इंद्राणी अर अन्य भी यज्ञमें नियुक्त उपवास करें, दिनके मध्य ऊर्ध्व विधिमें जिनक प्रागै | नैवेद्य आदिकरि पूजन करै ॥४२॥
तदैव पंचाभुतवृष्टिरग्रे विवस्य पुष्पांजलिना समेता।
योज्या ध्वनि तूर्यगणैविधाय भुजीयुरन्यानपि भोजयित्वा ।। ८४३ ॥ अरु उस हो पंचरत्नकी दृष्टि आश्चर्ययुक्त जिनविंबके अग्रभाग पुष्प दृष्टियुक्त योजन करनी अर वादित्रकरि ध्वनि बजाय अन्य साधर्मो जननें उपवासके पारणाके दिन भोजन करावै। ऐसे पाहारग्रहणविधान करै ॥८४३॥
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अथ तपोभावनाः। अब तपकी भावना कहै हैबाह्याभ्यंतरभेदतो द्विविधता तत्रापि षट्भेदकं
वाह्यावांतरमेधिसखविभवप्रत्यूहनिर्णाशनात् । भक्ष्याभावतदूनतावतपरीसंख्यानषट्स्वादना
मोहैकांतशयासनांगकदनान्येवं तु वाह्यं तपः॥८४४ ॥ अर वाह्य अभ्यंतर भेदकरि तपके दोय प्रकार हैं। तहां वाच छह प्रकार हैं अर तरंग भी छह प्रकार है। अपना स्वरूपकी स्वच्छता का बधवा करि प्रत्यूह जो विघ्न ताका नाशते होय है। भक्ष्याभाव कहिये अनशन १ तदूनता कहिये अवमोदर्य २ वृत्तिपरिसंख्यान ३ रसपरित्याग ४ एकांत शय्यासन ५ अंगकदन कहिये कायक्ल श६ या प्रकार वाहतपने नमस्कार कराहां ॥८४४॥
ओं ही पट प्रकारवाहतपोधारकाय जिनायाघम् । अंत्ये दोषविसंगतो न भवति प्रायश्चितानां क्रमो
नो वा यत्र विनेयताव्युपस्मादौपाधिकस्योद्भवः । नान्यत्र स्थितिमत्सु साधुषु तथा वैयावृत्तेः प्रक्रमो
नो वा शास्त्रसुशीलनं त्विति परंपार्येण बोध्यं जिने ॥८४५॥ जिनराजकै दोषांको संगम नहीं होय है ताते प्रायश्चित्तनिका प्रक्रम नहीं है अरु स्वयं प्राचार्य हैं तो विनय किसका करें और साधुनिका | वेयात्रत्य भो कहा होय अर स्वय'बुद्धकै शास्त्रको चितवन भी परंपरामात्र ही जानवे योग्य है ॥८४५॥
व्युत्सर्ग प्रतिवासरं प्रसरतो ध्यानं स्वमाध्यायत
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श्राख्यामात्रमुपाचरत्प्रतिकृतेर्मार्गप्रलंभावनात् । गाढोत्कृष्टसुसंहनस्य जिनपस्यास्येति संरूढितः
क्लुप्तं तच्छुचि नाम तत्फलगणैः संपूजयाम्यादरात् ॥ ८४६ ॥ पर निस कायोत्सर्गमात्र करना भर माप स्वभावने ध्यावना जिनकै नाममात्र निश्चयनयत होय है अर अंगीकार किया विचमें भी नामPा मात्र हो है क्योंकि मार्ग साधूको दिखावनाके अर्थि है अर गाढा उत्तम संहननधारी जिनकै रूढि कल्पनाते ताका फल कपनिको निर्जराका | होवात अंत्य अंतरंग तपनै आदरतें पूज हूँ॥८४६॥
ओं ह्रीं पट प्रकारांतरंगतपोनिष्ठाय जिनाया । यस्याश्रयेण सकलाघतृणौघदाहशक्तित्वमाप चरितं चरितं जनेन ।
तच्चारुपंचतयरूपमपास्य चारमंत्यं यथाख्यमगमत्परिपूर्णतांगं ॥ ८४७॥ भर जाका पाश्रयकरि सकल पापकर्मरूप तृणका समूहमें दाहशक्तिपणानं प्राप्त होइ है, सो जनने चारित्र पाचरण कियो सो पंच प्रकार रूपने छोडि अंत्य यथाख्यात चारित्र श्रीजिनक परिपूर्ण होतो भयो॥४७॥
ओं हीं यथाख्यातचारित्रधारकाय जिनायाघ । शुक्लद्वयेन परिहृत्य तपोवितानमात्मानमाशु परिक्लप्य कृतावकाशं ।
ज्ञानावलोकनसमत्ययनाशमापन्मोहस्य पूर्वदलनेन समस्तभावात् ॥ ८४८॥ अर शुक्लध्यानका युगलकरि अज्ञान अंधकारने परिहारकरि आत्माने कृतकृत्यकरि ज्ञानावरण दर्शनावरण अर अंतराय इनका नाश प्राप्त हुचो अर मोहको दमन तो समस्तपणाकरि पूर्वं हवो ही ॥४८॥
ओं ह्रीं मोहनीयज्ञानदर्शनावरणांतरायनिर्णाशकाय जिनाया।
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अथात्र विधितिलकद्रव्यसंचयनं । अब इहां शेषविधि कहिये है-तहां तिलक द्रव्यका संचय है। पिंगाप्रियंगुफलदध्यमृतप्रदूर्वा सिद्धार्थका हिममहागुरुरत्नसिक्तं । तीर्थाबुकानकघटोधृतदुग्धधारासंपन्नमाशु विदधीत निजाभिषिक्त्यै ॥ ८४६ ॥ स्नात्वा कुसुभबसना धृतहेमभूषा सन्मौक्तिकोधृतचतुष्कविराजमाना। मंलं ह्यनादिनिधनं परिजप्य शुद्धा यष्टीसु चंदनरसं परिषेचयेत्तु ॥ ८५.॥ भर्नचलाक्तवसनायुगकोणभासि दीपावलीद्युतिविशालिशिलोपरिष्टात् ।
संघृष्य चंदनमनर्थसमूहनष्टये भाले विधातु सवितुः कृतमंडितस्य ।। ८५१ ॥ ओं ह्रीं णमो अरहताणं इत्यादि पठित्वा याजकपनी वादिननादपुरस्सरं जयजयादाकुलं सुपंगलगानरम्यपकाशं तितकं प्राचार्यमूर्टिन | कुर्यात् । तत आचार्योऽपि चारित्रभक्ति पठित्वा
ओं हां ही हूँ हौं हः असि आ उसा एहि संबोषट् । ओं हां ह्रीं हूँ हो असि आ उ सा अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः।
ओं हां ह्रीं हों हः असि पा उ सा अत्र मप सन्निहितो भव भव वषट् । इति मंत्रराहूय एकति सुलग्ने रेचकस्वरोदये प्राचार्यो विशुद्धमना परिहतसकलसंकल्या मुखजिनविंचनामो 'ओं हों श्री ग्रह प्रसि पाउ सा अप्रतिहतशक्तिभवतु ही स्वाहा इत्युदीय हूँ (2) इति वीजं स्थापयेत् । इदमेव तिलकदानं प्रकृतो वोध्यं । अत्राष्टकं देयं । | यजमानको पत्नी तिलकद्रव्य घप्त सो ऐसे करें--सुगंबका भारकरि मिल्यो ऐसोभ्रमरनिके समूह ताकरि शब्दायपान विडा पहा अगुरु
चंदन ताकरि तथा रत्ननिका चूर्ण तीर्थका जल सुवर्णका घरमें धारण किया जन शोत्र हो जिनका अनि के अवि कर। तदि आचार्य भी | चारित्रभक्तिपाठ पढिकरि ओं ही इत्यादि आह्वानन स्थापन संनिधिकरण मंत्रनिकरि उस देशको आडात कर अर एकांत सुंदर लग्नमें
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रेचक स्वरका उदयमें विशुद्ध मन पर संकल्प विकल्पको परिहारकरि प्राचार्य है सो मुख्य जिनर्विवको नाभिस्थानमें ह ऐसा वोज लिखै तदिनों ही श्री अहँ असि आ उ सा अप्रतिहतशक्तिभवतु हो स्वाहा' जाप करै । ये हो तिलकदान है, प्रतिष्ठाका मुख्य काय है ॥८४६-५१॥
अधिवासनाप्रकारः-तत्पतिमां भद्रासनोपरि मातृकायंत्रे स्थापयित्वाऽष्टोत्तरशतधार तोयजनधारानिपातनेनाभिमंत्र्य अग्रेविपिं कुर्यात् ।
अब अधिवासना प्रकार कर-सो उस प्रतिमाने भद्रासन ऊपरि मातृका यंत्रने लिखि उस यंत्र ऊपरि प्रतिमाकूविराजमानकरि तीर्थ जलधाराने मंत्रपूर्वक निपातन करें।
काश्मीरचंदनरसेन विलुब्धशुंभत्सौरभ्यमत्तमधुपावलिझंकृतेन। पीठस्थली जिनपतेरधिपादपद्मं संचर्चयामि मुनिभिः परितः पवित्रां ॥ ८५२॥
ओं ही अहते सर्वशरोरावस्थिताय पृथु पृथु चंदन गृहाण गृहाण स्वाहा। पवित्र ऐसीने चरणारविंद समीप तस लाभने प्राप्त भये सुंदर सोगंध्यकरि मदोन्मत्त ऐसे भ्रपर पंक्तिका झंकारसंयुक्त ऐसा केशरचंदन का रसकरि लिंपन करूंहूँ॥८५२॥ प्रों हो सवंशरोरावस्थित अहतके अर्थि बहु प्रकार चंदन ग्रहण करू हूँ।
मुक्ताफलच्छविपराजितकामकांतिप्रोदभूतमोहतिमिरेकफलौघहेतु।
शाल्यक्षतार्थपरिपूर्णपवित्रपात्रमुत्तारयामि भवतो जिनपस्य पार्वे ।। ८५३॥ बहरि हे भगवन् ! तिहारे अग्रभाग मोलीनिकी छविकरि जोती गई है निश्चल कांति जाको अर प्रगट दुरि कियो है मोहरूपी तिपिर स्वरूप एक फलसमूहको हेतु जान ऐसो तंदुल अक्षत अर्थकरि भरयो अर पवित्र ऐसा अक्षतपात्रने में उतारूह॥५३॥
___ओं ही अहते सर्वशरीरावस्थिताय पृथु पृथु अक्षतान् गृहाण गृहाण स्वाहा । सौरभ्यसांद्रमकरंदमनोऽभिरामपुष्पैः सुवर्णहरिचंदनपारिजातैः । श्रीमोक्षमानिवनितापरिलंभनाय माल्यादिभिश्चरणधोरणिमुत्सृजामि ॥८५४ ।।
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सुगंधकरि सघन मकरन्दवारे पर मनोहर पुष्पनिकरि तथा सुवर्णके अर कल्पटन के पारिजातके पुष्पनिकरि मोक्षरूप मानवती स्त्रीका लाभके निमित्त पूर्वोक्त माला आदिकरि चरणपंक्तिने मैं पूजू हूं ॥ ८५४ ॥
श्रीं ह्रीं अर्हते सवंशरीरावस्थिताय पृथु पृथु पुष्पाणि गृहाण गृहाण स्वाहा ।
नूनं निरावृतिचमत्कृतिकारि तेजो नो शक्यमीक्षितवतामपि भावुकानां । इत्येवमर्पितनयानयनेन शंभोर मुखाग्रमहवस्त्रमुपाकरोमि ॥ ८५५ ॥
'अरु नवीन अर निरावरण ताका चमत्कारनेवारा प्रभुका तेज है सो देखनेवारे भव्यनिकू शक्य नहीं है ऐसे या प्रकार अर्पित नयका अवलंबनकर श्रीभगवानका मुखके अग्रभागमें वस्त्रसे मैं परदा करू हूं ॥ ८५५ ॥
ह्रीं अर्हते सर्वशरीरावस्थिताय समदनफलं सप्तधान्ययुतं मुखवस्त्रं ददामि स्वाहा । इति मुखाग्रे वस्त्रयवनिकां दत्त्वा यवमालावलयं जिनपादाग्रतः स्थापयेत् । एसें मुखख अग्र रोपणा ।
प्रश्न- इहां सर्वज्ञपणा मानि पूजन विधान करिये हैं, फिर भगवानका अग्रमुख वस्त्रका देना कैसा है ?
