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________________ भतिष्ठा GIRLSECREDIC-% BRUAMA ओं ही स्पशेंद्रियविकारविरतसाधुपरमेष्टिभ्योऽर्घम् । मिष्टस्तिक्तो लवणकटकामम्ल एवं रसज्ञा . गाही प्रोक्तो रसनविषयस्तत्र रागकुधोर्वा । त्यागात्सर्वप्रकृतिनियतेः पुद्गलस्य स्वभावं संजानंतो मुनिपरिवृढाः पातु मार्चितास्ते ॥ ६४.॥ अरु मीठो तीखो लवण कडवो खट्टो रसना इंद्रियको विषय है तहां रागद्वेषका त्यागते अरु सर्ववस्तुको प्रकृतिका नियमवाला पुद्गलका स्वभावनै जानता मुनींद्र है ते मेरी रक्षा करो॥ ६४०॥ ओं ही रसनेंद्रियविकारविरतसाधुपरयेष्ठिभ्योऽर्घम् । वातद्वेषस्तुहिनविकृतेरुष्णताद्वेष ऊष्म्य. व्याप्तांगस्य प्रकृतिनियमात् सुप्रसिद्धोऽप्रतर्व्यः । साम्यस्वामी ह्यशुभसुभगद्वैधगंधौ विजानन् वस्तुगाहं भजति समतां तं यतींद्रं यजेऽहं ॥ ६४१॥ अरु शीत प्रकृतिवालाके वातसे द्वेष है, अरु उष्ण प्रकृतिवालाके उष्णतासे द्वेष है, यो नियम सर्वत्र नाहीं तर्कन मैं आवै ऐसौ प्रसिद्ध ही है अरु साम्यस्वभावका स्वामो अशुभ गध अरु शुभ गंध दोऊ वस्तुमात्रमैं जान है तात सपताने ग्रहण कर है अरू ऐसे ते मुनीदने मैं पूजू हूं ॥६४१॥ ओं ह्रीं घ्राणेंद्रियविकारविरतसाधुपरमेष्टिभ्योऽयम् । यद्यदृश्यं नयनविषये तेषु तेष्वात्मना वै जन्मागाहि त्रिजगदभितश्चक्रमावर्तपातात् । RECENSHODHARCHEECRECECRUCHAR SHAKAKASH Jain Education For Private & Personal Use Only Vinalibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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