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________________ अतिष्ठा २०७ SAMEERNMEACOCCASION% कृष्णे पीते हरिदरुणयोरर्जुने पौद्गलेक्ष्णो ापारोऽसन्निति परिणतः पूज्यतेऽसौ मयान ॥ ६४२॥ अरु जो नेत्र-इंद्रियकरि देखनेमैं आवै तिनि विषयनिमै आत्मा तोन जगतका परावर्तनरूप चंक्रमणतं जन्म ग्रहण किया तात काला पोला हऱ्या लाल सफेद पुद्गलमें नेत्रनिको विकार करना असत् है असा परिणयाननै प्राप्त हवो मुनोंद्र मैं करि पूजिये है॥४२॥ ों ही चतुरिद्रियविकारविरतसाधुपरपेष्ठिभ्योऽघम् । एकः स्तोत्रं रचयितु मुदा गद्यपद्यानवद्यै क्यैरन्यः श्वपच जननी तेऽद्य भार्या ममेति । श्रुत्वा शब्दं श्रवसि जडतामेत्य तोषं न कोपं धत्ते शक्तोऽप्यमरमहितस्तस्य पूजां विदध्मः ।। ६४३ ॥ एक प्राणी तो हर्ष करि अनवद्य गद्यनिके वाक्यनिकरि स्तोत्र रचै है, अरु अन्य दुष्ट कहै है कि चांडाल ! तेरो माता मेरो खो है असा | शब्दनै सुणि करि करणेमें जडपडानै प्राप्त होय ताप वा रोषक् सपथ होय भो नहाँ धारण कर सो देवनिकरि पूज्य है, ताकी हम पूजा कर SARKHERASEX - - भों ह्रीं श्रोत्रंद्रियविकारविरतसाधुपरमेष्ठिभ्योऽधैम् । साम्यं यस्य स्फुरति हृदये निळलीकं कदाचि दायातेऽपि ध्रुवमशुभसमयावद्धपाकावतारे (?) घोरापीडासदसि वपुंषि स्पृड्मृति संदधानो _ 'बाहुभ्यामंबुधिमिव तरत्येष साधुर्मयार्थ्यः ॥ ६४५॥ जाका हृदयमैं निःकपट साम्यभाव स्फुरायमान है, अरु निश्चय अशुभ समयावद कर्मनिका उदयका आमपनते आवता भी कदाचित २०७ CA Jain Educatio n al For Private & Personal Use Only relibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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