उत्तर - यह प्रतिष्ठापाठ सर्वक्रियाकांड है, अर मुख नाम अग्रभागका है तातें विबके आड़ा एक परदा भगवानके घाड देना ऐसा अभिप्राय है। इस हीकू' मूलपाठ में 'यवनिकां दत्त्रां' ऐसा कहा है । अर्थ-वस्त्रका परदा देना । षष्ठोपवासविधये नवसर्पिषाक्तनैवेद्यभाजनमिदं परिवर्त्य सप्त ।
वारं तदीयपरित्यभिधाप्रसिद्ध संस्थापयेज्जिनवराग्रिमभूतधात्र्यां ॥ ८५६ ॥
बहुरि श्रीभगवानकू बेला तेला आदि अनशनतपका विधान हो चुका इस बात के अर्थि नवोन घृतक रे मिश्रित नैवेद्यका पात्र सात वार उतार आगामी केवल ज्ञानोत्तर भोजनका अभाव है इसकी प्रसिद्धि के अर्थ जिनेंद्रके अग्रभागी पृथ्याविषै स्थापित करना ॥ ८५६ ॥ हीं अहंते सर्वशरीरावस्थिताय पृथु पृथु नैवेद्य ं गृहाण गृहाण स्वाहा ।
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स्फूर्जन्मयूखविततिप्रहतांधकारं दीपं घृतादिमणिरत्नविशालशोभं।
उद्भिन्नशुक्लयुगलांतिमभागभाजो देहातिं द्विगुणकाटियुतां करोमि ॥८५७॥ बहुरि देदीप्यमान किरण समूहकरि दुरि किया है अंधकार जाने पर घृत अर मणिरत्नकरि विशाल है शोभा जिसमें ऐसा दीपकनै...... अर प्रकट भया शुक्रध्यानका युगलका अंतिम भागकू भजनेवारा जिनेंद्रकी देहकांतिने गुणित कोटियुक्त करू हूँ॥॥
. ओं ही प्रज्वल प्रज्वल अमिततेजसे दोपं गृहाण गृहाण स्वाहा। कपूरचंदनपरागसुरम्यधूपक्षपोऽस्तु मे सकलकर्महतिप्रधानः।
इत्येवभावमभिधाय हसंतिकायामुक्षेपयामि किल धूपसमूहमेनं ॥ ८५८ ॥ अर अगर चंदनका परागकरि रमणीक धूपको छेपिवो मेरा सकल कर्मनिका हनिबेमें प्रधान होह। इसी ही भावने अंगीकारकरि धूपका समूहने सिघरी विषै क्षेपू हूँ ॥॥
__ों ही सर्वतोदह दह तेजोऽधिपतये समूहभूताय धूपं गृहाण गृहाण स्वाहा । कर्माष्टकापहरणं फलमस्ति मुख्यं तत्प्राप्तिसम्मुखतया स्थितवानसि त्वं ।
यस्मादनेकगुणलास्यकलानिधानधाम्नस्तवस्थलमदभ्रफलैर्यजामि ॥५६॥ . कमका अष्टकका अपहरण है सो मुख्यफल है, अर वांका सन्मुखपणाकरि हे भगवान तुम तिष्ठो हो, यात अनेक गुणका विलासकलाका निधानभूत गृहरूप जो तुम ताका स्थलभागने बहुत प्रकार फलनिकरि मैं पूजू हूँ॥५६॥
नों ही आश्रितजनायाभिमतफलानि ददातु ददातु स्वाहा।। त्रैलोक्याभपदं त्रिकालपतिताशेषार्थपर्यायजा.
नंतानंतविकल्पनस्फुटकर संसारचकोत्तरं ।
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ज्योतिः केवलनामचक्रमवतो ध्यानावतानप्रभो
___ोऽयं तुर्यविशंशनक्षणमहः कोप्येष जीयात्पुनः ॥ ८६०॥ तीन लोकने अभयको देनेवारौ अर त्रिकालमाप्त समस्त पदार्थ अर पर्याय तिनका अनंतानंत विकल्प तिनकू प्रगट करनेवारो अर संसारकसे उत्तीर्ण ऐसा केवल नाम ज्योतिने आक्रमण करतो अर ध्यानावस्थित प्रभूको अनिर्वचनीय चौथा कल्याणकी प्राप्तिको उत्सव वारंवार जयवते रहो॥१०॥
ओं ह्रीं नमोऽईते भगवते द्वितीयशुक्थ्यानोपांत्यसमयमाप्तायाम्। ओं ह्रीं अहत भगवानके अवि नमस्कार होहु। दूसरा शुक्लध्यानका उपांत्य समय प्राप्तके अर्थि अर्घ देना। __ इति अधिवासनां निष्ठाप्य-सर्वान् जनानपसृत्य दिगंबरत्वावगत आचार्यः 'ओं नमः सिद्ध भ्यः' इति मंत्रमुच्चारयन् भृगारधारा विष्वग् निपात्य डामरादि द्रोपद्रवशांत्यै सिद्धचक्रयंत्राभ्यएँ संनिधाय प्रथमतः स्वस्त्ययनं पठेत ।
ऐसें अधिवासनाविधिने निष्ठापनकरि 'नों नमः सिद्ध भ्यः' ऐसा सिद्ध परमेष्ठोको स्परणकरि मंत्रने उच्चारण करतो झारीत जलधाराने चौतरफ क्षेपि तुद्रोपद्रवकी शांतिके अथिं सिद्धचक्र मंत्रकू समीप राखि प्रथम स्वस्तिविधान पढे। सो ऐसातथाहि- स्वस्तिश्रीऋषभो देवोऽजितः स्वस्त्यस्तु संभवः।
अभिनंदननामा च स्वस्ति श्रीसुमतिः प्रभुः ॥८६१ ॥ पद्मप्रभः स्वस्ति देवः सुपार्श्वः स्वस्ति जायतां । चंद्रप्रभः स्वस्ति नोऽस्तु पुष्पदंतश्च शीतलः ॥८६२॥ श्रेयान् स्वस्ति वासुपूज्यो विमलः स्वस्त्यनंतजित् । धर्मो जिनः सदा स्वस्ति शांतिः कुंथुश्च स्वस्त्यरः ॥ ८६३ ॥ मल्लिनाथः स्वस्ति मुनिसुव्रतः स्वस्ति वै नमिः ।
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नेमिर्जिनः स्वस्ति पार्यो वीरः स्वस्ति च जायतां ॥८६४ ॥ भूतभाविजिनाः सर्वे स्वस्ति श्रीसिद्धनायकाः।
श्राचार्यः स्वस्त्युपाध्यायः साधवः स्वस्ति संतु नः ॥ ८६५ ॥ ऋषभदेव स्वामी कल्याणरूप हो, अजितनाथ कल्याणरूप हो, अर संभव अर श्री अभिनंदन कल्याणरूप होउ । अर सुपति पर पद्मप्रभदेव खस्तिरूप होहु. अरु सुपार्श्व देव स्वस्तिरूप होहु अर हमारे चंद्रप्रभ स्वस्ति करो अर पुष्पदंत स्वामी अर शीतलनाथ स्वस्ति करो अर श्रेयांशनाथ स्वस्तिरूप हो अरु वासुपूज्य अर विमलनाथ स्वस्तिरूप हो, अर अनंतनाथ अर धमस्वापो सदा कल्याणरूप हो, अर शांति कुंथु अरु अरनाथ कल्याणरूप हो अर मल्लिनाथ स्वस्ति करो अर मुनिसुव्रत अर नमिनाथ स्वस्ति करो अर नेमि जिन स्वस्तिरूप हो अर पाच अर वोर जिन स्वस्तिरूप होहु । अर भूत भविष्यत सर्व जिन स्वस्तिरूप हो। श्रीसिद्धपरमेष्ठी अर आचार्य अर उपाध्याय पर साधुपरमेष्ठी हमारे कल्याणरूप होहु ॥८६१-६५ ॥ ऐसें पढि पुष्पांजलि क्षेपणी।
- इति पठित्वा पुष्पांजलि क्षिपेत् । अयाख्यातं प्रांतोदयधरणिधृन्मृर्द्धनि प्रकाशोल्लासाभ्यां युगपदुपयुजस्त्रिभुवनं ।
दधज्ज्योतिः स्वायंभवमपगतावृत्यपपथो मुखोद्घाटं लक्ष्म्या बजतु यवनी दरमुदयेत् ॥६६॥ अब यथाख्यात चारित्ररूप उदयाचलका मस्तकमें अपना प्रकाश अर तेजकरि एकै काल त्रिभुवनने प्रकाश करतो पर स्वयमेव असहाय ज्योतिने धारण करतो, दूर गयो है आवरण मार्ग जात ऐसो प्रभु मोक्ष लक्ष्मोका मुखका उद्घाटनने प्राप्त होहु ऐसें कहिकरि वस्त्रकी यवनिका कहिये पडदान दूर उत्पेक्षण करें ॥६६॥
इति श्लोकमंत्रपाठानंतरंओं उसहादिवड्ढमाणाणं पंचमहाकल्लाणसंपण्णाणं महइमहावीरवडढमाणसामीणं सिजउ मे महइमहाविज्जा अट्टमहापाडिहेरसहियाणं सयलकलाधराणं सज्जोजादख्वाणं चउतीसातिसयविसेससंजुत्ताग वत्तीसदेवींदमणिमत्थयमहियाणं सयललोयस्स स्संतिपुट ठिकल्लागाउ|| आरोग्गकराणं बलदेववासुदेवचक्कहररिसिमुणिजदिमणगारोवगूढाणं उदयलोयसुहफलयराणं युइसयसहस्सपिलयाणं परापरपरमप्पाणं
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अणाहिणिहणाणं बलिबाहुबलिसदाणं वीरे वीरे ओं अंत सेणवीरे वड्माणवीरे णहसंजयंतवराईए बज्जसिलयंभपयाणं सस्सदवंभपहियाणं उसहाइवीरमंगलमहापुरिसाणं णिचकालपइठियाणं इत्थसंणिहिया मे भवंतु मे भवंतु ठः ठःक्षत स्वाहा ।
इति मंत्रेण मुखादग्रं वयवनिकां दरमुत्सारयेत्।।
इति श्रीमुखोद्घाटनं । ऐसे श्लोक मंत्र पढनके पीछे 'नों उसहादि वड्ढमाणाणं' आदि (ऊपर लिखे) यंत्रकरि श्रीमुखत अग्र वस्त्र पडदाने दूर करै। येह मुखोदघाटन विधान है।
तदनंतरमेव रुक्मपात्रस्थितकपूरयुक्तसुवणशलाका दक्षिणपाणौ विधृस सोऽहं स इनि ध्यायनाचार्यों नयनोन्मीलनयंत्रे प्रदर्घ्य श्लोकपियं पठेत् ।
येनाबद्धनिरूढकर्मविकृतिप्रालंबिका निघणं
छिन्नात्मानमर्ज स्वयंभुवमपूर्वीयं स्वयं प्राप्तवान् । सोऽयं मोक्षरमाकटाक्षसरणिप्रेमास्पदः श्रीजिनः
साक्षादत्र निरूपितः स खलु मां पायादपायात्सदा ॥८६७॥ जाने बंधने प्राप्त भये गाढे कर्मनिका विकाररूप पडदा निदय होय छेदने प्राप्त किया अर आत्माने अजन्म स्वयंभूरूप अपूर्व पर्यायने प्राप्त || किया सो येह मोक्षरूपी लक्ष्मीका कटाक्षका मागमें ममको स्थानक श्रीजिन इहां निरूपण कियो सो मोने संसारपापते रक्षा करौ सदा ॥८६॥
अओं णमो अरांताणं णाणदंसणचक्खुमयाणं अमियरसायणविमलतेयाणं संतितुढिपुहिवरदसम्मादिहोणं वं में अमियवरसीणं स्वाहा। इति स्वर शलाकया नेत्रोन्मीलनं कुर्यात् । ततः सद्यव मूरिमंत्रेण सर्वज्ञत्वोपलंभनं विदध्यात् ।
ओं णमो अररांताणं णाणदंसणचक्खुमयाणं अमियरसायणविमलतेयाणं संतितुद्धिपुहिवरदसम्मादिट्ठीणं वं झ अमियवरसोणं स्वाहा। यह मंत्र पढे ता पीछे तत्काल मूरिमंत्र है उस करि सर्वज्ञपणा प्राप्त करें।
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पाठ
ओं सत्तक्खरगब्भाणं अरहंताणं णमाथि भावेण ।
जो कुणइ अणण्णमणो सो गच्छइ उत्तमं ठाणं ।
इति पदाग्रस्थापितयववलयापसारणं कुर्यात् । ततःइस मंत्रकरि यववलयका अपसारण करें। पोछ
ओं केवलणाणदिवायरकिरणकलावप्पणासियण्णाणे । णवकेवललधुग्गमसुजाणयपरमप्पववएसो॥ असहायणाणदंसणमहिनो इदिकेवली होदि । जोयेण जुत्तो ति सजोणिजिणो अणाहिणिहणारिसे वुत्तो । इत्येपोऽर्हन् साक्षादवतीणों विश्वपाविति स्वाहा।
इति प्रतिपाग्रे पुष्पांजलिः। ऐसा पढ़ि पुष्पांजलि प्रतिमाका अग्रभागमें क्षेपणी।
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अथ ज्ञानकल्याणं । ऐसा मानि ज्ञान कल्याणका पूजन करैतत्र तावदनंतचतुष्टयस्थापनं। ततो घातिक्षयजदशातिक्षयस्थापनं ततोऽपि देवकाचतुर्दशातिशयस्थापनं। ततः समवसरणं मातिहार्यो-18 पास्तिश्च । तथाहि
प्रथम अनंत चतुष्टय स्थापन ताके पीछे घातियाका नाशत उत्पन्न भया दश अतिशय स्थापन करे। ता पोछै देवकृत चोदह अतिशयका स्थापन करणा। ता पीछे समवसरण स्थापन तथा मंडल पूजा करणी।
कैवल्यसूचिशरसंख्यकवर्तिकाभिरारार्तिकं बहुलवाद्यनिनादपूर्वं ।
श्रीमज्जिनप्रतिकृतेः शतयज्ञयज्ञाचार्या विदध्युरमलं जयघोषणाग्रं ॥८६८॥ इंद्र अरु यजमान आचार्य जे हैं ते श्रीमान् जिनको प्रतिमाके अग्र जय घोषणा पूर्वक आरति करें॥८६८॥
ओं ह्रीं ज्ञानकल्याणपाप्ताय जिनायार्यम् । चतुरवर्तिकाद्योतनं च कुर्यात् । अव चतुर्वंशतितोथज्ज्ञान कल्याण कतिथीनुद्दिश्य अध्य| पाद्यानि कार्याणि। ओं ह्रीं ज्ञान कल्याण प्राप्त जिनेद्रके अर्थ अर्घ देना। पर इहां हो चोईस तोथंकरोंका ज्ञान कल्याण तिथिको उद्देश्यकरि अघपाय करना।
सत्तामात्रग्राहकं दर्शनं च तदभेदानां ग्राहकं ज्ञानमुक्तं ।
ताभ्यां स्वास्थ्यं पूर्णमुक्तं सुखं तच्छक्तर्व्यक्तिर्वीयमलार्चयामि ॥ ८६६ ॥ वस्तुको सत्तामात्र ग्रहण करनेवाला दर्शन है अर ताके विशेष ग्रहण करै तो ज्ञान है, अर तिनत जो पूण स्वस्थता सो सुख कहा है पर तिनकी शक्तिकी प्रगटता है सो वार्य है। ऐसें भगवानके अनंतरूप हैं ताहि मैं पूजू है ॥६६॥
ओं ह्रीं नमोऽहते भगवतेऽनंतज्ञानदर्शनसुखवीर्यविभ्राजते जिनायाघम् । प्रों हो अहंत अर्थि नमस्कार होह। अनंत दर्शनवज्ञानसुखवीर्यका धारी जिनेंद्र अर्थि अर्घ देना।
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सम्यक्त्वं चरितं सुवोधनदृशी वीर्य ददिर्लाभको
भोगोपादिभुजी हि यस्य नवकं लब्धेः सदा क्षायिकं । संपन्नं खलु केवलोद्गमनतस्तं सांप्रतं ध्यायतो
विघ्नानां निचयः प्रणाशनमियात्तत्संस्मृतिप्रार्थनात् ॥ ८७० ॥ क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र, अनंत ज्ञान, अनंतदर्शन, अनंत वीर्य, अनंतदान, अनंत लाभ, अनंत भोगोपभोग, या प्रकार लब्धिनिका नवक जाके केवल ज्ञानोत्तर प्रगट भया ताका स्मरण प्रार्थनते विघ्ननको समूह नाशने प्राप्त होइ ॥८७०॥
ओं ही नमोऽहते भगवते नवकेवललब्धिभ्योऽयम् । ओं ह्रीं नवकेवललब्धिके अर्थि अघ देना। सौभिक्ष्यं मुकुरोपमक्षितिरथो व्योमक्रमप्रक्रमः
प्राण्याघातविनिर्गमश्च कवलाहाव्यपायः परैः। अक्लेशोपचयश्चतुर्मुखदृशिविद्यश्वरत्वं तनो
रच्छायत्वमकेशवृद्धिरिति वै दिकसंख्यकाः केवले ॥ ८७१ ।। बहुरि सुभिक्षता अर दर्पण समान पृथ्वी अर आकाशको क्रम निर्मलत्व अर पाणिमात्र बधका अभाव अर कवलाहारका अभाव अर उप४.सर्गाभाव अर चतुर्मुखत्व अर सर्व विद्याका ईश्वरत्व अर शरीरकी छयाका नहीं होना अर नख केस वद्धिको अभाव ऐसे केवलज्ञानका दश अतिशय है ॥८७१॥
ओं ही नमोऽहते भगवते दशकेवलातिशयेभ्योऽयम् । नों ही केवलाविशयका अर्घ देना।
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दिव्या वाग् जनसौहृदं प्रतिपदं सर्वाङ्गगोलारुहा
भूरादर्शतला मृदुस्वसनसन्मोदौ तु भूः शालिनी। सौरभ्यांबुधरी सुवृष्टिरमला पादकमाधोतले । . स्वच्छांभोरुहनिर्मितिः खममलं दिग्समदश्चक्रकं ॥ ८७२ ॥ धर्माख्यां पुरतश्च सज्जनमनोमिथ्यात्वसंस्फेटनं
देवाहवानपरस्पराधिकमुदा सन्मंगलाष्टाविति । दिव्यातीशयसंयुतो जिनपतिः शक्राज्ञया रैमुचा
क्लुप्ते श्रीसमवादिसंस्मृतिपदे संतिष्ठवांस्तान्मुदे ॥ ८७३ ॥ अर दिव्यध्वनि अर मनुष्य प्राणीमात्रकै मंत्री अर सर्वऋतुके फलपुष्प संयुक्त वृक्ष अर कंटकरहित भूपि अर मंद सुगंध पवन अर सवधान्यसंपन्नक्षेत्र अर गंधोदक दृष्टि अर भगवानका विहार समय चरण तल कमल रचना, आकाश निपल अर दिशाको प्रमोद अर धर्मचक्रका अग्रगमन अर जनका हृदयतें मिथ्यात्वभाव विरति अर देवकृत परस्पर आह्वान, अर मंगलाष्टक ऐसे येह देवकृत अतिशयसंपन्न इंद्रको प्राजाकरि कुवेरदेवने रच्या समवसरण में विराजमान जिनपतिदेव है सो आनंदके अर्थि होहु ॥८७२-८७३॥ .
ओं ह्रीं नमोऽहते भगवते चतुर्दशदेवकृतातिशयसंपन्नाय जिनाया। नों ही देवनैमित्तिक चौदह अतिशय संपन्नके अर्थि अर्घ देना। ततः समवशरणमंडले प्रतिमां नीत्वा तत्र पूजां कुर्यात् । तदनंतर समवसरण मंडलमें प्रतिमा स्थापि पूजा करै। मानस्तंभसरः सपुष्पविपिनं सत्खातिका चाभितः
प्राकारादिसुनाट्यभूमिविपिने नाकालयमारुहाः।
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स्तूपा हर्म्यततिर्ध्वजावलिसभे सद्गंधवेदिक्रमोऽ.
. शोको-रुहसिंहपादनभसिस्थायी जिनः पातु नः ॥ ८७४ ॥ समवसरणमें मानस्तंभ सरोबर पुष्पवाटी वन खाई चौतरफ प्राकार नाट्यशाला वन कल्पक्ष स्तूप हावली अर ध्वजापंक्ति गंधकुटोकी रचना अशोक वृक्ष सिंहासन तरीक्ष विराजमान जिनेंद्र हमारी रक्षा करो॥८७४॥
ओं ह्रीं नमोऽईते भगवते सकलसमवशरणविभूतिसंपन्नाय जिनायाघम् । ओं ही सकलविभूतिसंपन्नसमवसरणविराजमान जिनेद्रके प्रथिं अर्घ देना। वनस्पतित्वेऽपि गतप्रशोकोऽशोको वभूवातिमदप्रसूनः ।
अनेकसंदर्शकशोकहारी वृक्षो जिनेंद्राश्रयणप्रभावात् ॥ ८७५ ॥ 3) बहुरि वनस्पति पर्याय में भी गयो है शक जाको ऐसो अशोक वृक्ष है तो अति सुगंध पुष्पवान् है, अनेक देखनेवारेनिका शोक हरनवारा श्रीजिनेद्रका पात्र यतें होय है॥८५५॥
___ों ह्रीं अशोकमातिहार्यसंपन्नाय जिनायाघम् ।
ओं ह्रीं अशोकवृक्षप्राप्तिहायसंयुक्त जिनेंद्र अघ। श्रेयस्तरुः फलति नोऽमरसौख्यमुच्चैहर्षोत्सुकत्वपरिलभनसन्मिषेण ।
देवैः कृता सुमनसां परिवृष्टिरेषा मोदं ददातु भवदुःखजुषां जनानां ॥ ८७६ ॥ पुण्यरूपी वृक्ष हम उच्च प्रकार देवपणाका सखने फल है। ई प्रकार हर्षका उत्सुक प्राप्ति मिषकरि या देवनिकरी पुष्पनिकी वर्षा है सो संसार दुःख संयुक्त प्राणीनिकूपानंद देवो ॥८६॥
ओं ही देवकृतपुष्पवृष्टिमातिहायसंपन्नाय जिनायाघम्।। ओं ह्रीं देवकृत पुष्पदृष्टि प्रातिहार्यसंपन्न जिनेंद्र अर्थ।
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त्रैलोक्यवस्तुमनतस्मरणावबोधो येन स्वयं श्रवणगोचरतां गतेन।
संजायते मुखरदौष्ठविघातशून्यो भूयाद् ध्वनिर्भवगदप्रसरातिहर्ता ॥ ८७७॥ तीन लोकमें वर्तमान बस्तुका मनन अर स्मरणको ज्ञान जाका स्मरणमात्र होय है अर दुष्ट आग्रहीपना अरु पाणिविघात इन शून्य ऐसा ध्वनि है सो संसाररूप रोगका फैलाव आतिका हरनेवारो होहु ॥८७७॥
भों ही दिव्यध्वनिपातिहार्यसंपन्नाय जिनायाघम् ।
ओं ह्रीं दिव्यध्वनिपातिहार्यसंपन्न जिनेंद्र अर्घ। यक्षेशपाणिलतिकांकुरसंगतानि तुर्याधिषष्टिगणनान्यपि देवनद्याः।
वीचिप्रमाणि भवतो द्विकपार्श्वयोस्ते सच्चामराण्यघचयं मम निर्दलंतु ॥ ८७८॥ ह भगवान् ! चौसठि यक्षनिका हाथरूप लतिकाके अंकुरमें संगत कहिये प्राप्त अर चौंसठि संख्यावारे मानू गंगाके तरंग समान ऐसे चमर जे हैं ते अापके दोन्यू पसवाडे मैं होते स्ते मेरा पापका संचयने दूरि करौ॥८७८॥
ओं ह्रीं चतुःषष्टिचामरमातिहायसंपन्नाय जिनायाघम् ।
ओं हीं चपर प्रातिहाय संपन्न जिनेंद्रकू अघ। सिंहासने छविरियं जिनदेवतायाः केषां मनोवधृतपाप्महरी न वा स्यात् ।
स्याद्वादसंस्कृतपदार्थगुणप्रकाशोऽस्या मेस्तु निर्हतमदाविलजातशक्तः ॥ ८७६ ॥ अरु सिंहासनमें तरीक्ष विराजमान जिनदेवताकी छवि है सो कौन प्राणीनिका मनगत पापकी हरनेवारी न होय अर यातें हन्या है पद आदिकी कलुषित मात्र कीश जाकी ऐसा मेरे स्यावाद जो अनेकोत ताकरि संस्कारप्राप्त जे पदार्थके गुण तिनिका प्रकाश होहु ॥८६॥
भों ही सिंहासनमातिहार्यसंपन्नाय जिनायार्घम् । औं ही सिंहासनप्रातिहायसंपन्न जिनेंद्रकू अर्घ।
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भामंडलेऽवयवपृष्टिविभागरश्मिक्लुप्त जनस्य भवसप्तकदर्शनेन ।
श्रद्धानमाप्तगुरुधर्मपरंपराणां गाढं भवेत्तदितदेवपतिनमस्यः ॥ ८८०॥ वहुरि भामंडलमें पीठका अवयव विभागके किरणानिकरि रचित ऐसामै भव्यप्राणीन सात भवनिका देखिवातें प्राप्त गुरु धर्म इनकी परंपराको श्रद्धान गाढो होय है तात तिस प्राप्त भया जो देवपति है सो पेरे नमस्कार करणे योग्य है ॥८८०॥
ओं ही भामंडलमातिहायसंपन्नाय जिनायार्यम् ।
ओं ही भामंडल प्राप्तिहाय संपन्न जिनेंद्रके अथिं नमस्कारपूर्वक अधे । देवस्य मोहविजयं परिशंसितुं द्राक् देवाः स्वहस्ततलतः परिवादयंति।
वाद्यानि मंगलनिवासकराणि सद्यो मिथ्यात्वमोहजयिनः शुभगानि च स्युः ॥८८१॥ बहुरि देव जे हैं ते देवकै मोहको विजय भयो इसकूशीघ्र प्रकाश करनेकू अपने हाथके तलते वादित्र बजावते भये ॥ १॥
ओं ह्रीं दुंदुभिमातिहार्यसंपन्नाय जिनायाघम् ।
ओं ह्रीं दुंदुभि प्रातिहार्य संपन्न जिनेंद्र अर्घ । छत्रत्रयं जिनपमूर्धनि भासमानं त्रैलोक्यराजपतितामभिदर्शयद वा।
सोमार्कवनिप्रतिमं सितपीतरक्तरत्नादिरंजितमिदं मम मंगलाय ।। ८८२ ॥ जिमराजका मस्तक ऊपरि प्रकाशमान उत्रत्रय तीन लोकका राज्यको पतिपणौ दिखावतो मानू चंद्र सूर्य अग्नि समान है प्रतिबिंब जाको चत पीत रक्त रत्बनिकरि रंजा हुआ है सो पेरे मंगलके वास्तै होहु ॥८॥
भों ह्रीं छात्रयपातिहार्यसंपन्नाय जिनायाम् ।
ओं ही छात्रयप्राप्तिहायसंयुक्त जिनेंद्रकूअर्घ। तालातपत्रचमरध्वजसुप्रतीक गारदर्पणघटाः प्रतिवीथिचारं ।
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सन्मंगलानि पुरतो विलसति यस्य पादारविंदयुगलं शिरसा वहामि ॥ ८८३ ॥ अर ताल कहिये वीजणो अर छत्र, चमर, ध्वजा, ठोणो, झारी, दर्पण, कलस येह मंगल वस्तु हैं ते समवसरणके गली गली प्रति अग्र भासमान जाके हैं ताका चरणारविदका युगल सिरकरि धारण करू हूँ॥३॥
ओं हीं अष्टमंगलद्रव्यसंपन्नाय जिनायाघम् ।
ओं ही मंगल द्रव्यसंपन्न जिनेद्रकू अघ। बुद्धीशामरनायिकार्यमहती ज्योतिष्कसव्यंतर
नागस्त्रीभवनेशकिंपुरुषसज्ज्योतिष्ककल्पामराः। मा वा पशवश्च यस्य हि सभा श्रादित्यसंख्या वृष
पीयूषं स्वमतानुरूपमखिलं खादंति तस्मै नमः ।। ८८४॥ अर मुनि अर आर्यिका कल्परासी देवांगना अर ज्योतिषी देवांगना अर व्यंतर देवांगना भवनवासी देवांगना ये सभा अर भवनवासी व्यंतर ज्योतिषी कल्पवासी देव ये सभा पर मनुष्य पशु या प्रकार बारा संख्यावाली धर्मरूप अमृतने अपना अपना अभिप्रायानुकूल समस्त आस्वाद करें हैं तिस पुरुषके अथि नमस्कार होह ॥८८४॥
ओं ह्रीं द्वादशसभासंपत्तिसंपन्नाय जिनायाघम् ।
ओं ह्रीं द्वादशसभासंपन्न जिनेंद्रा अर्घ। ज्ञानाभिन्नः सततचिदपावृत्त एषोऽस्ति जीवोs
नाद्यतः स्याच्छिवजगदितश्चक्रमायोगयोगात् । पर्यायानरसुरपशुश्वभ्रिभेदादिरर्थ
याथातथ्यैर्निजसुखचिदानंद एव ह्यसेत्सीत् ॥ ८८५ ॥
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भतिष्ठा
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अर येह जोत्रतत्व ज्ञानोपयोगत अभिन्न है, अर निरंतर चैतन्य स्वभावके आधीन है अर आदि अंतकरि रहित है अर चक्रम कहिये भव| परावर्तनका प्रयोग व योगत मुक्ति वा संसारी है अर पर्यायार्थिक नयकारे नर देव अर पशु नारको आदि भेदवाला है अर द्रव्यार्थिकका यथाथपणाकरि निजचिदानंदस्वरूप है सो हो सिद्धि प्राप्त होय है ॥ ५॥
ओं ही जीवतत्त्वस्वरूपनिरूपकाय जिनायाघम् ।
ओं ही जोवतत्वनिरूपक जिनेंद्र अघ। रूपी स्पर्शादिभिरपि गुणैः स्वैः प्रधानैर्निरुक्तः
स्कंधाणुभ्यामनणुविवृत्तिव्याप्तः पुद्गलः स्यात् । कर्माकर्मप्रकृतिनिगडैर्विश्वमापीड्य हेतु
बंधस्येति प्रभवति जिनं जल्पयंतं नमामि ॥ ८८६ ॥ अर अजीवतत्त्व पुद्गल रूपवान है अर स्पर्शादि ने प्रधान गुणकरि विवेचन क्प्राप्त भया है अर स्कंध अगुपणा अर्थात् समुदाय अर वित्ति कहिये गतावरण अणुरूप व्यापारने प्राप्त पुद्गल होय है सो यो पुद्गल कम नोकमको प्रकृतिरूप श्रृंखलानिकरि संसारगत प्राणोन लापीडितकरि बधको हेतु होय है ऐसा कहनेवारा जिनने नमस्कार करू हूँ॥८६॥
ओं ह्रीं पुद्गलतत्त्वखरूपप्ररूपकाय जिनायाघम् ।
ओं ही पुद्गलतत्त्वस्वरूपनिरूपक जिनेंद्रकू अर्थ। लोकस्थानां भवति गमने जीवसत्पुद्गलानां
हेतुर्धर्मः सहचरविधौदास्यमालप्रमेयः । लोकालोकस्थितिविभजनेऽग्रीण एवं धर्म (?)
.. स्वास्मानं संगदति जिनपः सो स्तु मे क्लेशहर्ता ॥८८७॥
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प्रतिष्ठा
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पर जो लोकस्थित जीव पुद्गलनिक गमनमें उदासीन कारण है अर लोककी स्थितिकी सीमा अग्रगण्य होय है ऐसा घपका खरूपने कहै है सो जिनराज लशको हर्ता हमारे होह ॥८८७॥
ओं ह्रीं धर्मतत्त्वस्वरूपनिरूपकाय जिनाया।
प्रों ह्रीं धमतत्त्वका निरूपक जिनेंद्रके अर्थि अर्घ। वैलक्षण्यं तत उपगतो जीवसत्पुद्गलानां
स्थाता धर्मः सहचरतयौदास्यमानेऽपि तेषाम् । एवं तस्य स्वभवनमसंदिह्यमानो जिनेंद्रो
___ मादृक्षाणां भवविधिहतिं संकरोत्वात्मनीनां ॥ ८८८॥ अर जात विलक्षण अर्थात् जोव पदगलनिकी स्थिति करनेवारो स्थानको हेतु सहचर उदासोन शील अधर्म है ऐसे ताका होनेमैं निसंदेह करतो जिनेंद्रदेव हम सारिखे पाणीनिकू आत्माके अथि हित ऐसी संसार वासनाकी हतिन भले प्रकार करौ॥ ८॥
ओं ह्रीं अधर्मपदार्थस्वरूपप्ररूपकजिनायाघम् ।
नों ही अधर्मतत्त्वस्वरूप निरूपणकर्ता जिनेंद्र अर्थ। जीवाजीवाद्युपधृतितयाऽऽधारभूतो ह्यनंतो
मध्ये तस्य त्रिभुवनमिदं लोकनाम्ना प्रसिद्धं । सर्वेषां स्यादवकशनदः शून्यमूर्तिर्महांश्चा
काशोऽयं तन्निजगुणगणं वक्ति तं पूजयामि ॥ ८८६ ॥ अर जीव अजीव आदि पदार्थनिकूधारणपणाकरि आधारभूत अनंत है अर ताके मध्य येह त्रिलोक लोकाकाश नामकरि प्रसिद्ध है अर सवकू अवकाश देनेवारो पर मूर्तिकरि रहित अर महान् आकाश है अर याका निज गुणने प्रभु कहै है ताने मैं पूज ह॥८॥
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ओं ही आकाशपदाथस्वरूपभरूपकजिनायाघम् ।
ओं ही आकाश पदाथ स्वरूपपरूपक जिनेंद्रकू अघ वस्तूभृतागुणपरिणमस्यानुभूतेश्च हेतुः
सत्तार्थानां यदुपगमनादेव जातिं विधत्ते । सोऽयं कालो व्यवहरणकार्यानुमेयः क्रियायाः
कर्तृत्वादित्यकथयदिनो मुक्तिलक्ष्मी ददातु ॥ ८६०॥ वस्तु जे पदार्थ तिनमें प्राप्त अगणित परिणमन अर अनुभूति जो वतैना ताका कारण अर सकल पदार्थनिकी सत्ता जाका अंगोकारत हो अपनी जातिने धारण कर है सो यो व्यवहार कालकरि कि घटी प्रहर आदि करि अनुमान करने योग्य काल क्रियाका कर्त्तापणात है ऐसा कहने वाला प्रभु मोकू मोक्षलक्ष्मी देवो ॥८६॥
ओं ही कालपदाथस्वरूपप्ररूपकजिनायाघम्।
प्रों ह्रीं कालपदार्थखरूपकथक जिनेंद्रकू अघ। कायस्वांतवचःक्रियापरिणतिर्योगः शुभो वाऽशुभ
स्तत्कर्मागमनायनं निजयुजो रागद्विषोरुद्भवात् । ईर्यामार्गभवौषधद्विविधया तत्संविधिं वेदयन्
जीयाच्छीपतिपूज्यपादकमलस्तीर्थंकरः पुण्यगीः ॥ ८६१ ॥ भर काय मन वचनको क्रियाकी परिणति सो योग है सो शुभ अर अशुभरूप दोय प्रकार है सो तिस रूप कमेका प्रागमन करनेवारा रागद्वेष अपना भावानुकूल प्रगट होनेसे होय है। अरु ईर्यापथिक भर सांपरायरूप है ताकी विधिकू वेदन करनेवारा अनेक लक्ष्मीका स्वापोनिकरि पूज्य है चरण कपल जाका ऐसा पवित्र वागायुक्त तीर्थकर जयवंते रहो॥८६॥
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ओं हो पाश्रवतत्वस्वरूपप्ररूपाजनायाघम् ।
भों हीं आस्रवतत्त्वका निरूपण करनेवारौ जिनेंद्र अर्ध। कषायावृतचेतसान्यविषयं स्वत्वं कृतं तद्विधे
__ोग्याः कर्मविभावशक्तिसहिता ये पुद्गलाश्चात्मना । संश्लिष्टा अवगाहनैक्यमटितास्तत्प्रक्रमो बंधभाक्
तं छित्वा निजशुद्धभावविरतिप्राप्तः स मे स्तात् गुरुः ॥ ८६२॥ __ अर कषायकरि संयुक्त चित्तवाला पुरुषने अन्य वस्तुमें अपना आपा किया अर तिस कमेके योग्य अर कर्मनिका विभाव परिणत शक्ति | देनेवारे पुद्गल स्कंध हैं ते प्रात्मपदेशमें संश्लेष करै हैं अर एकावगाहरूप एकताने प्राप्त भये तिनिका कमै है सो बंध नाम भननेवारौ होय है अर उस बंधका प्रकारकूछेदि अपना भावनिकी शुद्धिने प्राप्त भयो सो मेरा गुरु होहु ॥८॥
ओं ह्रीं बंधतत्त्वस्वरूपप्ररूपकजिनायाघम् ।
ओं ही बंधतत्त्वका निरूपण करनेवारे जिनेंद्रकू अघ। तद्रोधः खलु संवरो निगदिता द्रव्यार्थभेदाद् द्विधा
तद्धेतुर्वतगुप्तिधर्मसमितिप्रेक्ष्या चरित्रात्मता । मूलं निर्जरणस्य कर्मविततेत्नागमस्य स्वयं
तद्रूपं कथितं गणेश्वरपुरोभागे स प्राप्तो मम ॥ ८६३ ॥ अर ता बंधतत्वका निश्चयकरि रोकना सो संवर द्रव्य भाव भेदत दोय भेदरूप को है पर उस संवरको परप कारण व्रत गुप्ति धर्म पर समिति अनुरक्षाचिंतन चारित्र रूपता है सो हो क संतानका नवोन आगमनका निजराका मूल है अर गणरादिकके अग्र याको खरूप जाने को सो प्राप्त मेरे मान्य है ॥८६॥
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ओं ही संवरतत्त्वस्वरूपमरूपकजिनायाघम् ।
ओं ही संवरतत्त्वनिरूपण पर जिनेंद्र अघे। स्वोद्भूतानुभवात्तथा कृततपोवीर्येण तच्छातनाद्
__ द्वेधा निर्जरणं विसंयमियमिस्वाम्याश्रयेणास्ति यत् । तद्रूपं समवश्रियां गदितवान् भव्यात्मनां श्रेयसः
संप्राप्त्यै स जिनोऽस्तु मे दुरितसंत्रातस्य संच्छित्तये ॥ ८९४ ॥ अर आप कमका अवधिकरि परिपाक होनेते अथवा तपका प्रभावकी शक्तिकरि तिस कर्मको शातन कहिये क्षीणपनो होय ताते निर्जरा B दोय प्रकार है अर्थात सविपाक अर अविपाक भेदतै अर ताका संसारीपात्र तथा संयमी स्वामी है अर ताको स्वरूप समवसरणमें भव्यनिकू द| मोक्षकी प्राप्तिके अर्थि जो कह्यो सो जिन मेरा पापसमूहका छेदन वास्ते होउ ॥८६४॥
- ओं ही निर्जरास्वरूपपरूपक जिनायाघम् ।
ओं ह्रीं निर्जरास्वरूपनिरूपणसमर्थ जिनेंद्र अर्य। मोहस्यात्यंतनाशात् ज्ञपितिदृशिचिदाच्छादकाशेषलोपात् ।
। प्रत्यूहस्यापि मूलंकषविनशनादात्मशक्तेः प्रकाशात् । निःसापत्नं ज्वलंती परमशिवसुखास्वादसंवेद्यमाना
__ मुक्तिश्रीदिव्यतस्वं विति सकलजनादेयमुक्तं जिनेंद्रैः॥८६५ ॥ अर मोह कर्मका अत्यंत नाशतें अर ज्ञानावरण दर्शनावरणका समस्तपणाकरि लोपः अर अंतरायकमका मूलनाशर्ते आत्मशक्तिको | | प्रकाश भयो तात निःसपन्न स्वभावने जाज्वल्यमान करती अर परम मोक्षसुखका आस्वादकरि जानिवे योग्य ऐसी मुक्तिरूपो श्री हैं सो दिव्य॥ तत्त्व है ऐसा सकल ही मनुष्यनि ग्रहण करन योग्य श्री जिनेंद्रदेवने कह्यो है ॥८ ॥
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प्रतिष्ठा
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ओं ह्रीं मोक्षतत्त्वस्वरूपमिरूपकाय जिनायाम् । ___ओं ह्रीं मोक्षतत्त्वका निरूपण कर्ता जिनेंद्रकू अघ । देवोऽर्हन् सकलामयव्यपगतो दृष्टेष्टवाग्देशको
भव्यर्द्धगतरागदोषकलनो मोक्षार्थिभिः श्रेयसे । आश्रेयः परिसेवनीय उदितज्ञानप्रभौघः स्वयं
___ शास्ता सर्वहितः प्रमाणपटुभिध्येयो जिनः पातुः नः ॥ ८॥ प्रहत देव है सो ही देव है, समस्त पापरूप रोगरहित अर प्रत्यक्ष अनुपानादिकरि अबाधित उपदेशका दाता है अर रागद्वेषकी कलितारहित अर महाभाग भव्यनिकरि मोक्षके अभिलाषीनिकरि आत्मकल्याणके अर्थि पाश्रय करने योग्य है पर सेवनीय है अर प्रगट भयी ज्ञानकी प्रभाका धारी है पर स्वयं उपदेशक सर्व हितकारी है सो ही प्रमाण नातिधारी पुरुषनिकरि ध्यान करिवे योग्य ऐसा प्राप्त जिन हमारी रक्षा करौ॥६॥
ओं ही प्रात्मस्वरूपप्ररूपक जिनायाघम् ।
भों हीं प्राप्तस्वरूप निरूपक जिनेंद्रकू अर्धे । रागद्वेषकलंकपंककणिकाहीनो विसंवादको
निर्वाछो हितदेशनो व्रतगुणग्रामाग्रगण्यः प्रभुः । अस्माकं भवपद्धतावनुसरवाधादितानां महा.
नाराध्यः प्रियकारको गुरुरयं प्रोक्तो जिनेन त्वया ॥८९७॥ अर रागद्वेषरूप कलंकककी कणिकाकरि रहित अर विसंवाद नहीं करनेवारा अर वांछाकरि रहित अर हित उपदेशका दाता अर गुणनिका अर व्रतनिका समूहमैं अग्रगामी अर प्रभु अर संसारमागमें अनुसरण करनेवारे हमारेकू भवातापबाधा पेटिवेकू आराधन योग्यार है ऐसा हे जिनेन तेने प्रियकारक गुरु कया है।८६७॥
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भों हीं गुरुस्वरूपप्ररूपकजिनायाघम् ।
ओं ही गुरुस्वरूपनिरूपक जिनेंद्रकू अर्घ। यत्रामृलमनूनमन्यजडतापीडोत्कथाप्रच्युति.
यत्र श्रेयसि दीपिकेव सरणिः प्राकाश्यमास्कंदते । विश्वप्रोतमहातिमोहमदिरानिर्भत्सनं सद्गुणा
श्लेषावाप्तिरयं जिनवरैर्गीतो वृषोऽस्तु श्रिये ॥ ८९८॥ अर जहां निश्चयकरि मूलसे ही अन्य प्राणीमात्रको पोडाकी कुकथाका अभाव है अर जहां कल्याण मार्गमें दीपकके समान मार्ग प्रकाशमान होय है पर जहां संसार प्राप्त महान् आतिरूप मोहमदिराका ताडन है अर समीचीन गुणप्राप्ति है सो धम मोक्षकी लक्ष्मी अर्थि जिनेंद्रदेवने कबो है॥८६॥
ओं ह्रीं धर्मस्वरूपप्ररूपकजिनायाघम् ।
ओं ह्रीं धमस्वरूपनिरूपक जिनेंद्र अर्घ देना। शब्दावाच्यमवस्त्वनादिकृतसंकेतेन वस्तुग्रहः
केनापि ध्वनिना भवत्यथ स वै संजायते मातृकृत् । सोऽपेक्षासहितो ह्यनेकगुणतस्ता एव तस्मात् स्थितं
वस्तु स्यात्पदसंस्कृतं तदुदयन् स्याद्वाद एवार्हतः ॥ ८९६ ॥ अर शब्दकरि नहीं कहनेमें आवै सो अवस्तु है अर्थात् वस्तुमात्र है सो कोई शब्दकरि कहने प्रावै है अर शब्दकरि नहीं कथित होय, सो वस्तु ही नहीं अर ता वस्तुको अनादिकाल संकेत है ताकरि कोई शब्दकरि ग्रहण होय है सो ग्रहण प्रमाता ज्यो प्रयाण करनेवारा ताका
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पाठ
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किया होय है, क्यूकि वो प्रमाता अपेक्षा सहित है पर वे अपेक्षा अनेक गुणते उत्पन्न होती है ताते ऐसा स्थित भया कि वस्तु है सो अनेकांतरूप स्यात्पदकरि संस्कारने प्राप्त हवाकू प्रगटकर्ता स्याद्वाद ही अहंतका मत है॥८॥
ओं ह्रीं नमोऽहते भगवते स्याद्वादस्वरूपनिरूपकाय जिनायार्घम् ।
ओं ह्रीं स्याद्वादरूपका निरूपणकर्ता जिनेंद्रकू अर्घ । तीर्थेशां भरतेशिनां हलजुषां नारायणानां ततः
शत्रूणां त्रिपुरद्विषां च महतां सद्भाग्यसंशालिनां । पुण्यापुण्यचरित्रमत्र निहितं पूर्वानुयोगं विदन्
दृष्टांतप्रतिपत्तिदं जिनपतिः प्रारब्धवान् शासनं ।। ६००॥ बहुरि तीर्थंकराको अर चक्रवर्तीनको और वासुदेव बलभद्र प्रतिनारायणनिको अर रुद्र कामदेव आदि समीचीन भाग्यशाली पुण्यवान् महान् पुरुषोंको पुण्य पापको चारित्र जा विषै निरूपण कियो होय सो दृष्टांतमात्र कहनेवारो प्रथमानुयोग है अर जाननेवारो जिनेद्रदेव शासन रच्यो है॥६००॥
ओं हीं प्रथमानुयोगस्वरूपप्ररूपकाय जिनायाघम् ।
प्रों ही प्रथमानुयोगनिरूपक जिनेंद्रके अर्थि अधे। संस्थानायामसंख्यागणितमसुभृतां मार्गणास्थानतज
कर्मोदीर्णोदयादिप्रकथनमधिपो वर्णयामास सम्यक् । लोकालोकोक्तभेदे नरकसुरमनुष्यादिसंस्थित्युदंत.
वृत्ति त्वारख्यानमेतत्करणगमनुयोगं प्रकाश्य स्वयंभूः (?) ॥ ९.१ ॥ अर लोकका संस्थान चौडाई संख्याको गणना है अर प्राणीनिका मागेणा स्थान अर तातें उत्पन्न कर्मका उदय उदीण कथन जामें होय
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४ ताकू जिनेंद्र लोकालोक भेदमें नरक स्वगं मनुष्य आदिको स्थिति वृत्तांत प्रवृत्तिको आख्यान येह करणानुयोगने प्रकाशकरि स्वयंभू आप वर्णन करतौ भयो । ६०१॥
ओं ह्रीं करणानुयोगवेदप्रकाशकजिनायाघम् ।
ओं ह्रीं करणानुयोग स्वरूपनिरूपक जिनेंद्रकू अघ । शीलानां संयमानां व्रतसमितिचरित्रादिसाध्वहितानां
सागारार्थोक्तकर्मावधृतविरमणस्थूलधर्मक्रियाणां । तत्तत्स्थानोक्तवुद्धयं निजनिजहृदयोद्भूततत्त्वं निरूप्य
कर्तव्यत्वोपदेशो यदवधिचरणाख्यानमुक्तं जिनेन ॥ ९०२ ॥ अर शीलसप्तक अर संयम अर व्रत समिति चारित्र आदि साधु पुरुषनिकरि अहित कहिये पूजित आचारनिको अरु श्रावकके अर्थयुक्त जे कर्म तिनिकरि निश्चत है विरागभाव जिनमें ऐसी स्थूल धर्म आचरणक्रियाको तहां तहां स्थानमें उक्त अर बुद्ध जमैं होय तैसें अपना अपना अभिप्रायको रहस्यने प्रगटकरि कर्तव्यताको उपदेश जिसमें होय सो चरणानुयोगवेद जिनेंद्रने कबो है ॥६०२॥
ओं ह्रीं चरणानुयोगवेदप्रकाशकजिनायाघम् ।
ओं ही चरणानुयोग स्वरूपका निरूपणतत्पर जितेंद्र अर्य। षद्रव्यवत्वरूपाण्यथ नयघटता तत्प्रमाणखरूपं
नामस्थापादिकृत्यं तदधिकरणभिसूतत्वं संस्थापनादि । मेयामेयव्यवस्था यदवधिसमिता यत्र षड्भंगवाणी
द्रव्याख्यानं निरूप्य प्रथममभिहितं मोक्षमार्ग जिनेन ॥ ९०३॥ अर षट् द्रव्यका निजस्वरूपको अथवा नयनिकी घटना अर प्रमाणकास्वरूप नाम स्थापनादि कार्य सत्संख्याधिकरण भेदरूपतत्त्वको स्थाप
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प्रतिष्ठा
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नादिको तथा प्रमाणकी व्यवस्था जहां अवधि पाप्त ऐसी सभंगवाणी है सो द्रव्यानुयोग व्याख्यान निरूपणकरि प्रथम मोनमार्ग जिनने अभिधान कियो है।
ह्रीं द्रव्यानुयोगवेदस्वरूपप्रकाशकाय जिनायाघम् । नों ह्रीं द्रव्यानुयोग निरूपण समर्थ जिनेंद्र अर्ध । श्रीमंस्त्वद्भक्तिभारप्रविनतशिरसः केचिदिच्छंति मुक्तिं
ते सद्यः साधुदीक्षाप्रणयनपटवस्त्वत्प्रसादावलंबात् । केचिच्छंति धर्मं गृहपतिनिरुतं रुद्रमार्गावरूढं
स्वामिन् हस्तावलं कुरु शरणागतान् रक्ष रक्षेशनाथ ॥ ६०४ ॥
अर हे श्री भगवान् ! तेरी भक्तिका भारकरि नमायो है शिर जिनने ऐसे कितनेक भव्य मुक्तिको इच्छा करें हैं ते भव्य तत्काल ही तेरे उपदेशका आलंबन मुनिदोक्षाका साधनमें प्रवीण होय हैं । श्रर कितनेक भव्य गृहस्थ में युक्त अर ग्यारा प्रतिमामें आरूढ ऐसा धर्मने बांछे है । तात हे स्वामिन् तुम ही संसारमें डूबते प्राणीनिकू हस्तका अवलंबन देउ र शरण प्राप्त भये हें तिनकू हे ईश ! हे नाथ! रक्षा करहु रक्षा करहु ।। ६०४ ॥
ह्रीं मुनिश्रावकधर्मोपदेशकजिनायार्घम् ।
ह्रीं मुनिश्राव रूप द्विविधधर्मरूपक जिनेंद्रके अर्थ अ एवमिंद्रः समागत्य स्तुतिमालाचितक्रमं । fear विहारार्थं प्रस्तावमकरोत्सुधीः ॥ ९०५ ॥
अथ सुबुद्धि इंद्र महाराजा ऐसें आगमनकरि अनेक स्तुतिनिको माला करि पूजित है चरणारविंद जाका ऐसा श्रीभगवानने नमस्कारकरि विहारक्रियाकी प्रस्तावनाने करतौ भयौ ॥ २०५ ॥
ततः जिने द्रवित्र किंचित्प्रचाल्य विहारक्रम उद्देश्यः ।
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ऐसें समवसरण पूजाका निष्ठापन करें।
इत्युक्त्वा पुष्पांजलि समुत्क्षेप्य समवशरणस्याभितो वस्त्रयवनिकां दत्त्वा पूजां समापयेत् ।
ऐस कहि समवसरणके चौतर्फा पुष्पांजलि देपि वस्त्रकी पडदाने देकरि समवसरणको समाप्ति कर । तत्र जिनेंद्रका विचनै किंचित् प्रचालि विहारक्रम दिखाना ।
इच्छाविरहितस्यापि भव्य पुण्योदयेरितः ।
विहारमकरोद्देशानार्यान् धर्मोपदेशयन् ॥ ९०६ ॥
अर सो इंद्र इच्छारहित भी श्रहतके भव्यपुण्यानुसारि बिहार देश देश प्रतिकरि आयें जे भव्य है तिनिने धर्मको उपदेश करावतो भयो ॥ २०६ ॥
सो ही कहैं हैं
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तथाहि
काश्यां काश्मीरदेशे कुरुषु च मगधे कौशले कामरूपे
कच्छे काले कलिंगे जनपदमहिते जांगलांते कुरादौ । किष्किधे मल्लदेशे सुकृतिजनमनस्तोपदे धर्मवृष्टि
कुर्वन् शास्ता जिनेंद्रो विहरति नियतं तं यजेऽहं त्रिकालं ॥ ९०७ ॥
काशी देशमें, काश्मीर देशमें, कुरु देशमें, अर मगधमें, तथा कोशलमें, कामरूप देशमें, कच्छ देशमें, कालदेशमें, कलिंगदेशमें, अर नगर नि करि पूजित कुरुजांगल देशमें, तथा किष्किंध में थर पुण्यवान पुरुषनिका मनहूं तोष देनेवारा मलय देश में वह शास्ता शिक्षा करनेवारो धर्मकरतो विहार करे हैं ताकू निश्चय मैं त्रिकाल पूजू हूं ॥ २०७ ॥ पांचाले केरले वामृतपदमिहिरोमंद्रचेदीदशार्ण
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वंगांगांधोलिकोशीन र मलयविदर्भेषु गौडे सुस । शीतांशुरश्मिजालादमृतमित्र समां धर्मपीयूषधारां
सिंचन योगाभिरामा परिणमयति च स्वांतशुद्धिं जनानां ॥ १०८ ॥
तथा पंचाल देशमें, केरल देशमें, मोक्षरूपमार्गमें सूर्य समान जिनेंद्र है सो मंद्र देश, चेदि देश, दशार्ण देश, वंग देश, अंग देश, अंध्रदेश, उलिक देश, उसीनर देश, मलय देश, विदर्भ देश में तथा गौड देश, सब देशमें चंद्रमा अपने किरण समूहतें अमृत जैसे समान धर्म रूप अमृतधाराने सींचतो अर मनुष्य निकी योग जो चिंता निरोध ताकरि सुंदर अपना हृदय शुद्धिने परिणमावे है ॥ ६०८ ॥
पुंनाटचौल विषयेऽपि च मौंद्रदेशे सौराष्ट्रमध्यमकलिंदकिरातकादौ ।
सुयोग्ये सुदेश हिते सुविहृत्य धर्मचक्रेण मोहविजयं कृतवान् जनानां ॥ ६०९ ॥
अर पु'नाट चौल देशमें तथा मोंडू देशमें सौराष्ट्र में मध्यदेशमें कलिंग देश किरात देशमें ऐसे योग्य देश पूजितमें विहारकरि धर्मचक्रकरि मनुष्यनिका मोहका विजयने करतो भयो । २०६ ॥
ह्रीं नमो भगवते विहारावस्थामाप्तायदेशे धर्मोपदेशेनोद्ध जिनायाघम् ।
तदेव नमस्कार होहु । भगवान विहारावस्था प्राप्तके अर्थि र धर्मका उपदेशकरि उद्धार करते जिनेंद्र के अर्थ अर्घ देना ।
शुभेह्नि पुनरन्यत्र स्थापयेत्प्रतिमां विभोः ।
इमं योगनिरोधस्य प्रक्रमं स्थापयेच्छुभं ॥ ६१० ॥
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ऐ शुभ दिन भगवानकी प्रतिमाकू मंडलमेंसे उठाय और जगै स्थापन करना । यो ही योगनिरोधका क्रमनें शुभ जैसे होय तेस स्थापन करे ॥ ६१० ॥
ह्रीं शुक्र ध्यानविरताय जिनाय पूर्णाम् । द्वितीयशुक्रुध्याननिरत जिनेंद्र के अर्थ पूर्णाधं देना
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प्रतिष्ठा
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PUCCECAAIDIOSAUGARCISHEROINDIA
तता महार्पण सुवाह्यघोषपुरस्सरेण विकलोकभर्तुः ।
महामहं कुर्युरनर्घ्यपालार्पितेन शांति प्रपठेयुरिष्टाम् ॥ ११॥ तदन्तर सुंदर वादित्रका शब्द पुरस्सर सुवर्णादि पात्रमें स्थापित महामह अर्घ करि त्रिलोकनाथका परम उत्सव करै अर शांति पाठ पढे, ४ इष्टसिद्धि कर॥११॥
ओं हीं सकलयज्ञाधिकृतजिनदेवगुरुश्रुतादिसकलदेवताभ्योऽप॑म् । ___अत्र प्रतिष्ठासमाप्तौ प्राचार्यवासवयजमानैः कायोत्सगंपूर्वकं भक्तिपाठाः विधेयाः। निर्वाणभक्तिरेव निर्वाणकल्याणारोपणं । साक्षातु
न विधेयं स्मरणीयमेवेति दिक। ल! ओं हीं सकलयज्ञमें आहूत जिनमुनि श्रुत आदि सकल देवताके अर्थि अघ।
अब इहां प्रतिष्ठा विधिकी समाप्तिमै प्राचार्य, इंद्र, यजमान येह तीन्यू कायोत्सर्ग पूर्वक पूर्वोक्त भक्तिपाठ करने योग्य हैं। अर पंचकल्याणमें च्यारि कल्याण तो विधानसंयुक्त किया अर पंचमकल्याण मोक्षकल्याण है सो निर्वाण भक्तिपाठमात्र ही आरोपण करना, | साक्षात विधान नहीं करना, स्मरणमात्र ही है, ऐसा अनिर्वाच्य समझि लेना।
नित्यपूजाविधानार्थं स्थापयेन्मंदिरे नवे । पुराणे वा तत्र भांडागारे संस्थापयेद् धनं ॥ १२ ॥ ग्रामहट्टक्रयेणैव निर्दोषेण विधीयताम् । पूजाकृत्यं सेवकादिपालनं साधुतर्पणं ॥ ६१३ ॥ रथयात्रां पुराकृत्वाऽभिषेकमहनीयतां ।
संपाद्य संघसद्भक्तिं कुर्वीत याजकोत्तमः ॥ ६१४ ॥ अर रथयात्रा पहलीकरि अभिषेकको उत्सव संपादनकरि संघकी वैयावृत्ति यजमान करै॥१४॥
जिनांह्रिस्पर्शसत्पूतामाशिषं परिगृह्य च ।
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पाठ
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CONSCka%CRECRUCRECEMS
आचार्य पूजयेद् भक्त्या यथायोग्योपचारतः ॥ ६१५ ॥ पीछे जिनेंद्रका चरण स्पर्शत पवित्र पुष्पाशिषमालाने ग्रहण करै अर आचार्य ने भक्तिसेती पूजै यथायोग्य उपचारसैं॥१५॥
सर्वे येऽपि समाहूता जिनयज्ञमहोत्सवे ।
तान्सर्वान् संविसृज्येत भक्तिनम्रशिराः पुनः ॥ ९१६ ॥ अर सर्वजन श्रीयज्ञविधानमें आहूत हैं तिनकू विसर्जन करै अर भक्तिकरि अपना मस्तककूनपावै ॥१६॥
स्वस्ति स्ताज्जिनशासनाय महतां पुण्यात्मनां पंक्तये
राज्ञे स्वस्ति चतुर्विधाय वृहते संघाय यज्ञाय च । सधर्माय सधर्मिणेऽस्तु सुकृतांभोवृष्टिरस्तु क्षणं
____ माभूयादशुभेक्षण शुभयुजां भूयात्पुनदर्शनं ।। ९१७ ॥ येह जिनेंद्र मत है याके अर्थि कल्याण होहु पर महान् पुण्याधिकारी जनकी पंक्तिके अथि कल्याण होह, अर देशका प्रतिपालक राजाके । अथि कल्याण होहु अर च्यारि प्रकार मुनि अजिंका श्रावक श्राविकारूप संघके वास्ते कल्याण होहु अर यज्ञके अर्थि अर समोचीन धर्मके है। अर्थि अर साधर्मी जनोंके अर्थि कल्याण होहु अर पुण्यरूप मेघकी दृष्टि होहु अर क्षणमात्र भी अशुभ पदार्थोंका दर्शन मति होहु, शुभका योग|| को पुनः कहिये वारंवार दर्शन होहु ॥ ११७॥
शास्त्रान्नभैषजमभीतिरिति प्रदानं पात्राय सद्बषयुजे नितरां ममास्तु।
यस्मिन् क्षणे भवति तत्पुनरतदेव सार्थं स्मरामि न पुनस्तदयोगजातं ।। ९.८॥ अर प्रतिष्ठा करावनेवारा च्यारि प्रकार दान भी निश्चित करें है सो येह है-शास्त्र दान, अन्न दान, औषध दान, अभय दान । येह हा च्यारि प्रकार मुख्य दान है सो समीचीन धर्मका धारी पात्रके अर्थि नित्य मेरे होहु । अर जा क्षणमें येह दान होय तिस ही क्षणमें यह समूह॥ नै मै स्मरण करू हूँ बहुरि इनिका प्रयोग कहिये नहीं होना मात्र नहीं स्मरण करू हूँ॥१८॥
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प्रतिष्ठा ३०७
CASHRES
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सिद्धप्रतिष्ठा यदि तत्र योगसंरोधनं पूज्यचतुर्घनानि ।
कर्माणि संयोज्य चतुःप्रदीपानुत्तारयेत्तत्र शिवोर्ध्वगंतृन् ॥ ९॥६॥ अर जब सिद्धविच प्रतिष्ठा करनी होय तहां योग निरोधताई पूजाकरि चतुःप्रकार घन घातिकम वेदनीय गोत्र नाम आयु इनका संयोगकरि उतारै अर शिव कहिये मोक्षमें ऊर्ध्वगमन करनेवारे करै अर्थात समानकाल निर्वाण करै ॥१६॥
पंचलघूच्चारणमात्रमयोगपंथानमाशु विनियुंज्यात् ।
तकसमय एव सिद्धत्वं प्राप्य तत्र भासति ॥ २०॥ | अरु पीछे पंच लघु अक्षरका उच्चारणमात्रकाल अयोगमार्गनै नियोगरूपकरि एक समयमें ही सिद्धपणाने प्राप्त होय तहां भासमान होय है॥२०॥
तत्राष्टगुणानां पूजा कार्या सम्यक्त्वमुख्यसुविधीनां ।
अन्यो विधिविधेयस्तावानेवात्र गुरुकुलाद् बुद्ध्या ।। ६२१॥ तहां आठ गुण जो सम्पत्तणाणादि विधिकी पूजा करै, अन्यविधि गुरुत उपदिष्ट होय सो करै ॥२१॥
पूजाकर्मविधूननाय मदवेदेंदुप्रकृत्यस्तकृद्
__ यंत्रे मंडलमालिखेद वसुदलान्वीते पृथक् शासनं । संयोज्यामरनायकान् शिवपदप्राप्तान् यजेत्तद्गुणा
नेवं युक्तिविशारदेन पटुना कार्यो विधि यशः ॥ ९२२॥ __अर अष्ट कर्मनिका छेदन अर्थि एक सौ अडचालीस कर्म प्रकृतिका अस्त करनेवारे यंत्र मंडलमें अष्टकोष्टकयुक्तमें शासन कहिये स्याद्वादवाणीने संयोजनकरिअर सिद्ध परमेष्ठीने यजन करै अर शिवमें प्राप्त जो अनंतगुण तिनमें मुख्य गुणनिने पूजै ऐसे युक्तिमें चतुर प्रवीण |आचार्यने बहु प्रकार विधि करना योग्य है ॥६२२॥
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प्रतिष्ठा
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अथ प्रशस्तिः । कुंदकुंदाग्रशिष्येण जयसेनेन निर्मितः।
पाठोऽयं सुधियां सम्यक् कर्तव्यायास्तु योगतः ॥ ६२३ ॥ पर प्राचार्य गुरुपरिपाटी कहे हैं-कि मैं कुंद कुद नाम महान् मुनिवरका पट्टधारी शिष्य जयसेन नामकने रचा ऐसा येह पाठ सम्य|| बुद्धिधारीनिके योगसें करने योग्य है ॥२३॥
श्रीदक्षिणे कुंकुणनाम्नि देशे सह्याद्रिणा संगतसीम्नि पते ।
श्रीरत्नभूध्रोपरिदीर्घचैत्यं लालाहराज्ञा विधिनोर्जितं यत् ॥ ९२४ ॥ श्रीमान् दक्षिण दिशामें कुंकुण नाम देशमें सह्याचलकरि समोप सीमावारा पवित्र श्रीरत्रगिरि ऊपरि जिनेंद्र चंद्रप्रभका बड़ा उन्नत 5 चैयालय लाला नाम राजाका बणाया हुआ है ॥२४॥
___ तत्कार्यमुद्दिश्य गुरोरनुज्ञामादाय कोलापुरवासिहर्षात् ।
दिनद्वये संलिखितः प्रतिज्ञापूर्त्यर्थमेवं श्रुतसंविधत्ति ॥ ९२५॥ अर वहां प्रतिष्ठा होनेका उद्देशकरि गुरु जो कुंदकुद स्वामी तिनिको आज्ञा पाय कोल्हापुर नगरमें रहनेवाले राजाका हषते प्रतिज्ञा परिपूर्ति निमित्त इस शास्त्रका रचनेका विधान है ॥२५॥
वसुविंदुरिति प्राहुस्तदादि गुरवो यतः।
जयसेनापराख्यामां तन्नमोऽस्तु हितर्षिणां ॥ ९२६ ॥ उस दिनसे गुरुजन मोकू 'वसुविंदु' अर्थात् वसु जो अष्टकर्म तिनकू विंदु देनेबारा कि छेदन करनेवारा नामयुक्त किया । जयसेन प्राचीन नाम है, यामै हितके वांछक पुरुषनके भ्रम मत होहु ॥२६॥
इति श्रीमत्कुदकुंदपट्टोदयभूधरदिवामणि श्रीजयसेनाचार्यविरचितः प्रतिष्ठासारः संपूर्तिमपीफणत । ऐं ही स्याद्वादनायकाय नमः।
इति श्री कुंदकुद भाचार्यका पट्टरूप उदयाचल पर सूर्य समान वसुविंदु नाम आचार्यकृत प्रतिष्ठापाठकी वनिका संपूर्ण भई ॥ सर्व४|| संघके अथि मंगल होहु।
॥ समाप्त॥
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________________ श्रीमद्-जयसेनाचार्यविरचित . प्रतिष्ठापाठ सटीक समाप्त For Private &Personal use Only